Tuesday, January 26, 2010
एक ज्योतिर्मय विरासत
सत्येंद्र रंजन
ज्योति बसु की आंखें अब भी दुनिया देख सकती हैं। और उनके दिमाग से डॉक्टरों को यह समझने में मदद मिलेगी कि ९० साल से ज्यादा जिंदा रहे एक शख्स की शारीरिक और मानसिक प्रक्रियाएं कैसी रहती हैं। उनके दूसरे अंग भी जिंदा इंसानों के काम आएंगे। इस तरह हम कह सकते हैं कि ज्योति बसु भौतिक रूप में भी अब तक हमारे साथ हैं।
भावनाओं और विचारों में तो वे जरूर ही रहेंगे। इसलिए कि उन्होंने भारत में वामपंथी धारा पर अपनी एक खास छाप छोड़ी। वामपंथी चरमपंथियों की सुनें तो उनमें से कुछ ज्योति बसु को संशोधनवादी कहेंगे तो कुछ उन्हें वामपंथ के भीतर मध्यमार्गी प्रवृत्तियों का प्रतीक बताएंगे। लेकिन यह कम्युनिस्ट पार्टियों के भीतर का बिरादराना द्रोह है। देश के व्यापक वामपंथी जनतांत्रिक दायरे के लिए ज्योति बसु एक खास महत्त्व रखते थे, क्योंकि उन्होंने देश में वामपंथी धारा पर अपनी खास छाप छोड़ी।
यह बात तो निर्विवाद कही जा सकती है कि ज्योति बसु स्वतंत्र भारत के इतिहास में वामपंथ की सफलता का सबसे चमकता चेहरा थे। अगर यह कहा जाए कि मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नाम पर जो उपलब्धियां हैं, उनमें सबसे बड़ा योगदान दिवंगत ईएमएस नंबूदिरीपाद के साथ ज्योति बसु का रहा है, तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। ९५ वर्ष की लंबी उम्र जी कर भारतीय राजनीति का यह दिग्गज जब दुनिया से विदा हुआ है, तो ऐसी बहुत सी बातें हैं, जिन्हें उनकी विरासत की निशानी के तौर पर चिह्नित किया जा सकता है। बसु उन नेताओं में थे, जिनकी राजनीतिक शख्सियत बौद्धिक गहराई और जमीनी संघर्ष दोनों से उभरी।
१९३० के दशक के उत्तरार्द्ध में कानून की पढ़ाई के दौरान लंदन में वे मार्क्सवाद में दीक्षित हुए और फिर ताउम्र कम्युनिस्ट आंदोलन में बौद्धिक और सांगठनिक दोनों स्तरों पर खास भूमिका निभाते रहे। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से उनका नाता तब जुड़ा, जब अंग्रेजी शासन ने इस पर प्रतिबंध लगा रखा था। जाहिर है, ज्योति बसु का राजनीति से पहला संबंध जोखिम भरे दौर में बना। इस दौर में भूमिगत नेताओं से संपर्क बनाने की जिम्मेदारी उन्होंने संभाली और जिन नेताओं के पीछे ब्रिटिश राज की पुलिस पड़ी थी, उन्हें पनाह देने का काम किया। यह प्रसंग इसलिए चर्चा के योग्य है, क्योंकि इससे यह सामने आता है कि बसु का जन्म भले अपेक्षाकृत संपन्न घराने में हुआ हो और उनकी शुरुआती जिंदगी सुविधापूर्ण रही हो, लेकिन अपनी आगे की जिंदगी के लिए उन्होंने संघर्ष भरे रास्ते का ही चुनाव किया।
आजादी के बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में ज्योति बसु अपनी वैचारिक स्पष्टता और सांगठनिक क्षमता के बल पर तेजी से सीढ़ियां चढ़ते गए और पार्टी के प्रमुख नेताओं में शामिल हो गए। पश्चिम बंगाल कम्युनिस्टों का शुरू से ही मजबूत गढ़ था। ज्योति बसु ने इस गढ़ को और मजबूत करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। दरअसल, इस गढ़ की बदौलत माकपा आगे चलकर देश की प्रमुख राजनीतिक शक्ति बन सकी और पार्टी को इस हैसियत में पहुंचाने में अपनी भूमिका के कारण ज्योति बसु राष्ट्रीय नेता का वह दर्जा पा सके, जिसकी चर्चा उनके पृष्ठभूमि से उठ जाने के बाद आज बौद्धिक और राजनीतिक हलकों में हो रही है।
यह ध्यान देने की बात है कि ज्योति बसु ने अपना सारा सफर एक ऐसी राजनीतिक धारा के साथ किया, जहां व्यक्तिगत सफलताओं को अहमियत नहीं जाती है, बल्कि जहां पार्टी का अनुशासन सर्वोपरि होता है और हर सदस्य से महज पार्टी की एक इकाई के रूप में काम करने की अपेक्षा की जाती है। इसलिए कम्युनिस्ट नेताओं की व्यक्तिगत उपलब्धियों की उस तरह अक्सर चर्चा नहीं होती, जैसी दूसरी धारा के नेताओं की होती है। इसके बावजूद ज्योति बसु अगर एक राष्ट्रीय नेता की विशिष्ट छवि हासिल कर पाए, तो यह राष्ट्रीय जीवन को उनके विशिष्ट योगदान की वजह से ही हो सका।
अब जबकि ज्योति बसु हमारे बीच नहीं हैं, वक्त उनके इस योगदान पर गौर करने का है। मौका यह समझने का है कि आखिर व्यापक वाम-जनतांत्रिक दायरे में ज्योति बसु किस बात के लिए सबसे ज्यादा याद रखे जाएंगे। इस बात को समझने के लिए हमें १९६३ और १९६७ में ज्योति बसु द्वारा ली गई दो राजनीतिक लाइन पर ध्यान देना चाहिए। सोवियत संघ एवं चीन की कम्युनिस्ट पार्टियों में बढ़ती दरार और १९६२ में चीन से भारत के युद्ध के बाद तत्कालीन भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में मतभेद गहरे हो गए थे और पार्टी टूट के कगार पर थी। उस वक्त ज्योति बसु ने पार्टी में विभाजन का विरोध किया था। हालांकि वे मानते थे कि पार्टी नेतृत्व ‘संशोधनवाद’ के रास्ते पर चल रहा है, लेकिन उनकी यह राय भी थी कि पार्टी को तोड़ना सही कदम नहीं होगा। इसलिए १९६३ में पार्टी नेताओं को लिखे पत्र में उन्होंने पार्टी में रहते हुए श्रीपाद अमृत डांगे की राजनीतिक लाइन का विरोध करने की अपील की थी।
देश की प्रमुख वामपंथी धाराओं- कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट- दोनों का यह दुर्भाग्य रहा है कि उनके नेताओं ने एकता का महत्त्व नहीं समझा। अक्सर व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षाओं के टकराव को वैचारिक मतभेद की आड़ दे दी जाती रही है और इसके आधार पर पार्टियां टूटती रही हैं। ऐसी ही प्रवृत्तियों की वजह से सोशलिस्ट आंदोलन तो खत्म ही हो गया और कम्युनिस्ट आंदोलन भी गहरे संकट में फंसा हुआ है।
ज्योति बसु जैसे नेताओं के विरोध के बावजूद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के विभाजन को रोका नहीं जा सका, और आखिरकार १९६४ में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी अस्तित्व में आ गई। १९६७ में पार्टी के सामने राजनीतिक लाइन लेने का एक और निर्णायक मौका आया। कांग्रेस पश्चिम बंगाल विधानसभा के चुनाव में बहुमत नहीं पा सकी। उससे अलग हुआ धड़ा बंगाल कांग्रेस, माकपा और अन्य दल मिलकर सरकार बनाने की स्थिति में थे। तब माकपा के भीतर यह तीखी बहस छिड़ी कि क्या पार्टी को साझा सरकार में शामिल होना चाहिए? बसु की समझ थी कि माकपा को ऐसा करना चाहिए, जबकि प्रमोद दासगुप्ता जैसे नेता इसके खिलाफ थे। पार्टी का विभाजन रोकने की बसु की लाइन तो सफल नहीं रही थी, लेकिन पार्टी के गठबंधन सरकार का हिस्सा बनाने की उनकी लाइन कामयाब रही और वे अजय मुखर्जी के नेतृत्व में बनी सरकार में उप मुख्यमंत्री बने।
ये दोनों घटनाएं क्या बताती हैं? ये दरअसल, इस बात की मिसाल हैं कि ज्योति बसु देश की वस्तुगत राजनीतिक स्थितियों को बेहतर समझते थे। भारत में वामपंथी आंदोलन जिन दौरों से गुजरा है, एकता हमेशा उसकी सबसे बड़ी जरूरत रही है।
वामपंथ के भीतर कुछ स्थिति विशेष की समझ लेकर मतभेद हो सकते हैं, लेकिन ये मतभेद कभी इतने बड़े नहीं थे, जिनके आधार पर एकता को भंग कर दिया जाता। हमेशा दक्षिणपंथ की चुनौती बहुत बड़ी थी। अगर वामपंथी नेता इसे समझते, इस बात को समझते कि पुरातनपंथी एवं प्रतिगामी शक्तियां उनकी तुलना में बहुत ज्यादा मजबूत और संगठित हैं, तथा पहली जरूरत उनसे मुकाबला करने की है. तो वे एकता की व्यावहारिक रणनीति विकसित कर सकती थीं। आजादी के बाद हमेशा जरूरत इस बात की रही और आज भी है कि वामपंथी ताकतों ने जितनी भी ताकत हासिल की है, उसे सहेज कर एक राजनीतिक स्वरूप दिया जाए। ज्योति बसु की खूबी यह थी कि उन्होंने इन दोनों ही जरूरतों को सही ढंग से समझा। जाहिर है, इसी वजह से वामपंथी आंदोलन में वे बेहद महत्त्वपूर्ण और दीर्घकालिक योगदान कर पाए। उन्होंने वामपंथी दलों और दूसरी जनतांत्रिक शक्तियों के बीच एकता की जरूरत भी समझी। १९६९ में कांग्रेस विभाजन के बाद माकपा ने इंदिरा गांधी की कांग्रेस को लोकसभा में मुद्दों पर आधारित समर्थन दिया, तो यह भी उसकी व्यावहारिक समझ को जाहिर करता है। ज्योति बसु और हरकिशन सिंह सुरजीत जैसे नेताओं ने ऐसी व्यावहारिक समझ का परिचय कई मौकों पर दिया। इससे उन्होंने न सिर्फ धर्मनिरपेक्षता जैसे उसूलों की बहुमूल्य सेवा की, बल्कि वामपंथी राजनीति को भी वक्त के तकाजे की कसौटी पर प्रासंगिक बनाए रखा।
ज्योति बसु की लाइन पर चलते हुए माकपा ने पश्चिम बंगाल में पहले १९६७ और फिर १९६९ में साझा सरकारों में शामिल होने का जो फैसला किया, उससे आने वाले दशकों के लिए पार्टी की भूमिका तय हुई और इससे वाम आंदोलन को एक नया मुकाम भी हासिल हुआ। साझा सरकार का हिस्सा रहते हुए उसने जो प्रशासनिक और राजनीतिक पहल की, उससे ही उसका वह आधार बना, जिसकी बदौलत इमरजेंसी के बाद १९७७ में वह पश्चिम बंगाल में सत्ता आ सकी। यह गौरतलब है कि माकपा अपनी यह जमीन वाम-चरमपंथियों के दुस्साहस के बावजूद बना सकी। एक तरफ वह यथास्थितिवादी ताकतों से मुकाबला कर रही थी और दूसरी तरफ नक्सलवादी विद्रोह से कम्युनिस्ट आंदोलन में पैदा हुई अफरातफरी से भी उसे निपटना पड़ा। हालांकि, अगर ऐसा नहीं होता- जैसी बातों का हकीकत में कोई महत्त्व नहीं होता, फिर यह सोचने की एक पृष्ठभूमि आज भी जरूर मौजूद है कि अगर कम्युनिस्ट पार्टी एकजुट रहती और अविभाजित पार्टी व्यावहारिक लाइन पर चलती तो आज वामपंथी आंदोलन किस हाल में होता।
गौरतलब है कि जब माकपा पश्चिम बंगाल की साझा सरकार में शामिल थी, तभी नक्सलबाड़ी में पार्टी के चरमपंथी गुट के नेतृत्व में किसान विद्रोह हुआ। क्रांति की इस बेताबी ने माकपा नेताओं के सामने बड़ी दुविधा खड़ी की। पार्टी के लिए स्थिति यह खड़ी हो गई कि वह या तो पूरी तरह चारू मजूमदार की सशस्त्र विद्रोह की लाइन पर चल देती या फिर उससे मुकाबला करती। संवैधानिक ढंग से सत्ता में आकर उसके साये में सशस्त्र विद्रोह को आगे बढ़ाना मुमकिन नहीं था। ज्योति बसु और उनके सहयोगियों ने पहला यानी वामपंथी चरमपंथ का मुकाबला करने की राह चुनी। पश्चिम बंगाल के साथ-साथ पूरी दुनिया तब दो कम्युनिस्ट धाराओं के बीच खुले संघर्ष की गवाह बनी। उस वक्त की परिस्थितियों में माकपा की लाइन सही साबित हुई। और यह साबित हुआ कि अगर पूरी पार्टी सशस्त्र विद्रोह के रास्ते पर चलती तो वह अपने विनाश को न्योता देती और इस तरह पूरे वामपंथी आंदोलन को अपूरणीय क्षति होती।
ज्योति बसु ने साझा सरकार में रहते हुए मौजूदा व्यवस्था के भीतर वामपंथी राजनीति को मजबूत करने की संभावनाओं की तलाश की। इसका परिणाम आगे चल कर मिला। १९७२ में बांग्लादेश बनने के तुरंत बाद हुए चुनाव में कांग्रेस सत्ता में आ गई। अगले पांच साल का दौर माकपा और दूसरी वामपंथी पार्टियों के लिए कठिन परीक्षा का रहा। लेकिन इसी दौर में भी माकपा अपना आधार बनाए रखने में सफल रही और १९७७ में उसने अंततः वह सफलता पाई, जो आज तक टिकी हुई है।
पश्चिम बंगाल में १९७७ में सत्ता में आने के बाद ज्योति बसु के नेतृत्व में वाम मोर्चा सरकार ने जो कोशिशें कीं, उसका असर अभी तक मौजूद है। ऑपरेशन बरगा के नाम से हुए भूमि सुधार, खेती उपज बढ़ाने और उसे बाजार मुहैया कराने के उपायों, ग्रामीण क्षेत्रों में आम जन की स्थिति सुधारने के उपायों, पंचायती राज के जरिए सत्ता के विकेंद्रीकरण, गोरखालैंड समस्या को हल करने के अभिनव प्रयास एवं सांप्रदायिक सद्भाव बनाए रखने में सफलता से माकपा और वाम मोर्चे का वह राजनीतिक आधार तैयार हुआ, जिसकी बदौलत वह ३३ साल से सत्ता में है, और जिसकी वजह से कई बार उसने केंद्र में प्रभावशाली भूमिका निभाई है।
माकपा की ऐसी ही एक महत्त्वपूर्ण भूमिका १९९६ में बनी। तब उसे केंद्र में सरकार का नेतृत्व करने का मौका मिला। जनता दल और विभिन्न क्षेत्रीय दलों को मिलाकर बने संयुक्त मोर्चा ने तब ज्योति बसु को प्रधानमंत्री चुन लिया था। लेकिन माकपा ने इस आमंत्रण को इस आधार पर स्वीकार नहीं किया कि प्रस्तावित सरकार में उसकी निर्णायक भूमिका नहीं होगी। बसु ने बाद में पार्टी के इस फैसले को “ऐतिहासिक भूल” कहा। अब यह इतिहासकारों को तय करना है कि यह भूल वामपंथी आंदोलन को कितनी महंगी पड़ी। लेकिन एक आम अंदाजा यह जरूर लगाया जा सकता है कि अगर बसु प्रधानमंत्री बनते तो शायद संयुक्त मोर्चा का प्रयोग विफल नहीं होता। उनका राजनीतिक कौशल और राजनीतिक दायरे में उनकी प्रतिष्ठा संभवतः ऐसा नहीं होने देते। और अगर ऐसा होता शायद भारत को घोर दक्षिणपंथी और सांप्रदायिक शासन के छह साल के दौर से नहीं गुजरना पड़ता। और शायद यह भी हो सकता था कि उससे वामपंथी आंदोलन के लिए देशभर में नई संभावनाएं पैदा होतीं।
उस घटनाक्रम के चार साल बाद बसु ने पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री का पद भी छोड़ दिया। २३ साल लगातार मुख्यमंत्री रहने का रिकॉर्ड बनाने के बाद उन्होंने स्वेच्छा पद छोड़कर सत्ता हस्तांतरण एक मिसाल भी कायम की। बहरहाल, सत्ता से अलग हो जाने के बावजूद वे माकपा के लिए ज्योति-स्तंभ बने रहे। पार्टी की राजनीतिक लाइन तय करने में उनकी भूमिका कायम रही। अपने नैतिक कद से वे न सिर्फ पश्चिम बंगाल बल्कि पूरे देश के राजनीतिक घटनाक्रम को प्रभावित करते रहे। उस दौर में- जब केंद्र में भाजपा नेतृत्व वाली सरकार देश की राज्य-व्यवस्था पर भगवा रंग चढ़ा रही थी- हर वामपंथी एवं धर्मनिरपेक्ष नेता की तरह ज्योति बसु का ध्यान भी भाजपा विरोधी विकल्प को उभारने में लगा था।
गौरतलब है कि १९९० के दशक में जब भाजपा उभार पर थी, ज्योति बसु का भाजपा और संघ परिवार को ‘बर्बर’ कहना मीडिया में विवाद खड़ा करता रहा था। बसु ने कई बार यह बयान दोहराया और दलील देते रहे कि जो ताकतें समाज में फूट और हिंसा पैदा करती हों, उन्हें और क्या कहा सकता है। बहरहाल, उनके इस बयान का राजनीतिक महत्त्व यह रहा कि सांप्रदायिकता के खतरों के प्रति जागरूक तबके ज्यादा गंभीर हुए और इससे धर्मनिरपेक्ष ताकतों की गोलबंदी की राह तैयार हुई। यह गोलबंदी २००४ के आम चुनाव के बाद नए मुकाम पर पहुंची, जब वामपंथी दलों के समर्थन से केंद्र में कांग्रेस नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार बनी। इस दौर में सामाजिक जनतांत्रिक राजनीति का जो एजेंडा तैयार हुआ, वह अब देश की राजनीति की मुख्यधारा है। यह सिर्फ एक विडंबना ही है कि इसे तैयार करने में सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली माकपा २००९ के आम चुनाव में भारी नुकसान झेलने के बाद अब अपनी पांच साल पहले वाली भूमिका खो चुकी है।
हम यह साफ तौर पर देख सकते हैं कि माकपा फिलहाल वैचारिक, सांगठनिक और राजनीतिक हर तरह के संकट में है और इससे निकलने का रास्ता नहीं ढूंढ पा रही है। ऐसे में उसे ज्योति बसु की पितृछाया की बहुत जरूरत थी। इस वक्त उनका उठ जाना एक ऐसा सदमा है, जिससे पार्टी का उबरना आसान नहीं है। वैसे यह एक पार्टी की समस्या है। बहरहाल, हकीकत यह है कि ज्योति बसु के चले जाने से पूरे वाम-जनतांत्रिक दायरे में एक बड़ा शून्य पैदा हो गया है।
Subscribe to:
Posts (Atom)