Saturday, April 25, 2009

क्या चुनाव में कोई मुद्दा नहीं है?

सत्येंद्र रंजन
भारतीय लोकतंत्र जब अपने एक सबसे महत्त्वपूर्ण पड़ाव से गुजर रहा है, देश के एक प्रमुख अखबार ने इसे ‘Dance of Democracy’ नाम दिया है। मेनस्ट्रीम मीडिया में आम चुनाव की चर्चा क्रिकेट की शब्दावली में होना एक सामान्य बात है। मीडिया (कुछ अपवादों को छोड़ कर) में अक्सर यह चर्चा भी सुनी जा सकती है कि इस बार चुनाव में कोई मुद्दा नहीं है। तो मीडिया की चर्चाएं अक्सर नेताओं के भड़काऊ भाषणों, एक दूसरे पर कीचड़ उछालने वाले बयान, और सतही तथा अप्रसांगिक सवालों पर टिकी हुई नज़र आती है। बात अगर कुछ आगे बढ़ी तो जातीय समीकरण और गठबंधनों की जोड़-तोड़ तक यह चली जाती है। राजनीतिक दलों के चुनाव घोषणापत्रों को बेकार की चीज मान लिया गया है, इसलिए अक्सर मीडिया में इनकी कोई चर्चा नहीं होती। लोगों के सामने निष्कर्ष यह पेश किया जाता है कि ‘सब एक जैसे हैं‘। जब ‘सब एक जैसे हैं‘ तो फिर विकल्प की बात कहां है? इसलिए यह चुनाव एक राजनीतिक ड्रामा या जैसाकि वह देश का प्रमुख अखबार कह रहा है- एक डांस है यानी नाच। इसके मजे लीजिए, इससे आगे की कोई बात सोचने या समझने की जरूरत नहीं है!

यह नजरिया लोकतंत्र के उस आयोजन के प्रति है, जिसकी प्रक्रिया में देश के करोड़ों लोग शामिल हैं। देश के करोड़ों लोग जिससे अपनी सामाजिक-आर्थिक बेहतरी की उम्मीद जोड़े हुए हैं, और जिससे समाज के उन करोड़ों को लोगों के लिए इतिहास में पहली बार रोशनी की उम्मीद पैदा हुई है, जिन्हें सामाजिक निरंकुशता के दौर में सदियों तक जाति और आर्थिक हैसियत के आधार पर दबाए रखा गया। क्या सचमुच भारतीय लोकतंत्र कुछ नेताओं की महत्त्वाकांक्षा और कुर्सी की लालसा के अलावा कुछ और नहीं है? क्या सचमुच यह सिर्फ थैलीशाहों और अपराधियों का एक खेल है, जिसमें आम जन महज खामोश दर्शक है? और इन दर्शकों की दिलचस्पी चुनाव के नाम पर होने वाले ड्रामे और मनोरंजक बयानबाजियों तक में सामित है?

इन सवालों के जवाब इस पर निर्भर करते हैं कि आप इन्हें कहां से देख रहे हैं और आपके अपने स्वार्थ क्या हैं? लोकतंत्र बेशक उन लोगों के लिए बेमायने है, जो आराम की जिंदगी जी रहे हैं, या जिनके हित सामाजिक निरंकुशता की विरासत से जुड़े हुए हैं। ऐसे तबकों के लिए लोकतंत्र एक उपलब्धि नहीं, बल्कि एक खतरनाक प्रक्रिया है, और जिसे नियंत्रित करना उनका उद्देश्य है। इसके उलट इस देश के उन करोड़ों लोगों के लिए जो अपनी बुनियादी जरूरतों और मूलभूत मानवाधिकारों से वंचित हैं, यह व्यवस्था पर अपनी पकड़ बनाने का जरिया है, जिससे वो बेहतर भविष्य की उम्मीद जोड़ सकते हैं। बीते साठ साल की अविध इन तबकों में भले ही धीमी गति से, मगर निरंतर बढ़ी जागरूकता का इतिहास है। भारतीय संविधान में एक व्यक्ति एक वोट और एक वोट एक मूल्य का जो सिद्धांत अपनाया गया, उसका असर सामने आने में कुछ वक्त लगा। लेकिन इस सिद्धांत ने उन समूहों को अभूतपूर्व अवसर प्रदान किया, जो जिनके पास अपना अधिकार जताने के लिए सिर्फ संख्या बल का सहारा था।

बीते दशकों में भारत की राजनीतिक संरचना के सामाजिक आधार में व्यापक बदलाव आया है। इससे उत्तरोत्तर लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया एक मजबूत परिघटना बन गई है। लेकिन यही परिघटना शासक समूहों के लिए परेशानी की वजह बनी हुई है। उनकी चिंता है कि इसे कैसे रोका जाए? संसद और राजनीति के प्रति अक्सर इन समूहों में जाहिर होने वाला अपमान भाव दरअसल इसी प्रतिक्रिया का बढ़ते कदम को बाधित करने की कोशिश की जाती है, प्रचार माध्यमों से जनतांत्रिक शक्तियों के खिलाफ प्रचार अभियान चलाया जाता है, और राजनीतिक विमर्श को भटकाने की कोशिश की जाती है। इन सबके बावजूद लोकतंत्र का कारवां आगे बढ़ता गया है।

यह कारवां इस चुनाव के साथ एक नए मुकाम पर पहुंचेगा, यह अनुमान भरोसे के साथ लगाया जा सकता है। यह मुमकिन है कि भारतीय पूंजीवाद की दो सबसे प्रमुख प्रतिनिधि पार्टियां- कांग्रेस और भाजपा- इस बार मिल कर भी लोकसभा की आधी सीटें न जीत पाएं। ऐसे में छोटी और क्षेत्रीय पार्टियां- जिनका पूंजीवाद से कोई वैचारिक मतभेद नहीं है, लेकिन जो अपने जनाधार के चरित्र की वजह से नई उभरी सामाजिक ताकतों की नुमाइंदगी करती हैं, एक महत्त्वपूर्ण हैसियत में हो सकती हैं। वाम मोर्चा के साथ मिल कर ये पार्टियां नई दिल्ली से पूरे देश और पूरी व्यवस्था को नियंत्रित करने की शासक वर्गों की इच्छा में एक अड़चन साबित हो सकती हैं। लोकतांत्रिक नजरिए से यह एक स्वागतयोग्य घटना होगी, लेकिन शासक वर्गों के लिए यह गहरी चिंता का विषय है, जिसे वो राजनीतिक अस्थिरता के भय के रूप में पेश करते हैं। सवाल है कि क्या मीडिया के लिए यह विमर्श का गंभीर मुद्दा नहीं है?

१९८० के दशक में भारत में सांप्रदायिक राजनीति का जोरदार उभार हुआ। १९९० के दशक में हालत यहां तक पहुंच गई कि धर्मनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक भारत का विचार खतरे में पड़ गया। २००४ के चुनाव में ऐतिहासिक जनादेश से यह खतरा टला। लेकिन यह खतरा आज भी उतनी ही गंभीरता से मौजूद है, क्योंकि सांप्रदायिक राजनीतिक का सामाजिक आधार और राजनीतिक स्वार्थ ना तो तब कमजोर पड़े थे और ना आज कमजोर हुए हैं। इसीलिए भारतीय जनता पार्टी लगातार एक मजबूत ताकत बनी हुई है। दरअसल, इस चुनाव में और आने वाले कई चुनावों में यह एक प्रासंगिक मुद्दा रहेगा कि भाजपा को कैसे सत्ता में आने से रोका जाए। इसके बावजूद अगर मीडिया का बड़ा हिस्सा यह घोषणा करता दिखता है कि इस चुनाव में कोई मुद्दा नहीं है, तो जाहिर है कि खुद मीडिया के अपने रुझान गहरे विचार-विमर्श का विषय हैं।

देश गहरी आर्थिक मंदी में है। लाखों लोग बेरोजगार हो गए हैं। कृषि क्षेत्र में तो संकट अब वर्षों पुराना हो चुका है। किसानों की आत्महत्याएं अब खबर नहीं बनतीं। इंडिया शाइनिंग का भ्रम टूट चुका है। खुद मनमोहन सिंह सरकार द्वारा नियुक्त अर्जुन सेनगुप्ता कमेटी ने यह तथ्य सामने रखा कि आज भी देश के ७७ फीसदी लोग हर व्यावहारिक अर्थ में गरीब हैं। अल्पसंख्यक समुदाय अपनी सुरक्षा और बुनियादी नागरिक अधिकारों के हनन को लेकर चिंतित हैं। अगर राजनीतिक दल इन्हें मुद्दा नहीं बनाते तो क्या समाज के प्रबुद्ध वर्ग का यह कर्त्तव्य नहीं है कि चुनाव जैसे मौके पर वो इन असली मुद्दों की चर्चा करें? लेकिन इन बातों की चर्चा सही संदर्भ में मीडिया में (कुछ अपवादों को छोड़ कर) कहीं देखने को नहीं मिलती। क्या यह महज एक चूक है?

यह चूक नहीं है। यह मीडिया के ढांचे से जुड़ा एक पहलू है, जिस पर जनतांत्रिक शक्तियों को अब जरूर चर्चा करनी चाहिए? आखिर मीडिया का एजेंडा कैसे तय होता है और कौन तय करता है? दरअसल किसी भी उद्यम का चरित्र कैसे तय होता है? जाहिर है, यह उसे नियंत्रित करने वाली पूंजी तय करती है। मीडिया आज एक बड़ा उद्यम है, और वह इस आम सिद्धांत से अलग नहीं है। इसीलिए अगर बौद्धिकता या प्रबुद्धता का मतलब परिस्थितियों के वस्तुगत विश्लेषण और ईमानदार निष्कर्ष से है, तो उस अर्थ में आज के दौर में मीडिया एक प्रबुद्ध माध्यम नहीं रह गया है। यह समाज के निहित स्वार्थों का प्रवक्ता बन गया है, क्योंकि ये शक्तियां ही इसे नियंत्रित करती हैं। अगर इन शक्तियों का हित असली मुद्दों को उलझाने या उन पर परदा डालने में है, तो स्पष्ट है, मीडिया अपनी तमाम रिपोर्टिंग और बहस को इसी मकसद से अंजाम देगा। इस अर्थ में मेनस्ट्रीम मीडिया वही कर रहा है, जो उसका मकसद और काम है।

ऐसे में क्या इसमें कोई आश्चर्य है कि जुलाई २००८ में अपनी सरकार के विश्वास मत के समय तमाम भ्रष्ट तरीके अपनाने और तिकड़म के बावजूद मीडिया में मनमोहन सिंह की छवि ‘स्वच्छ‘ बनी हुई है। आखिर मनमोहन सिंह नव-उदारवाद के उपकरण और भारत में अमेरिकन ड्रीम के प्रतीक हैं, जिसका फायदा देश के उच्च और उच्च मध्यम वर्ग ने खूब उठाया है। मनमोहन सिंह ने वामपंथी दलों के समर्थन से चार साल सरकार चलाने के बाद उनसे टकराव लिया, इस पर इन तबकों ने खूब तालियां पीटीं, इसलिए कि जिन वामपंथी दलों को नव-उदारवादी नीतियों के रास्ते में रुकावट माना जाता था, आखिरकार मनमोहन सिंह ने उनसे पीछा छुड़ा लिया। अब मेनस्ट्रीम मीडिया यही चाहता है कि एक ऐसी सरकार बने जो वामपंथी दलों पर निर्भर न हो

लेकिन भारत ऐसी इच्छाओं के दायरे से बहुत बड़ा है। लोकतंत्र का दायरा अब ऐसी इच्छाओं की पहुंच से ज्यादा बड़ा हो चुका है। आम जन की अपेक्षाएं अब दिल्ली और मुंबई में बैठ कर नियंत्रित नहीं की जा सकतीं। इसलिए १५वें आम चुनाव का परिणाम अभी अनिश्चित होने के बावजूद यह जरूर अनुमान लगाया जा सकता है कि अगली लोकसभा में देश की नई उभर रही ताकतों के प्रतिनिधियों की महत्त्वपूर्ण उपस्थिति होगी। मेनस्ट्रीम मीडिया आरामदेह ड्राइंग रूम में बैठकर देश-दुनिया की चर्चा करने वाले अपने दर्शकों और पाठकों को नई स्थितियों से भयाक्रांत कर सकता है, उन्हें खुश करने के लिेए इन स्थितियों का मजाक उड़ा सकता है, और चुनाव में कोई मुद्दा नहीं है- जैसी बातें कह कर लोकतांत्रिक प्रक्रिया की साख कम करने की कोशिश कर सकता है, लेकिन इससे देश की हकीकत नहीं बदल जाएगी। इससे लोकतंत्र का आगे बढ़ता कारवां नहीं थमेगा और न ही इससे उन वर्गों का उत्साह थमेगा, जिनक लिए लोकतंत्र की सफलता उनके बेहतर भविष्य की गारंटी है।

Friday, April 10, 2009

मुद्दा वही, विकल्प धुंधला


सत्येंद्र रंजन
लोकसभा चुनाव के लिए लड़ाई की लकीरें अब साफ हो गई हैं। जितने राज्य, उतने तरह के समीकरण। इन समीकरणों के परिणाम के कुल योग से अगली लोकसभा का स्वरूप बनेगा और देश को नई सरकार मिलेगी। सबसे अहम सवाल यही है कि वह सरकार कैसी होगी? एक ऐसी सरकार जिसकी धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र में आस्था होगी, या सांप्रदायिक फासीवाद के नुमाइंदे फिर से देश की सत्ता पर सवार हो जाएंगे?

इस बार सांप्रदायिक फासीवाद का मुखौटा लालकृष्ण आडवाणी हैं। भारतीय जनता पार्टी ने ११ साल बाद फिर से अपना अलग चुनाव घोषणापत्र जारी किया है। उसमें हिंदू राष्ट्रवाद को मौजूदा संदर्भ में सबसे स्पष्ट रूप से व्यक्त करने वाले तीन मुद्दों- राम जन्मभूमि, समान नागरिक संहिता और संविधान की धारा ३७० के खात्मे- को फिर से खुल कर राजनीतिक वादे के रूप में शामिल किया गया है। इससे पहले फरवरी में नागपुर में हुई भाजपा की राष्ट्रीय परिषद की बैठक से भी यही संदेश मिला कि भाजपा बार अपने मुख्य जनाधार की ज्यादा चिंता करते हुए हिंदुत्व से जुड़े मुद्दों को जोर-शोर से उठाएगी। चुनाव अभियान शुरू होते ही वरुण गांधी के प्रकरण से हिंदुत्व के मुद्दे में नई जान आ गई।

बहरहाल, अगर भाजपा सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की रणनीति पर चल रही है तो इसमें कोई अचरज की बात नहीं है। यह भाजपा का घोषित उद्देश्य है। वह अल्पसंख्यक द्वेष, बहुसंख्यक समुदाय के भीतर असुरक्षा की फर्जी भावना और आधुनिक मुल्यों के प्रति हिकारत फैला कर ही यह उद्देश्य पूरा कर सकती है। लालकृष्ण आडवाणी ने कुछ दिन पहले कहा- ‘मंदिर मुद्दे की वजह से ही भाजपा केंद्र और कई राज्यों में सत्ता आ सकी। इस मुद्दे ने भारतीय राजनीति की धारा बदल दी।’

मंदिर का मुद्दा आखिर क्या था? यह मुस्लिम समुदाय के प्रति नफ़रत फैलाने की एक ऐसी मुहिम थी, जिसका मकसद हिंदु समुदाय के एक बड़े हिस्से के मन में बैठे पूर्वाग्रहों को उभारना और उसकी बदौलत राजनीतिक गोलबंदी करना था। १९८० और ९० के दशकों में देश में मौजूद माहौल के बीच यह तरीका काफी कामयाब रहा। भाजपा एक बार फिर वही माहौल बनाना चाहती है। तनाव और दंगों का माहौल। पिछले २० साल के अनुभव ने यह साबित कर दिया है कि भाजपा के पास कोई ऐसा खास सामाजिक-आर्थिक कार्यक्रम नहीं है, जिसके आधार पर वह राजनीतिक बहुमत जुटा सके। उसकी जीत की सिर्फ दो स्थितियां हैं- एक, कांग्रेस या किसी अन्य धर्मनिरपेक्ष पार्टी की सरकार के खिलाफ एंटी इन्कबेंसी, और दो- उग्र हिंदुत्व की लहर।

इसलिए भाजपा हिंदुत्व की लहर उभारने की कोशिश में रहती है। इसी से उसका मुख्य आधार उत्साहित होता है। यह संघ परिवार और उससे प्रभावित आधार है। इस आधार के मुख्य प्रवक्ता मोहन भागवत, प्रवीण तोगड़िया, अशोक सिंघल, प्रमोद मुत्तालिक, योगी आदित्यनाथ और अब वरुण गांधी हैं। इसकी नायिका साध्वी प्रज्ञा और साध्वी ऋतंभरा हैं। जिस बात को ये लोग भदेस ढंग से कहते हैं, उसी को लालकृष्ण आडवाणी, अरुण जेटली, अरुण शौरी ज़हीन भाषा में बोलते हैं। और वही बात भाजपा के घोषणापत्र एवं दूसरे दस्तावेजों में जाहिर होती है। अगर यह विचार और ये शक्तियां कभी सफल हो गईं तो ‘भारत का वह विचार‘ परास्त हो जाएगा, जो स्वतंत्रता संग्राम के मूल्यों से पैदा हुआ, जो दादा भाई नौरोजी-रवींद्र नाथ टैगोर, महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू की देखरेख में फूला-फला।

छह साल के एनडीए राज में सबको समाहित करके चलने और सबके लिए न्याय पर आधारित इस ‘भारत के विचार‘ के लिए हमने क्रमिक रूप से गहराती चुनौतियां देखीं। वह अकेले भाजपा का शासन नहीं था। लेकिन शिक्षा, संस्कृति और आम विमर्श का भगवाकरण उस दौर की सबसे खास परिघटना रही। राज्य-व्यवस्था पर अनुदारवाद हावी रहा। इनकी आड़ में अभिजात्यवादी और धुर दक्षिणपंथी आर्थिक नीतियां अपनाई गईं। इन सबके खिलाफ ही मतदाताओं की वह गोलबंदी हुई, जिससे २००४ में एनडीए पराजित हो सका।

तब यह गोलबंदी इसलिए भी मुमकिन हुई कि देश के सामने एक उद्देश्य से बना एक विकल्प था। तब सोनिया गांधी ने इस विकल्प की रूपरेखा तैयार करने में ऐतिहासिक भूमिका निभाई। इस विकल्प को देश का जनादेश मिला। लेकिन उसके बाद की यह त्रासदी है कि सत्ता में आया गठबंधन- यूपीए- खासकर कांग्रेस पार्टी और सोनिया गांधी, उस जनादेश के मूल स्वर को भूल गए। धर्मनिरपेक्षता को आधार बना कर जनपक्षीय नीतियों पर अमल की ऐतिहासिक जिम्मेदारी वो नहीं निभा सके। साम्राज्यवाद परस्त और जन विरोधी नीतियों को अपना कर उन्होंने धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रीय आम सहमति से विश्वासघात किया। नतीजा यह है कि २००९ के चुनाव के पहले धर्मनिरपेक्ष विकल्प बिखरा हुआ है।

जबकि देश के सामने मुख्य मुद्दा वही है, यानी सांप्रदायिक फासीवादी ताकतों को देश की राज्य-व्यवस्था पर काबिज होने से कैसे रोका जाए। क्या १६ मई को आने वाले नतीजों से यह मुमकिन हो पाएगा? फिलहाल लालकृष्ण आडवाणी और हिंदुत्व मंडली के लिए संकेत बहुत उत्साहजनक नहीं हैं। मगर, अपनी जोखिम पर ही उनकी संभावना को बिल्कुल खत्म माना जा सकता है। अभी उम्मीद का एक पहलू यह है कि भाजपा के पास सहयोगी दलों की कमी है। जनता दल (यू) को छोड़कर उसके किसी सहयोगी को बड़ी कामयाबी मिलने की सूरत नजर नहीं आ रही है। लेकिन चुनाव के बाद के समीकरणों में उसके साथ नए सहयोगी नहीं जुट जाएंगे, यह भी कोई पूरी तरह आश्वस्त होकर नहीं कह सकता।

जाहिर है, ऐसे में देश के जागरूक लोगों के सामने सिर्फ एक विकल्प बचता है। वह है, बुद्धिमानी से मतदान। इसके पीछे सबसे प्रभावी सोच यही होनी चाहिए कि भाजपा को कैसे पराजित किया जाए। कौन सा उम्मीदवार यह करने में सबसे ज्यादा सक्षम है, इसकी पहचान उनकी राजनीतिक बुद्धि की शायद सबसे बड़ी परीक्षा होगी। देश में प्रगतिशील जमात का एक बड़ा हिस्सा यूपीए के विश्वासघात को अभी नहीं भूला है। वह इसका बदला लेना चाहेगा। मगर, देश के बड़े हिस्से में ऐसे लोगों को संभवतः इसका मौका नहीं मिले। जहां तीसरा विकल्प नहीं है, वहां ऐसे मतदाता आखिर क्या करें? उन्हें यूपीए के घटक दलों, बल्कि यहां तक कि कांग्रेस को भी वोट देने का अप्रिय फ़ैसला लेना होगा। आखिर दांव पर देश का भविष्य है। देश के आम जन की बेहतरी निसंदेह सबसे बड़ा सवाल है, मगर यह काम सांप्रदायिक शासन के तहत तो बिल्कुल मुमकिन नहीं है। इसीलिए भाजपा को हराना पहली प्राथमिकता है।