Thursday, October 2, 2008

जामिया नगर के प्रश्न


सत्येंद्र रंजन
दिल्ली के जामिया नगर इलाके में पुलिस मुठभेड़ से बना माहौल अब कुछ ठंडा पड़ रहा है, लेकिन उससे उठे सवाल अभी भी हमारे सामने उतनी ही शिद्दत से खड़े हैं। इन सवालों का सीधा वास्ता देश से धर्मनिरपेक्ष ढांचे से है, जो पिछले डेढ़ सौ साल में विकसित हुए भारतीय राष्ट्रवाद की आत्मा है। जामिया नगर एनकाउंटर ने आतंकवाद, आतंकवाद से संघर्ष और बहुसंख्यक वर्चस्व की मानसिकता को लेकर उलझे सवालों को एक बार फिर हमारे सामने पेश कर दिया है। अगर हमें सचमुच भारत के भविष्य की चिंता है तो हम इन सवालों को कतई दरकिनार नहीं कर सकते।

हम इस बहस में नहीं जाना चाहते कि बाटला हाउस के एल-१८ फ्लैट में पुलिस और कथित आतंकवादियों के बीच जो मुठभेड़ हुई, वह असली थी या नहीं। मुठभेड़ की पुलिस की कहानी पर मीडिया के एक हिस्से, मानवाधिकार संगठनों और उस इलाके के लोगों ने कई सवाल उठाए हैं। यहां कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग इस मामले में दिल्ली पुलिस को नोटिस भी जारी कर चुका है। पुलिस की कहानी कितनी सही या गलत है, इस पर आने वाले दिनों में ज्यादा रोशनी पड़ेगी। बहरहाल, जब आतंकवाद ज्यादा व्यापक स्वरूप लेता जा रहा है, तब पुलिस और सुरक्षा एजेंसियों की मुश्किलों को समझा जा सकता है। इसलिए हर हाल में उन पर टूट पड़ा जाए, इसकी वकालत कोई नहीं कर सकता।

लेकिन पुलिस की हर कहानी पर आंख मूंद कर भरोसा कर लिया जाए, कम से कम भारतीय पुलिस के रिकॉर्ड के देखते हुए यह भी वांछित नहीं है। इससे न तो आतंकवाद के रास्ते पर चल पड़े लोगों पर काबू पाने में मदद मिलेगी, और न ही आतंकवाद के व्यापक परिप्रेक्ष्य से जुड़े मसलों को हल करने की राह निकलेगी। मसलन, अगर सोहराबुद्दीन आतंकवादी नहीं था और उसे गुजरात पुलिस ने आतंकवादी बता कर मार डाला तो इससे आतंक के खिलाफ मुहिम में एक कामयाबी का भ्रम ही पैदा हुआ। यानी असली आतंकवादी तो आजाद रहे, लेकिन लोगों में यह झूठा यकीन बना कि एक आतंकवादी को ठिकाने लगा दिया गया है। और जो अहमदाबाद में हुआ, वैसा ही जामिया नगर में नहीं हो सकता, यह बात कोई दावे के साथ नहीं कह सकता।

चूंकि ऐसे सवालों का संबंध मानवाधिकारों की संवैधानिक गारंटी और देश के कानून से होता है, इसलिए संवैधानिक लोकतंत्र के हित में यही है कि ऐसी हर घटना पर अगर किसी के मन में संदेह है तो इसे कहने की उसकी आजादी बरकरार रहे। सवाल और सबूतों का अंतिम फैसला अदालत में होता है, इसलिए न्यायिक प्रक्रिया पूरी होने के पहले ही कुछ भी साबित नहीं मान लिया जाना चाहिए। लोकतंत्र की बुनियाद संवाद है, और अगर किसी समूह या समुदाय के भीतर कोई संदेह या सवाल हैं, तो उन पर खुली चर्चा की गुंजाइश जरूर बची रही चाहिए। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण पहलू बहुसंख्यक वर्चस्व की मानसिकता का लगातार हावी होते जाना है, जिसमें कमजोर और अल्पसंख्यक समुदायों की चिंताओं, भावनाओं और प्रश्नों को बहस के दायरे से ही बाहर कर दिया जा रहा है। जामिया नगर और आसपास के इलाकों के लोग अगर सोचते हैं कि बाटला हाउस में हुए एनकाउंटर की पुलिस की कहानी में कई छिद्र हैं, तो इस बात पर आखिर मीडिया में और सार्वजनिक मंचों पर चर्चा क्यों नहीं होनी चाहिए? अपने रिकॉर्ड पर सफाई देने की जिम्मेदारी पुलिस की है, न कि उन मीडियाकर्मियों की जिनकी बहुसंख्यक वर्चस्व की मानसिकता आज मीडिया के लोकतांत्रिक चरित्र के लिए बड़ा खतरा बन गई है।

परिणाम यह है कि आम तौर पर सार्वजनिक जिंदगी और खास तौर पर कॉरपोरेट मीडिया के भीतर कमजोर और अल्पसंख्यक समूहों से आने वाले ऐसे लोग जो अपनी मजहबी पहचान के साथ जीना चाहते हैं, आज बेहद घुटन महसूस कर रहे हैं। इसलिए कि उनके लिए अपने समुदाय की चिंताओं और भावनाओं को व्यक्त करने की गुंजाइश लगातार सिकुड़ती जा रही है। उन्हें लगता है कि हर पल उन्हें अपने भारतीय होने का सबूत देना पड़ता है और बहुसंख्यक वर्चस्व की सोच से मेल न खाने वाला उनका एक शब्द भी राष्ट्रवाद के प्रति उनकी निष्ठा पर संदेह उठाने का हथियार बन सकता है।

दरअसल राष्ट्रवाद को इतने संकुचित अर्थों में परिभाषित करने की कोशिश हो रही है कि देश के व्यापक जन समुदायों के हित की वकालत करने की संभावना इसमें लगातार घटती जा रही है। यानी स्थिति कुछ ऐसी बन रही है, जिसमें आप या तो ‘राष्ट्रवादी’ हैं, या फिर वामपंथी उग्रवादी, मुसलमान या दूसरे अल्पसंख्यक और वंचित समुदाय के लोग। जाहिर है, यह सबको समाहित कर चलने वाला वह भारतीय राष्ट्रवाद नहीं है, जो दादा भाई नौरोजी, रवींद्नाथ टैगोर, गांधी और नेहरू की वैचारिक छत्रछाया में फूला-फला।

यह सही है कि आज आतंकवाद का एक मुस्लिम पहलू है। लेकिन क्या सभी मुसलमान आतंकवादी हैं, या आतंकवाद से निपटने के लिए इस पूरे समुदाय पर प्रहार या निगरानी की जरूरत है? दो दशक पहले यह सवाल सिखों के संदर्भ में भी उठा था। प्रश्न यह है कि क्या किसी एक पूरे समुदाय को दुश्मन मानकर किसी लोकतांत्रिक राष्ट्रवाद की कल्पना की जा सकती है? जाहिर है, ऐसा नहीं हो सकता। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि एक ऐसी मानसिकता सारे देश पर थोपने की कोशिश आज काफी हद तक सफल होती नजर आती है।

अगर आतंकवाद का मुस्लिम पहलू है तो यह भी समझे जाने की जरूरत है कि आखिर ऐसा क्यों है? यह संभव है कि कुछ धर्मांध तत्व इस्लामी राज्य की स्थापना की रूमानी ख्यालों में जीते हों औऱ इसके लिए विदेशी धन और मदद से आतंकवाद के रास्ते पर चल रहे हों। लेकिन यह कहीं ज्यादा बड़ी हकीकत है कि इंसाफ न मिलने की भावना और आम हालात से पैदा हुई हताशा ऐसे तत्वों के लिए ज्यादा मददगार साबित होती है। आखिर इस बात क्या जवाब है कि मुंबई के १९९३ के बम धमाकों के दोषियों को सजा हो जाए, लेकिन उसके पहले के दंगों के बारे में श्रीकृष्ण आयोग की रिपोर्ट सरकार की अलमारियों में धूल खाती रहे? बाबरी मस्जिद तोड़ने के दोषी खुलेआम घूमते रहें, इससे हम अपनी न्याय व्यवस्था के बारे में कैसे संदेश देते हैं? गुजरात के दंगों पर अब तक चली कानूनी प्रक्रिया आखिर क्या सोचने को मजबूर करती है?

बम धमाकों से निसंदेह आतंक पैदा होता है। इनमें बहुत से निर्दोष लोगों की जान गई है और हजारों लोगों की जिंदगी तबाह हो गई है। लेकिन क्या कंधमाल में हुई तबाही उससे कम है? यह एक बड़ा सवाल है कि आखिर वो लोग आतंकवादी हैं या नहीं, जिनकी वजह से एक पूरा समुदाय आतंक में जीने को मजबूर हो जाता है? आखिर जिस गुस्से के साथ हम सिमी पर प्रतिक्रिया जताते हैं, वही गुस्सा बजरंग दल के बारे में क्यों नहीं उबलता? ये सब बेहद कठिन प्रश्न हैं। ये आराम से जिंदगी गुजारने और वर्गीय एवं सामुदायिक वर्चस्व में हित रखने वाले तबकों को परेशान करने वाले सवाल हैं। लेकिन अगर उनके दिमाग में सचमुच भारत की कोई उदार कल्पना है तो वो इन सवालों की अनदेखी नहीं कर सकते।

आज जरूरत इस सवालों पर संवाद बनाने की है। संवाद उन समुदायों से जो अपने को घिरा हुआ महसूस कर रहे हैं। संवाद उन लोगों से जो संवैधानिक मूल्यों पर आधारित भारत में यकीन करते हैं। सिर्फ ऐसे संवाद से ही मौजूदा सवालों के हल ढूंढे जा सकते हैं। और सिर्फ तभी लोकतंत्र और उदार भारतीय राष्ट्र का भविष्य सुरक्षित बनाया जा सकता है।