Sunday, July 13, 2008
२००४ में कमाया, २००८ में गंवाया
सत्येंद्र रंजन
सोनिया गांधी चार साल पहले भारतीय राजनीति में एक अज़ीम शख्सियत के रूप में उभरीं। फौरी तौर पर इसके दो पहलू थे। पहला बिंदु अपने निजी अहं और अपनी पार्टी के स्वार्थों को छोड़ कर गठबंधन बनाने के लिए दिखाई गई उनकी उदारता थी, जिससे भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली सांप्रदायिक फासीवादी सरकार को चुनाव में चुनौती देने का एक माध्यम तैयार हो सका। जब इस गठबंधन ने भाजपा नेतृत्व वाले गठबंधन को हरा दिया और उसके बाद खुद उनके अपने विदेशी मूल की वजह से धर्मनिरपेक्ष गठबंधन के रास्ते में मुश्किल खड़ी होती नजर आई, तो सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री पद का परित्याग कर एक अनूठी मिसाल कायम की। इन्हीं वजहों से तब सोनिया गांधी को छह साल के भाजपा नेतृत्व वाले शासन की बहुसंख्यक वर्चस्व एवं सवर्णवादी नीतियों के खिलाफ संघर्ष से उभरी धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रीय आम सहमति का प्रतीक मना गया। इन दो पहलुओं ने सोनिया गांधी का कद इतना ऊंचा कर दिया कि तब से देश के धर्मनिरपेक्ष खेमे में उनकी आलोचना से मोटे तौर पर परहेज किया जाता रहा है।
बहरहाल, सोनिया गांधी की बनी इस छवि के पीछे महज २००४ का ही घटनाक्रम नहीं था। बल्कि उसके पहले के तेरह साल का इतिहास भी था, जिसमें न सिर्फ सोनिया गांधी की सत्ता लिप्सा से मुक्त छवि सामने आई थी, बल्कि यह भी जाहिर होता गया था कि उनका एक सामान्य घरेलू महिला से एक राजनेता के रूप में क्रमिक विकास हुआ है। एक ऐसी राजनेता जिसके पास भले विचारों की गहराई और लंबा अनुभव न हो, लेकिन जिसकी बुनियादी राजनीतिक नैतिकता में आस्था है, और जो आधुनिक भारतीय राष्ट्र के आधारभूत मूल्यों के प्रति निष्ठावान हैं। यह छवि बनने की भी एक पृष्ठभूमि थी। १९९१ में जब अचानक राजीव गांधी आतंकवादी हत्यारों का शिकार हो गए तो कांग्रेस के पदलोलुप सत्ता प्रबंधकों ने फौरन उन्हें पार्टी, और प्रकारांतर में सरकार का नेतृत्व देने की पेशकश कर दी।
लेकिन सोनिया गांधी ने यह पेशकश ठुकरा दी। इसके बाद कई वर्षों तक चापलूस नेताओं के राजनीति में आने के निहोरे को वो ठुकराती रहीं। जब तक कांग्रेस सत्ता में रही, सोनिया गांधी ने खुद को घर के दायरे में ही समेटे रखा। राजनीति में कदम उन्होंने तब रखा, जब कांग्रेस अपने सबसे बुरे दिनों में थी, और उसके पूरी तरह बिखर जाने की अटकलें आम हो गई थीं। वह दौर भाजपा के नेतृत्व में सांप्रदायिक फासीवाद के भारतीय राज्य-व्यवस्था के विभिन्न अंगों पर हावी होने का था। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान पैदा हुआ भारत का विचार तब खतरे में था और देश का धर्मनिरपेक्ष खेमा भटकाव में नजर आता था। सोनिया गांधी ने तब कांग्रेस को संभालने की चुनौती स्वीकार की।
सोनिया गांधी को वह कांग्रेस मिली थी, जिसकी एक लोकतांत्रिक और आम जन का ख्याल करने वाली पार्टी के रूप में साख बिल्कुल खत्म हो चुकी थी। उनके राजनीति में आने के साथ ही उनके विदेशी मूल को लेकर उनके खिलाफ ज़हरीला अभियान छेड़ दिया गया। इस माहौल में विपक्ष की राजनीति से और प्रतिकूल परिस्थितियों का मुकाबला करते हुए सोनिया गांधी ने राजनीति में कदम आगे बढ़ाए। इसका एक खास पहलू रहा, कांग्रेस की साख को फिर से बहाल करना। कांग्रेस ने उन कार्यक्रमों की फिर से तलाश शुरू की जो नेहरू और इंदिरा गांधी के जमाने में उसकी पहचान रहे। इससे धर्मनिरपेक्ष दलों के बीच सहमति का आधार मजबूत हुआ और वामपंथी दलों से उसके सहयोग का रास्ता बना। २००४ में अगर सोनिया गांधी के नेतृत्व में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सहजता से बन सका और सरकार बनाने के लिए उसे वामपंथी दलों का सिद्धांत आधारित समर्थन मिल पाया, तो इसके पीछे यही पृष्ठभूमि थी। यूपीए शासनकाल में ज्यादातर समय सोनिया गांधी इस सहमति और एकता की पहरेदार बनी रहीं। बात राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार कानून की हो या सूचना के अधिकार कानून की, या फिर आदिवासी एवं अन्य वनवासी भूमि-अधिकार कानून की, या सार्वजनिक कारखानों के निजीकरण पर उठे विवादों की, जब भी मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली सरकार भटकती और अपने समर्थकों से टकराव की राह पर चलती नजर आई, अंतिम उम्मीद सोनिया गांधी से जोड़ी गई और सोनिया गांधी ने काफी हद तक उस उम्मीद को पूरा भी किया।
इस पृष्ठभूमि में यह देख कर हैरत होती है कि वही सोनिया गांधी भारत-अमेरिका असैनिक परमाणु सहयोग के समझौते के सवाल पर कैसे इस सहमति को तोड़ने की हद तक चल गईं? वह भी उस वक्त जब खुद अपने नेतृत्व वाला गठबंधन लगतार चुनावों में हार और दोहरे अंक की महंगाई के साथ गहरे संकट में है। क्या प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की जिद की कोई काट उनके पास नहीं थी, जो अपने आग्रहों, समझ और दीर्घकालिक राजनीति में कोई दांव न होने की वजह से ‘अपने अमेरिकी सपने’ को हकीकत में जीने के दुराग्रह पर अड़े रहे हैं? या खुद सोनिया गांधी भी ऐसे ही ‘सपने’ में जीती हैं और इसे अपने और अपनी पार्टी के दीर्घकालिक राजनीतिक हितों से ज्यादा कीमती समझती हैं? जाहिर है, ऐसे सपने का देश के आम आदमी से कोई सीधा रिश्ता नहीं है, जिसकी बात कांग्रेस करती है और अगर उसके दो बड़े नेताओं का सपना ऐसा हो तो पार्टी की प्राथमिकताएं खुद उजागर हो जाती हैं।
फिर भी भारत-अमेरिका परमाणु करार का सवाल एक ऐसा मुद्दा है, जिस पर बहस की गुंजाइश हो सकती है और किसी की नैतिकता पर सिर्फ इसलिए सवाल नहीं उठाए जा सकते कि वह इस समझौते को देश के हित में मानता है। राजनीतिक समझ वर्गीय सोच, समाज और विश्व व्यवस्था की विश्लेषण क्षमता और दुनिया के बारे में अपने सपने से पैदा होती है, और ये सारी बातें किसी खास परिस्थिति में, संयोगवश एक प्रमुख सियासी शख्सियत बन गए शख्स में नहीं भी हो सकती हैं। इसलिए सोनिया गांधी का धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रीय आम सहमति के ऊपर भारत-अमेरिका संबंधों को तरजीह देने के लिए मनमोहन सिंह से सहमत हो जाना भले इस देश के वर्तमान और निकट भविष्य के लिए बेहद दुखद हो, लेकिन इस आधार पर सोनिया गांधी को नैतिकता के कठघरे में खड़ा नहीं किया जा सकता।
अगर आज सोनिया गांधी नैतिक सवालों पर कठघरे में खड़ी नजर आती हैं तो इसलिए इस करार के पक्ष में संसद में बहुमत गढ़ने के लिए मनमोहन सिंह की सरकार और कांग्रेस पार्टी ने जो अनैतिक तरीके अपनाए और जिस तरह के साथियों को चुना है, उसे सोनिया गांधी का वरदहस्त मिला हुआ नजर आता है। मुलायम सिंह-अमर सिंह की जोड़ी ने पिछले डेढ़ दशक में कितनी राजनीतिक लाइन और साथी बदले हैं, राजनीति और आर्थिक क्षेत्र में कैसे-कैसे अंतर्संबंध बनाए हैं और इनके कैसे नतीजे देश को भुगतने पड़े हैं, इसकी सोनिया गांधी से बेहतर जानकारी और किसे होगी? अजित सिंह और एचडी देवेगौडा ने राजनीति में कैसी नैतिकताएं कायम की हैं, इसका भी उन्हें प्रत्यक्ष ज्ञान होगा?
लेकिन आज ये सभी उनके साथी हैं। इन साथियों की जरूरत उन्हें इसलिए पड़ी है कि जिन वामपंथी दलों ने यूपीए को चार साल तक सिद्धांत आधारित समर्थन दिया, जिनकी देश में निजी पर उनकी और कांग्रेस की साख बहाल करने में अहम भूमिका थी, उनकी विचारधारा के साथ तालमेल बनाने की दूरदृष्टि सोनिया गांधी नहीं दिखा सकीं। दरअसल, इसके लिए मई २००४ जैसी उदारता की जरूरत थी, जिस कसौटी पर इस बार सोनिया गांधी चूक गईं। इस विचारधारात्मक नाकामी की कीमत आज वो छोटे सहयोगी दलों के ब्लैकमेल, उनके आर्थिक- स्वार्थों की मांग, और पद लिप्सा को पूरा करते हुए चुकाने को तैयार हैं।
इस नए परिप्रेक्ष्य ने सोनिया गांधी की राजनीतिक नैतिकता को संदिग्ध बना दिया है। यह एक ऐसा नुकसान है, जिसकी कीमत वो, उनकी पार्टी, उनका गठबंधन और आम तौर पर इस देश की धर्मनिरपेक्ष शक्तियां लंबे समय तक चुकाएंगी। इससे वह शख्सियत खंडित हो गई है, जिसे सामने रख कर चुनावी राजनीति में सांप्रदायिक फासीवाद से संघर्ष की एक साफ तस्वीर उभरती थी। इससे सोनिया गांधी का वो कद खत्म हो गया है, जो इस देश के आम लोगों को दूसरे नेताओं से ऊंचा लगता था। कहा जा सकता है कि सोनिया गांधी ने सन् २००४ में जो कमाया था, उसे २००८ में गंवा दिया है।
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