Friday, December 26, 2008

साजिश की सोच के सरोकार


सत्येंद्र रंजन
मुंबई पर आतंकवादी हमले के कुछ ही दिन के भीतर ये चर्चा कई हलकों में सुनी जानी लगी कि इस हमले के पीछे हिंदू-यहूदी चरमपंथियों और अमेरिका का हाथ है। जी नहीं, हम पाकिस्तान के मीडिया की बात नहीं कर रहे हैं। हम बात भारत के उन समूहों की बात कर रहे हैं, जो अपने को न सिर्फ प्रगतिशील, बल्कि क्रांतिकारी भी मानते हैं। ये मुमकिन है कि ऐसे मौकों पर कॉरपोरेट मीडिया में अंधराष्ट्रवाद की जो लहर आती है, उससे बेचैन हो जाते हों और एक दूसरे चरम पर जाकर उतनी ही विवेकहीन प्रतिक्रिया जताने लगते हों। बहरहाल, यह साफ कि ऐसी प्रतिक्रिया विशुद्ध रूप से भावनात्मक होती है, और उससे तर्क-वितर्क की ज्यादा गुंजाइश नहीं होती। इसके बावजूद ऐसी सोच पर चर्चा जरूर होनी चाहिए। इसलिए कि भले ही साजिश के ऐसे सिद्धांत हाशिये पर ही रहते हों, लेकिन यह उन लोगों का समूह है, जो मौजूदा व्यवस्था का विकल्प उपलब्ध कराने का भ्रम रखते हैं और ऐसा ही दावा करते हैं।

वर्षों के अनुभव से यह समझ अब ठोस रूप ले चुकी है कि राजनीति के व्यापक दायरे में जो बहुत सी बातें कही जाती हैं, उनका सबका आधार राजनीतिक और वैचारिक या विचारधारात्मक रुख नहीं होता। बल्कि बहुत से सामाजिक-राजनीतिक संगठनों के रुख या सार्वजनिक बयानों का आधार दरअसल मनोवैज्ञानिक होता है। कोई भी क्रांतिकारी या प्रगतिशील विचारधारा जहां समाज और उसके विकासक्रम की वस्तुगत समझ पर आधारित होती है, वहीं कुछ संदर्भों में विरोध का मनोविज्ञान ऐसी जटिल प्रक्रियाओं और परिस्थितियों को समझ सकने की अक्षमता का भी परिचायक होता है। ऐसी अक्षमता के शिकार समूहों में, जिस बात को ज्यादातर लोग मानते हों, वैसी हर बात को नकारने और उसका विरोध करने की प्रवृत्ति सहज देखी जा सकती है। यह ऐसा मनोविज्ञान इस बन जाता है, जिसमें सबसे अलग रुख लेना और उसमें ही अपनी सार्थकता समझना आम हो जाता है। जाहिर है, इसमें विवेक और जिम्मेदारी की भावना की बलि चढ़ा दी जाती है।

मुंबई के हमलों के पीछे हिंदू-यहूदी चरमपंथियों और अमेरिका का हाथ देखना सिर्फ इसी मनोविज्ञान की अभिव्यक्ति है। और चूंकि ये लोग भारत में रहते हैं, जहां मीडिया और शासक समूहों ने पहले के अनेको मौकों की तरह मुंबई पर हमलों के फौरन बाद भी पाकिस्तान विरोधी माहौल बना दिया, इसलिए एक दूसरे चरम पर जाकर पाकिस्तान से सहानुभूति रखना का अपना फर्ज उन्होंने इस मौके पर भी निभाया है। इसी मानसिकता का एक और इजहार अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री अब्दुल रहमान अंतुले के हेमंत करकरे के बारे में दिए गैर जिम्मेदाराना बयान का बचाव भी है, जिसमें इस समूह के लोगों ने अपनी धर्मनिरपेक्षता की प्रखरता देखी।

जबकि प्रगतिशीलता औऱ धर्मनिरपेक्षता का तकाजा यह है कि मुंबई पर हमलों को धार्मिक कट्टरपंथ और आतंकवाद के लगातार बढ़ रहे खतरे के संदर्भ में देखा जाए। हमलावर पाकिस्तान से आए, इसमें शायद ही कोई संदेह है। लेकिन इसमें पाकिस्तान सरकार का कोई हाथ है, यह शक करने की शायद ही कोई वजह है। बल्कि पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी के इस बयान पर सहज भरोसा किया जा सकता है कि हमले के पीछे नॉन स्टेट ऐक्टर्स (यानी ऐसे लोग जिन पर सरकार का नियंत्रण नहीं है) शामिल थे। उन नॉन स्टेट ऐक्टर्स पर काबू पाना और उनके आतंकवादी ढांचे को खत्म करना निसंदेह पाकिस्तान सरकार की जिम्मेदारी है, लेकिन यह काम कठिन और पेचीदा है, इसे हम सभी जानते हैं। बेहतर होता, अगर इस बात को ध्यान में रखते हुए सारी चर्चा होती।

अगर ऐसा होता तो भारत और पाकिस्तान के बीच बहुत लंबे इंतजार और बड़ी मेहनत से शुरू हो सकी शांति प्रक्रिया आतंकवादियों की मंशा के मुताबिक मुंबई हमलों का शिकार नहीं होती। भारत और पाकिस्तान दोनों का दीर्घकालिक हित इस शांति प्रक्रिया की सफलता से जुड़ा है। यह शांति प्रक्रिया संभवतः पाकिस्तान में आतंकवादी ढांचे के खत्म होने और इस्लामी कट्टरपंथ एवं फौज का गठबंधन टूटने की एक अनिवार्य शर्त भी है।

आज प्रगतिशाली समूहों की जिम्मेदारी इसी बात पर जोर देने की है। पाकिस्तान से जंग न सिर्फ परिस्थितियों को और उलझा देगी, बल्कि उससे भारत के लिए कहीं ज्यादा बड़े खतरे पैदा हो जाएंगे। दूसरी तरफ शांति प्रक्रिया धीरे-धीरे आतंक के उस आधार को खत्म कर सकती है, जिससे मुंबई जैसे हमलों को अंजाम देना मुमकिन होता रहा है। लेकिन बीच की अवधि में यह भी जरूरी है कि पाकिस्तान सरकार पर कट्टरपंथ और आतंकवादी ढांचे पर कार्रवाई करने के लिए अंतरराष्ट्रीय दबाव लगातार बढ़ाया जाए। मुंबई हमलों के बाद इस दिशा में भारत सरकार ने जो पहल की है, वो काफी हद तक सही रास्ते पर है।

उन्नीसवीं सदी के अंत और पूरी बीसवीं सदी में भारत के जिस विचार का उदय हुआ, मजहबी कट्टरपंथ हमेशा उसका एक प्रतिवाद (एंटी-थीसीस) रहा है। हिंदू और इस्लामी कट्टरपंथ ने बीसवीं सदी के आरंभ से उस भारत को चुनौती दी जो दादा भाई नौरोजी, रवींद्र नाथ टैगोर, महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू जैसे नेताओं की वैचारिक छत्रछाया में उभर रहा था, और जिसे समृद्ध बनाने में बहुत से वामपंथी मनीषियों ने बहुमूल्य योगदान दिया। भारत का वह विचार- जिसे मानव गरिमा, समता और स्वतंत्रता के आधुनिक सिद्धांतों के आधार पर विकसित किया गया। मुस्लिम और हिंदू सांप्रदायिक ताकतों ने साम्राज्यवाद से मिल कर इसी विचार के विरोध में दो राष्ट्र के सिद्धांत को न सिर्फ पेश किया, बल्कि उसके आधार पर देश के विभाजन की परिस्थिति भी पैदा की। आजादी के बाद भी ऐसी ताकतों से इस भारत को लगातार चुनौती मिली है। १९८०-९० के दशक में सिख कट्टरपंथियों ने भारत की एकता के लिए गंभीर खतरा पेश किया।

आज विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या जनता के ज्यादातर समूहों के हित भारत के आधुनिक विचार के साथ जुड़े हैं या संवैधानिक जनतंत्र के सहारे विकसित हो रहे भारत को कमजोर करने से अधिकांश जनता का हित सधेगा? और जो ताकतें इस भारत को कमजोर करना चाहती हैं, क्या उनका मकसद किसी भी प्रगतिशील विचारधारा से मेल खाता है? कट्टरपंथी और आतंकवादी- चाहे वो हिंदू हों या मुस्लिम या फिर सिख या ईसाई- इंसान की मूलभूत स्वतंत्रता और बुनियादी मानवाधिकारों को मजबूती प्रदान करने वाली शक्तियां हैं या वो इन लक्ष्यों के हासिल करने के रास्ते में सबसे बड़ी रुकावट हैं? अगर उनके वर्ग चरित्र पर गौर करें तो क्या वे वंचित तबकों के हितों की नुमाइंदगी करती हैं या उनकी पीठ पर ऐसे तबकों का हाथ है, जिनका सीधा टकराव प्रगतिशील व्यवस्थाओं से है?

अगर इस सवालों पर वस्तुगत नजरिए से सोचा जाए तो यह आसानी से समझा जा सकता है कि दुनिया अभी विकासक्रम की जिस अवस्था में है, उसमें भारत की राज्य-व्यवस्था का हर हाल में विरोध न तो क्रांतिकारिता है और न ही इससे किसी प्रगतिशील उद्देश्य की प्राप्ति होती है। ऐसे उद्देश्यों की प्राप्ति की सबसे पहली शर्त- विरोध और समर्थन के मुद्दों की तार्किक ढंग से पहचान है। अगर इस पहचान में हम सक्षम हो जाएं तो हर जगह साजिश के हवाई सिद्धांत गढ़ने की हमें जरूरत नहीं रहेगी। बहरहाल, यह तो साफ है कि ऐसी साजिश की सोच का कोई बड़ा सरोकार नहीं है। बल्कि यह बड़े सरोकारों के खिलाफ है।

Friday, December 19, 2008

वीपी सिंहः एक श्रद्धांजलि


सत्येंद्र रंजन
मुंबई में आतंकवादी हमले के सदमे और शोर के बीच भारत की एक अहम राजनीतिक शख्सियत दुनिया से उठ गई। विश्वनाथ प्रताप सिंह के निधन की खबर को भारतीय राष्ट्र पर मंडराते उस गंभीर संकट के बीच महसूस तो किया गया, लेकिन उस माहौल में इस पर चर्चा नहीं हो सकी। बहरहाल, वीपी सिंह ऐसी क्षणिक चर्चा के मोहताज नहीं थे। भारतीय राजनीति पर उनका असर कहीं दीर्घकालिक और दूरगामी है।

आम तौर पर वीपी सिंह को मंडल मसीहा के रूप में याद किया जाता है। यह नाम उन्हें प्रधानमंत्री रहते हुए अन्य पिछड़ी जातियों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण देने के उनके फैसले की वजह से मिला। यह एक ऐतिहासिक फैसला था और आज इस मुद्दे पर देश में राजनीतिक आम सहमति है, तब उस कदम के महत्त्व को कहीं बेहतर ढंग से समझा जा सकता है। वीपी सिंह ने जब मंडल आयोग की सिफारिश को लागू किया, तो उनके मकसद और तरीके पर कई सवाल उठे। उस फैसले के खिलाफ सवर्ण जातियों की घोर प्रतिक्रिया हुई। मोटे तौर पर इन्हीं जातियों से आने वाले अभिजात्य और शहरी मध्य वर्ग हमेशा के लिए उनके खिलाफ हो गए। कारपोरेट मीडिया में उनकी जो खलनायक की छवि बनी, वह उनकी मृत्यु के दिन तक खत्म नहीं हुई।

लेकिन इस कदम ने देश की राजनीति का स्वरूप ही बदल दिया। पूरे उत्तर भारत में व्यापक जन समुदाय की सोयी हुई राजनीतिक आकांक्षाएं इससे जिस तरह जगीं और उससे जिस नई राजनीतिक ऊर्जा का संचार हुआ, उसका असर आज सहज देखने को मिलता है। इससे देश की राजनीतिक व्यवस्था ज्यादा लोकतांत्रिक और ज्यादा प्रातिनिधिक बनी। इसकी प्रतिक्रिया में यथास्थितिवादी ताकतें भी गोलबंद हुईं, जिससे दक्षिणपंथी राजनीति को नई ताकत मिली और उनका ज्यादा उग्र रूप देखने को मिला। इन दोनों परिघटनाओं से जो सामाजिक और राजनीतिक संघर्ष शुरू हुआ, वह आज भी जारी है।

इसी संघर्ष का परिणाम है कि वीपी सिंह को लेकर देश में दो परस्पर विरोधी धारणाएं हैं। देश का एक तबका उन्हें आधुनिक भारतीय राष्ट्र के मूलभूत आधार- सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता- के प्रतीक के रूप में देखता है, तो दूसरी तरफ बहुत से लोगों के लिए वो नफ़रत के पात्र हैं। ऐसे लोग उन पर समाज को तोड़़ने और जातीय विद्वेष पैदा करने का इल्ज़ाम लगाते हैं। संभवतः परस्पर विरोधी दो ऐसी उग्र धारणाएं हाल के इतिहास में किसी और नेता के लिए नहीं रही। और यही वीपी सिंह की प्रासंगिकता है।

बहरहाल, वीपी सिंह मंडल मसीहा बाद में बने। ऐसा मसीहा बनने की हैसियत उन्होंने इसके पहले बगैर इस मुद्दे पर राजनीति किए हासिल की थी। यानी इसके पहले उन्होंने अपनी ऐसी हैसियत बनाई, जिससे वे प्रधानमंत्री के पद तक पहुंच सके। यह यात्रा डेढ़- पौने दशक से ज्यादा की नहीं थी। इस दौरान उनका सारा प्रभामंडल दो पहलुओं से बना- सत्ता का मोह और भ्रष्ट न होने की छवि। १९८० में उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बने तो राज्य को उन्होंने डाकुओं से मुक्ति दिलाने का वादा किया, जिनका उन दिनों, खासकर चंबल के इलाके में भारी आतंक था। दो साल में ऐसा नहीं कर पाए तो इस्तीफा पेश कर दिया। राजीव गांधी के शासनकाल में वित्त मंत्री बने तो देश के बड़े उद्योगपतियों पर कर चोरी के आरोप में छापे डलवाने का एक सिलसिला चलाया। इससे उद्योग जगत का इतना दबाव पड़ा कि राजीव गांधी ने उनसे वित्त मंत्रालय छीन कर उन्हें रक्षा मंत्री बना दिया। यह कदम राजीव गांधी को बेहद महंगा पड़ा, क्योंकि अब वीपी सिंह ने रक्षा सौदों में होने वाले भ्रष्टाचार पर नकेल कसनी शुरू कर दी। इससे एचडीडब्लू पनडुब्बी और बोफोर्स जैसे विवाद उठे, जिससे राजीव गांधी और कांग्रेस की एकछत्र सत्ता की बुनियाद हिल गई।

जब बतौर वित्त मंत्री वीपी सिंह उद्योगपतियों पर निशाना साधे हुए थे, तब उन्होंने एक गौरतलब बात कही थी। उन्होंने कहा था कि इस देश में जैसे एक गरीबी रेखा है, वैसे ही एक ‘जेल रेखा’ भी है। इस देश में एक खास सीमा से ज्यादा आमदनी वाला व्यक्ति जेल नहीं जाता है, चाहे वह कैसा भी अपराध करे। तब वीपी सिंह ने कहा था कि उनका मकसद कानून के दायरे को इस ‘जेल रेखा’ से ऊपर रहने वाले लोगों को पहुंचाना है। रक्षा सौदों में भ्रष्टाचार को मुद्दा बना कर उन्होंने राजनीतिक भ्रष्टाचार को सबसे अहम राष्ट्रीय मुद्दा बना दिया। जाहिर है, ऐसे मुद्दों के आधार पर जब उन्होंने एक बार फिर इस्तीफे को औजार बनाया, राजीव गांधी की सरकार छोडी तथा उन्हें कांग्रेस से निकाल दिया गया तो वे कांग्रेस विरोधी गठबंधन के स्वाभाविक नेता बन गए।

इसके बाद वीपी सिंह ने जिस सरकार का नेतृत्व किया, वह इस लिहाज से अजूबा थी कि वह एक साथ वामपंथी दलों और लगातार उग्र सांप्रदायिक रूप अपना रही भारतीय जनता पार्टी के समर्थन पर निर्भर थी। खुद वीपी सिंह की अपनी पार्टी, यानी जनता दल भी महत्त्वाकांक्षी एवं सत्ता लोलुप नेताओं के एक जमावड़े से ज्यादा कुछ नहीं था। यह सरकार ज्यादा दिन नहीं टिक सकती थी, यह बात शुरू से साफ थी। एक ऐसी अस्थिर और अल्पकालिक सरकार के साथ वीपी सिंह ने मंडल आयोग की रिपोर्ट पर अमल जैसा स्थायी महत्त्व का कदम उठाया और लालकृष्ण आडवाणी की राम रथयात्रा को रोकते हुए धर्मनिरपेक्षता की रक्षा के मुद्दे पर अपनी सरकार गिरने दी, यह उनकी सियासी चतुराई भी कही जा सकती है, लेकिन इससे एक ऐसी राजनीतिक पहल हुई, जिसने वीपी सिंह को लंबे समय तक के लिए प्रासंगिक बना दिया।

बहरहाल, वीपी सिंह जब दुनिया से विदा हुए हैं, उस वक्त अगर सामाजिक न्याय के सवाल को छोड़ दें तो राजनीति की स्वच्छता, भ्रष्टाचार का खात्मा, और धर्मनिरपेक्षता को सुरक्षित बनाने जैसे वो तमाम मुद्दे जहां के तहां नजर आते हैं, जिन्हें वीपी सिंह ने उठाया और जिनके आधार पर वो राजनीति में आगे बढ़े। इसे वीपी सिंह की नाकामी माना जा सकता है। या, यह कहा जा सकता है कि वे भी एक ऐसे राजनेता थे, जो जनता का मूड भांप कर मुद्दे उठाता था और उसका फायदा उठा कर आगे बढ़ जाता था। उसे अंजाम तक पहुंचाने की फिक्र उसे नहीं होती थी। यह हकीकत है कि इसके लिए उन्होंने संगठित ढंग से काम करने का प्रयास कभी नहीं किया। यह भी कहा जा सकता है कि मंडल का मंत्र भी उन्होंने एक खास परिस्थिति में ग्रहण किया, वह कोई उनकी बुनियादी निष्ठा नहीं थी। इन तथ्यों की रोशनी में वीपी सिंह को सस्ती जनप्रियता की राजनीति करने वाले एक नेता के रूप में भी देखा जा सकता है, जो मौजूदा व्यवस्था का ही एक हिस्सा थे।

इसके बावजूद कुछ विशेषताएं वीपी सिंह को सबसे अलग करती थीं। सत्ता को दांव पर लगाने का साहस और अलोकप्रिय होने का जोखिम उठाते हुए भी विवादास्पद फैसले की हिम्मत उन्हें एक खास छवि देती थी। एकांत पसंद निजी जिंदगी में कला और कविता को अभिव्यक्ति का माध्यम बनाने वाली इस शख्सियत के लिए सियासत में ऐसा करना मुमकिन होता रहा। और तभी एक बार वे प्रधानमंत्री पद की कुर्सी को ठुकरा सके और बतौर नागरिक की अपनी भूमिका में प्रासंगिक बने रह सके। गौरतलब है कि १९९६ में जब संयुक्त मोर्चा का प्रयोग हुआ तो उस समय वीपी सिंह इसके स्वाभाविक नेता थे। प्रधानमंत्री की कुर्सी एक बार फिर उनके सामने थी। लेकिन तब उन्होंने सचमुच यह दिखाया कि सत्ता का उनमें तुच्छ मोह नहीं है। दरअसल, इसके पहले ही वीपी सिंह अपनी भूमिका एक जागरूक नागरिक के रूप में सीमित चुके थे, जिसकी वजह से एक पत्रिका ने उन्हें ‘सिटीजेन सिंह’ नाम दिया था। इस भूमिका के साथ वीपी सिंह ने यह साबित किया कि राजनीति में सत्ता अहम और शायद सबसे अहम चीज होती है, लेकिन आखिरी चीज नहीं होती। सत्ता के बिना भी प्रासंगिक बने रहा जा सकता है, अगर आपके पास एक विचार और खास मकसद हो। यही वीपी सिंह का महत्त्व है।