Friday, November 27, 2009

महाभारत से पहले कृष्ण-कूटनीति

सत्येंद्र रंजन

भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) की पैरवी कर रहे बुद्धिजीवियों की यह सदिच्छा सराहनीय है कि सरकार ऑपरेशन ग्रीनहंट शुरू करने के बजाय माओवादियों से बातचीत करे। इस मांग के नैतिक महत्त्व को संभवतः सरकार भी समझती है, इसीलिए उसने इस मुद्दे पर अपनी चालें चली हैं। यह बिल्कुल नया रुझान है कि माओवादियों की हिंसा या तोड़-फोड़ की हर कार्रवाई के बाद केंद्रीय गृह मंत्रालय सार्वजनिक बयान जारी करता है, जिसमें ऐसे तौर-तरीकों पर माओवादियों को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश के साथ-साथ उनके समर्थक बुद्धिजीवियों को भी चुनौती दी जाती है। उनसे कहा जाता है कि वे ऐसी कार्रवाइयों पर प्रतिक्रिया व्यक्त करें। इसी क्रम में माओवादियों से बातचीत की मांग उठाए जाने के बाद गृह मंत्री पी चिदंबरम ने इस मांग की नैतिक हवा निकालने की कोशिश की। उन्होंने यह शर्त रख दी कि अगर माओवादी हिंसा रोक दें तो सरकार उनसे हर मुद्दे पर बातचीत को तैयार है। इसके पहले सरकार का रुख यह होता था कि नक्सली या हथियारबंद लड़ाई लड़ रहे किसी गुट या संगठन से वह तभी बात करेगी, जब वे हथियार डाल दें। चिदंबरम ने साफ किया कि वे अभी माओवादियों से हथियार डालने को नहीं कह रहे हैं और माओवादियों के पैरोकारों से कहा कि वे इस गुट को हिंसा छोड़ कर बातचीत की मेज पर आने को राजी करें।

बहरहाल, सरकार से बातचीत के सवाल पर सीपीआई (माओवादी) ने अपना जो रुख जताया है वह गौरतलब है। पार्टी की सेंट्रल कमेटी के प्रवक्ता आजाद ने कहा है- “माओवादियों से हथियार डाल देने के लिए कहना उन ऐतिहासिक एवं सामाजिक-आर्थिक पहलुओं के प्रति घोर अज्ञानता को जाहिर करता है, जिनकी वजह से माओवादी आंदोलन का उभार हुआ है।” आजाद ने कहा- “इसके बावजूद, दोनों पक्षों की तरफ से युद्धविराम पर सहमति बन सकती है, अगर सरकार माओवादियों द्वारा हिंसा छोड़ने के बारे में अपना अतार्किक रुख छोड़ दे। उसे आत्मनिरीक्षण करना चाहिए और इस पर फैसला करना चाहिए कि क्या वह सरकारी आतंकवाद एवं जनता के खिलाफ अनियंत्रित हिंसा छोड़ने को तैयार है।” माओवादियों का कहना है कि कि सरकार अगर बातचीत चाहती है, वह पहले इसके लिए ‘अनुकूल माहौल’ बनाए। लेकिन पेच यह है कि इस ‘अनुकूल माहौल’ के लिए जो पूर्व-शर्तें रखी गई हैं, वह अगर सरकार पूरी कर दे तो शायद बातचीत की जरूरत ही नहीं रह जाएगी! यह एक लंबी फेहरिश्त है। इसमें माओवाद प्रभावित इलाकों से अर्धसैनिक बलों की वापसी से लेकर पुलिस और अर्धसैनिक बलों के ‘अमानवीय अत्याचार’ की जांच के लिए निष्पक्ष न्यायिक आयोग की स्थापना; गिरफ्तार हुए माओवादी पार्टी से जुड़े और उसके समर्थक तमाम लोगों की रिहाई से लेकर गैर-कानूनी गतिविधि (निरोधक) कानून, छत्तीसगढ़ विशेष लोक सुरक्षा कानून, सशस्त्र बल विशेष अधिकार कानून आदि जैसे कानूनों को रद्द करने; आदिवासियों के लिए सरकारी पुनर्वास शिविरों को बंद करने से लेकर सलवा जुडुम के हाथों विस्थापित हुए ‘दो लाख आदिवासियों’ एवं ‘सरकारी आतंक’ का शिकार हुए अन्य लोगों को उचित मुआवजा देने; बहुराष्ट्रीय कंपनियों एवं बड़े व्यापारिक घरानों से खनन के लिए हुए सभी सहमति-पत्रों को रद्द करने से लेकर सभी विशेष आर्थिक क्षेत्रों को खत्म करने की मांगें शामिल हैं। यानी जब सरकार इतनी मांगें मान लेगी तभी सीपीआई (माओवादी) बातचीत के लिए तैयार होगी।

ऑपरेशन ग्रीनहंट के लिए सरकार की चल रही तैयारियों और माओवादियों के इस रुख को देखते हुए यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि इन दोनों पक्षों के बीच आखिर बातचीत की कितनी गुंजाइश है। ऐसा लगता है कि इन दोनों पक्षों ने महाभारत की कथा के उस प्रकरण से सीख ली है, जिसके मुताबिक कृष्ण को यह मालूम था कि युद्ध होगा, इसके बावजूद उन्होंने शांति प्रस्ताव कौरवों के सामने रखे, ताकि जब युद्ध हो तो उसकी जिम्मेदारी कौरवों के माथे पर ही जाए। यानी यहां सरकार और माओवादी दोनों में कोई भ्रम में नहीं है कि आगे का रास्ता किधर है। अगर कोई भ्रम में है तो सिर्फ बातचीत की पैरवी कर रहे बुद्धिजीवी ही हैं।

लोकतंत्र में बातचीत निसंदेह विवादों और मुद्दों को हल करने का सबसे बड़ा माध्यम है। लेकिन यह माध्यम तभी कारगर होता है जब मुद्दे ठोस और सुपरिभाषित हों। अगर मुद्दे महज असली मकसद को ढकने के लिए उठाए गए हों, तो बातचीत से कुछ हासिल नहीं होता। इस संदर्भ में बुनियादी सवाल यह है कि क्या सीपीआई (माओवादी) सचमुच उन्हीं मुद्दों के लिए लड़ रही है, जिन्हें उठाकर उसने आदिवासी और कुछ दूसरे वंचित समूहों में अपना जनाधार बनाया है, या उसका असली मकसद ‘सशस्त्र क्रांति’ के जरिए राजसत्ता पर कब्जा करना है? इस सवाल का जवाब हम सभी जानते हैं। इसलिए जो बुद्धिजीवी या संगठन शांति और न्याय के नाम पर बातचीत की वकालत कर रहे हैं, उन्हें खुलकर यह बताना चाहिए कि क्या वे माओवादियों की धारणा के मुताबिक क्रांति का समर्थन करते हैं?

यह प्रश्न इसलिए ज्यादा अहम है, क्योंकि अभी जारी विमर्श में यह संदेश देने की कोशिश हो रही है कि मौजूदा हालात में सिर्फ दो पक्ष हैं- एक सरकार और दूसरा माओवादी। परोक्ष रूप से कहा यह जा रहा है कि माओवादी देश में न्याय, आदिवासियों के बुनियादी हितों की रक्षा और बेहतर भविष्य की एकमात्र शक्ति हैं, और जिनकी भी इन बातों में आस्था हो, उनके पास माओवादियों का समर्थन करने के अलावा कोई और विकल्प नहीं है। चरमपंथी दलीलों के बीच माओवादियों के अराजकतावादी तौर-तरीकों, उनके वैचारिक दिवालियेपन और नकारवादी नजरिए को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया जाता है। इस चर्चा में यह बात पूरी तरह गौण हो जाती है कि कैसे अपनी दुस्साहसी कार्रवाइयों से माओवादियों ने खनिज पदार्थों से संपन्न इलाकों में तमाम प्रतिरोध को तोड़ देने का मौका सरकार को मुहैया करा दिया है।

माओवादियों की इन कार्रवाइयों ने देश में वाम जनतांत्रिक शक्तियों के बीच फूट पैदा कर दी है। वाम जनतांत्रिक शक्तियों के बीच इस बात पर वर्षों से आम सहमति थी कि वाम चरमपंथ के फैलाव के लिए सरकार की नीतियां जिम्मेदार हैं और इस मसले से सिर्फ राजनीतिक रूप से ही निपटा जा सकता है। लेकिन माओवादियों ने देश की राजनीतिक परिस्थिति पर बिना गौर किए और अपनी ताकत के फर्जी अहंकार में संसदीय वामपंथ पर ही हमला बोल दिया है। यह उनके बिरादराना द्रोह और अवसरवाद की ही पराकाष्ठा है कि पश्चिम बंगाल में उन्हें ममता बनर्जी अपनी दोस्त नजर आने लगीं। इस बात को भूलकर कि ममता बनर्जी किन सामाजिक ताकतों की नुमाइंदगी करती हैं और उनका अपना मकसद क्या है, माओवादियों के प्रवक्ता यह खुला बयान देने लगे कि वे ममता को राज्य की भावी मुख्यमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं।

गौरतलब है कि ममता बनर्जी आज केंद्र में मंत्री हैं और माओवादियों के लिए वह हर शक्ति दोस्त है, जो भारतीय राज्य (सरकार) से लड़ रही हो। चाहे यूनाइटेड़ लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम (उल्फा) और उत्तर पूर्व के अन्य नस्लीय राष्ट्रवादी आतंकवादी संगठन हों या फिर इस्लामी आतंकवादी- माओवादियों की नजर में ये सभी मुक्ति की लड़ाई लड़ रहे हैं। उल्फा, एनएससीएन और पीएलए जैसे उत्तर-पूर्वी राज्यों के नस्लवादी संगठनों के साथ उन्होंने भारतीय राज्य के खिलाफ संघर्ष में सहयोग का समझौता किया है। पाकिस्तान की स्वात घाटी, उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत, संघ शासित कबीलाई इलाके (फाटा) और दूसरे इलाकों में तालिबान एवं इस्लामी चरमपंथियों की आतंकवादी कार्रवाइयां उन्हें ‘राष्ट्रीय मुक्ति का संघर्ष’ नजर आती हैं। जब पंजाब में खालिस्तानी आतंकवाद अपने चरम पर था, कई नक्सली संगठन उसे भी मुक्ति का आंदोलन मानते थे। यानी जो भी और जहां भी चाहे जिस उद्देश्य से भारतीय राज्य से लड़ रहा हो, वह माओवादियों की निगाह में सकारात्मक शक्ति है।
यह लाइन लेते हुए इस बात की बिल्कुल अनदेखी कर दी जाती है कि धर्मांध और प्रतिक्रियावादी ताकतें किस तरह प्रगतिशील मानव–मूल्यों के खिलाफ खड़ी हैं। खालिस्तानी गुटों या इस्लामी चरमपंथी संगठनों का महिलाओं की आजादी के प्रति क्या नजरिया है, अथवा क्या वे अपने धर्म के भीतर किसी तरह की असहमति को सहने को तैयार हैं, ऐसे सवाल माओवादियों के विमर्श में नहीं आते। उल्फा का नस्लीय उग्रवाद किस तरह गरीब बिहारी मजदूरों के खून का प्यासा हो जाता है, इस पर भी गौर नहीं किया जाता। क्या मजहब और नस्ल के आधार पर खड़े संगठनों का समता और मूलभूत मानवीय स्वतंत्रता के साथ कोई मेल है, इस सवाल पर अपने को माओवादी कहने वाली पार्टी खुद को किसी के प्रति जवाबदेह नहीं मानती।

सीपीआई (माओवादी) खुद को कम्युनिस्ट पार्टी मानती है, लेकिन उसे तालिबान और उन इस्लामी चरमपंथी ताकतों का समर्थन करने में कोई अंतर्विरोध नजर नहीं आता, जिनकी बुनियाद में साम्यवाद का विरोध शामिल रहा है। ये ताकतें उसी अमेरिका की मदद से खड़ी हुईं, जिससे आज वे अपनी वजहों से लड़ रही हैं और इस कारण माओवादी उन्हें मुक्ति के योद्धा मान रहे हैं। श्रीलंका में लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम और उसके तानाशाह नेता वी प्रभाकरण के खात्मे पर माओवादियों ने खूब आंसू बहाए। इसे भारत, दक्षिण एशिया और पूरी दुनिया में ‘क्रांतिकारी आंदोलन’ के लिए ‘नकारात्मक प्रभाव’ वाली घटना बताया गया। श्रीलंका में तमिल संघर्ष का कोई भी पर्यवेक्षक यह जानता है कि कैसे एलटीटीई और प्रभाकरण की युद्ध-पिपासा ने तमिलों के बाकी सभी संगठनों का खात्मा कर दिया। उनके आतंकवादी तौर-तरीकों ने वहां सबसे ज्यादा नुकसान तमिलों को ही पहुंचाया और अंत में खुद ही अपने दुस्साहसी अभियान का शिकार हो गए। लेकिन चूंकि वे लड़ रहे थे, चाहे उनके तरीके और मकसद कुछ भी हों, वे माओवादियों के लिए ‘क्रांतिकारी’ थे।

सीपीआई (माओवादी) ने अपने ऐसे ही नकारवादी रुख की वजह से आज वाम जनमत के एक बड़े हिस्से की हमदर्दी खो दी है। इसकी एक मिसाल सुमंत बनर्जी हैं, जो अपनी किताब ‘इन द वेक ऑफ नक्सलबाड़ीः ए हिस्ट्री ऑफ नक्सलाइट मूवमेंट इन इंडिया’ के लिए जाने जाते हैं। उन्हें नक्सलवादी धारा का हमदर्द समझा जाता रहा है। लेकिन अब उनकी यह टिप्पणी ध्यान देने लायक है- ‘बहस का बुनियादी मुद्दा भारत की कुल मौजूदा स्थिति के बारे में माओवादी नेतृत्व की विचारधारात्मक समझ, और उनकी नैतिक साख है। भारत के विभिन्न शोषित समूह विभिन्न तरह के संघर्षों के जरिए उपलब्ध लोकतांत्रिक अवसरों का उपयोग करने की कोशिश कर रहे हैं। इसे स्वीकार करने और सबको समाहित करने वाले कार्यक्रम में इन्हें साथ लेकर चलने के बजाय सीपीआई (माओवादी) के नेता भारतीय जन मानस का अतिवादी अनुमान लगाते हुए उपलब्ध विकल्पों की अनदेखी कर रहे हैं और सशस्त्र संघर्ष के अकेले रास्ते को प्राथमिकता दे रहे हैं। उनकी अपरिपक्वता का एक और कदम यह है कि वे अंध-नस्लवादी सशस्त्र संगठनों या ममता बनर्जी जैसी अवसरवादी राजनेताओं से समझौते कर लेते हैं, जिससे उनकी नैतिकता आरोपों के घेरे में आ जाती है। ऐसी सैन्यवादी प्राथमिकताओं और अल्पकालिक लाभ के राजनीतिक कदमों से उनके कार्यकर्ताओं की विचारधारात्मक प्रतिबद्धताएं क्षीण हो रही हैं।’

उपरोक्त टिप्पणी राजनीतिक समझ पर आधारित एक विश्लेषण है। अपने ग्लैमर, सेलिब्रिटी स्टेटस और उच्च मध्यवर्गीय सुख-सुविधाओं में जीने के साथ-साथ अपनी जन-पक्षीय छवि बनाने के लिए आतुर बुद्धिजीवी ऐसी समझ दिखाने में नाकाम रहे हैं। लेकिन यह साफ है कि उनकी शैली में वाम चरमपंथ का समर्थन देश में लोकतांत्रिक विमर्श को संकुचित कर रहा है। इस वक्त जरूरत सरकारों की नव-उदारवादी नीतियों और पूंजी परस्त प्राथमिकताओं का विरोध करने के साथ-साथ वाम चरमपंथ के वैचारिक खोखलेपन और दुस्साहस के खतरों को बेनकाब करने की है। सिर्फ इससे ही उस जनतांत्रिक दायरे की रक्षा की जा सकती है, जो देश में लोकतंत्र की उपलब्धियों की रक्षा और वाम राजनीति के उत्तरोत्तर विकास के लिए जरूरी है। यह समझना महत्त्वपूर्ण है कि भारतीय राज्य-व्यवस्था में बढ़ते दक्षिणपंथी रुझान को रोकने की शर्त वाम राजनीति की मजबूती है। सीपीआई (माओवादी) इस बुनियादी बात की अनदेखी कर और वाम-जनतांत्रिक दायरे में विभाजन पैदा कर असल में सत्ताधारी तबकों की ही मदद कर रही है। ऐसे में कथित माओवादी समस्या का हल बातचीत द्वारा ढूंढने की वकालत भले सराहनीय हो, लेकिन यह ठोस राजनीतिक विश्लेषण पर आधारित नहीं है और इसीलिए इस सदिच्छा के पूरी होने की कोई ठोस जमीन नजर नहीं आती।

Thursday, November 5, 2009

यह सिर्फ ध्रुवों की कहानी नहीं है

सत्येंद्र रंजन
“माओवादी अपनी लापरवाह कार्रवाइयों से जनतांत्रिक जनमत को विमुख करने वाले हरसंभव कदम उठा रहे हैं। हर गुजरते दिन के साथ वे इसे ज्यादा साफ कर देते हैं कि नक्सलबाड़ी किसान विद्रोह और कॉमरेड चारू मजूमदार की विरासत से वे कितनी दूर भटक गए हैं।”- ये भारत की कम्युनिस्ट पार्टी- मार्क्सवादी-लेनिनवादी (लिबरेशन) के मुखपत्र के संपादकीय की पंक्तियां हैं। मुखपत्र ‘लिबरेशन’ के ताजा अंक के ही एक अन्य लेख में इस बात को और विस्तार देते हुए यह टिप्पणी की गई है- “... इस बीच माओवादी अपनी हर लापरवाह अराजकतावादी कार्रवाई, किसी पुलिस अधिकारी का सिर काटने जैसे हर कदम, जन-आंदोलन को अपने खास ढंग के माओवादी सैनिक संघर्ष में बदलने की हर घटना के साथ आम लोकतांत्रिक जनमत को विमुख और विरोधी बना रहे हैं और सरकार को दमन के कड़े कदम उठाने का मौका मुहैया करा रहे हैं।”

कुछ समय पहले एक इंटरव्यू में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव प्रकाश करात ने कहा- “हालांकि वे (माओवादी) अपने को कम्युनिस्ट पार्टी कहते हैं, लेकिन उनकी विचारधारा और व्यवहार मार्क्सवाद और कम्युनिस्ट पार्टी को जिस रूप में होना चाहिए, उसके बुनियादी सिद्धांतों के खिलाफ हैं। ... वे भारत की हकीकत की पहचान नहीं कर पाते। वे कहते हैं कि भारत अभी भी अर्ध-औपनिवेशिक देश है। उनकी राजनीति बंदूक के इस्तेमाल और हिंसा पर आधारित है, जिससे निश्चित रूप से मजदूर वर्ग के आंदोलनों और जन गोलबंदी में रुकावट आती है। विवेकहीन हिंसा में शामिल हो कर, जो अधिकतर अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ होती है, वे उसी जनता के खिलाफ कार्रवाई करने में सरकार के मददगार बन रहे हैं, जिनका समर्थक होने का वे दावा करते हैं।”

चालीस से ऊपर बुद्धिजीवियों, लेखकों और कलाकारों ने एक बयान में कहा है- “हम यह गंभीरता से महसूस करते हैं कि उनके (माओवादियों) द्वारा संहार और हत्या की कार्रवाइयां करते समय माओ दे दुंग जैसी सम्मानित हस्ती के नाम का का इस्तेमाल निंदनीय है।” बयान पर दस्तखत करने वालों में इरफान हबीब, तीस्ता सीतलवा़ड़, प्रभात पटनायक, जयती घोष, डीएन झा आदि जैसे मशहूर नाम हैं।

ये बयान गृह मंत्री पी चिदंबरम या व्यापक राजनीतिक-सामाजिक सवालों पर भी सुरक्षा केंद्रित नजरिया रखने वाले विशेषज्ञों के नहीं हैं। ये उन लोगों (या शक्तियों) के बयान हैं, जो देश में जनतांत्रिक जनमत का हिस्सा हैं। आखिर इन बयानों का संदेश क्या है? संदेश यह है कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के तौर-तरीके जनतांत्रिक संघर्ष के पूरे संदर्भ को कमजोर कर रहे हैं। माओवादी भले दावा सबसे कमजोर और वंचित समूहों की तरफ से लड़ने का करते हों, लेकिन वे वास्तव में इन समूहों की मुश्किलों को बढ़ा रहे हैं। इसलिए देश की मौजूदा ठोस हकीकत के भीतर अगर इन समूहों के हितों की वकालत करनी है, तो ऐसे वामपंथी चरमपंथ का राजनीतिक विरोध जरूरी है। दरअसल, यह सभी वामपंथी औऱ जनतांत्रिक शक्तियों की जिम्मेदारी है, वे सरकार के जन विरोधी कदमों के साथ-साथ दुस्साहसी चरमपंथ के खतरों को भी जनता के सामने उजागर करें। यह बात साफ किए जाने की जरूरत है कि मौजूदा जनतांत्रिक विमर्श या संघर्षों के बीच सिर्फ सरकार और माओवादी- ये ही दो पक्ष नहीं हैं।


जबकि महाश्वेता देवी, अरुंधती राय जैसे बुद्धिजीवियों और कई नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं का विमर्श सुनें तो लगता है कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) देश में न्याय का अकेला प्रतिनिधि संगठन है। ये बुद्धिजीवी यह मांग ठीक ही उठा रहे हैं कि सरकार सेना का अपनी ही जनता के खिलाफ इस्तेमाल न करे। सरकार की बड़े पैमाने पर अर्धसैनिक बलों की तैयारी है। इस कार्रवाई में भी आदिवासी और दूसरे वंचित समूहों के नागरिक अधिकारों का हनन होगा, इसका अंदाजा सहज लगाया जा सकता है। इसलिए विकसित होते घटनाक्रम पर मानवाधिकारों में आस्था रखने वाले लोगों का चिंतित होना स्वाभाविक है।

लेकिन जनतांत्रिक जनमत का जो हिस्सा माओवादियों को जन-संघर्ष का अकेला ध्रुव मान बैठा है, वह अपनी सियासी रुमानियत में जन संघर्षों के व्यापक परिप्रेक्ष्य की अनदेखी कर रहा है। आदिवासियों व दूसरे शोषित समूहों के हित, खनिज पदार्थों की लूट के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों और सरकार की मिलीभगत, इमरजेंसी की आहट, आदि जैसी दलीलें देकर उसकी तरफ से यह संदेश देने की कोशिश की जा रही है कि माओवादी अकेली ऐसी ताकत हैं, जो शोषण के मजबूत चक्र को तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं। अर्जुन सेनगुप्ता समिति की बहुचर्चित रिपोर्ट के आंकड़ों को बार-बार दोहरा कर माओवादियों की नकारवादी अराजक राजनीति को सही ठहराने की कोशिश अक्सर उनकी चर्चाओं में होते हम देख सकते हैं।

इन बातों से सरकारों के सामने कुछ प्रश्न जरूर खड़े होते हैं, लेकिन उनसे इन सवालों के जवाब नहीं मिलते कि भारतीय व्यवस्था की मनोगत समझ के साथ की गई दुस्साहसी कार्रवाइयों से स्थितियां कैसे बदलेंगी? कोई राजनीतिक शक्ति अपने संघर्ष में मानवाधिकारों एवं मानवता के बुनियादी सिद्धांतों का हनन आखिर कैसे कर सकती है? स्कूल में जाकर बच्चों के सामने किसी शिक्षक की हत्या या किसी अपहृत पुलिस अधिकारी का गला काट देने से क्रांति का कारवां कैसे आगे बढ़ता है? यह दलील दी जा सकती है कि माओवादी ऐसी कार्रवाई उन लोगों के खिलाफ करते हैं, जिनके पुलिस का मुखबिर होने का शक होता है या जिनके खिलाफ जन-आक्रोश रहता है। लेकिन क्या आक्रोश और आवेग में की गई कार्रवाइयों को क्रांतिकारी भी कहा जा सकता है, यह सवाल आज वामपंथ के पक्ष में होने का दावा करने वाले हर शख्स के सामने है।

माओवादियों ने अपने लिए यह सुविधा गढ़ रखी है कि वे अपने किसी विरोधी से संवाद नहीं करते। उसे वे सीधे व्यवस्था का दलाल, या संशोधनवादी या बुर्जुआ विमर्श से प्रभावित लोग करार देते हैं। दरअसल, उनके लिए वे मुद्दे भी खास मायने नहीं रखते, जिनकी वजह से उनका देश के कई इलाकों में जनाधार बना हुआ है। ये मुद्दे उनके लिए महज उस व्यापक सशस्त्र संघर्ष का माध्यम हैं, जिसके जरिए वे राजसत्ता पर कब्जा जमाना चाहते हैं। इसके बीच संवाद और बहस की गुंजाइश सचमुच बहुत कम है। यहां असहमति के लिए जगह बेहद संकरी है।

दूसरी तरफ सरकार विकास की जिस समझ से चलती है और जिन आर्थिक हितों की नुमाइंदगी करती है, उसे समझना कठिन नहीं है। इसलिए उसका विरोध जरूरी है। सरकार दावा कर रही है कि इस बार उसने वामपंथी चरमपंथ से निपटने की स्थायी योजना बनाई है। इसके तहत सुरक्षा बलों की कार्रवाई के साथ-साथ प्रभावित इलाकों का विकास भी किया जाएगा। पहले की तरह सुरक्षा बल कार्रवाई कर संबंधित इलाकों से फौरन वापस नहीं आएंगे। बल्कि वे वहां टिके रहेंगे और उनके संरक्षण में उन इलाकों में सड़क, अस्पताल, स्कूल आदि बनाए जाएंगे। सरकार का मानना है कि इस योजना से यह शिकायत दूर हो जाएगी कि माओवाद विकास की कमी की वजह से फैला है। लेकिन इस रणनीति में बुनियादी गड़बड़ी है, यह बात पूरे भरोसे के साथ कही जा सकती है।

अगर माओवादियों को देश के कमजोर और वंचित समूहों का समर्थन मिलता है, तो उसकी वजह विकास की कमी नहीं, बल्कि व्यवस्था में न्याय का अभाव है। मसलन, बिहार की मिसाल लें। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भूमि सुधार पर सुझाव देने के लिए बंदोपाध्याय कमेटी बनाई। कमेटी की सिफारिशें आ गईं तो पहले उस पर टालमटोल करते रहे और आखिरकार उस पर अमल से इनकार कर दिया। भूमि सुधारों पर अमल न होना ग्रामीण इलाकों में परंपरागत शोषण और बहुत बड़ी आबादी की बदहाली का सबसे बड़ा कारण है। अगर सरकारें आज भी इसके लिए तैयार नहीं हैं, तो वे खुद को न्याय के पक्ष में नहीं दिखा सकतीं। ऐसा ही मामला आदिवासी एवं अन्य वनवासी भू-अधिकार कानून पर अमल करने में कोताही है। अरुंधती राय और अन्य बुद्धिजीवी जब यह कहते हैं कि माओवादियों के खिलाफ कार्रवाई के पीछे मुख्य मकसद खनिज पदार्थों से भरपूर इलाकों में विस्थापन विरोधी प्रतिरोध को तोड़ कर इस संपदा को बड़ी या बहुराष्ट्रीय कंपनियों को सौंपना है, तो सरकारों के ऐसे रुख की वजह से उनकी बात बहुत से लोगों को विश्वसनीय लगती है।

मगर दिक्कत यह है कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) की रणनीति, तौर-तरीकों और उनका मकसद इस विमर्श से गायब रह जाता है। व्यक्तिगत हत्या और तोड़फोड़ के जिस रास्ते पर यह पार्टी चल रही है, क्या उससे भारत की मौजूदा परिस्थितियों के बीच सचमुच किसी क्रांति को अंजाम तक पहुंचाया जा सकता है, यह सवाल ये बुद्धिजीवी नहीं पूछते। इस पार्टी ने भारत की मौजूदा व्यवस्था और उसमें वर्ग संघर्ष के बीच दोस्त और दुश्मन की जो पहचान की है, वह कितनी वस्तुगत है और कितनी मनोगत, यह सवाल भी वे नहीं उठाते। शायद वो समझते हों कि इन सवालों को अभी उठाने से सरकार का पक्ष मजबूत होगा, लेकिन वे शायद यह नहीं समझते हैं कि बगैर इस सवाल को उठाए जब वे सरकार से कार्रवाई की योजना रोकने और माओवादियों से बातचीत की मांग उठाते हैं, तो समूचे जनतांत्रिक एवं व्यापक वामपंथी दायरे में भी उसकी साख नहीं बन पाती। इसीलिए सरकार उनके ‘रोमांटिक’ होने की छवि बनाने में कहीं ज्यादा सफल हो गई है।


मुश्किल यह है कि यह पूरी चर्चा दो ध्रुवों पर सिमट कर रह गई दिखती है। एक ध्रुव पर सरकार है और दूसरे पर माओवादी। सरकार का पक्ष है कि वह सार्वजनिक-व्यवस्था की रक्षा के लिए कार्रवाई करने जा रही है और इसके लिए उसके पास लोकतांत्रिक जनादेश है। माओवादियों के हमदर्द बुद्धिजीवियों की बात का सार है कि सीपीआई (माओवादी) उन समुदायों के संघर्ष की नुमाइंदगी कर रहे हैं, जिनकी आजीविका और स्थानीय संसाधनों पर कुदरती हक खतरे में है। क्या मौजूदा हकीकत सचमुच महज दो ध्रुवों की कहानी है?

हालत ऐसी बिल्कुल नहीं है। सीपीआई (माओवादी) सारे जन संघर्षों की बात तो दूर पूरे वामपंथ की भी नुमाइंदगी नहीं करती। असल में वह पूरी माओवादी धारा की भी प्रतिनिधि नहीं है। इस धारा की कई दूसरी पार्टियां हैं, जिन्होंने पिछले चार दशक के अनुभवों से सबक सीखा है और वे आज सीपीआई (माओवादी) की तरह न तो हिंसा के लिए उत्साहित रहते हैं औऱ ना ही वैसी दुस्साहसी लाइन पर चल रहे हैं। वामपंथ की ताकतें संसदीय राजनीति में भी हैं, जिन्होंने सांप्रदायिकता और नव-उदारवाद के खिलाफ संघर्ष में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। सीपीआई (माओवादी) इन सभी शक्तियों को ‘संशोधनवादी’ मानती है और पश्चिम बंगाल में तो उसने दरअसल मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के खिलाफ ही असली युद्ध छेड़ा हुआ है।

यह रणनीति असल में देश में प्रगतिशील धाराओं और वामपंथ को कमजोर कर रही है। साथ ही हिंसा के प्रति अति उनके उत्साह और दुस्साहसी कार्रवाइयों ने व्यवस्था (यानी सरकार) को माओवादियों के असर वाले इलाकों में बड़े पैमाने पर कार्रवाई का मौका दे दिया है। तो इस कार्रवाई में नागरिक अधिकारों का जो हनन होगा, क्या उसकी कुछ जिम्मेदारी सीपीआई (माओवादी) पर भी नहीं होगी? असली सवाल यह है कि व्यवस्था में अंतर्निहित और संगठित हिंसा से क्या उसी तरह लड़ा जाना चाहिए, जैसे माओवादी लड़ रहे हैं? अगर माओवादी समझते हैं कि भारत में सशस्त्र क्रांति से राजसत्ता पर कब्जा करने का वक्त आ चुका है, तो वे बेशक यह दिवास्वप्न देख सकते हैं। लेकिन उनके असर वाले इलाकों के आम लोगों को उनकी इस रूमानियत की कीमत क्यों चुकानी चाहिए?

रूमानी ‘क्रांतिकारियों’ के समर्थक या हमदर्द बुद्धिजीवियों को भी यह जरूर समझना चाहिए कि पेचीदा सवालों की अनदेखी और हालात को महज काले एवं सफेद में चित्रित कर वंचित समूहों की पैरवी नहीं की जा सकती। सीपीआई (माओवादी) नकारवादी अराजकता के रास्ते पर रही है। सरकार की जनतांत्रिक साख पर सवाल उठते वक्त इस खतरनाक रास्ते की आलोचना भी जरूर होनी चाहिए। वरना, हम दो में से किसी एक ध्रुव पर सिमटने को मजबूर हो जाएंगे और इनकी लड़ाई के बीच जन-अधिकारों की लड़ाई के कहीं पीछे छूट जाएगी।

इसीलिए देश के वाम-जनतांत्रिक समुदाय के सामने आज यह एक बड़ी चुनौती है कि जनतांत्रिक विमर्श को महज सरकार और माओवादियों के ध्रुवों में समेटने की कोशिशों के प्रति वह जागरूक हो और इसके खतरों से जनता को अवगत कराए। और इसके लिए यह जरूरी है कि सीपीआई (माओवादी) भारत में सभी जनतांत्रिक शक्तियों की बात तो दूर, माओवादी-नक्सलवादी धारा की भी अकेली प्रतिनिधि नहीं है, इस बात को खुल कर कहा जाए।