Sunday, June 29, 2008

कांग्रेस की मुसीबत और मनमोहन


सत्येंद्र रंजन
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह एक ईमानदार व्यक्ति हैं, इस पर देश में संभवतः किसी को संदेह नहीं है। सर्वोच्च पदों पर रहते हुए भी उन्होंने अपनी बेदाग छवि सलामत रखी है। २००५ में जब पाकिस्तान की क्रिकेट टीम वन डे मैच खेलने दिल्ली आई और अखबारों में ये खबरें छपीं कि प्रधानमंत्री के परिवार के बच्चों ने आम दर्शकों की तरह टिकट लेने की जद्दोजहद की तो इससे पद और सत्ता के दुरुपयोग की आम शिकायत वाले इस देश में लोग बेहद प्रभावित हुए। वित्त मंत्री पद से हटने और प्रधानमंत्री बनने की बीच की अवधि के करीब नौ साल में जिस तरह एक साधारण इंसान की तरह लोगों ने दिल्ली के कुछ बाज़ारों में उन्हें आते-जाते देखा, उससे भी उनकी एक अलग किस्म की छवि बनी।

दरअसल, यही वह छवि है जिसकी वजह से मई २००४ के तेज रफ्तार और नाटकीय घटनाक्रम के बीच मनमोहन सिंह का नाम स्वाभाविक तौर पर प्रधानमंत्री के रूप में उभरा। तब नए बने संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के लिए वे एक थाती के रूप में नज़र आए। १९९१-९६ के दौर में बतौर वित्त मंत्री मनमोहन सिंह की नीतियों से असहमत रहे वामपंथी दलों को भी शायद इसी छवि की वजह से बतौर प्रधानमंत्री उन्हें स्वीकार करने में कोई दिक्कत महसूस नहीं हुई।

बहरहाल, पिछले चार साल का अनुभव अपने में एक खास राजनीतिक संदेश समेटे हुए है। संदेश यह है कि व्यक्ति चाहे कितना ही भला हो और उसका इरादा कितना ही नेक हो, अगर उसकी राजनीतिक बुद्धि ठोस जमीनी हकीकत से कटी हुई है, तो लोकतांत्रिक संदर्भ में वह थाती के बजाय एक बोझ ज्यादा साबित हो सकता है। आज जब अमेरिका से असैनिक परमाणु सहयोग के करार को लेकर सियासी माहौल गर्म है, यह संदेश कांग्रेस पार्टी के लिए खास अहमियत रखता है। कांग्रेस पार्टी इस समय इस उधेड़बुन में है कि वह उस व्यापक राजनीतिक समीकरण को साथ लेकर चले, जिसे चार साल पहले तैयार करने में खुद उसकी एक बड़ी भूमिका थी, या परमाणु करार पर इस समीकरण को कुर्बान कर दे?

मनमोहन सिंह मानते हैं कि यह करार देश के हित में है और इसे अंजाम देने के लिए वामपंथी दलों का समर्थन गंवाने की कीमत चुकाई जा सकती है। तीन साल पहले मनमोहन सिंह ने अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश के साथ ये करार किया था, और तब से यह उनके लिए निजी प्रतिष्ठा का विषय रहा है। अब जबकि अमेरिकी राजनीति की परिस्थितियों की वजह से करार की प्रक्रियाएं पूरी करने की समयसीमा करीब है, मनमोहन सिंह कोई भी दांव खेलने को तैयार बताए जाते हैं। इसमें एक दांव यह है कि वामपंथी दलों को समर्थन वापस लेने दिया जाए और समय से पहले चुनाव मैदान में उतरना पड़े तो ये जोखिम उठाया जाए।

यह एक ऐसा दांव है, जिसे मनमोहन सिंह खेलने की स्थिति में हैं। लेकिन क्या कांग्रेस पार्टी और उसकी नेता सोनिया गांधी भी इसके लिए तैयार हैं? इस सवाल का संबंध सिर्फ इस पार्टी की सत्ता से नहीं है, बल्कि इसके साथ इस देश का भी काफी कुछ जुड़ा हुआ है। २००४ में सोनिया गांधी की पहल से धर्मनिरपेक्ष दलों का गठबंधन बना तो उससे राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के सांप्रदायिक फासवादी शासन के खिलाफ देश में तैयार हुई धर्मनिरपेक्ष आम सहमति को राजनीतिक अभिव्यक्ति का माध्यम मिल सका। धर्मनिरपेक्ष एकजुटता का ही यह परिणाम रहा कि भाजपा नेतृत्व वाली सरकार को चुनाव में परास्त किया जा सका। सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री पद का परित्याग कर बड़े उद्देश्य के लिए निजी महत्त्वाकांक्षाएं छोड़ने की एक अनोखी मिसाल पेश की। इससे देश की धर्मनिरपेक्ष बुनियाद की फिर से तलाश का अवसर सामने आया। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के साझा न्यूनतम कार्यक्रम को तब इसी तलाश का एक राजनीतिक दस्तावेज माना गया।

क्या कांग्रेस और सोनिया गांधी अब यह मानते हैं कि इस तलाश की अब जरूरत नहीं है? या वे यह मानने लगे हैं कि बिना सभी धर्मनिरपेक्ष ताकतों की एकता के वे अकेले यह तलाश पूरी कर सकने की स्थिति में हैं? आखिर उनके अपने वर्तमान और भविष्य का भी काफी कुछ इस सवाल के साथ दांव पर है? उनके साथ मनमोहन सिंह की तरह यह सुविधा नहीं है कि बिना जीवन में कोई प्रत्यक्ष चुनाव जीते वे सत्ता की ऊंचाई तक पहुंच जाएं या फिर वहां बने रहें। कांग्रेस के बाकी नेताओं के साथ यह सुविधा भी नहीं है कि अर्थशास्त्री रहते हुए वे अचानक एक खास परिस्थिति में देश का वित्त मंत्री बन जाएं और एक वैसी ही परिस्थिति में प्रधानमंत्री का पद खुद उनकी गोद में आ गिरे।

यह बात किसी सामान्य राजनीतिक बुद्धि वाले व्यक्ति को भी समझ में आती है कि देश की मौजूदा परिस्थितियों के बीच अभी आने वाले कई चुनावों तक कांग्रेस पार्टी अपना अकेला बहुमत पाने की नहीं सोच सकती। उसके सहयोगी दल भी इतने और इस हालत में नहीं हैं कि उनके साथ सत्ता में आने का समीकरण बनता हो। यह समीकरण वामपंथी दलों के साथ ही पूरा होता है, जिनकी एक विचारधारा से जुड़ी आपत्ति की अनदेखी करने पर प्रधानमंत्री अड़े हुए हैं। इसी से जुड़ा एक बेहद महत्त्वपूर्ण सवाल है कि क्या मनमोहन सिंह की ही तरह सोनिया गांधी और कांग्रेस के दूसरे नेता भी २००४ के जनादेश का स्वरूप समझने में नाकाम हैं? यह जनादेश कांग्रेस पार्टी या सोनिया गांधी के लिए नहीं था। यह जनादेश भाजपा विरोधी गठबंधन के लिए था, जिसमें वामपंथी दल भी एक अहम घटक थे। क्या यह साधारण बात भी कहे जाने की जरूरत है कि वामपंथी दलों को अलग करने के साथ ही उस जनादेश का स्वरूप खंडित हो जाता है और उसके बाद मनमोहन सिंह, कांग्रेस या संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन को सत्ता में बने रहने का कोई वैध और नैतिक अधिकार नहीं रह जाएगा?

इसलिए इस मौके पर सबसे महत्त्वपूर्ण मुद्दा यह नहीं है कि परमाणु करार हो या नहीं अथवा यह करार देश हित में है या नहीं। इस समय सबसे महत्त्वपूर्ण मुद्दा यह है कि जब देश में इस करार पर आम सहमति नहीं है, संसद का बहुमत इसके खिलाफ है, इसके बावजूद इस करार को पूरा करने की जिद क्या लोकतांत्रिक है? मनमोहन सिंह की अपनी समझ में यह करार देश के लिए बेहद जरूरी हो सकता है, और यह समझ रखने के उनके लोकतांत्रिक अधिकार का सम्मान भी किया जा सकता है। लेकिन ऐसी ही समझ रखने का अधिकार देश के हर शख्स और हर राजनीतिक जमात को है। लोकतंत्र में ऐसे मतभेदों के बीच हमेशा ही संख्या फैसले का पैमाना होती है और यह जाहिर है कि संख्या प्रधानमंत्री के साथ नहीं, बल्कि उनके खिलाफ है।
इसके बावजूद अगर मनमोहन सिंह इस करार को अमली रूप देने पर अड़े हुए है तो बड़े दुख के साथ यही कहा जा सकता है कि लोकतंत्र के एक बेहद बुनियादी सिद्धांत के लिए उनके मन में सम्मान नहीं है और ऐसे में वे एक लोकतांत्रिक देश का नेतृत्व करने का नैतिक अधिकार नहीं रखते हैं। ऐसे में यह जिम्मेदारी कांग्रेस पार्टी पर है कि वह या तो संसद में अपने नेता को पार्टी के अनुशासन में ले आए या फिर नया नेता चुनने पर विचार करे। इसके विपरीत अगर कांग्रेस पार्टी खुद इस जिद के रास्ते पर चल पड़ती है तो एक बार फिर बड़े दुख के साथ यही कहना होगा कि इस पार्टी में १९८० के दशक में हावी हुई आत्मघाती प्रवृत्तियां आज भी जारी हैं।

उन प्रवृत्तियों ने देश पर लगभग एकछत्र राज करने वाली पार्टी को आज दूसरे दलों की बैसाखियों पर निर्भर कर दिया है। अगर एक बार फिर पार्टी उसी प्रवृति का शिकार हो जाती है तो यह बात पूरे भरोसे के साथ कही जा सकती है कि वह दूसरे दलों की बैसाखियों के साथ भी फिलहाल राज करने की हालत में नहीं रह जाएगी। जिस साझा न्यूनतम कार्यक्रम की बदौलत कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों ने अपने पुनरुद्धार की उम्मीद की थी, उस पर अमल में जैसा लचर रुख मनमोहन सिंह सरकार ने अपनाया, उससे इन दलों की साख पर पहले ही काफी बट्टा लग चुका है। अब परमाणु करार पर जोर के साथ विखंडन की जो राह प्रधानमंत्री ने तैयार की है, उस पर अगर ये दल चले तो सियासी जंग के मैदान में यह अपने लिए एक हिरोशिमा को न्योता देने जैसा ही होगा। क्या सोनिया गांधी, कांग्रेस और यूपीए में शामिल दल यह दांव खेलने को तैयार हैं?

Wednesday, June 18, 2008

बिहार में वामपंथ

सत्येंद्र रंजन
हिंदी भाषी राज्यों में बिहार को इस बात का श्रेय है कि उसने सबसे देर तक सांप्रदायिकता को सत्ता में आने से रोके रखा। २००५ के अंत में आखिरकार सांप्रदायिक और सवर्णवादी ताकतें जब वहां कामयाब हुईं, तब भी उन्हें नीतीश कुमार के मुखौटे की जरूरत पड़ी। इस नए घटनाक्रम में एक और बात साफ है कि बिहार में सवर्ण ताकतों को भी सत्ता में आने के लिए मंडल परिघटना को गले लगाना पड़ा है। वहां जमीनी स्तर पर सामाजिक बदलाव की जो प्रक्रिया १९९० के दशक में मंडलवादी राजनीति के विस्तार से शुरू हुई, उसे पलटना सांप्रदायिक और प्रतिक्रियावादी राजनीतिक ताकतों के लिए भी फिलहाल मुमकिन नजर नहीं आता है। गौरतलब है कि १९८०-९० के दशक में दक्षिणपंथी राजनीति को देश में मिली नई स्वीकृति और लगभग उसी समय बहुसंख्यक वर्चस्व की उठी लहर ने देश की राजनीतिक तस्वीर काफी हद तक बदल दी। इन दोनों विचारों की उग्र प्रतिनिधि ताकत के रूप में भारतीय जनता पार्टी का तेजी से उभार हुआ, और सारा हिंदी इलाका उसके प्रभाव में आ गया।

उन्नीस सौ नब्बे का पूरा दशक इस भगवा उभार का दौर है। लेकिन इस पूरे दौर में अगर बिहार इस लहर पर काफी हद तक लगाम लगाने में कायम रहा तो इसकी वजहें जरूर एक दिलचस्प अध्ययन का विषय हैं। इन वजहों की जड़ें दरअसल बिहार की राजनीति के अतीत में जाती हैं। यह अतीत आजादी की लड़ाई के दौर में पैदा हुआ। भूमि सुधार का आंदोलन उस दौर में ही बिहार की राजनीति की एक खास पहचान बना और वामपंथी विमर्श एक लोकप्रिय धारा के रूप में उभरा। स्वामी सहजानंद सरस्वती, जयप्रकाश नारायण, सूरज नारायण सिंह, कार्यानंद सिन्हा आदि कुछ ऐसे नाम हैं, जिन्हें इस विमर्श को आगे बढाने का श्रेय दिया जा सकता है। दरअसल, यह उस दौर में हुए संघर्षों का ही नतीजा रहा कि आजादी के बाद बिहार में (अब के झारखंड इलाके को छो़ड़ कर) कांग्रेस के बाद सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी के रूप में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी उभरी और सोशलिस्ट धारा की पार्टियों का व्यापक असर देखा गया।

भाकपा ने भूमि सुधार, परती जमीन पर गरीबों के कब्जे, बटाईदारों के हक आदि के लिए लगातार संघर्ष चलाया, जिससे राज्य के कई हिस्सों में उसका मज़बूत जनाधार बना। लेकिन साठ के दशक के अंत में नक्सलवाद के उदय और सत्तर के दशक में बिहार में उसके प्रसार के साथ स्थितियों में बदलाव शुरू हो गया। कमोबेश भाकपा के जनाधार को अपने प्रभावक्षेत्र में लेते हुए ही मार्क्सवादी-लेनिनवादी संगठनों ने बिहार में अपने कदम फैलाए। धीरे-धीरे भाकपा कुछ मध्य जातियों के बीच सिमटती गई। निसंदेह इमरजेंसी का समर्थन भी भाकपा को कमजोर करने वाला एक पहलू रहा। इससे मध्य वर्ग में पार्टी की लोकप्रियता और स्वीकृति पर असर पड़ा और वामपंथी रुझान वाले आदर्शवादी नौजवानों को मार्क्सवादी-लेनिनवादी संगठन या जेपी आंदोलन से उभरे संगठन ज्यादा आकर्षित करने लगे।

फिर भाकपा की जड़ों पर जोरदार प्रहार मंडलवाद के उभार से हुआ। १९९० के दशक के आरंभ में इस राजनीतिक परिघटना का नेतृत्व लालू प्रसाद यादव ने किया। जिन जातियों में लालू प्रसाद यादव का मजबूत जनाधार बना, लगभग वही जातियां राज्य के कई इलाकों में भाकपा का जनाधार थीं। मंडलवादी राजनीति ने इन जातियों को जातिगत आधार पर गोलबंद कर दिया। सामाजिक स्तर पर सीमित संदर्भों में यह एक प्रगतिशील परिघटना थी, लेकिन इसकी विडंबना यह रही कि यह परिघटना वामपंथी राजनीति की कीमत पर आगे बढी। चूंकि भाकपा की पूरी राजनीति संसदीय दायरे में काफी पहले सिमट चुकी थी, इसलिए जातीय वोट-ध्रुवीकरण के आधार पर खड़ी हुई नई राजनीति का मुकाबला करने में भाकपा सक्षम नहीं हो सकी।
बिहार समेत पूरे उत्तर भारत में पिछले डेढ़-पौने दो दशक का दौर जातीय और सांप्रदायिक राजनीति के मजबूत होने का रहा है। यह राजनीति परंपरागत वामपंथी राजनीति के एंटी थीसीस (प्रतिवाद) के बतौर विकसित हुई है। इस राजनीति के पीछे सीमित अर्थों में न्याय पाने की आकांक्षा जरूर है, लेकिन पूरे समाज को न्याय पर आधारित करने की महत्त्वाकांक्षा नहीं है। ऐतिहासिक अन्याय की याद दिलाते हुए जाति, नस्ल या संप्रदाय के आधार पर गोलबंदी एक आसान रास्ता और रणनीति है, जबकि बगैर प्रतिशोध की भावना के एक नया समाज बनाने के सपने को साकार करने की कोशिश उतनी ही मुश्किल है। जब समाज में पहले ढंग के न्याय की लड़ाई मुख्य बनी हुई हो, उस वक्त दूसरे ढंग के संघर्ष का कमजोर पड़ जाने को एक स्वाभाविक परिणति माना जा सकता है। यह अलग बहस का सवाल है कि ऐसे संघर्ष के कमजोर पड़ जाने के लिए जिम्मेदार कौन है?

लेकिन हकीकत यही है कि बिहार में आज वह वामपंथी धारा बेहद कमजोर हो चुकी है, जो लंबे समय तक राज्य में राजनीतिक और सामाजिक विपक्ष की नुमाइंदगी करती रही। संसदीय राजनीति में उसने अपनी ताकत मंडलवादी पार्टियों के हाथों गवां दी और संसदीय राजनीति के बाहर उग्र वामपंथी धारा ने उसे बेदखल कर दिया। उग्र वामपंथी धारा इस पूरे दौर में बिहार में न सिर्फ कायम रही है, बल्कि लगातार मजबूत भी होती गई है। १९८० के दशक में सीपीआई (एम-एल- लिबरेशन) इस धारा की सबसे मजबूत ताकत रही, लेकिन अब वो जगह सीपीआई (माओवादी) ले चुकी है। लिबरेशन जहां अंडरग्राउंड गतिविधियों के साथ-साथ संसदीय राजनीति में जगह बनाने की रणनीति के आधार पर चलती रही है, वहीं माओवादी अंडरग्राउंड जन युद्ध की अकेली रणनीति पर चल रहे हैं।

माओवादियों ने बिहार के बहुत बड़े इलाके में अपनी मजबूत उपस्थिति बना ली है। इतनी कि उनके बंद की अपील पर उन इलाकों का जन जीवन अस्त व्यस्त हो जाता है। वो ट्रेन सेवाओं को रोक देने की ताकत रखते हैं और पुलिस थानों समेत अपने दूसरे निशानों पर हमला करने में वो अक्सर कामयाब रहते हैं। जहानाबाद जैसी सबको चौंका देने वाली कार्रवाई को वो अंजाम दे चुके हैं। राज्य के एक बड़े इलाके में वो संसदीय राजनीति की समानांतर राजनीतिक धारा के रूप अपने कदम फैला रहे हैं। अक्सर ऐसी खबरें आती हैं कि कई इलाकों में संसदीय राजनीति में शामिल पार्टियों और नेताओ को अब उनसे तालमेल बना कर अपना वजूद बनाए रखने की कोशिश करनी पड़ रही है। सुरक्षा एजेंसियां उनके प्रसार को रोकने में अगर नाकाम नहीं, तो काफी हद तक बेअसर जरूर नजर आती हैं।

लेकिन प्रश्न है कि क्या यह उग्र वामपंथी धारा बिहार की व्यापक राजनीति में किसी वाम रुझान का स्रोत बन सकती है? जमीनी स्तर पर यह मुमकिन है कि कई जगहों पर वंचित और उत्पीड़ित समूहों को माओवादी धारा की वजह से राहत मिले, लेकिन क्या इससे एक वैसी ताकत उभर सकती है जो व्यापक जनतांत्रिक दायरे में सांप्रदायिक-फासीवाद का राजनीतिक स्तर पर मुकाबला कर सके और जो राज्य-व्यवस्था पर जनता का नियंत्रण बनाने में मददगार हो? ये सवाल माओवादी विमर्श में शायद अहम नहीं हैं, क्योंकि इस विचारधारा के तहत मौजूदा व्यवस्था के भीतर जनतंत्र की कल्पना का कोई मतलब नहीं है। मौजूदा भारतीय माओवादी धारा हथियारबंद जन युद्ध से राजसत्ता पर कब्जे में यकीन करती है। जब तक यह नहीं हो जाता, तब तक वामपंथ की किसी और राजनीति उसकी राय में निष्फल है।

जाहिर है, माओवादी चाहे जितने मजबूत हों, उनसे बिहार या पूरे देश में कहीं भी परंपरागत अर्थों में वामपंथ को कोई मजबूती नहीं मिलती। बल्कि ऐसे वामपंथ को नष्ट करना माओवादी अपना मकसद मानते हैं। इसीलिए हम बिहार में यह अंतर्विरोध बहुत साफ देख सकते हैं कि एक तरफ जहां माओवादियों की ताकत बढ़ती गई है, वहीं संसदीय राजनीति में वामपंथ लगातार कमजोर होता जा रहा है। इसका परिणाम यह होता है कि मौजूदा संसदीय राजनीति के तहत जनतंत्र के मजबूत होने की प्रक्रिया बाधित हो जाती है। इससे इस राजनीति में सांप्रदायिक, प्रतिक्रियावादी और यथास्थितिवादी ताकतों के लिए मैदान खुला मिल जाता है और उनके तहत राज्य-व्यवस्था पर जन विरोधी रुझान उत्तरोत्तर ज्यादा हावी होता जा रहा है।

बिहार में इस अंतर्विरोध और इससे पैदा हुए गतिरोध के टूटने की निकट भविष्य में कोई उम्मीद नज़र नहीं आती। मौजूदा परिस्थितियों में ऐसा तभी हो सकता है, अगर माओवादी वैचारिक उग्रता और राजनीतिक जिद से उबरने का साहस दिखाते और अपनी राजनीति को जनतांत्रिक दायरे में ले आते और मुख्यधरा की वामपंथी ताकतों के साथ संवाद कायम करते। लेकिन अभी यह महज एक सदिच्छा है, इसलिए बिहार में फिलहाल किसी मजबूत वामपंथी राजनीति के उभरने की उम्मीद की कोई ठोस जमीन नहीं है।