Sunday, September 14, 2008

अमेरिका के विरोध का मतलब


सत्येंद्र रंजन
असैनिक परमाणु सहयोग समझौते को अमेरिका और भारत के बीच दीर्घकालिक संबंध की एक अहम कड़ी बताया गया है। बुश प्रशासन ने भारत के साथ अमेरिका के रणनीति संबंध को ठोस रूप देने के लिए इस करार को एक खास जरिया बनाया। हालांकि इस समझौते की शर्तों पर उसका दोहरापन, और साथ ही मनमोहन सिंह सरकार की अपने देश की जनता के साथ बरती गई चालाकी अब बेनकाब हो चुकी है, इसके बावजूद भारत के एक बड़े और प्रभावशाली तबके में इस करार को लेकर सुखबोध की जैसी लहर देखने को मिली है, उससे यह साफ है कि भारत के संदर्भ में अमेरिकी मकसद काफी हद तक सफल रहा है। इस तरह अमेरिका एक उभरती अर्थव्यवस्था और विभिन्न वजहों से दुनिया में लगातार अहम होते जा रहे एक देश को अपनी रणनीतिक योजना का हिस्सा बनाने में फिलहाल लगभग कामयाब हो गया है।

दोनों देशों के बीच बनते इस संबंध को दोनों ही देशों के भीतर, या कहें दोनों देशों की सत्ता संरचना में प्रभावशाली तबकों के भीतर, व्यापक समर्थन हासिल है। अमेरिका की दोनों प्रमुख पार्टियों यानी रिपब्लिकन और डेमोक्रेट्स में भारत के साथ रणनीतिक संबंधों के मुद्दे पर पूरी सहमति है। इसकी वजह अमेरिकी विदेश नीति तय करने वालों की यह समझ है कि दुनिया, खासकर एशिया में जो अमेरिकी हित हैं, उन्हें पूरा करने में आज भारत एक खास भूमिका निभा सकता है। भारत अमेरिकी कंपनियों के लिए अपने विशाल बाजार के साथ रक्षा और ऊर्जा जैसे क्षेत्रों में कारोबार के लिए एक फायदेमंद जगह है। साथ ही भारत एक ऐसी ताकत है, जिसे अपने साथ जोड़ कर अमेरिका भविष्य में अपने साम्राज्यवादी मंसूबों को बेहतर ढंग से अंजाम दे सकता है।

भारत में बड़े पूंजीपतियों, नौकरशाहों औऱ शासक वर्ग के दूसरे हिस्सों को स्वाभाविक रूप से अपना हित अमेरिकी पूंजी और ताकत से जुड़ने में बेहतर ढंग से सधता दिखता है। मीडिया मोटे तौर पर इसी पूंजी से संचालित होता है और मध्य वर्ग की सोच को ढालने में इसकी बहुत बड़ी भूमिका है। वैसे भी समाज के संपन्न और अपेक्षाकृत आराम से जिंदगी गुजराने वाले तबकों में ताकत और ताकतवर से जुड़ने की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है। खासकर उस दौर में जब इन तबकों के सदियों पुराने वर्चस्व को वंचित और शोषित ताकतें चुनौती दे रही हों, बड़ी ताकत से जुड़ कर अपना हित बचाने का लोभ सहज देखा जा सकता है।

जिस भारत-अमेरिका रणनीतिक संबंध को आज हम बनते देख रहे हैं, उसका भारत में यही समर्थन आधार है। बराबरी और सर्वमान्य नियम-कानून पर आधारित किसी नई दुनिया या नए समाज की कल्पना से आशंकित इन समर्थक समूहों ने राष्ट्रवाद और ऊंचे आदर्शों पर आधारित देशभक्ति की भावना को तिलांजलि दे दी है। उनकी चर्चाओं से यह जाहिर होता है कि उनके पास अमेरिकी शासक वर्ग की सरंचना और उसके उद्देश्यों की समझ का घोर अभाव है। वे अपने स्वार्थ और दास भावना की वजह से ऐसी नीतियों का समर्थन कर रहे हैं, जिनसे दूरगामी तौर पर देश के व्यापक हितों को भारी नुकसान पहुंच सकता है। गौरतलब है कि फिलहाल प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इन नीतियों के सबसे बड़े प्रतीक के रूप में सामने आए हैं।

परमाणु ऊर्जा का सारा गुणगान या तीन दशक से परमाणु क्लब से जारी भारत के अलगाव को खत्म करने की कथित सफलता पर हर्षध्वनि के जरिए इस हकीकत को नहीं छिपाया जा सकता कि परमाणु समझौता दरअसल, भारत और अमेरिका के बीच व्यापक रणनीतिक योजना का सिर्फ एक पहलू है औऱ इसके जरिए असल में इसी योजना के लिए माहौल बनाने और समर्थन जुटाने की कोशिश की गई है। यहां यह सवाल स्वाभाविक रूप से पूछा जा सकता है कि आखिर अमेरिका के साथ रणनीतिक रिश्ते पर एतराज क्यों है? लेकिन इस सवाल पर हम बाद में आएंगे। उसके पहले एक बात साफ कर लेने की जरूरत है कि कुछ धुर निराशावादी ताकतों को छोड़ कर देश में शायद ही किसी को परमाणु ऊर्जा से एतराज है। लेकिन सवाल है कि इस ऊर्जा को हासिल करने की कीमत क्या है? कीमत का सवाल सिर्फ आर्थिक संदर्भ में नहीं, बल्कि राजनीतिक और नैतिक संदर्भों में भी है। अगर रिएक्टर और यूरेनियम के आयात की कीमत विदेश नीति की स्वतंत्रता और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर समानता का दर्जा छोड़ना है, तो साफ है, यह बात किसी देशभक्त और स्वाभिमानी व्यक्ति या शक्ति को मंजूर नहीं होगी।

लेकिन पिछले तीन साल के मनमोहन सिंह सरकार के आचरण ने यह साबित कर दिया है कि जो करार उसने किया है, उसकी यही कीमत न सिर्फ भारत को भविष्य में चुकानी होगी, बल्कि इसकी शुरुआत हो भी चुकी है। ईरान को घेरने की अमेरिकी रणनीति से जुड़ते हुए अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी में भारत ने दो बार ईरान के खिलाफ मतदान कर सक्रिय भूमिका निभाई। फिर परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह यानी एनएसजी से परमाणु करार को मंजूरी दिलाने के मौके पर विदेश मंत्री प्रणब मुखर्जी ने जारी अपने बयान में एनरिचमेंट और रीप्रोसेसिंग तकनीक का प्रसार रोकने में मददगार बनने का जो वादा किया, परोक्ष रूप से उसका मतलब ईरान को ऐसी तकनीक से वंचित रखने की कोशिशों में सहायक बनना ही था।

अगर भारत के राजनीतिक फलक पर देखें तो विदेश नीति के इस रुझान को व्यापक समर्थन मिला दिखता है। कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए सरकार इस नीति को लागू कर रही है और भाजपा नेतृत्व वाले एनडीए का इससे कोई बुनियादी मतभेद नहीं है। बल्कि भाजपा तो बाकायदा वैचारिक स्तर पर अमेरिका से रणनीतिक संबंध पर जोर देती है। यानी परमाणु करार का उसका विरोध महज राजनीतिक लाभ के लिए है। वामपंथी दलों के साथ जो पार्टियां इस करार के खिलाफ जुड़ीं, उनमें भी किसी को वैचारिक स्तर पर इस नीति से कोई आपत्ति हो, ऐसा मानने की कोई वजह नहीं है। बल्कि मायावती ने परमाणु करार को जिस मुस्लिम-अमेरिका संदर्भ में पेश किया, प्रगतिशील नजरिए से वह कहीं ज्यादा आपत्तिजनक है। इस तरह यह कहा जा सकता है कि अमेरिका से गहराते रणनीतिक संबंधों के विरोध के मुद्दे पर राजनीतिक दायरे में वामपंथी दल अकेले हैं। उग्र वामपंथी संगठन और कुछ जन संगठन इस मामले में उनके साथी हो सकते हैं, लेकिन उनके बीच बाकी खाई इतनी चौड़ी है कि किसी साझा संघर्ष की संभावना कम से कम निकट भविष्य में नजर नहीं आती।

इसीलिए यह लड़ाई बेहद कठिन और लंबी नजर आती है। यह चुनौती इसलिए और भी बड़ी दिखती है, क्योंकि आम लोगों के बीच अभी यह स्पष्ट ही नहीं है कि आखिर अमेरिका से रणनीतिक रिश्ते का विरोध क्यों किया जाना चाहिए? अगर भारत रूस या फ्रांस या चीन से रणीतिक संबंध बना सकता है, तो आखिर अमेरिका से क्यों नहीं? जब अमेरिका भारत को अपना साझेदार बनाना चाहता है, और इसके लिए वह अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत की वकालत भी कर रहा है, तो उससे वैर पालने की आखिर क्या वजहें हैं?

दरअसल, इस सवालों का जवाब पाने के लिए हमें अमेरिकी सत्ता की संरचना, दुनिया में उसके मकसद और विश्व मामलों में अमेरिका की भूमिका को समझना जरूरी है। तो पहले बात अमेरिकी सत्ता की संरचना की। वो संचरना जो पूंजीवादी सत्ता तंत्र की चरम अवस्था की मिसाल है। यह बात अमेरिकी व्यवस्था का एक सामान्य अध्ययनकर्ता भी जानता भी है कि मुख्य रूप से रिपब्लिकन, लेकिन आम तौर पर डेमोक्रेटिक पार्टी भी बहुराष्ट्रीय कंपनियों की नुमाइंदा हैं, जिनकी घरेलू और विदेश नीतियां इन कंपनियों के हितों के मुताबिक तय होती हैं। यह बात अनगिनत अध्ययनों से सामने आ चुकी है कि बुश-चेनी प्रशासन ने इराक पर हमला आतंकवाद से लड़ने या अल-कायदा को खत्म करने के लिए नहीं, बल्कि इराक के तेल संसाधनों पर कब्जा जमाने और इराक को अड्डा बना कर पश्चिम एशिया में अपने सामरिक उद्देश्यों को पूरा करने के लिए किया। इसके पीछे मुख्य रूप से बहुराष्ट्रीय तेल कंपनियां प्रेरक शक्ति थीं, जिनके साथ मुख्य रूप से अमेरिकी उप राष्ट्रपति डिक चेनी और आम तौर पर पूरे बुश प्रशासन के हित जुड़े रहे हैं। इराक के बाद ईरान इसी मकसद से अमेरिका के निशान पर है, जबकि इजराइल उसके सामरिक हितों को उस इलाके में पूरा करने वाले एक अड्डे के रूप में वहां पहले से मौजूद है। अल-कायदा या कथित विश्व इस्लामी आतंकवाद अमेरिका की ऐसी ही नीतियों का परिणाम रहे हैं, जिस पर ११ सितंबर २००१ के हमलों के बावजूद दोबारा विचार करने की जरूरत अमेरिका ने कभी महसूस नहीं की। इराक पर हमले को अंजाम देने के लिए बुश प्रशासन ने संयुक्त राष्ट्र की व्यवस्था को पूरी तरह दरकिनार कर दिया। बुश प्रशासन ने एकतरफा कार्रवाई, खतरे का अंदेशा होते ही हमला कर देने और जिसे वह दुश्मन मान ले उसकी संप्रभुता का कोई ख्याल करने की जो नीति घोषित की, वह सभ्यता और विश्व व्यवस्था के अब तक के विकास को सीधे चुनौती है। यह एक खुली साम्राज्यवादी नीति है। जबकि माना गया था कि पहले और दूसरे विश्व युद्ध के अनुभव के बाद दुनिया ने इस नीति को हमेशा के लिए छोड़ दिया है। इस बीच आतंक के खिलाफ युद्ध के क्रम में अमेरिका ने जिस तरह लोकतंत्र और मानवाधिकारों के स्थापित मानदंडों को ठेंगा दिखाया, उसे खुद पूर्व अमेरिकी उप राष्ट्रपित एल गोर ने ‘मानव विवेक पर आघात’ बताया है।

दुनिया के विभिन्न देशों में अपनी अनुयायी सरकारें बनवाने के लिए अमेरिका प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से जैसे दखल देता रहा है, वह जनता के स्वशासन के अधिकार का खुल्ला उल्लंघन है। पूर्व यूगोस्लाविया के विघटन, खासकर हाल में कोसोवो को सर्बिया से अलग कराने के लिए जैसे दांव-पेच का सहारा लिया गया, वह दुनिया के सामने है। पूर्व सोवियत संघ के गणराज्यों में कथित रंग-बिरंगी क्रांतियों में अमेरिकी पैसे की भूमिका और कई दूसरे माध्यमों से हस्तक्षेप की कहानी भी खुल कर सामने आ चुकी है। इसीलिए जब जॉर्जिया में रूस ने दखल दिया तो अमेरिका और उसके साथी देशों के पास उसका विरोध करने का कोई नैतिक तर्क नहीं था। दरअसल, क्यूबा, वेनेजुएला और बोलिविया से लेकर यूक्रेन, बेलारूस और कजाखस्तान तक आत्मनिर्णय के मूलभूत जनाधिकार के हनन की अमेरिकी कोशिशों की मिसाल हैं। अमेरिका का अनुयायी बनने का क्या मतलब होता है, इसे पाकिस्तान से बेहतर कहीं और के लोग शायद नहीं समझ सकते। जो पाकिस्तान सोवियत संघ के खिलाफ संघर्ष में अमेरिका का अग्रिम मोर्चा रहा और आतंक के खिलाफ कथित युद्ध में भी जो उसकी सामरिक योजना का हिस्सा बना, वही आज अमेरिकी आक्रामकता के आगे अपनी संप्रभुता की भीख मांग रहा है।

अगर कारोबार की दुनिया पर निगाह डालें तो दुनिया में व्यापार के तौर-तरीके तय करने में अमेरिकी नीतियां आज कैसे बहुपक्षीय व्यापार के लिए खतरा बन गई हैं, विश्व व्यापार संगठन की हर बैठक इसे साफ कर देती है। हर बार यह अधिक साफ हो जाता है कि अमेरिका अपने बड़े किसानों और पूंजीपतियों के हित में नियम आधारित विश्व व्यापार की संभावना को नष्ट करने पर आमादा है।

इसलिए जब बात अमेरिका के विरोध की होती है, तो वह दरअसल, इन्हीं नीतियों और इनके संचालक शासक वर्ग का विरोध होता है। वह अमेरिका के आम लोगों, अमेरिका के साथ आम व्यापार और अमेरिकी इतिहास और संस्कृति से मेलजोल का विरोध नहीं है। इन नीतियों का विरोध इसलिए जरूरी है कि अगर ये कामयाब हो गई तो दुनिया के अधिकांश जन समुदायों की स्वतंत्रता, आर्थिक बेहतरी और व्यापक अर्थ में विकास की संभावना खतरे में पड़ जाएगी। यही बात भारत के आम जन पर भी लागू होती है। दुनिया ने उपनिवेशवाद के दौर से काफी सबक सीखा है और इसीलिए दुनिया का जागरूक जनमत नव-उपनिवेशवाद के रूप में उस दौर की वापसी न हो, इसके लिए संघर्ष को जरूरी मानता है। इस संदर्भ में भारत के लोगों के सामने बस दो विकल्प हैं- या तो वो आम जन की स्वतंत्रता और बेहतरी का सौदा करने वाली नीतियों का साथ दें, या उस लंबे संघर्ष का- जो भारत के विचार यानी आइडिया ऑफ इंडिया को उसकी मंजिल तक पहुंचाने की अनिवार्य शर्त है।