सत्येंद्र रंजन
कोपेनहेगन सम्मेलन के आखिरी दिन एक अंग्रेजी अखबार ने लिखा- ‘धरती बचाने पहुंचे नेता अपना चेहरा बचाने में जुटे हैं।’ जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर कोपेनहेगन में चल रहे संयुक्त राष्ट्र के सम्मेलन में तब तकरीबन १३० देशों के सरकार प्रमुख पहुंच चुके थे, जबकि १९४ देशों के प्रतिनिधि पिछले दस दिन से वार्ताओं और सौदेबाजियों में लगे थे, लेकिन सम्मेलन नाकाम होने के कगार पर दिख रहा था। आखिरकार सम्मेलन की आखिरी रात अचानक चेहरा बचाने वाला एक समझौता कर लिया गया। और इस तरह सचमुच धनी देशों के नेता, और उनमें भी खासकर अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा अपना चेहरा बचाने में कामयाब हो गए। हम भारतीयों का दुर्भाग्य यह है कि धनी देशों की इस कोशिश में हमारी सरकार भी सहभागी बनी। पहले से चर्चा के केंद्र में रहे तमाम मसविदों को दरकिनार कर एक नए मसविदे के साथ धनी देशों को चेहरा बचाने का नक़ाब चार देशों के गुट- बेसिक- यानी ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, भारत और चीन- ने ही मुहैया कराया। अगुआई चीन के प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ ने की और मनमोहन सिंह, लुइज इनेसियो लुला दा सिल्वा और जैकब जुमा ने बाकी विकासशील देशों को अंधेरे में भटकता छोड़ कथित रूप से अपने देशों के हितों की चिंता करते हुए समझौते का एक नाटक गढ़ लिया। यह उनका दिया ही तोहफा है कि कोपेनहेगन सम्मेलन की खुली नाकामी के बावजूद एक ऐसे समझौते की बदौलत जो असल में समझौता है नहीं, बराक ओबामा सम्मेलन को कामयाब बता रहे हैं। पहले कोपेनहेगन में ओबामा ने बेसिक देशों के साथ बनी सहमति को “सार्थक समझौता” बताया और फिर वाशिंगटन पहुंच कर वे यह दावा कर सके कि “बेहद मुश्किल और पेचीदा बातचीत के बाद हासिल हुई इस महत्त्वपूर्ण सफलता से आने वाले वर्षों में अंतरराष्ट्रीय कदमों के लिए आधार तैयार हुआ है।”
लेकिन यह समझौता दुनिया के जागरूक जनमत को नहीं बहला सका है। कथित समझौते के बाद १८ दिसंबर की रात जब विभिन्न देशों के नेता कोपेनहेगन से लौटने की अफरातफरी में थे, उस वक्त की स्थितियों का बयान करते हुए ग्रीनपीस संस्था की ब्रिटिश शाखा के कार्यकारी निदेशक जॉन सोवेन ने कहा- “कोपेनहेगन शहर में आज रात एक अपराध का नज़ारा है, जिसमें अपराधी हवाई अड्डे की तरफ भागते दिखे हैं।” छोटे से द्वीप तुवालू से लेकर बोलिविया, वेनेजुएला, निकरागुआ, सूडान, पाकिस्तान और मलेशिया आदि की प्रतिक्रियाओं में नाकामी को समझौते की आड़ देने की कोशिशों के प्रति विकासशील देशों के गुस्से का इज़हार हुआ। तुवालू के प्रतिनिधि इयन फ्राई ने कहा- “अगर बाइबिल का संदर्भ देते हुए कहूं तो यह ऐसा लगता है जैसे हमें अपना भविष्य बेच देने के बदले चांदी के ३० टुकड़े दिए गए हैं।” दरअसल, यूरोपीय नेता भी अपनी मायूसी छिपा नहीं पाए। ब्रिटिश प्रधानमंत्री गॉर्डन ब्राउन और जर्मनी की चांसलर एंगेला मार्केल ने स्वीकार किया कि सम्मेलन के नतीजों से वे निराश हैं, तो यूरोपीय संघ के अध्यक्ष होजे मनुएल बारोसो ने कहा- “समझौते में बाध्यकारी प्रावधान शामिल न होने से मैं निराश हूं।”
गुस्सा इसलिए है क्योंकि इस समझौते में जलवायु न्याय की बात छोड़ दी गई है। मायूसी इसलिए है क्योंकि समझौते के नाम पर जो दस्तावेज पेश किया गया है, उसमें इस सदी के अंत तक धरती का तापमान पूर्व औद्योगिक स्तर से दो डिग्री सेल्शियस से ज्यादा न बढ़ने देने का इरादा जताने के बावजूद ग्लोबल वॉर्मिंग को कैसे रोका जाएगा, इसका कोई उपाय इसमें वर्णित नहीं है। बाढ़-सूखा जैसी स्थितियों से निपटने और ग्रीन टेक्नोलॉजी अपनाने में मदद के लिए २०२० तक गरीब देशों के लिए १०० अरब डॉलर जुटाने की बात इसमें जरूर है, लेकिन उस रकम में किस देश का कितना योगदान होगा, इसका कोई जिक्र नहीं है।
वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर हैं कि धरती का तापमान बढ़ने से रोकने के लिए सबसे अहम कदम ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती है। यूनाइटेड नेशन्स फ्रेमवर्क कन्वेशन ऑन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसीसी) और उसी के अगले कदम के बतौर हुए क्योतो प्रोटोकॉल में यह माना गया था कि धरती को बचाने की जिम्मेदारी सबकी है, लेकिन जिसने तापमान बढ़ाने में जितना योगदान किया है, उसे उतनी कुर्बानी देनी होगी। कोपेनहेगन में इस सिद्धांत की जैसे बलि चढ़ा दी गई है। न तो किसी देश के लिए कार्बन उत्सर्जन में कटौती का कोई फौरी लक्ष्य तय किया गया और ना ही इसे बाध्यकारी बनाने के लिए किसी कानूनी प्रावधान पर जोर दिया गया। और इस तरह बराक ओबामा, गॉर्डन ब्राउन, निकलस सार्कोजी, एंगेला मार्केल आदि का मकसद पूरा हो गया। वे ग्रीन शब्दावली बोलते हुए भी बिना कोई जिम्मेदारी लिए अपनी-अपनी राजधानियों में लौट गए। जबकि अगर सम्मेलन खुले तौर पर नाकाम रहता तो अपनी जनता के सामने उन्हें जवाबदेह होना पड़ता। उनके देशों में जलवायु परिवर्तन एक मुद्दा है और इस पर एक जागरूक जनमत है, जिसे बहलाने का झुनझुना वे अब कोपेनहेगन से लेकर गए हैं।
जिसने वातावरण को जितना प्रदूषित किया, वह उसकी उतनी कीमत चुकाए- न्याय पर आधारित इस सिद्धांत को स्थापित करने के लिए विकासशील देशों को लंबा संघर्ष करना पड़ा था। इन देशों के सबसे बड़े प्रवक्ताओं ने ही कोपेनहेगन में इस सिद्धांत की अहमियत नहीं समझी, यह दुखद और निराश करने वाली बात जरूर है, लेकिन आश्चर्यजनक नहीं है। पिछले वर्षों में जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर विमर्श जिस दिशा में बढ़ रहा था, यह उसका ही नतीजा है। बल्कि अगर इस सवाल हम और भी व्यापक फलक पर ले जाकर देखें तो बात और साफ हो सकती है। भारत एवं चीन जैसे देशों की आंतरिक सत्ता संरचना के साथ-साथ विदेश नीति में पिछले दशकों में दिखे रुझानों की यह स्वाभाविक परिणति है।
कोपेनहेगन की तैयारियों के दौर में ही पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश की प्रधानमंत्री को लिखी वह चिट्ठी लीक हुई थी, जिसमें उन्होंने अमेरिका का दामन थाम लेने की खुली वकालत की थी। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को निजी तौर पर इस सोच से कोई असहमति रही होगी, उनके कुल रुझान को देखकर ऐसा नहीं लगता। अमेरिका से असैनिक परमाणु सहयोग के समझौते को जिस तरह उन्होंने अपनी निजी प्रतिष्ठा का सवाल बना लिया था और उनके शासनकाल में भारत को अमेरिका का जूनियर पार्टनर बनाने की नीतियों पर जैसे अमल किया गया है, उसे देखते हुए जलवायु परिवर्तन या किसी भी दूसरे सवाल पर उनकी सरकार के अमेरिका के सामने उससे अलग रुख लेते हुए खड़े होने की उम्मीद महज भोलेपन में ही की जा सकती है। अमेरिकी हितों की यूपीए सरकार को कितनी चिंता है, इसकी एक मिसाल सरकार की असैनिक परमाणु देनदारी विधेयक पेश करने की तैयारी है। इस बिल के जरिए यह पहले से ही तय कर दिया जाने वाला है कि भारत में परमाणु रिएक्टर लगाने वाली विदेशी कंपनियों को भविष्य में किसी हादसे की हालत में अधिकतम कितना मुआवजा देना होगा। रूस और फ्रांस की कंपनियां तो बिना इस प्रावधान के भी भारत में रिएक्टर लगाने का करार कर चुकी हैं, मगर अमेरिकी कंपनियां अपने लिए पहले से ऐसी कानूनी सुरक्षा चाहती हैं। वे सिर्फ इससे संतुष्ट नहीं हैं कि भोपाल गैस कांड में भी भारत की सरकारें घुटनाटेक अवस्था में ही रहीं और उन्होंने यूनियन कार्बाइड के प्रमुख एंडरसन के प्रत्यर्पण के लिए कभी गंभीर कोशिश नहीं की। एक तरफ किसी हद तक जाकर अमेरिका को खुश करने की यह बेताबी है, तो दूसरी तरफ ओबामा प्रशासन असैनिक परमाणु करार और अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी से मिली छूट के बावजूद भारत को यूरेनियम संवर्धन एवं रीप्रोसेसिंग तकनीक मिलने के रास्ते में हर संभव बाधा खड़ी कर रहा है।
मगर भारत के प्रभु वर्ग को लगता है कि उसके हित अमेरिका से जुड़े हुए हैं, इसलिए भारत में वामपंथी दलों को छोड़ दें तो बाकी पूरे राजनीतिक परिदृश्य में अमेरिका का जूनियर पार्टनर बनने के सवाल पर सहमति नजर आती है। और जो हाल भारत में है वही चीन में है। चीन में तो माओ त्से तुंग के जमाने में ही हेनरी किसिंजर- रिचर्ड निक्सन की पिंग-पोंग कूटनीति कामयाब हो गई थी। राष्ट्रीय हित को सिद्धांत से ऊपर मानने का भ्रम वहां तभी जड़ें जमाने लगा था और देंग श्याओ फिंग के जमाने में तो इसे पूरी तरह स्थापित कर दिया गया। सामाजिक साम्राज्यवाद का जुमला गढ़कर सोवियत संघ को मुख्य दुश्मन और अमेरिका को कार्यनीतिक दोस्त मानने से शुरू हुई यह परंपरा विदेश नीति में अपने फौरी फायदे से आगे कोई बड़ा उद्देश्य न देखने तक में सीमित हो चुकी है। तो आज चीन यह सोचने की फिक्र क्यों करे कि तुवालू या मालदीव का क्या होगा? हू जिन ताओ और वेन जिआबाओ यह क्यों सोचें कि वातावरण में बढ़ते कार्बन की मात्रा का आज से ४० या ५० साल खुद उनकी आबादी पर क्या असर होगा? देंग के जमाने में अपनाए गए पूंजीवादी विकास के रास्ते पर तेजी से चलते हुए चीन ने आज अपने पास दुनिया की सबसे ज्यादा विदेशी मुद्रा जमा कर ली है, भले इसके साथ वह सबसे ज्यादा कार्बन उत्सर्जन करने वाला देश भी बन गया है- मगर इंसान के लिए इसके भावी परिणामों की फिक्र उसके आज के नेता क्यों करें?
दक्षिण अफ्रीका ने नेल्सन मंडेला के नेतृत्व में मानवीय प्रतिष्ठा की सबसे बड़ी लड़ाई लड़ी। मगर मंडेला के बाद राष्ट्रपति बने थाबो मबेकी के दौर में ही अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस को पूंजी का गतिशास्त्र समझ में आ गया। उससे पार्टी में असंतोष फैला और उसी की वजह से कई गंभीर आरोपों से घिरे होने के बावजूद जैकब जुमा राष्ट्रपति बन सके। उन्हें वैसे भी कोई अंतर्दृष्टि वाला नेता नहीं माना जाता, इसलिए उनसे कोई ज्यादा उम्मीद भी नहीं रहती। उधर लूला लैटिन अमेरिका में पिछले एक दशक में चली वामपंथ की लहर के अग्रणी नेता जरूर थे, लेकिन सत्ता में आने के बाद उन्होंने ‘विरोध की विरासत’ से जल्द ही नाता तोड़ लिया और सत्ता के सामाजिक-आर्थिक ढांचों के समीकरणों के साथ हो लिए। इसलिए अगर ये दोनों भी ओबामा एंड कंपनी को चेहरा बचाने का नकाब देने में शामिल हो गए, तो इसमें हैरत की कोई बात नहीं है।
ये नेता यह दावा जरूर करेंगे कि जहां जॉर्ज बुश के जमाने में अमेरिका जलवायु परिवर्तन की बात से ही इनकार करता था, वहां बराक ओबामा धरती के तापमान में बढ़ोतरी को रोकने की जरूरत तो महसूस कर रहे हैं तो उनसे किसी भी तरह का एक समझौता कर लेना ही दुनिया के हित में था। जहां तक ओबामा की बात है उन्हें इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए कि उन्होंने अमेरिका के पिछले राष्ट्रपति चुनाव में जलवायु परिवर्तन को एक मुद्दा बनाया और उनके राष्ट्रपति बनने के बाद अमेरिका की घरेलू नीति में कुछ बदलाव देखने को मिले हैं। ओबामा प्रशासन के दबाव में वहां का ऑटो-मोबाइल उद्योग ग्रीन टेक्नोलॉजी अपनाने पर सहमत हुआ है। लेकिन जैसाकि ब्रिटिश अखबार ‘द गार्जियन’ के एक टीकाकार ने लिखा कि ओबामा आखिरकार अमेरिका के राष्ट्रपति हैं और अमेरिका की नीतियां वहां के निहित स्वार्थों के दबाव में बनती हैं। वहां निहित स्वार्थों की लॉबी कितनी मजबूत है, यह बात पिछले जून में हाउस ऑफ रिप्रेजेन्टेटिव में जलवायु परिवर्तन पर बिल पेश किए जाने के समय जाहिर हुई थी। डेमोक्रेटिक पार्टी के भारी बहुमत के बावजूद यह बिल 219-212 के अंतर से ही पास हो सका। विरोधियों ने बिल पर जोरदार हमले किए। जॉर्जिया राज्य से चुने गए प्रतिनिधि पॉल ब्राउन ने तो यह कहने की जुर्रत भी दिखा दी कि जलवायु परिवर्तन की बात वैज्ञानिकों द्वारा फैलाये जा रहे एक धोखे के अलावा और कुछ नहीं है। इस पर दोनों ही पार्टियों के सांसदों ने खूब तालियां बजाईँ। हाउस ऑफ रिप्रेजेन्टेटिव में हुई बहस को देखने को बाद नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री पॉल क्रुगमैन ने द न्यूयॉर्क टाइम्स में अपने कॉलम में लिखा- “जलवायु परिवर्तन की बात से इनकार करने वालों की दलीलें सुनते हुए मैं यही सोचता रहा कि मैं एक तरह की गद्दारी देख रहा हूं- अपनी धरती से गद्दारी। जलवायु परिवर्तन की बात से इनकार करना कितना गैर-जिम्मेदारी भरा और अनैतिक है, इसे ताजा अनुसंधानों पर गौर करके समझा जा सकता है, जिनसे जलवायु परिवर्तन की बेहद गंभीर स्थिति सामने आई है।”
कोपेनहेगन में जुटे नेताओं के सामने इस गंभीर स्थिति की पूरी तस्वीर थी। लेकिन छोटे और फौरी स्वार्थों में उन्होंने भी एक तरह से धरती से गद्दारी ही की है। भारत सरकार का इसमें सहभागी बन जाना हम सबके लिए शर्मनाक है।
Wednesday, December 23, 2009
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