Tuesday, November 18, 2008
मंदी में किधर जाएं?
सत्येंद्र रंजन
अमेरिका के वित्तीय संकट के असर को नियंत्रित रखने के उपाय आखिरकार नाकाम रहे हैं और विश्व अर्थव्यवस्था को मंदी से बचा लेने की उम्मीद टूट गई है। यूरो ज़ोन कहे जाने वाले यूरोपीय संघ की अर्थव्यवस्था में विकास दर नकारात्मक हो गई है और जल्द ही ऐसी ही खबर अमेरिका से मिलने का अनुमान भी लगाया जा रहा है। इसका असर दुनिया भर में है। उपभोक्ता अपने खर्चों में कटौती कर रहे हैं, इससे कंपनियों की बिक्री कम हो रही है और मुनाफा घट रहा है, इसकी वजह से कंपनियां अपना खर्च घटा रही हैं, और उसकी वजह से लोगों की नौकरियां जा रही हैं। लोगों की नौकरियां जाने से समाज में आमदनी घट रही है, जिससे उपभोग घट रहा है। यानी जिस दुश्चक्र को मंदी कहा जाता है, वह अपने पूरे रूप में सामने है और हर रोज आने वाली खबरें इस रूप का ज्यादा विकराल चेहरा पेश कर रही हैं।
अमेरिका में सितंबर वित्तीय संकट सामने आने के बाद से दुनिया भर की सरकारें इसके असर को काबू में रखने की कोशिश में जुटी रही हैं। मोटे तौर पर अब तक कोशिश बैंकों और वित्तीय संस्थाओं को ज्यादा नकदी मुहैया कराने की रही है। साथ उनके लिए कर्ज देने की अनुकूल स्थितियां बनाई गई हैं। माना गया है कि कर्ज आसानी से उपलब्ध रहने पर कंपनियों के लिए एक तरफ निवेश की स्थिति बनी रहेगी, वहीं दूसरी तरफ उपभोक्ता मकान जैसे जायदाद में निवेश करने के साथ-साथ उपभोग की वस्तुएं भी खरीदते रहेंगे, जिससे उद्योग धंधों का कारोबार मंदा नहीं होगा और आर्थिक संकट के दुश्चक्र को रोका जा सकेगा। सबसे पहले अमेरिका ने इसके लिए ७०० अरब डॉलर का बेलआउट पैकेज मंजूर किया। उसके बाद ब्रिटेन और दूसरे देश इस रास्ते पर बढ़े।
बुश प्रशासन के शुरुआती रुख (जिसे अमेरिकी कांग्रेस ने नामंजूर कर दिया था) और ब्रिटिश सरकार के नजरिए में एक भारी फ़र्क यह था कि जहां बुश प्रशासन सीधे बैंकों और वित्तीय संस्थानों को हुए नुकसान की करदाताओं के धन से भरपाई के रास्ते पर चला, यानी उनकी कोई जवाबदेही तय करने की कोशिश नहीं की गई, वहीं ब्रिटिश सरकार ने बैंकों के शेयर खरीदने का रास्ता चुना। मतलब यह हुआ कि निजी बैंकों में स्थायी सरकारी हिस्सेदारी बना लेने का रास्ता अख्तियार किया गया। यानी वहां वित्त और अर्थव्यवस्था को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने का थैचरवादी दौर एक झटके में पलट गया है। अमेरिका में भी बुश प्रशासन को वित्त और पूंजी की बेलगाम स्वतंत्रता की नीति से कदम पीछे खींचने पड़े हैं।
हालांकि वैचारिक तौर पर बुश प्रशासन अपने इन आखिरी दिनों में भी मुक्त बाजार पूंजीवाद की खुल कर वकालत कर रहा है। वाशिंगटन में वित्तीय संकट पर हुए ग्रुप-२० देशों शिखर सम्मेलन से ठीक पहले बुश प्रशासन ने कहा- ‘आर्थिक समृद्धि के लिए ज्यादा बड़ा खतरा सरकार की कम भूमिका नहीं, बल्कि जरूरत से ज्यादा भूमिका है।’ मौजूदा संकट के दौर में यह मुद्दा बेहद अहम होकर उभरा है कि आखिर अर्थव्यवस्था में निजी क्षेत्र को कितनी स्वतंत्रता मिलनी चाहिए और सरकार का दखल कितना रहना चाहिए? बुश प्रशासन के नजरिए से साफ है कि मौजूदा संकट के संदर्भ में पिछले साठ साल में पूंजी और वित्त की पूर्ण स्वतंत्रता की वकालत करने वाली ताकतें फिलहाल रक्षात्मक मुद्रा में जरूर हैं, लेकिन उन्होंने हथियार नहीं डाला है। दूसरी तरफ बुश प्रशासन से अलग रुख अपनाने वाली ब्रिटिश सरकार और यूरोप के दूसरे देश भी वैचारिक स्तर पर कोई वैकल्पिक रास्ता अपनाने को तैयार हैं, इसके संकेत अभी देखने को नहीं मिले हैं।
मौजूदा संकट को अक्सर आम बोलचाल में पूंजीवाद का संकट बताया जा रहा है। यह बेशक पूंजीवाद का संकट है, लेकिन अभी विमर्श में समाजवाद या कोई दूसरी व्यवस्था बतौर विकल्प मौजूद नहीं है। असल में सरकारी प्रयासों या वाशिंगटन शिखर सम्मेलन जैसे प्रयासों से समाजवाद की स्थापना हो भी नहीं सकती है। दरअसल, आर्थिक व्यवस्थाओं का स्वरूप उत्पादन की अवस्था और उत्पादक शक्तियों के संबंध से तय होता है और इन दोनों ही पहलुओं में समाज की मौजूदा वर्ग संरचना के तहत चुनी गईं सरकारें शायद ही कोई बदलाव ला सकती हैं। इसलिए फिलहाल मुद्दा पूंजीवाद के विकल्प की तलाश नहीं है। अभी सवाल उस नव-उदारवाद का भविष्य है, जिसने पिछले साठ साल में पूंजीवाद का सबसे बेलगाम और सबसे बेरहम रूप दुनिया के सामने पेश किया है।
इसलिए यह अनावश्यक नहीं है कि मौजूदा संकट के दौर में फ्रैंकलीन डेनालो रूजवेल्ट का नाम बार-बार चर्चा में आया है। १९२९ की महामंदी के बाद रूजवेल्ट राष्ट्रपति चुने गए थे और उन्हें अमेरिका को उस संकट से निकालने का श्रेय दिया जाता है। रूजवेल्ट कोई समाजवादी नहीं थे। उन्होंने जॉन मेनार्ड कीन्स के आर्थिक विचारों के मुताबिक संकट का हल निकालने की कोशिश की और उसमें कामयाब रहे। रूजवेल्ट की खूबी यह थी कि उन विचारों को अपनाने पर वो मजबूती से कायम रहे और इसके लिए उन्होंने दक्षिणपंथी रुझान वाले अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट से भी टक्कर ली। आखिरकार अर्थव्यवस्था में सरकारी हस्तक्षेप के विचार को स्थापित किया।
रूजवेल्ट की इस सफलता के प्रतिवाद के रूप में ही अमेरिकी निजी पूंजी ने नव-उदारवाद के विचार के प्रसार में अपनी ताकत झोंकी। इसके लिए थिंक टैंक बनाए गए, मीडिया का इस्तेमाल किया गया और धीरे-धीर राजनीतिक संस्थाओं पर वर्चस्व कायम किया गया। १९९१ में सोवियत संघ के विघटन के बाद सारी दुनिया में यह विचारधारा तेजी से फैली। भारत जैसे तीसरी दुनिया के देश में, जहां आजादी के बाद अपनाई गई मिश्रित अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक नीतियों को खासी अहमियत दी गई, वहां भी १९९० के दशक में नव उदारवाद की लहर चल पड़ी। यह लहर इतनी जोरदार रही है कि इसमें उस नेहरुवाद को भी एक तरह से दफ़ना दिया गया, जिसकी बुनियाद पर नए भारतीय राष्ट्र की नींव डाली गई थी।
नव-उदारवाद की मूल बात यह है कि निजी पूंजी और बाजार की शक्तियों पर कोई नियंत्रण नहीं होना चाहिए। दुनिया को इस नियंत्रणहीनता का परिणाम अब देखने को मिल रहा है। बाजार की शक्तियां स्वस्थ और ठोस विकास का कोई रास्ता तो नहीं निकाल सकीं, झूठे वायदों और अनुमानों पर बबूले पैदा करने की अर्थव्यवस्था उन्होंने जरूर खड़ी की जिसमें आए धन और पूंजी की लूट-खसोट की गई और अंत में उसका नतीजा भुगतने को सारी दुनिया को छोड़ दिया गया। बबूले बनने और फूटने का क्रम कई बार हुआ और आखिरकार अब वह संकट सामने आया है, जिसका हल निकालने में नव-उदारवादी ताकतें नाकाम नजर आ रही हैं। सवाल है कि क्या दुनिया भर की सरकारों में आज नव-उदारवाद की इस नाकामी को समझने और उसका विकल्प ढूढने का माद्दा है?
फिलहाल मुद्दा यह नहीं है कि पूंजीवाद रहेगा या नहीं। अभी मुद्दा यह है कि पूंजीवाद के भीतर कीन्स के आर्थिक विचारों और रूजवेल्ट के न्यू डील जैसी पहल की गुंजाइश है या नहीं? और एक खास परिस्थिति के भीतर जवाहर लाल नेहरू ने विकास का जो रास्ता तैयार किया, क्या उसे इस नए अनुभव के बावजूद मखौल उड़ाने का विषय माना जाता रहेगा? यह धीरे-धीरे साफ होता जा रहा है कि दुनिया की अर्थव्यवस्था को कीन्स, रूजवेल्ट और नेहरू के रास्ते को अपनाते हुए भी फिर से पटरी पर लाया जा सकता है। लेकिन बुश प्रशासन लेकर अपने मनमोहन सिंह और चिदंबरम का रुख इसी बात की ही मिसाल है कि बेलगाम निजी पूंजी में निहित स्वार्थ रखने वाली ताकतें और उनके नुमाइंदे दुनिया के व्यापक हित की कीमत पर भी इन रास्तों में रुकावट बनने की पूरी कोशिश कर रही हैं। और इसीलिए मौजूदा आर्थिक मंदी लगातार गहरी होती जा रही है और दूर तक कोई समाधान नज़र नहीं आ रहा है।
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