Saturday, December 29, 2007

गुजरात में हार के सबक

सत्येंद्र रंजन
गुजरात विधानसभा के चुनाव की संभवतः एक ही सही व्याख्या हो सकती है और वह है मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की बेलाग जीत। २००४ के लोकसभा चुनाव नतीजों के आधार पर इस बार के विधानसभा चुनाव के परिणामों के जो अनुमान लगाने की कोशिशें हुईं, वो मुंह के बल गिरीं। गौरतलब है कि २००४ के लोकसभा चुनाव में राज्य की २६ में से १२ सीटें कांग्रेस के हक में गई थीं। और तब कांग्रेस ने १८२ में से ९१ विधानसभा सीटों पर बढ़त बना ली थी। उस चुनाव परिणाम को इस बात का संकेत माना गया कि २००२ में गोधरा और गुजरात दंगों से हुए सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के बाद गुजरात में सामान्य राजनीतिक स्थिति बहाल हो गई है।
लेकिन २००७ के नतीजों का संदेश यह है कि जब मुद्दा नरेंद्र मोदी बने तो २००२ का नज़ारा वापस आ गया। मोदी ने तब जो सांप्रदायिक ध्रुवीकरण किया था, उसे आज तक कायम रखने में वे सफल हैं। यह बात इस चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को मिली सीटों और वोट प्रतिशत दोनों से जाहिर होती है। इसलिए इन चुनाव नतीजों को समझने के लिए इन पहलुओं की चर्चा का शायद कोई महत्त्व नहीं है कि तकरीबन ११ सीटों पर बहुजन समाज पार्टी ने कांग्रेस की संभावनाओं को नुकसान पहुंचाया या कांग्रेस ने भाजपा के बागियों को टिकट देकर बड़ी राजनीतिक भूल की। इसके उलट यह बात कहीं ज्यादा सटीक लगती है कि ये सारे पहलू नहीं होते, तब भी मोदी लगभग इतनी ही बड़ी जीत दर्ज करते। दरअसल, देश का धर्मनिरपेक्ष खेमा इस तथ्य को स्वीकार कर और गुजरात के ठोस हालात को समझते हुए अगर गुजरात में हार से कुछ सबक ले तो शायद यह भविष्य के लिए ज्यादा फायदेमंद हो सकता है। इनमें सबसे पहली बात यह है कि देश में सांप्रदायिकता का एक ठोस सामाजिक आधार है, जिसका मजबूत ध्रुवीकरण अगर मुमकिन हो जाए तो वह बड़ी राजनीतिक ताकत बन जाता है। हालांकि १९८४ में राष्ट्रीय स्तर पर या १९९० के दशक में उत्तर प्रदेश में हुए ऐसे ध्रुवीकरण टिकाऊ नहीं हो सके, लेकिन गुजरात में यह गोलबंदी फिलहाल एक अभेद्य किले की तरह नजर आती है। यह गोलबंदी १९८० के दशक में आरक्षण विरोधी आंदोलन से शुरू हुई और तब से पटेल समुदाय गुजरात में भाजपा का लगभग स्थायी जनाधार बना हुआ है। इस बार केशुभाई पटेल की बगावत से यह उम्मीद बांधी गई कि शायद पटेल समुदाय का एक बड़ा हिस्सा भाजपा को वोट न दे। असल में, मोदी की हार से जुड़े अनुमानों के पीछे यह एक बड़ा पहलू था। कोली समुदाय में मोदी से नाराजगी की चर्चाओं ने ऐसी उम्मीदों को और बल दिया।
मगर चुनाव नतीजों ने यह जाहिर किया कि किसी समुदाय के अपने वर्ग और जातीय रुझान किसी एक नेता की इच्छा औऱ अनिच्छाओं से ज्यादा मजबूत होते हैं। पटेलों के सामने जब अपने एक नेता की इज्जत और जातीय हित के बीच चुनाव का सवाल आया तो उन्होंने जातीय हित को ज्यादा तरजीह दी। पटेलों को उस कांग्रेस को न जिताने में ही अपना हित दिखा जो क्षत्रिय-दलित-आदिवासी-मुस्लिम के सामाजिक गठबंधन को फिर से खड़ा करने की कोशिश में थी। वह गठबंधन जिसकी वजह से उनके सामाजिक औऱ राजनीतिक वर्चस्व को एक जमाने में चुनौती मिली थी। इसी तरह कोली समुदाय के एक-दो नेताओं की नाराजगी को पूरे समुदाय की नाराजगी के रूप में देखकर धर्मनिरपेक्ष समुदाय ने अपना ही नुकसान किया। गुजरात के चुनाव नतीजों का पैगाम यही है कि सामाजिक समीकरण और गठबंधन लंबी प्रक्रिया से तय होते हैं। फौरी राजनीतिक वजहों से इनमें बदलाव की उम्मीद करना महज एक सदिच्छा ही हो सकती है। दूसरी तरफ आदिवासी वोटों की जरूर कांग्रेस की तरफ वापसी हुई। लेकिन यह प्रक्रिया भी इतनी जोरदार नहीं थी जिससे आदिवासी बहुल मध्य गुजरात में कांग्रेस की लहर चल जाती। मध्य गुजरात के नतीजे भी दरअसल यही साफ करते हैं कि फौरी वजहों से जाति और वर्गों का जो राजनीतिक गठबंधन बनता है, वह टिकाऊ नहीं होता। आदिवासी २००२ के दंगों के बाद भाजपा खेमे में चले गए थे, लेकिन वहां पटेल और कुछ ओबीसी जातियों के वर्चस्व के बीच उनके लिए टिकाऊ जगह नहीं बन पाई।
इसके साथ ही भाजपा का शहरी मध्य वर्गीय आधार है, जो मोदी के आक्रामक नेतृत्व से ज्यादा मजबूती से गोलबंद हो गया। दक्षिणपंथी और लोकतंत्र विरोधी मानसिकता को मोदी जिस अशिष्ट भाषा में अभिव्यक्ति देते रहे हैं, वह मध्य वर्ग की अपनी इच्छाओं से काफी मेल खाती है। इसलिए मोदी न सिर्फ गुजरात, बल्कि देश के बाकी हिस्सों में भी इस वर्ग के एक बड़े हिस्सों के नायक हैं। इस तरह मोदी ने देहाती इलाकों में दबदबा रखने वाले समूहों और शहरों में दक्षिणपंथ के आधार समूहों का एक ऐसा प्रतिक्रियावादी राजनीतिक गठबंधन तैयार कर रखा है, जिसकी ताकत का सही अंदाजा गुजरात से बाहर बैठे बहुत लोग पहले नहीं लगा पाए। यह साफ है कि ऐसे राजनीतिक गठबंधन का कोई क्विक फिक्स जवाब नहीं हो सकता। इसका मुकाबला धर्मनिरपेक्ष औऱ प्रगतिशील ताकतों के दीर्घकालिक एवं प्रतिबद्ध सहयोग और साफ कार्यक्रम एवं एजेंडे के साथ ही किया जा सकता है। इस बात से शायद खुद कांग्रेस नेता भी इनकार नहीं कर सकते कि ऐसा संघर्ष उनकी पार्टी ने नहीं किया। चुनाव के ठीक वक्त पर उन्होंने पूरा जोर जरूर लगाया, लेकिन एक मजबूत आधार वाले नेता और पार्टी के ठोस वोट आधार के आगे यह नाकाफी साबित हुआ। यहां इस बात भी नजरअंदाज नहीं की जा सकती कि कांग्रेस की सारी रणनीति नकारात्मक वोटों को हासिल करने की टिकी थी। एंटी इन्कबेंसी से निसंदेह कई चुनावों के नतीजे तय होते रहे हैं। कांग्रेस के रणनीतिकारों ने गुजरात में इस पर काफी भरोसा किया। साथ ही उन्होंने भाजपा के बागियों की ताकत पर संभवतः जरूरत से ज्यादा यकीन कर लिया। लेकिन जब पार्टी गुजरे वर्षों के दौरान धर्मनिरपेक्ष राजनीति का कोई सकारात्मक एजेंडा लोगों के सामने नहीं रख पाई थी, तो ठीक चुनाव के वक्त पर आखिर वह कर भी क्या सकती थी? कांग्रेस के सामने यह समस्या अब सारे देश में आनी है। इसलिए कि २००४ में उसे फिर से अपनी तलाश करने का जो ऐतिहासिक मौका मिला, उसे उसने गवां दिया है। इसकी एक मिसाल आदिवासी कानून ही है, जो गुजरात के आदिवासी इलाकों में एक अहम मुद्दा बना। इस कानून को लागू करने में मनमोहन सिंह सरकार ने जैसी हिचक दिखाई है और उस मामले में कांग्रेस नेतृत्व की जैसी छवि उभरी है, उससे आदिवासियों के बीच उसकी साख बनाने का सवाल लगभग खत्म सा हो गया है। यही बात इस सरकार की दूसरी पहलकदमियों के साथ भी रही है। सरकार ने रोजगार गारंटी कानून और सूचना का अधिकार देने संबंधी कानून बनाने के आम जन के हित में जो काम किए भी अपनी वैचारिक दुविधा से उसने उसका राजनीतिक लाभ लेने के मौके गंवा दिए हैं। नतीजतन, आज वह सिर्फ सांप्रदायिकता विरोधी नकारात्मक वोटों के आसरे ही चुनाव मैदान में उतरने की उम्मीद कर सकती है।
इस सारी परिघटना से धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र औऱ दूसरे संवैधानिक मूल्यों के लिए भारी संकट खड़ा होता नजर आ रहा है। दरअसल, गुजरात के चुनाव पर इसलिए इतनी ज्यादा नजर थी, क्योंकि वह एक आम चुनाव नहीं था। वहां दांव पर सीधे लोकतंत्र और भारतीय संविधान के बुनियादी उसूल लगे हुए थे। हमें यह स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि इन संवैधानिक उसूलों की वहां हार हुई है। मोदी की विजय कि घड़ी में भी हम यह नहीं भूल सकते कि फरवरी २००२ में गोधरा कांड के बाद नरेंद्र मोदी ने देश को हिंदुत्व के शासन का नमूना दिखाया था। उन्होंने भौतिकशास्त्र के न्यूटन के क्रिया औऱ प्रतिक्रिया के सिद्धांत को राजनीति और सांप्रदायिक संबंधों के बीच ला कर कानून के शासन का खुला मखौल उड़ाया था। समुदायों के आपसी झगड़ों के बीच सरकार की निष्पक्षता की संवैधानिक अपेक्षा की उन्होंने धज्जियां उड़ा दीं। मोदी को अपनी इस करनी के लिए कभी अफसोस नहीं हुआ। बल्कि हमेशा वो गर्व से अपनी सरकार औऱ अपने दंगाई साथियों के पराक्रम का बखान करते रहे हैं। सिविल सोसायटी के भीतर इसीलिए नरेंद्र मोदी का नाम एक खास ढंग की प्रतिक्रिया पैदा करता रहा है। वो भारत की आधुनिक चेतना के आगे एक ऐसा सवाल बन कर खड़े हैं, जिसका जवाब संभवतः नागरिक समाज के पास नहीं है। एक ऐसा व्यक्ति जो आधुनिक राज्य-व्यवस्था के मूल सिद्धांतों को न मानता हो, जो अपनी संवैधानिक व्यवस्था के बुनियादी सिद्धांतों के लिए चुनौती बना हुआ हो, लेकिन वह इन्हीं सिद्धांतों के तहत चुनाव जीत कर एक प्रदेश के सबसे बड़े पद पर बना रहे, यह एक ऐसी दुविधा है, जिसका हल क्या हो, यह एक यक्ष प्रश्न रहा है। ताजा चुनाव नतीजों के साथ यह प्रश्न कहीं ज्यादा गहरा गया है।

Tuesday, December 18, 2007

शुक्रिया, न्यायमूर्ति!



सत्येंद्र रंजन
दालतों के अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर दखल देने की बढ़ती की शिकायत के बीच सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश एके माथुर और मार्कंडेय काटजू ने सामयिक दखल दिया, जब उन्होंने जजों को उनकी संवैधानिक सीमा याद दिलाई। दोनों जजों ने यह बेलाग शब्दों में कहा कि अगर कोई काम सरकारें नहीं कर पातीं, तो उनका हल यह नहीं है कि न्यायपालिका संसद और सरकारों का काम अपने हाथ में ले ले, क्योंकि इससे न सिर्फ संविधान से तय शक्तियों का नाजुक संतुलन बिगड़ जाएगा, बल्कि न्यायपालिका के पास न तो इन कार्यों को अंजाम देने की महारत है और न ही उसके पास इसके लिए जरूरी संसाधन हैं। न्यायमूर्ति माथुर और न्यायमूर्ति काटजू ने न्यायपालिका के अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर दखल की कई मिसालें अपने इस फैसले में गिनाईं और जजों को सलाह दी कि वो अपनी सीमाओं को समझें एवं सरकार चलाने की कोशिश न करें। उन्होंने कहा कि जजों में विनम्रता होनी चाहिए और उन्हें सम्राटों जैसा व्यवहार नहीं करना चाहिए। संभवतः न्यायिक सक्रियता या अदालतों के अपनी हद लांघने की शिकायत पर इससे कड़ी टिप्पणी कोई और नहीं हो सकती। इन टिप्पणियों के साथ सुप्रीम कोर्ट की इस खंडपीठ ने राज्य-व्यवस्था के तीनों अंगों के बीच शक्तियों के संतुलन को लेकर चल रही बहस को एक नया आयाम दिया। हालांकि यह फैसला आने के दो दिन बाद प्रधान न्यायाधीश केजी बालकृष्णन की अध्यक्षता वाली एक बेंच ने यह कह कर कि अदालत दो जजों की टिप्पणियों से बंधी हुई नहीं है, इस फैसले को बेअसर करने की कोशिश की, लेकिन एक साधारण मामले में आए न्यायमूर्ति माथुर औऱ न्यायमूर्ति काटजू के फैसले ने इस विषय पर जारी बहस की प्रासंगिकता और उसके महत्त्व पर नए सिरे से ज़ोर जरूर डाल दिया है।
दरअसल, न्यायमूर्ति बालकृष्णन की टिप्पणी यह जाहिर करती है कि यह बहस अब ज्यादा तेज हो रही है औऱ खुद न्यायपालिका के भीतर एक हिस्सा ऐसा है जो न्यायपालिका के जरूरत से ज्यादा सक्रिय होने पर चिंतित है। निसंदेह न्यायमूर्ति काटजू इस हिस्से का प्रतिनिधित्व करते रहे हैं। असल में यह पहला मौका नहीं है जब उन्होंने लोकतांत्रिक संदर्भ में न्यायापालिका के अधिकारों पर बेलाग राय जताई हो। इसके पहले वे अदालत की तौहीन के सवाल पर आम तौर पर न्यायिक क्षेत्र में पाई जाने वाली राय से अलग समझ सार्वजनिक रूप से रख चुके हैं। न्यायमूर्ति काटजू उन जजों में हैं जो मानते हैं कि लोकतंत्र के युग में अदालत की अवमानना के कानून की कोई जरूरत नहीं है। उनकी राय में अदालत की अवमानना का मामला सिर्फ तभी चलाया जाना चाहिए जब कोई भौतिक रूप से अदालत के कामकाज में रुकावट डाले। वरना, अदालत के फैसलों की आलोचना के एक आम नागरिक के अधिकार का पूरा सम्मान किया जाना चाहिए।
बहरहाल, इस फैसले पर व्यापक प्रतिक्रिया देखने को मिली है। समाज के सभ्रांत तबकों के साथ कथित जन हित के लिए संघर्ष करने वाले सभ्रांत कार्यकर्ताओं में भी इसको लेकर चिंता देखने को मिली कि कहीं इससे जन हित याचिकाओं की पूरी परिघटना पर ही विराम न लग जाए। इसीलिए कई ऐसी बड़ी शख्सियतों ने, जिन्हें जन आंदोलनों के दायरे में इज्जत से देखा जाता है, न्यायमूर्ति माथुर और न्यायमूर्ति काटजू की राय के समर्थन में आने के बजाय न्यायमूर्ति बालकृष्णन की टिप्पणी के पक्ष में राय जताई। यह ध्यान दिलाया गया है कि १९८० के दशक में जन हित याचिकाओं को कानूनी मान्यता मिलने के बाद से इनके जरिए सरकारों औऱ प्रशासन को ज्यादा जिम्मेदार बनाया जा सका तथा कमजोर तबकों के हितों की रक्षा की जा सकी।
इसमें कोई संदेह नहीं कि जन हित याचिकाएं न्याय व्यवस्था के विकास का एक अहम मुकाम हैं, इसलिए उन्हें बिल्कुल खत्म कर देने का समर्थन किसी को नहीं करना चाहिए। लेकिन सवाल है कि न्यायमूर्ति माथुर और न्यायमूर्ति काटजू के फैसले से जन हित याचिकाओं के खत्म होने की आशंका आखिर कहां से पैदा होती है? उस फैसले का सार-तत्व सिर्फ यह है कि अदालतें अपने दायरे में रहें औऱ संविधान के तहत उन्हें जो जिम्मेदारी दी गई है, उसे निभाएं। इस जिम्मेदारी के तहत नागरिक के मूल अधिकारों की रक्षा शामिल है। इस कसौटी पर सरकार एवं संसद के कार्यों की न्यायिक समीक्षा का अधिकार उन्हें संविधान से मिला हुआ है। इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के बुनियादी ढांचे की अवधारणा स्थापित कर अपना दायरा और बढ़ा लिया है। यानी अदालत जिस सरकारी या विधायी कार्य को संविधान के बुनियादी ढांचे के खिलाफ माने, उसे वह रद्द कर सकती है।
असल में जब अदालतें इस सीमा में काम करती हैं और इसी दायरे में जन हित को परिभाषित करती हैं, तब उन पर कोई सवाल नहीं उठाया जाता। समस्या तब खड़ी होती है, जब वो मॉनिटरिंग कमेटियां बना कर सीधे प्रशासन का काम अपने हाथ में लेने लगती हैं, जैसा कि दिल्ली में अवैध निर्माणों के सिलसिले में हुआ, या अचानक कोई जज यह टिप्पणी करने लगता है कि वह किसी राज्य में चुनी हुई सरकार को बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लागू करवा देगा। राज्य-व्यवस्था के बाकी दोनों अंगों के प्रति जब अपमान का भाव न्यायिक टिप्पणियों का हिस्सा बन जाता है तो जाहिर है, न्यायपालिका न सिर्फ सार्वजनिक बहस के केंद्र में आ जाती है, बल्कि वह खुद अपने लिए आलोचना को न्योता देती है। संसद और सरकारों के प्रति अपमान का जो भाव आम जन तक राजनीतिक अधिकारों के प्रसार से बेचैन सभ्रांत तबकों में है, वही भाव न्यायपालिका में भी झलकने लगता है, तो यह सवाल खुद खड़ा हो जाता है कि आखिर न्यायपालिका सदियों से वंचित तबकों में बढ़ रही लोकतांत्रिक चेतना के साथ है, या वह लोकतंत्र को कुंद रखने की अभिजात्यवादी मानसिकता का साथ दे रही है? जन हित याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए न्यायपालिका ने अपनी जो नई भूमिका बनाई, उसे न्यायिक सक्रियता का नाम दिया गया। इस परिघटना के समर्थक समूहों का कहना है कि न्यायिक सक्रियता के जरिए अदालतों ने कमजोर और गरीब तबकों के हित में दखल दिया और सरकारों को जवाबदेह बनाया। लेकिन अगर हम पिछले ढाई दशकों भारतीय न्यायपालिका के इतिहास पर समग्र रूप से विचार करें तो यह कथन एक अर्धसत्य नजर आता है। अदालतों ने जन हित याचिकाओं पर बंधुआ मजदूरी जैसे कई मामलों में जरूर ऐसे फैसले दिए, जिन्हें प्रगतिशील कहा जा सकता है। लेकिन ऐसी ही याचिकाओं पर अदालतों ने बंद को असंवैधानिक, एवं हड़ताल को गैर कानूनी घोषित कर दिया और नौकरी संबंधी कई स्थितियों में मजदूरों के हितों पर करारी चोट की। १९९० के बाद जैसे-जैसे नव-उदारवादी आर्थिक नीतियां शासन व्यवस्था का हिस्सा बनती गईं, न्यायपालिका के ऐसे फैसलों का सिलसिला बढ़ता गया, जिनसे मजदूर एवं कर्मचारी तबकों के लिए व्यक्तिगत या सामूहिक सौदेबाजी मुश्किल होती गई। पर्यावरण रक्षा की अभिजात्यवादी समझ को न्यायिक समर्थन मिलता गया, जिससे हजारों परिवार उजड़ गए। विकास परियोजनाओं से विस्थापित हुए समूह अदालती चिंता के दायरे से बाहर होते गए।
साथ ही अदालतें सार्वजनिक नीतियों में खुलेआम दखल देने लगीं। मिसाल के तौर पर, असम में लागू गैर कानूनी आव्रजक (ट्रिब्यूनल से निर्धारण) कानून को रद्द करने से लेकर आंध्र प्रदेश में अल्पसंख्यकों को आरक्षण देने के सरकारी फैसलों पर न्यायपालिका का रुख समाज में मौजूद एक खास ढंग के पूर्वाग्रह को मजबूत करने वाला रहा है। शैक्षिक संस्थानों में अन्य पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण के प्रस्ताव पर रोक लगा कर सुप्रीम कोर्ट ने यही संदेश दिया कि उसे संसद की गरिमा की कोई परवाह नहीं है। गौरतलब है कि इस आरक्षण के लिए पास कानून पर सभी दलों में सहमति की दुर्लभ मिसाल देखने को मिली। ऐसा ही संदेश दिल्ली में अवैध निर्माणों की सीलिंग रोकने के संदर्भ में भी दिया गया, जब संसद में आम सहमति से पास कानून सुप्रीम कोर्ट की कसौटी पर खरा नहीं उतरा। जब कोई ऐसी सार्वजनिक नीति बने, जिस पर देश की जनता की नुमाइंदगी करने वाले सभी दल एकमत हों, तो उस पर रोक लगाकर आखिर अदालत किसके हित की रक्षा करती है, यह एक विचारणीय प्रश्न है। सुप्रीम कोर्ट संविधान की नौवीं अनुसूचि को असंवैधानिक ठहरा चुका है, जिसके जरिए संसद उन फैसलों को न्यायिक समीक्षा के दायरे से बाहर रखती थी, जिन पर आम सहमति होती थी, लेकिन जिन्हें संवैधानिक प्रावधानों, अनुच्छेद और धाराओं की यांत्रिक न्यायिक व्याख्या से रद्द किए जाने की आशंका होती थी। न्यायपालिका अपना अधिकार क्षेत्र बढ़ाते हुए यह फैसला दे चुकी है कि संसद का कोई भी कानून या संविधान संशोधन अब न्यायिक समीक्षा के दायरे से बाहर नहीं है। अगर अदालत समझती है कि उस कानून या संशोधन से किसी के बुनियादी अधिकार का उल्लंघन होता है तो उसे वह रद्द कर देगी। इस तरह संविधान के बुनियादी ढांचे की अवधारणा स्थापित करने के बाद बुनियादी अधिकारों को आधार बनाते हुए न्यायपालिका ने शासन व्यवस्था के भीतर खुद के सर्वोच्च होने की स्थिति बना ली है, जो संविधान की मूल भावना के अनुरूप नहीं है। दरअसल, अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम और फ्रांस की क्रांति के दौरान शासन के जिन मूल्यों का विकास हुआ और जिन्हें लोकतंत्र के मूल सिद्धांत के रूप में अपनाया गया, यह उसके भी खिलाफ है। शक्तियों के अलगाव, राज्य-व्यवस्था के अंगों के बीच अवरोध एवं संतुलन की व्यवस्था, और जन भावना की सर्वोच्चता के इन मूल्यों के बिना कोई भी लोकतंत्र महज एक ढांचा ही हो सकता है, वह वास्तविक लोकतंत्र नहीं हो सकता। इसलिए मौजूद बहस में सभी लोकतांत्रिक एवं प्रगतिशील ताकतों को स्वाभाविक रूप से जस्टिस माथुर और जस्टिस काटजू के विचारों के साथ होना चाहिए, जिन्होंने लोकतंत्र और संविधान के आधारभूत सिद्धांतों की व्याख्या की है। भारत में लोकतंत्र के जब जमीन तक पहुंचने की अभी शुरुआत हुई है, तो सत्ता औऱ सुविधाओं पर सदियों से कब्जा जमाए तबकों की बेचैनी समझी जा सकती है। भले ही धीमी गति से, लेकिन आगे बढ़ रही इस क्रांति के खिलाफ उनकी प्रति-क्रांति यानी काउंटर रिवोल्यूशन की मंशा को भी समझा जा सकता है। लेकिन लोकतंत्र के नाम पर चलने वाली संस्थाएं खुद इसमें यथास्थितिवादी ताकतों का हथियार बन जाएं, इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। लेकिन दुर्भाग्य से न्यायपालिका के एक हिस्से और कई दूसरी संवैधानिक संस्थाओं में ऐसा रुझान हाल के वर्षों में बढ़ता गया है। इसीलिए इस मौके पर यह बात जोर देकर कहे जाने की जरूरत है कि संविधान के तहत राज्य-व्यवस्था के तीनों अंगों के बीच संतुलन की जो व्यवस्था है, उसे बहाल किया जाना चाहिए। यह कह कर न्यायमूर्ति माथुर और न्यायमूर्ति काटजू ने लोकतंत्र की बड़ी सेवा की है। लेकिन हैरत यह है कि अपने को लोकतंत्र और मानव अधिकारों का रक्षक बताने वाले बहुत से बुद्धिजीवियों और कार्यकर्ताओं को यह बात गले नहीं उतर रही है। उन्हें लगता है कि संसद, राजनीतिक दल और सरकारें लोकतंत्र के रास्ते में बाधा हैं, जबकि अदालतें उन्हें रास्ते पर रखने का उपक्रम हैं। साफ है, ऐसा नासमझी में ही सोचा जा सकता है, या फिर तब सोचा जा सकता है, जब लोकतंत्र और जन अधिकारों की बात महज शौक के तहत की जाती हो और अपनी असली सोच संभ्रांत वर्ग के पूर्वाग्रहों से तय होती हो।
वरना, यह साधारण समझ की बात है कि लोकतंत्र की रक्षा की गारंटी सिर्फ लोग हैं। सिर्फ वे लोग जिनका हित इससे जुड़ा हुआ है। सिर्फ वे लोग जिनका सब कुछ लोकतंत्र के भविष्य के साथ दांव पर लगा हुआ है। वे लोग नहीं, जो बिना लोकतंत्र के भी सुख और सुविधा के साथ जी सकते हैं औऱ वे लोग तो कतई नहीं जिनके विशेषाधिकारों और खास सुविधाओं पर लोकतंत्र के बढ़ते कदम के साथ चोट पहुंचने का खतरा है। सवाल है कि आज न्यायपालिका इनमें से किन लोगों के हक में खड़ी नजर आती है? या दुनिया भर की लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के इतिहास में उसकी क्या भूमिका रही है? अगर हम इन सवालों पर गौर करें तो यह साफ होने में देर नहीं लगती कि आज न्यायपालिका को उसके संवैधानिक दायरे तक सीमित रखना एक ऐतिहासिक जरूरत बन चुकी है।
इसके लिए विधायिका के अधिकारों की नए सिरे से व्याख्या जरूरी है। विधायिका संविधान के बुनियादी ढांचे की व्याख्या का अधिकार अपने हाथ में लेकर और नौवीं अनुसूची की वैधानिकता बहाल करने की पहल कर इस दिशा में खास कदम बढ़ा सकती है। हालांकि विधायिका के भीतर दक्षिणपंथी और यथास्थितिवादी शक्तियों की मजबूत उपस्थिति को देखते हुए इसकी तुरंत उम्मीद नहीं की जा सकती, लेकिन देश की असली लोकतांत्रिक और प्रगतिशील शक्तियां उस मकसद पर जोर डालकर और इसके लिए जन समर्थन जुटाकर एक दबाव जरूर बना सकती हैं।

Friday, December 14, 2007

क्योंकि हर शब्द के पीछे है एक सोच


सत्येंद्र रंजन
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ल्म आजा नचले के गाने को लेकर उठा विवाद फिल्म निर्माता के जाति सूचक शब्दों को गाने से हटा देने और माफी मांग लेने के साथ खत्म हो गया। लेकिन इससे एक बड़ा सवाल आम चर्चा में सामने आया। यह बहुत से लोगों को समझ में नहीं आया कि आखिर मोची शब्द के इस्तेमाल पर क्या एतराज है? दलील दी गई कि मोची कोई जाति नहीं, बल्कि एक पेशा है। जैसे अंग्रेजी में कॉबलर शब्द है, वैसा ही हिंदी में मोची है। चूंकि इस गाने पर सबसे पहले रोक उत्तर प्रदेश सरकार ने लगाई, इसलिए वहां की मुख्यमंत्री मायावती को घेरने के लिए मीडिया के एक हिस्से यह सवाल भी उठा दिया कि मायावती खुद जातियों के नाम जनसभाओं में लेती रही हैं औऱ इसलिए इस गाने पर उनकी सरकार की प्रतिक्रिया उनके दोहरे मानदंडों को दिखाती है। फिर यह सवाल भी उठा कि क्या आम चर्चा में जातियों के नाम नहीं लिए जाने चाहिए?
चूंकि इस गाने में यह कहा गया था कि मोची खुद के सोनार होने का दावा कर रहा है, इसलिए इस विशेष संदर्भ में बहस की ज्यादा गुंजाइश नहीं थी। गाने के बोल में यह साफ था कि इसमें जातीय क्रम में मोची को निचले स्थान पर मानने की मानसिकता साफ झलकती है। यानी सारे पेशे समान हैं, अंतर सिर्फ उनके प्रकार और सेवा देने के क्षेत्र में है, इस आदर्श का यह गाना खुलेआम उल्लंघन कर रहा था। शायद यह बात जल्द ही फिल्म निर्माताओं, मीडिया और आम लोगों को भी समझ में आ गई, इसलिए इस विशेष संदर्भ में ज्यादा बखेड़ा खड़ा नहीं किया गया। लेकिन इस संदर्भ से जो बड़े सवाल उठे हैं, उन पर खुल कर चर्चा नहीं हुई है, जिसकी आज बेहद जरूरत है। यह जरूरत इसलिए है कि लोकतंत्र और कानून के शासन के जिस मकसद को लेकर भारतीय संवैधानिक व्यवस्था खड़ी की गई है, जिसमें हर नागरिक को समान माना गया है और उसे समान अवसर देने की बात की गई है, उस उद्देश्य के आगे ये सवाल एक बड़ी बाधा बन कर खड़े हैं। दरअसल, इस बहस के सवाल सिर्फ जाति व्यवस्था से नहीं जुड़े हैं, बल्कि इनके पीछे इंसान औऱ इंसान में फर्क मानने और इंसान की मौजूदा हालत के पीछे किसी दैवी व्यवस्था का हाथ समझने की गहरी एवं व्यापक सोच हैं। अब जबकि सदियों से शोषित और उत्पीड़ित जन समूहों में अपने अधिकारों और अपनी मानवीय गरिमा के प्रति नई चेतना आ रही है, तो इन सवालों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। आजा नचले के गाने के संदर्भ में कहा गया कि जूता बनाने और मरम्मत करने का पेशा करने वालों को मोची नहीं कहा जाए, तो फिर क्या कहा जाए? यह हवाला दिया गया कि जूतों के एक बड़े शोरूम ने खुद अपना नाम ‘मोचीज’ रखा हुआ है। तो फिर ये सारा शोर क्यों? ऐसे सवाल आम तौर पर उन हलकों से आते हैं, जिनमें मुमकिन है कि बहुत से लोगों का मकसद बुरा न हो। लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि ऐसे लोग भारतीय समाज के ऐतिहासिक ढांचे और उसमें अंतर्निहित उत्पीड़न से नावाकिफ हैं। आबादी के एक बड़े हिस्से को मूलभूत मानव अधिकारों से वंचित रखने की कैसी व्यवस्था यहां बनी, वह कैसे चलती रही औऱ आधुनिकता के तमाम आगमन के बावजूद आज भी वह कैसे जारी है, इसकी समाजशास्त्रीय दृष्टि अपनाने में संभवतः वे लोग नाकाम हैं। वरना, मोची औऱ कॉबलर की तुलना किसी भी रूप में नहीं हो सकती। अंग्रेजों के समाज में कॉबलर कोई रूढ़ पेशा नहीं है। कॉबलर का बेटा आसानी से अपनी क्षमता और योग्यता के मुताबिक किसी नए पेशे को अपना सकता है। लेकिन सदियों तक ऐसा करना भारत में संभव नहीं था। यहां मोची का बेटा मोची ही हो सकता था। जब हम मोची कहते हैं तो एक दीन-हीन ऐसे व्यक्ति की छवि दिमाग में उभरती है जो जूता मरम्मत करने के सामान लेकर कहीं सड़क के किनारे बैठा हो। बेशक उसका पेशा भी उतना ही गरिमामय है, जितना वेद पाठ करने वाले पंडित, या लेख लिखने वाले पत्रकार का, लेकिन वर्ण व्यवस्था इस इंसानी सिद्धांत को नहीं मानती।
वरना, मोची का छुआ पानी पीने से धर्म भ्रष्ट होने की व्यवस्था क्यों बनाई जाती? जिस जातीय मानसिकता में हम जीते रहे हैं, उसमें अक्सर मोची को उसकी ईमानदारी की मेहनत का पैसा ऐसे दिया जाता है, जिससे उसका स्पर्श न हो जाए। क्या लंदन के किसी पेशेवर कॉबलर का भी ऐसा ही अपमान या उसकी मानवीय गरिमा का ऐसा उल्लंघन होता है? दरअसल, जब आप मोची कहते हैं, तो भारतीय संदर्भ में इससे किसी एक पेशेवर इंसान का नहीं, बल्कि एक जाति, एक पूरे समाज का बोध होता है, जिसके लिए सवर्ण मानसिकता में कोई इज्जत नहीं है। जाहिर है, बिल्कुल यही हालत सोनार के साथ नहीं है। सोनार के जहां जेवरात खरीदने गया कोई व्यक्ति वहां बैठता है, पानी पीता है। अगर वह सवर्ण जाति का हो, तो अपने को श्रेष्ठ जरूर समझेगा, लेकिन सोनार को वैसे ही अपमान के भाव से नहीं देखेगा, जैसा वह मोची को देखता है।
इसलिए गाने में मोची शब्द आने और उसके खुद को सोनार मानने की लाइन पर दलितों में गुस्सा भड़का तो यह बेवजह नहीं था। इसके पीछे सामाजिक अन्याय से लड़ने एवं आगे औऱ अपमान न सहने की उनकी नवजाग्रत संघर्ष भावना है। अगर हम इंसानियत की बुनियाद पर समाज बनाने का लक्ष्य लेकर चल रहे हैं, तो हमें इस भावना का जरूर सम्मान करना चाहिए। इसके बजाय किसी शोरूम का नाम ‘मोचीज’ होने या मायावती के खुद जातियों का जिक्र करने की मिसाल इस नवजाग्रत भावना से जन्मी प्रतिक्रिया को गलत साबित करने के लिए दी जाती है, तो यह समझने की जरूरत है कि इसके पीछे मानसिकता यथास्थितिवादी ताकतों को मजबूती देना है।
हम नहीं जानते कि ‘मोचीज’ शोरूम किसका है। लेकिन अगर वह सचमुच किसी मोची का भी हो तो यह समाज के सामने अपनी पुरानी पहचान के साथ बिना किसी शर्म के खड़े होने की एक कोशिश मानी जा सकती है। लेकिन इससे यह हकीकत नहीं बदल सकती कि देश के लाखों मोची आज भी जिंदगी की मानवीय परिस्थितियों और बुनियादी नागरिक अधिकारों से वंचित हैं। एक ऐसी मिसाल पूरे समाज की विसंगतियों को नहीं ढक सकती। और अगर मायावती ने किसी जन सभा में महार शब्द का इस्तेमाल किया हो, यह कहते हुए कि इस जाति के किसी व्यक्ति को किसी राज्य के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठाना है, तो इसकी तुलना नफरत औऱ हेय हृष्टि के साथ महार शब्द का इस्तेमाल करने वाले लोगों के साथ नहीं की जा सकती। किसी जाति या समुदाय के लोगों का नाम उन्हें ऐतिहासिक अन्याय से मुक्ति दिलाने के लिए लेने की तुलना उस अन्याय की भावना से भरे रहकर उस जाति के उल्लेख से नहीं की जा सकती। ठीक उसी तरह जैसे सामाजिक न्याय के मान्य एवं संवैधानिक सिद्धांत के तहत आरक्षण देने के लिए जातियों की सूची बनाना, और जाति के परंपरागत ढांचे में कैद रहने या दूसरों को रखने के लिए जाति का जिक्र एक ही बात नहीं है। जहां एक के पीछे भावना ऐतिहासिक अन्याय को खत्म करने की है, वहीं दूसरी सोच का मकसद उस अन्याय को जारी रखना है। इसीलिए आजा नचले के गाने से उठी बहस को विराम देने की जरूरत नहीं है। बल्कि इसे एक अंजाम तक ले जाने की आवश्यकता है। आखिर ऐसी बहसों से आम सामाजिक चेतना का विस्तार होता है और उससे एक बेहतर समाज बनाने के मकसद में मदद मिलती है। मसलन, हम विकलांगों से जुड़े शब्दों पर गौर कर सकते हैं। अभी बहुत लंबा वक्त नहीं गुजरा, जब आम बोलचाल में अंधा, बहरा, लंगड़ा, काना, लूल्हा जैसे शब्दों के इस्तेमाल पर एतराज नहीं किया जाता था। अपने रूढ़ अर्थ में ये शब्द शारीरिक रूप से किसी अंग से कमजोर व्यक्ति के प्रति एक तिरस्कार का भाव दिखाते हैं। प्रकरांतर में ये शब्द इस सामाजिक अंधविश्वास की पुष्टि करते हैं कि पिछले जन्म का पाप या किसी दैवी शक्ति के प्रकोप की वजह से कोई व्यक्ति विकलांग हुआ है। इसलिए उससे सहानुभूति रखने या उसे विशेष अवसर देने की जरूरत नहीं है। बल्कि ईश्वर या प्रकृति ने उसे सजा दी है तो लोगों को भी उससे वैसा ही सलूक करना चाहिए। लेकिन स्वास्थ्य विज्ञान के विकास और सामाजिक चेतना के विस्तार के साथ ऐसी सोच को चुनौती मिली। इससे छिड़ी बहस का ये परिणाम हुआ कि विकलांग लोगों के प्रति सामाजिक क्रूरता घटी और धीरे-धीरे उनके प्रति समाज ने अपनी जिम्मेदारी समझी। उनके लिए क्रूरता और अपमान का भाव रखने वाले शब्दों का इस्तेमाल न हो, यह जरूरत भी तब समझी गई। इसका नतीजा यह है कि आज पहले के किसी युग की तुलना में हम विकलांगों के प्रति ज्यादा मानवीय नजरिया देख सकते हैं।
ठीक यही स्थिति नस्ल या रंगभेद के सिलसिले में भी है। पश्चिमी समाजों में इस बारे में चली बहस का नतीजा यह है कि वहां आज नस्लीय टिप्पणी को एक बड़ा अपराध मान लिया गया है। साम्राज्यवाद के दौर में पश्चिम समाजों ने कुछ खास नस्लों के साथ जो ज्यादती की, कम से कम आम चर्चा में उनके प्रति एक क्षमा याचना का भाव आज वहां जरूर देखने को मिलता है। इसीलिए मंकी चैंट यानी बंदर की आवाज निकालना अब काले समुदाय के प्रति अपमानजनक माना जाता है और इसलिए उसे रोकने के बाकायदा कानून बनाए गए हैं। लेकिन इस मोर्चे पर भारतीय समाज अभी भी बहुत पिछड़ा हुआ है। हाल में जब ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेट टीम भारत दौरे पर आई, तो वहां के मूलवासी खिलाड़ी एंड्र्यू साइमंड्स को चिढ़ाने के लिए स्टेडियम्स में जैसे मंकी चैंट्स किए गए, उससे भारतीय आबादी के एक बड़े हिस्से में बैठी नस्ल और रंगभेदी मानसिकता की झलक मिली। दरअसल, यह सिर्फ गलतफहमी है कि भारत के लोग नस्ल या रंगभेदी नहीं हैं। अगर फिल्मी गानों की ही बात करें तो उनमें गोरे रंग का जैसा महिमामंडन होता है, वह परेशान करने वाला है। आजा पिया तोहे प्यार दूं, गोरे बहियां तो पे वार दूं, जैसे गाने लिखने वाले गीतकार के मन में यह सवाल कभी नहीं उठा कि जिस स्त्री की बाहें गोरी नहीं हैं, क्या वह अपने पिया से कम प्यार करती है? और अगर वह अपने प्यार का इजहार करना चाहे तो आखिर कैसे करे? या सिर्फ प्यार करना गोरी स्त्रियों का ही अधिकार है? दरअसल, यह तो सिर्फ एक मिसाल है। हिंदी फिल्मों के गाने गोरे रंग पर गुमान की भावना से भरे पड़े हैं। और जब गोरा रंग गुमान करने की बात हो तो इसमें कोई हैरत नहीं कि गोरापन बढ़ाने वाले कॉस्मेटिक्स से आज बाजार भर गए हैं। उनके इश्तहार गोरेपन का आम मीडिया पर गुणगान कर रहे हैं।
सवाल है कि यह रंग भेद नहीं तो और क्या है? क्या इंसान की भावनाएं उसके शरीर के रंग औऱ रूप से तय होती हैं, या रंग किसी की प्रतिभा का पैमाना है? आखिर भारतीय क्रिकेट दर्शक रिकी पोन्टिंग को उनके रंग के आधार पर क्यों नहीं चिढ़ाते, क्यों साइमंड्स ही उन्हें मखौल का पात्र नजर आते हैं? क्यों वैवाहिक विज्ञापनों में अक्सर गोरी दुल्हन बतौर एक शर्त के रूप में मांगी जाती है? इतनी मिसालों के बावजूद क्या यह दावा किया जा सकता है कि भारतीय समाज में भले जातिवादी मानसिकता हो, लेकिन यहां रंग भेद या नस्ल भेद नहीं है?
दरअसल, ये तमाम मानसिकताएं आज एक मानवीय और आधुनिक समाज बनाने के रास्ते में बाधा हैं। इसीलिए जाति, नस्ल और रंगभेद के मुद्दों पर बहस को तेज करने की जरूरत है। इस बात पर जोर दिए जाने की जरूरत है कि मनुष्य का शरीर परिवार की आर्थिक हैसियत, आनुवंशिक कारणों, जलवायु, और भौगोलिक पहलुओं से तय होता है। इसलिए अगर कोई काला है तो यह अपमान का विषय नहीं है या गोरा होना गर्व करने की वजह नहीं हो सकती। न ही चेहरा इंसानियत को मापने का पैमाना हो सकता है।
आजा नचले गाने पर जिस ढंग की प्रतिक्रिया हुई और उस पर जिस तरह बिना विरोध जताए सुधार कर लिया गया, वह एक सकारात्मक संकेत है। इससे कम से कम यह बात तो जाहिर हुई कि पुरानी मान्यताएं और मानसिकता अब नई उभर ताकतें चुपचाप स्वीकार नहीं करेंगी। साथ ही जो ताकतें जाने या अनजाने में पुरातन सोच से प्रभावित रहती हैं, वे यह समझने लगी हैं कि अब समय उनके साथ नहीं है। वे समय की उठ रही नई धारा के रास्ते में ज्यादा समय तक रुकावट बन कर खड़ी नहीं रह सकतीं। साइमंड्स के मामले में भले ही हलकी ही, लेकिन कानूनी कार्रवाई की शुरुआत और उन्हें चिढ़ाने के तरीके की सार्वजनिक निंदा ने भी कुछ ऐसा ही पैगाम दिया। अब जरूरत इस सकारात्मक रुझान को आगे बढ़ाते हुए सार्वजनिक विमर्श से उन सभी शब्दों को हटाने की है, जो भेदभाव की सोच को जाहिर करते हैं। दरअसल, चुनौती उस मानसिकता को खत्म करने की है, जो जन्म और शरीर के आधार पर इंसान का मूल्यांकन करती है। लेकिन यह एक लंबी लड़ाई है। यह मकसद दरअसल, सिर्फ बहस से नहीं, बल्कि व्यवस्था के विभिन्न मोर्चों पर सीधे जन संघर्ष से ही हासिल किया जा सकता है। फिलहाल, इस दिशा में एक शुरुआत संतोष की बात है।

Friday, December 7, 2007

गुजरात में दांव पर भारत


सत्येंद्र रंजन
रेंद्र मोदी ने मांगरोल की सभा में सोहराबुद्दीन मामले में दिए अपने बयान से एक बार फिर यह साफ कर दिया कि गुजरात के विधानसभा चुनाव में दांव पर क्या लगा हुआ है। इससे एक बार फिर यह बात उभरकर सामने आई है कि यह चुनाव एक साधारण चुनाव नहीं है। बल्कि यह एक ऐसा चुनाव है, जिसमें भारतीय संविधान की मूल आस्थाएं और सभ्य समाज के सारे सिद्धांत दांव पर लगे हुए हैं। मंगलवार को मांगरोल में मोदी के बयान के पहले भी दरअसल यही स्थिति थी, लेकिन पिछले पांच साल से हम इस स्थिति को सहने के अभ्यस्त हो गए हैं, संभवतः इसलिए इसकी गंभीरता उतनी ज्यादा महसूस नहीं हो रही थी। मगर एक बयान से मोदी ने सारी परिस्थिति बदल दी है। फरवरी २००२ में गोधरा कांड के बाद नरेंद्र मोदी ने देश को हिंदुत्व के शासन का नमूना दिखाया। उन्होंने भौतिकशास्त्र के न्यूटन के क्रिया औऱ प्रतिक्रिया के सिद्धांत को राजनीति और सांप्रदायिक संबंधों के बीच ला कर कानून के शासन का खुला मखौल उड़ाया। समुदायों के आपसी झगड़ों के बीच सरकार की निष्पक्षता की संवैधानिक अपेक्षा की उन्होंने धज्जियां उड़ा दीं। अब जैसाकि तहलका के स्टिंग ऑपरेशन से यह साबित हो चुका है, उनके प्रशासन ने न सिर्फ दंगों में लापरवाही बरती, बल्कि खुलेआम एक समुदाय का साथ भी दिया। मोदी को अपनी इस करनी के लिए कभी अफसोस नहीं हुआ। बल्कि हमेशा वो गर्व से अपनी सरकार औऱ अपने दंगाई साथियों के पराक्रम का बखान करते रहे। ये सारी बातें सार्वजनिक चर्चा का हिस्सा रही हैं। सिविल सोसायटी के भीतर इसीलिए नरेंद्र मोदी का नाम एक खास ढंग की प्रतिक्रिया पैदा करता रहा है। वो भारत की आधुनिक चेतना के आगे एक ऐसा सवाल बन कर खड़े रहे हैं, जिसका जवाब संभवतः नागरिक समाज के पास नहीं है। एक ऐसा व्यक्ति जो आधुनिक राज्य-व्यवस्था के मूल सिद्धांतों को न मानता हो, जो अपनी संवैधानिक व्यवस्था के बुनियादी सिद्धांतों के लिए चुनौती बना हुआ हो, लेकिन वह इन्हीं सिद्धांतों के तहत चुनाव जीत कर एक प्रदेश के सबसे बड़े पद पर बना रहे, यह एक ऐसी दुविधा है, जिसका हल क्या हो, यह एक यक्ष प्रश्न रहा है।
सोहराबुद्दीन को फर्जी मुठभेड़ में मारे जाने को सही ठहरा कर अब मोदी ने अब इस प्रश्न को और भी गहरा कर दिया है। बल्कि यह प्रश्न अब उस कांटे की तरह हो गया है, जो हमेशा हर संवेदनशील नागरिक के कलेजे में चुभता रहे। यह चुभन कितनी गहरी है, मोदी औऱ उनके समर्थक चाहें तो इसका कुछ अंदाजा इसी से लगा सकते हैं कि सोहराबुद्दीन मामले में अब तक गुजरात सरकार की सुप्रीम कोर्ट में पैरवी कर रहे वकील केटीएस तुलसी ने भी मोदी के माफी मांगने तक इस केस से अपने को अलग करने का एलान कर दिया है। आखिर एक वकील, जो अपनी पूरी पेशेवर क्षमता से राज्य सरकार की पैरवी कर रहा था, उसे क्यों खुद को अब इससे अलग दिखाना पड़ रहा है, यह सवाल मोदी और उनके समर्थकों के लिए एक आईना जरूर है।
इसके बावजूद आप यह उम्मीद नहीं कर सकते कि मोदी सचमुच इस आईने में अपनी तस्वीर देखेंगे। दरअसल, उनके पास ऐसे आईनों की कभी कमी नहीं रही। और न ही ऐसा है कि इन आईनों में उन्होंने अपनी तस्वीर न देखी हो। यहां मामला अज्ञान या जानकारी न होने का नहीं है। यहां मामला सोच-समझ कर राजनीतिक दांव खेलने और उसका फायदा उठाने का है। वरना, मोदी को आईना उनकी ही पार्टी के सबसे बड़े नेता अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर राज्य भारतीय जनता पार्टी में उनसे असंतुष्ट हुए नेता दिखाते रहे हैं। मगर इन सबकी अनसुनी कर अपने राजनीतिक दांव बढ़ाना अब तक मोदी के काम आता रहा है, और एक बार फिर उन्होंने यही रास्ता अख्तियार किया है। उन्होंने उग्र हिंदुत्व का कार्ड फिर खेलते हुए इस चुनाव में दांव एक बार फिर बढ़ा दिया है। मोदी के लिए कुर्सी दांव पर है। उनकी पार्टी के लिए वह राज्य दांव पर है, जिसे वह अपने मॉडल मानती है। संघ परिवार के लिए हिंदुत्व की यह प्रयोगशाल दांव है। इसके अलावा हम सबके लिए भी वहां काफी कुछ दांव पर है, लेकिन उसकी चर्चा से पहले एक और पहलू गौरतलब है। भारतीय जनता पार्टी ने गुजरात में यह दांव मोदी के कंधों पर सवार होकर खेलने का फैसला करते हुए भारतीय राष्ट्र के सामने एक बार फिर यह जाहिर किया है कि उसने २००४ के आम चुनाव में अपनी हार से कोई सबक नहीं सीखा। ना ही उसकी भारतीय संवैधानिक मूल्यों में कोई आस्था है। अगर ऐसा होता तो भाजपा जरूर समझती कि गोधरा कांड के बाद के दंगों से सारे देश में उसे कैसा नुकसान हुआ।
बहरहाल, भाजपा ने हम सबके सामने यह भी साफ कर दिया है कि उसकी राजनीति का मॉडल कैसा है। हम यह बहुत साफ देख सकते हैं कि इस मॉडल में लोकतंत्र की कोई अहमियत नहीं है। पार्टी को निरंकुश नेतृत्व से कामयाबी मिलती है, तो वह उसे मंजूर है। गुजरात में उसे वो नरेंद्र मोदी मंजूर हैं, जिनकी वजह से राज्य में पार्टी की जड़ें जमाने वाले केशुभाई पटेल और सुरेश मेहता जैसे नेताओं को बगावत की राह अपनानी पड़ी। नरेंद्र मोदी का सियासी तरीका ऐसा रहा है, जिसमें उन पर सवाल उठाने वाले किसी नेता के लिए जगह नहीं है। अगर यह तानाशाही नहीं है तो फिर तानाशाही कैसी होती है? इसीलिए गुजरात के चुनाव में दांव पर सीधे लोकतंत्र है। धर्मनिरपेक्षता वहां पिछले चुनाव में दांव पर लगी थी, और यह स्वीकार करने में हमें कोई हिचक नहीं चाहिए २००२ में भारतीय राष्ट्र का यह मूलभूत सिद्धांत पराजित हुआ। तब दांव पर कानून के शासन का सिद्धांत भी था और उसे भी तब हार का मुंह देखना पड़ा। अब मोदी ने सीधे भारत की न्याय व्यवस्था, और व्यापक अर्थों में संविधान को भी दांव पर लगा दिया है। उन्होंने यह साफ बता दिया है कि किसी को आतंकवादी घोषित करने और उसे मार देने का अधिकार उनको है। इसके लिए किसी कोर्ट या न्याय प्रक्रिया की जरूरत नहीं है। उनका पैगाम यह है कि वे ही राज्य-व्यवस्था के प्रतीक, उनके कर्णधार और उसके नियंता हैं। जो उनके खिलाफ है, वह देशद्रोही है। उन्हें अपना फैसला सुनाने के लिए किसी ‘सोनिया बहन की सलाह’ की जरूरत नहीं है, असल में उन्हें किसी संविधान या न्याय व्यवस्था की जरूरत भी नहीं है।
गुजरात के लोगों को ११ और १६ दिसंबर को यही फैसला करना है कि उन्हें ऐसा मोदी राज चाहिए, या उन्हें उस भारतीय संविधान का राज चाहिए, जिसके मूल्य स्वतंत्रता आंदोलन में विकसित हुए, जिसमें राज्य-व्यवस्था के दुनिया में अब तक विकसित हुए सर्वश्रेष्ट सिद्धांतों को अपनाया गया और जिसकी वजह से यह विभिन्नता भरा देश आज एक है। देश के बाकी हिस्सों के लोग दम साधे २३ दिसंबर का इंतजार करेंगे, जिस दिन गुजरात का फैसला सामने आएगा। अगर जन भावनाओं को भड़काने का मोदी का दांव फिर कामयाब हुआ तो भारतीय राष्ट्र पर एक ऐसा प्रहार होगा, जिसके असर से संभलने में फिर बरसों लगेंगे। मायूसी गुजरात में कांग्रेस के हाल से है। इसके बावजूद २००४ में मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा को २६ में १२ लोकसभा सीटों में हार का मुंह देखना ही पड़ा था। और इस बार जब कई समुदायों और तबकों में मोदी से नाराजगी खुलकर सामने आने के संकेत हैं, फिलहाल यह नहीं कहा जा सकता कि लोकतंत्र एक हारी हुई लड़ाई लड़ रहा है। उम्मीद की किरणें हैं औऱ हम उम्मीद कर सकते हैं कि २३ दिसंबर को कड़ाके की ठंड के बीच भी लोकतंत्र का सूरज गुजरात के क्षितिज पर उगेगा।

ताकि उभर सके नया वामपंथ


सत्येंद्र रंजन
ए वामपंथी विमर्श की तलाश के बीच एक मॉडल की कमी आज संभवतः सबसे ज्यादा महसूस की जाती है। समाजवादी व्यवस्थाओं और परिवर्तन के संघर्षों के जो मॉडल अभी तक दुनिया के सामने हैं, उनको लेकर वामपंथी या जन-संघर्षों से जुड़े समूहों के बीच वैचारिक टकराव गहरा है। यह टकराव अक्सर इस हद को पार कर जाता है कि इन समूहों के बीच संवाद नामुमकिन सा नजर आने लगता है। आज अगर सामाजिक परिवर्तन की ताकतें बिखरी और कमजोर दिखती हैं, तो उसकी एक बड़ी वजह यह मतभेद भी है। ऐसे मतभेद की एक मिसाल के तौर पर हम चीन को ले सकते हैं। चीन आज भी एक समाजवादी देश है, या यह समाजवाद के आवरण में पूंजीवाद को अपना चुका है, यह विवाद का तीखा प्रश्न है। यह शिकायत आम है कि आज का चीन समता के आदर्शों से हट चुका है और अब वहां जो बहस चलती है या जो प्रयोग होते हैं, उनमें दुनिया की प्रगतिशील ताकतों के सीखने के लिए कुछ नहीं है। यह शिकायत माओ जे दुंग के निधन के बाद चीन की कम्युनिस्ट पार्टी का नेतृत्व संभालने वाले नेताओं और समूहों के विचारों और कार्य नीति से लगातार जड़ जमाती गई।
माओ के बाद देंग शियाओ फिंग को चीन के सर्वोच्च नेता का दर्जा मिला। देंग ने ‘सोच के उद्धार’ (इमैनसिपेशन ऑफ माइंड) का आह्वान किया। देंग ने यह आह्वान माओ जे दुंग के समाजवाद के विचारों से पार्टी को आगे बढ़ाने के लिए किया था। देंग की मान्यता थी कि माओ के विचार चाहे जितने समतामूलक हों, लेकिन उनसे उत्पादक शक्तियों के अपनी पूरी संभावना को हासिल करने का रास्ता नहीं निकलता है। देंग के विचारों के मुताबिक जब तक समृद्धि नहीं आती, एक संपन्न का समाज का निर्माण मुमकिन नही है। १९८० के दशक से चीन देंग के रास्ते पर चला और समृद्धि के नए रिकॉर्ड कायम किए। लेकिन इसके परिणामों से देश के समाजवादी लक्ष्यों और चरित्र पर गहरे सवाल भी खड़े हुए। सामाजिक और क्षेत्रीय गैर बराबरी से देश मे नए तनाव पैदा हुए। इसके बावजूद जब जियांग जेमिन के तीन प्रतिनिधित्वों के सिद्धांत को २००२ मे हुई चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की सोलहवीं राष्ट्रीय कांग्रेस में स्वीकार कर लिया गया, जिसके तहत उन्नत उत्पादक शक्तियों को पार्टी में प्रतिनिधित्व देने की बात थी, तो इस आलोचना को खूब बल मिला कि चीन ने आखिरकार समाजवाद के आवरण तले पूंजीवाद को अपना लिया है।
रअसल देंग और जियांग के दौर विकास दर के रूप में समाजवाद को परिभाषित करने वाले रहे। अगर समाजवादी प्रयोगों के इतिहास पर गौर करें तो यह कोई नई बात नहीं है। सोवियत संघ में भी एक स्तर पर आकर विकास दर के रूप में ही समाजवाद को समझा जाने लगा था। तब समाजवादी विमर्श में यह बात जोर देकर कही जाती थी कि पूंजीवाद अपने अंतर्निहित स्वरूप की वजह से उत्पादक शक्तियो का विकास एक स्तर पर आकर अवरुद्ध कर देता है, जबकि समाजवाद इन शक्तियों को मुक्त कर उत्पादन और विकास की ऐसी परिस्थितियां पैदा करता है, जिससे सबकी आवश्यकताओं को पूरा करने लायक उत्पादन हो सके। सोवियत संघ की सफलता तब यही बताई जाती थी कि वहां की विकास दर एक दौर में पूंजीवादी खेमे से ज्यादा रही। चीन में भी देंग की नीतियों पर चलते हुए १० फीसदी विकास दर को हासिल किया गया। इसे देंग की नीतियों की बड़ी कामयाबी के रूप में देखा गया। लेकिन अब चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की १७वीं राष्ट्रीय कांग्रेस ने देंग शियाओ फिंग के ‘सोच के उद्धार’ (इमैनसिपेशन ऑफ माइंड) के आह्वान को एक नया अर्थ दिया है। दरअसल विकास दर में लगातार बढ़ोतरी के साथ बढ़ती विषमता से यह सवाल गहरा होता गया कि आखिर समाजवादी क्रांति का उद्देश्य और मतलब क्या है? २००२ के बाद से चीनी कम्युनिस्ट पार्टी में चले विमर्श से यह संकेत मिलता है कि सोलहवीं कांग्रेस से पार्टी और देश का नेतृत्व संभालने वाले हू जिन ताओ ने पिछले पांच साल में इस सवाल के जवाब ढूंढने की गंभीर कोशिश की। अक्टूबर २००७ में हुई सत्रहवीं कांग्रेस में इस सवाल का जवाब उन्होंने अपने ‘विकास के वैज्ञानिक दृष्टिकोण’ के रूप में पेश किया। इस सिद्धांत को पार्टी ने मंजूरी दे दी। इसमें भी जोर ‘सोच के उद्धार’ पर है। लेकिन इस बार विकास दर और बुनियादी ढांचे के निर्माण में ही सारे प्रयास लगा देने की सोच से मुक्ति पाने पर जोर है। हू के ‘विकास के वैज्ञानिक दृष्टिकोण’ में आम जन को सर्वोच्च प्राथमिकता देने और उसके जरिए एक सद्भावनापूर्ण समाज बनाने को सबसे अहम बताया गया है। हू ने कहा- ‘विकास का वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकास को उसके सारतत्व के रूप मे लेता है, जिसके केंद्र में आम जन हों, व्यापक, संतुलित और टिकाऊ विकास जिसकी बुनियादी शर्तें हों, और जिसमें संपूर्ण विचार को बुनियादी नजरिया बनाए जाए।’
यह कहा जा सकता है कि चीन पिछले दशकों में जिस रास्ते पर चला है, उसके बीच ये बातें महज रस्मी और दस्तावेजी हैं। व्यवहार में इसका अमल अब मुश्किल है। माओवादी दौर को कुछ यथार्थ और कुछ रूमानियत में याद करने वाले लोग यही मानते हैं कि चीन समाजवादी रास्ते से भटक चुका है। उसने धनी होने, बल्कि समाज के कुछ तबकों के धनी होने की होड में पीपुल्स डेमोक्रेटिक रिवोल्यूशन (जनता की जनवादी क्रांति) की बलि चढ़ा दी, जिसकी रणनीति माओ ने बनाई थी। इसलिए चीन आज न तो समतावादी समाज के लिए कोई आदर्श पेश करता है और न ही ऐसे मकसद को हासिल करने के प्रयासों में वह कोई सहयोगी शक्ति ही है।
स आलोचना को हम दो स्तरों पर देख सकते हैं। एक स्तर वह बेसब्री है, जो तुरंत दुनिया भर में समाजवाद स्थापित होने की जोड़ी गई उम्मीदों के टूटने से पैदा हुई है। २०वीं सदी के मध्य में जब दूसरे विश्व युद्ध की समाप्ति के साथ सोवियत खेमे का तेजी से विस्तार हुआ और लगभग उसी समय चीन में माओवादी क्रांति हुई तो ऐसी उम्मीद जोड़ी गई कि इन्कलाब की यह लहर जल्द ही सारी दुनिया में फैल जाएगी। लेकिन यह उम्मीद पूरी नहीं हुई और १९९० का दशक के आते-आते जब सोवियत खेमा बिखर गया तो इस उम्मीद को बेहद गंभीर झटका लगा। इसी दौर में चीन ने देंग की राह पकड़ी। पूंजीवादी प्रचार माध्यमों में इस पूरी परिघटना को पूंजीवाद की अंतिम विजय और ‘इतिहास के अंत’ के रूप में पेश किया गया। इसका खासा असर उन ताकतों की सोच पर भी पड़ा, जिनके पास समाजवाद का सपना तो था, लेकिन वह एक रूढ़ या गतिरुद्ध सपना था।
इस आलोचना का दूसरा स्तर वे विचारधाराएं हैं, जो अपने ईमानदार मकसद के बावजूद दुनिया जैसी है, उसे उसी रूप में देखने में नाकाम हैं। व्यक्ति कैसे व्यवहार करता है, उसकी बुनियादी आकांक्षाएं और कमजोरियां क्या हैं, उसके व्यवहार और सोच को तय करने में बाहरी यानी भौतिक परिस्थितियों की भूमिका कितनी होती है, ये कुछ ऐसे अहम सवाल हैं, जिन पर आम तौर पर क्रांति के लिए बेसब्र शक्तियां वस्तुगत ढंग से विचार नहीं करतीं। न ही वे इस पर ज्यादा ध्यान देती हैं कि सामाजिक चेतना के स्तर से लोकतंत्र या समाजवाद या किसी दूसरी व्यवस्था का कितना रिश्ता है। जबकि यह सवाल बेहद महत्त्वपूर्ण है कि इंसान के संपूर्ण विकासक्रम पर बिना गौर किए क्या कोई वांछित व्यवस्था बनाई जा सकती है?
वामपंथी विमर्श में हमेशा ही इस बात पर जोर रहा है कि मानव स्वतंत्रता किसी भी वांछित व्यवस्था का आदर्श है। लेकिन अब इस बात की अहमियत पहले से कहीं ज्यादा समझी जा रही है। इसीलिए अब यह बहस ज्यादा सार्थक ढंग से हो रही है कि मानव स्वतंत्रता क्या है? भौतिक अभाव से मुक्ति इस स्वतंत्रता के लिए कितनी और कहां तक जरूरी है तथा इसके आगे और कौन सी वो परिस्थितियां हैं, जो मानव स्वतंत्रता को सुनिश्चित करने के लिए जरूरी हैं? इस दिशा में एक बहुमूल्य कोशिश विकास को मानव स्वतंत्रता के संदर्भ में परिभाषित करने की हुई है। इसके मुताबिक विकास वही है जो मानव स्वतंत्रता का विस्तार करे। यह स्वतंत्रता आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक पहलुओं के साथ ही पूरी हो सकती है। साथ ही इस बात पर अब सहमति बनने लगी है कि ऐसे विकास और ऐसी स्वतंत्रता को हासिल करने का सबसे कारगार हथियार राजनीति या राजनीतिक गतिविधियां हैं।
जिस समाजवाद का अनुभव दुनिया ने पिछली सदी में किया उसकी सबसे बड़ी समस्या शायद यही रही कि उस समाजवाद के तहत आम जन की राजनीतिक गतिविधियों पर पहरे बैठा दिए गए। नतीजतन, आम आदमी की राजनीतिक चेतना के विकास का जो अवसर मिल सकता था, वह नहीं मिला। लोगों को पूर्ण रोजगार, सामाजिक सुरक्षा और खेल-कूद में भागीदारी एवं आगे बढ़ने के अभूतपूर्व अवसर तो मिले, लेकिन एक ऐसे जिम्मेदार और जागरूक नागरिक के रूप में वे नहीं उभर सके, जिनका वजूद व्यवस्था की एक इकाई के रूप में हो। यानी व्यवस्था के कर्ता-धर्ता होने के बजाय, उनका अस्तित्व व्यवस्था के मकसदों के लिए एक वस्तु के रूप में ज्यादा हो गया। उधर व्यवस्था चंद पार्टी नेताओं और नौकरशाहों के चंगुल में फंस गई। इसीलिए जिन आम जन के नाम पर समाजवादी व्यवस्थाएं कायम की गईं, वे ही एक मौके पर उस व्यवस्था के खिलाफ बगावत में भागीदार बन गए।
स परिघटना का सबक यही है कि वही व्यवस्था टिकाऊ हो सकती है, जिसमें आम जन की वास्तविक भागीदारी बनी रहे। जिसमें आम जन सिर्फ व्यवस्था से संचालित होने वाले और व्यवस्था द्वारा तय लक्ष्यों का फायदा पाने वाले समूह नहीं रहें, बल्कि वे व्यवस्था को संचालित करने वाले औऱ उसके लक्ष्यों को तय करने वाले समूह बनें। लेकिन यह बात कहना जितना आसान है, उसे व्यवहार मे लाना उतना ही मुश्किल है। ऐसा कोई तंत्र या फॉर्मूला नहीं हो सकता, जिससे इस बात को सुनिश्चित कर दिया जाए। ऐसा सिर्फ तभी संभव हो सकता है, जब आम लोग खुद राजनीतिक प्रक्रिया का हिस्सा बनें और अपने अधिकारों की प्राप्ति और उनकी रक्षा के सतत संघर्ष से जुड़े रहें। यहां पर यह कथन महत्त्वपूर्ण मालूम पड़ता है कि ‘सतत जागरूकता ही स्वतंत्रता की गारंटी है।’
इसी बिंदु पर आकर क्रांतिकारी संगठन या पार्टी की भूमिका प्रासंगिक हो जाती है। हकीकत यही है कि आज भी दुनिया की अधिकांश जनता जागरूकता की रोशनी से बहुत दूर है। जिन लोगों के पास सारी सुविधाएं हैं, उनमें भी ज्यादातर लोग चिंतन और विचार की स्वतंत्रता को संकुचित करने वाली पुरातन संस्कृति और आधुनिक उपभोक्तावाद से ग्रस्त हैं। ऐसे लोगों को संगठित करने और उन्हें व्यापक क्रांतिकारी प्रक्रिया का हिस्सा बनाने की जिम्मेदारी क्रांतिकारी संगठनों पर आती है। लेकिन अपने को क्रांतिकारी कहने वाले ज्यादातर संगठनों की मुश्किल यह है कि वे विचारधाऱा के रूढ़ खांचे में ऐसे बंधे हुए होते हैं कि उससे निकलकर मानवीय एवं वस्तुगत सामाजिक आधार पर नई वामपंथी राजनीति की शुरुआत एक दूर का सपना बनी हुई है। सिर्फ इतना ही नहीं, इन संगठनों में पहचान का संकट, आपसी होड़ और एक हद ईर्ष्या की भावना भी इस कदर भरी हुई होती है कि उनके लिए पहला मकसद व्यापक रूप से वामपंथी दायरे में आने वाले संगठनों को नुकसान पहुंचाना बना रहता है।
इस जगह पर ‘सोच के उद्धार’ का आह्वान दुनिया भर के ऐसे सभी संगठनों के लिए बहुत अर्थभरा हो गया है। आज निसंदेह जरूरत अपने मस्तिष्क को गतिरुद्ध हो गई सोच से मुक्त करने की है। विचारधारा को एक खांचे के बजाय एक प्रयोग के रूप में देखा जाए तो यह संबंधित विचारधारा और उसे मानने वाली शक्तियों दोनों के लिए ज्यादा फायदेमंद हो सकता है। इस प्रयोग के कई पहलू हो सकते हैं। दरअसल, इस प्रयोग का फौरी स्वरूप संबंधित समाज के ढांचे और संगठन के अपने मकसद से ही तय हो सकता हैं। चीन में हाल में जो हुआ है, और असल में पिछले छह दशकों में वहां जो हुआ है, उसे भी अगर अंतिम मंजिल के बजाय एक प्रयोग के रूप में देखा जाए तो हम उसकी अहमियत को बेहतर ढंग से समझ सकते हैं औऱ उससे अपने लिए बेहतर सबक हासिल कर सकते हैं।
चीनी क्रांति की प्रेरक विचारधारा मार्क्सवाद-लेनिनवाद जरूर रहा, लेकिन उसे माओ जे दुंग ने चीनी परिस्थितियों के मुताबिक ढाला। एक देश जिसे अफीम और वेश्याओं का देश कहा जाता था, वहां समता और जनवादी संस्कृति के न सिर्फ नए सपने देखे गए, बल्कि उन सपनों को ठोस आधार भी मिला। उस दौर की विचारधारा को मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओ चिंतन के रूप में चीन ने आज भी अपने संविधान और व्यापक आदर्शों के रूप अपना रखा है, लेकिन चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने इसके आगे भी प्रयोग किए। देंग शियाओ फिंग के सिद्धांत पर अमल करते हुए देश समृद्धि की राह पर आगे बढ़ा और जियांग जेमिन के तीन प्रतिनिधित्व के सिद्धांत से सोच की यह धारा अपने चरम पर पहुंची। लेकिन इससे घोषित लक्ष्यों और व्यावहारिक उपलब्धियों के बीच जो अंतर्विरोध उभरा, उससे चीनी कम्युनिस्ट पार्टी अब नई राह अपनाने को प्रेरित हुई है। अब हू जिन ताओ के ‘विकास के वैज्ञानिक दृष्टिकोण’ से नई समस्याओं का हल खोजने का इरादा जताया गया है। समाजवाद, समता और लोकतंत्र की अपनी मनोगत धारणाओं के आवेग में हम इस सारे विकासक्रम को सीधे खारिज कर सकते हैं, यह कहते हुए कि ये सारी बातें बनावटी हैं, असल में चीन पूंजीवादी रास्ते पर चल निकला है। वहां एक ऐसा पूंजीवाद है, जिसमें पश्चिमी पूंजीवाद की उदारता और वयस्क मताधिकार आधारित लोकतंत्र भी नहीं है।
लेकिन चीन को देखने का एक नजरिया यह भी है कि पिछले साठ साल के प्रयोगों ने दुनिया की सबसे ज्यादा आबादी वाले इस देश की तस्वीर बदल दी है। आर्थिक उपलब्धियां, बुनियादी ढांचे का विस्तार और खेल की महाशक्ति के रूप में चीन का उभार एक ऐसी हकीकत है, जो मनोगत सोच की तमाम दलीलों से खंडित नहीं होने वाली है। साथ ही एक हकीकत यह है कि इन उपलब्धियों के साथ ही देश के राजनीतिक विमर्श में समता और लोकतंत्र के आदर्श आज भी मौजूद हैं। यह सकारात्मक नजरिया मानव समाज के लिए शायद ज्यादा काम का हो सकता है।
यह बात शायद बहुत से लोगों के गले शायद उतरे। इनमें सिर्फ मार्क्स-लेनिन-माओवाद की प्रतिद्वंद्वी विचारधाराओं को मानने वाले लोग ही शामिल नहीं हैं। बल्कि इनमें वैसे ज्यादातर लोग भी हो सकते हैं, जो खुद को माओवादी मानते हैं। खास कर अगर भारतीय माओवादियों की बात करें तो वे बहुत पहले चीन को संशोधनवादी घोषित कर चुके हैं। वे खुद को असली माओवादी मानते हुए माओ के रास्ते से भारत में क्रांति लाने की कोशिशों में जुटे हुए हैं। इस माओवादी राजनीति की शुरुआत १९६७ में नक्सलबाड़ी से हुई। तब राज्यसत्ता द्वारा कुचल दिए जाने और उसके बाद काफी समय तक छोटे-मोटे संघर्षों को चलाने के बाद माओवादी धारा हाल के वर्षों, खासकर पिछले पांच साल में एक बड़ी ताकत के रूप में उभरती नजर आई है। आंध्र प्रदेश से लेकर छत्तीसगढ़, बिहार, झारखंड, और पश्चिम बंगाल के कुछ इलाकों में इसके कदम जमे हुए लगते हैं। इनके अलावा उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और तमिलनाडु तक में इनकी छिटपुट गतिविधियों की खबरें मिली हैं। कुछ जगहों पर भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) की गतिविधियां इतनी सघन हैं कि खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह उन्हें सुरक्षा एजेंसियों के लिए सबसे बड़ी चुनौती बता चुके हैं।
भारतीय माओवादी कमोबेश उसी रणनीति को लेकर चल रहे हैं, जिसके जरिए चीन में क्रांति को अंजाम दिया गया। रणनीति है, दुर्गम इलाकों में पहले अपना आधार मजबूत करना, फिर गांवों में संगठन को फैलाना, वहां से शहरों की तरफ कूच करना और आखिरकार राज्यों और अंततः देश की राजधानी को घेर लेना। देश के एक-एक इलाके को कथित रूप से मुक्त कराते हुए आगे बढने की यह रणनीति कुछ दुर्गम इलाकों में फिलहाल कामयाब होती भी लग रही है। जंगली इलाकों में ऐसे कई क्षेत्र हैं, जहां आज व्यवहार में माओवादियों का राज है। इसके अलावा माओवादियों ने जहानाबाद और गिरिडीह जैसी जन कार्रवाइयों को अंजाम दिया है, जिससे उनकी ताकत और सरकारी तंत्र की लाचारी का पता चलता है। अब इसमें कोई संदेह नहीं बचा कि विशेष आर्थिक क्षेत्र की योजना रद्द होने के बाद से नंदीग्राम भी मूल रूप से माओवादियों की ही कार्रवाई था, जिसे मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ताओं ने फिलहाल नाकाम कर दिया है। लेकिन माओवादी मुक्त क्षेत्र की रणनीति को किस तरह व्यवहार में उतार सकते हैं, इसकी एक झलक नंदीग्राम में जरूर देखने को मिली।
इन सारे संकेतों के आधार पर कहा जा सकता है कि भारत में यह माओवाद के उभार का दौर है। यह दौर उस समय आया है, जब माओवादी रणनीति पर कई सैद्धांतिक और वैचारिक सवाल हैं। सवाल भारतीय परिस्थितियों की उनकी समझ, मौजूदा व्यवस्था के उनके विश्लेषण और दोस्त-दुश्मन की उनकी पहचान पर भी हैं। लेकिन इस सवालों पर चर्चा से पहले इस बात पर जरूर गौर किया जाना चाहिए कि इन सवालों के बावजूद उनका विस्तार क्यों हो रहा है, आखिर भारत के व्यापक राजनीतिक फलक पर उनकी प्रासंगिकता क्या है? इस सवाल को समझने के लिए पहले हमें अपनी राज्य-व्यवस्था के स्वरूप, देश में हुए लोकतांत्रिक प्रयोगों की सीमाओं और उनके रास्ते में आड़े आ रही रुकावटों पर गौर करना होगा। माओवादी निसंदेह राजनीति में चरमपंथी धारा का प्रतिनिधित्व करते हैं।
चरमपंथी सोच में यह अंतर्निहित है कि अपनी समझ के अलावा बाकी सभी समझ को सिरे से नकार दिया जाए। न सिर्फ दूसरों की समझ को गलत माना जाए, बल्कि खुद से अलग सोच रखने वाले लोगों और ताकतों के इरादे पर भी शक किया जाए या फिर माना जाए कि उनकी असहमति के पीछे दरअसल वर्ग दृष्टि का फर्क है। यह सोच अपने मकसद और कार्यों के लिए गहरी निष्ठा पैदा करती है और अपने उद्देश्य के लिए जूझने का हौसला भरती है। लेकिन इसकी सीमा यह है कि समाज और अर्थव्यवस्था की वस्तुस्थिति और राजनीति के असली स्वरूप की यथार्थ समझ यह सोच नहीं बनने देती। आम इंसान कैसे व्यवहार करता है, उसके बुनियादी रुझान कैसे होते हैं और ये किस बात से प्रभावित या प्रेरित होते हैं, इसकी बिना सही समझ बनाए सामाजिक विश्लेषण की ऐसी कोशिश एक मनोगत जड़ता पैदा करती है। कुल मिलाकर हालत यह बनती है कि इस सोच से चलने वाला संगठन या व्यक्ति दुनिया जैसी है, उसे उसी रूप में देखने के बजाय वह जैसा सोचता है, उसे उस रूप में देखने लगता है। माओवादी संगठनों में यह रुझान सहज देखा जा सकता है।
इसके बावजूद अगर चरमपंथी राजनीतिक विचारधारा को आज देश में ज्यादा जन समर्थन मिल रहा है तो इसकी ठोस वजहें हैं। सीधे तौर पर इसके पीछे दो वजहें तलाशी जा सकती हैं। इनमें पहली वजह है, देश के एक बड़े तबके में मौजूदा व्यवस्था के भीतर न्याय की उम्मीद लगातार कम होते जाना। अगर आजादी के साठ साल बाद भी भूमि सुधारों पर अमल नहीं हुआ है या आदिवासियों को जंगल और जमीन पर बुनियादी हक नहीं मिले तो आखिर भूमिहीनों और आदिवासियों में इस व्यवस्था से इंसाफ की उम्मीद क्यों होनी चाहिए?
इंसाफ की ऐसी उम्मीदों पर शासक वर्ग कैसे प्रहार करता है, इसकी बड़ी साफ मिसाल आदिवासी एवं अन्य वनवासी भूमि अधिकार कानून है। यह कानून २००६ के आखिर में संसद से पास हुआ। लेकिन इस पर अमल, दिसंबर २००७ के पहले हफ्ते में इन पंक्तियों के लिखे जाने तक नहीं हुआ है। इसलिए कि इस कानून को लागू करने के लिए जरूरी नियमों को अधिसूचित नहीं किया गया है, जबकि ये नियम आदिवासी मामलों का मंत्रालय बना चुका है। समाचार माध्यमों में ऐसी खबरें लगातार आती रही हैं कि यह कानून बनने के बाद कैसे इलिट तबके से आने वाले कथित वन्य जीव प्रेमियों ने इसको लेकर विवाद खड़ा किया। उन्होंने कांग्रेस आलाकमान तक अपनी बात पहुंचाई और चूंकि आलाकमान का अपना नजरिया भी उनसे मेल खाता है, इसलिए उसे उन लोगों की बात समझने में देर नहीं लगी। नतीजतन, कानून को अधर में लटका दिया गया। इस तरह सदियों के अन्याय से आदिवासियों को राहत देने का एक प्रयास बीच में ही ठहर गया है। इसके बाद अगर आदिवासियों का कोई तबका मौजूदा व्यवस्था के भीतर अपने लिए कोई उम्मीद न रखे और न्याय पाने के लिए चरमपंथी रास्ते का सहारा ले तो आखिर इसके लिए जिम्मेदार कौन है? मौजूदा व्यवस्था के भीतर इंसाफ मिलने की शोषित समूहों की उम्मीदों को तोड़ने वाली एक और परिघटना लगातार मजबूत होती जा रही है। शासक और अभिजात्य समूहों में लोकतंत्र की प्रक्रिया को बाधित करने और कई तरीकों से इसे पलटने की कोशिशों से देश के व्यापक जन समुदाय में नाराजगी बढ़ रही है। एक तरह के काउंटर रिवोल्यूशन यानी प्रति क्रांति की परिघटना है। सदियों से अपने मूलभूत मानव अधिकारों से वंचित तबकों ने अपने संख्या बल के आधार पर चूंकि विधायिका में अब अपनी मजबूत मौजूदगी बना ली है और इसके जरिए व्यवस्था में वे अपनी हिस्सेदारी बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं तो इसे रोकने के लिए व्यवस्था पर पहले से अपना वर्चस्व रखने वाले समूहों ने विभिन्न संवैधानिक संस्थाओं का दुरुपयोग शुरू कर दिया है। न्यायपालिका और कई संवैधानिक संस्थाएं जिस तरह अभिजात्य समूहों के हित और उनके नजरिए को लागू करने में संवैधानिक लोकतंत्र के बुनियादी सिद्धांतों की अवहेलना कर रही हैं, उससे शासन की मौजूदा व्यवस्था में वंचित तबकों का भरोसा लगातार कमजोर हो रहा है।
इस परिघटना की सबसे साफ मिसाल आरक्षण, राजनीतिक विरोध जताने के तरीकों, और मजदूरों के अधिकारों पर न्यायपालिका का कसता शिकंजा है। यह हम साफ तौर पर देख सकते हैं कि नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों, रूढिवादी सामाजिक नजरिए और संस्थागत गैर बराबरी को जारी रखने की कोशिश में आज कई संवैधानिक संस्थाएं बेहद सक्रिय हैं। जाहिर है, इससे सदियों से वंचित लेकिन अब जागरूक हो रहे समूहों में व्यवस्था के प्रति विद्रोह की भावना ज्यादा भड़कती जाएगी। यानी कहा जा सकता है कि शासक समूह भी एक तरह के चरमपंथ का सहारा ले रहे हैं।
इस परिघटना से माओवादी चरमपंथ को तर्क, समर्थक और कार्यकर्ता मिल रहे हैं।
इसका परिणाम यह है कि देश के बड़े हिस्से में आज माओवादी एक बड़ी ताकत बन गए हैं। वे वहां के जन जीवन को अपनी ताकत और मंशा से संचालित करने की हैसियत में पहुंच गए हैं। अब तक के अनुभव से यह साफ है कि केंद्र और राज्य सरकारों के पास इस चरमपंथी राजनीतिक चुनौती से निपटने का कोई असरदार रास्ता नहीं है। खुफिया और सुरक्षा एजेंसियों की मजबूती और चुस्ती के साथ-साथ अब विकास और लोगों की शिकायतें दूर करने की बातें भी सरकारी बयानों का हिस्सा बन गई हैं। लेकिन ये सारी बातें खोखली हैं, इसे जानने के लिए किसी गंभीर अध्ययन की जरूरत नहीं है। विकास और लोगों की शिकायतें दूर करने की सरकारों के पास कोई रणनीति नहीं है और ऐसे में सारा जोर सुरक्षा बलों की तैनाती पर आकर खत्म हो जाता है। लेकिन जिस चरमपंथी आंदोलन के पीछे एक राजनीतिक विचारधारा और उद्देश्य हो, उसे इस तरीके से खत्म नहीं किया जा सकता, इस बात की मिसाल १९६७ से आज तक के नक्सलवादी आंदोलन का इतिहास ही है। इस परिस्थिति में यह सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि माओवादी लंबे समय तक भारतीय राज्य के लिए एक चुनौती बने रहेंगे।
लेकिन माओवादियों के सामने भी कुछ यक्षप्रश्न हैं। सबसे अहम सवाल यह है कि क्या माओवादी सचमुच ऐसा सोचते हैं कि वे अपनी मौजूदा रणनीति से भारत की राजसत्ता पर कब्जा कर सकते हैं? जिस रणनीति के जरिए माओ जे दुंग के नेतृत्व में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने १९४९ में च्यांग काई शेक के कुओमिंनतांग के खिलाफ इन्कलाब को अंजाम दिया था, क्या वह आज के हालात और भारत की मौजूद परिस्थितियों में भी सफल हो सकती है?
गर माओवादी विमर्श पर गौर करें तो संभवतः माओवादियों के मन में इन सवालों पर कोई संशय नहीं है। वे भारतीय व्यवस्था को अर्ध औपनिवेशिक-अर्ध सामंती मानते हैं और ऐसी व्यवस्था के खिलाफ क्रांति के लिए सशस्त्र जन संघर्ष की रणनीति में भरोसा करते हैं। इस तरह माओवादी भारतीय पूंजीवाद का आज भी स्वतंत्र अस्तित्व नहीं मानते। लेकिन सवाल है कि क्या यह समझ भारतीय व्यवस्था के वस्तुगत विश्लेषण पर आधारित है और क्या इस बिंदु पर आकर माओवादियों को ‘सोच के उद्धार’ की जरूरत पर विचार करना चाहिए? आखिर पिछले छह दशकों में भारतीय पूंजीवाद ने विकास के कई चरण तय कर लिए हैं और पिछले डेढ़ दशक में उसकी बढ़ी ताकत का अहसास न सिर्फ भारत में बल्कि विकसित दुनिया में भी किया जा रहा है। अगर हम विश्व व्यापार संगठन के भीतर ही चलने वाली बहस और खींचतान का विश्लेषण करें, साथ ही डब्लूटीओ में भारत समेत कई विकासशील देशों के रुख पर गौर करें तो अर्ध-औपनिवेशिक की समझ पर खड़े सवालों को साफ तौर पर देख सकते हैं।
अगर इन सवालों पर चर्चा का निष्कर्ष यह हो कि भारत में स्वतंत्र पूंजीवाद मौजूद है, तो माओवादियों की रणनीति की एक बुनियादी खामी सामने आ जाती है। इसलिए कि माओवादियों की रणनीति औपनिवेशिक और सामंती समाजों के लिए चाहे जितनी सटीक हो, लेकिन क्या किसी पूंजीवादी व्यवस्था में भी यह कारगर हो सकती है, यह एक बड़ा सवाल है। छापामार संघर्ष की माओवादी रणनीति दुर्गम जंगली इलाकों या उन समाजों में तो कारगर रही है, जहां अभिव्यक्ति के हर माध्यम पर प्रतिबंध रहे हैं, लेकिन एक अपेक्षाकृत खुले समाज में और एक ऐसी व्यवस्था में जिसके पास मजबूत आधुनिक सैन्य बल हो, उसके खिलाफ ऐसे संघर्ष की सफलता का न तो कोई इतिहास है औऱ न ही सामान्य विवेक से भविष्य में ऐसा होने की कोई उम्मीद की जा सकती है।
इस ठोस हालत के बीच अधिक से अधिक यही कहा जा सकता है कि माओवादी भारत के उन इलाकों में अपनी पकड़ लंबे समय तक बनाए रख सकेंगे, जहां भारतीय शासन व्यवस्था अपने अंतर्निहित अन्यायपूर्ण ढांचे की वजह से नहीं पहुंच पा रही है। उन इलाकों को अपना आधार इलाका बनाए रखते हुए माओवादी एक लंबी लड़ाई लड़ सकते हैं, व्यवस्था को बार-बार चोट पहुंचा सकते हैं और एक बड़ी चुनौती बने रह सकते हैं। लेकिन राजसत्ता पर कब्जा उनके लिए तब भी उतना ही दूर बना रहेगा। यानी यह एक तरह का गतिरोध होगा, जिससे माओवादी यह जरूर बताते रहेंगे कि भारतीय लोकतंत्र अधूरा है, लेकिन इंकलाब का उनका अपना मकसद भी उतना ही अधूरा रहेगा।
इस चर्चा का एक और पहलू ऐसा है, जो न सिर्फ माओवादियों, बल्कि सभी चरमपंथी सोच वाले संगठनों के लिए बेहद अहम है। यह माओवादियों के लिए ज्यादा अहम इसलिए भी है, क्योंकि वे माओ जे दुंग के विचारों को मानने का दावा करते हैं, जबकि खुद माओ के एक अहम सिद्धांत से यह सवाल पैदा होता है। माओ ने जनता के भीतर के अंतर्विरोधों से निपटने का राजनीतिक सिद्धांत दिया। इस सिद्धांत में ‘जनता’ और ‘दुश्मन’ की पहचान पर खास जोर है। माओ ने कहा कि ‘जनता’ और ‘दुश्मन’ की परिभाषा ठोस हालात के साथ बदलती रहती है। जो तबके ‘जनता’ की परिभाषा के तहत आएं, उनमें व्यापक एकता और ‘दुश्मन’ के खिलाफ उनकी गोलबंदी संघर्ष की सबसे सही रणनीति है। यहां गौरतलब यह है कि ‘जनता’ के भीतर भी अंतर्विरोध हमेशा मौजूद रहते हैं, लेकिन देखने की बात यह होती है कि कब कौन सा अंतर्विरोध दोस्ताना है और कौन सा अंतर्विरोध दुश्मनी की परिभाषा में पहुंच गया है।
वाल है कि क्या माओवादी, दूसरे नक्सलवादी संगठन औऱ गैर मार्क्सवादी-लेनिनवादी जन संगठन इस सिद्धांत के मुताबिक अपनी रणनीति बना रहे हैं? अगर बना रहे हैं तो क्या यह मुमकिन है कि संसदीय राजनीति में भाग लेने वाले सभी दलों को ‘दुश्मन’ की परिभाषा में शामिल कर दिया जाए? जिस वक्त काउंटर रिवोल्यूशन की ताकतें संसदीय जनतंत्र से हासिल उपलब्धियों को नाकाम करने की कोशिश में हैं और सदियों के रूढ़िवाद एवं शोषक व्यवस्था को फिर से कायम के लिए प्रतिक्रियावादी ताकतों ने सांप्रदायिक-फासीवाद का रास्ता अख्तियार कर रखा है, उस समय अपने पॉकेट्स में सिमटी और व्यापक रूप से आम जन पर कोई प्रभाव न रखने वाली ताकतों का बाकी सभी राजनीतिक शक्तियों को जन-विरोधी बता देना आखिर सामाजिक अंतर्विरोधों की कैसी समझ को जाहिर करता है? इसे सिर्फ दुर्भाग्य कहा जा सकता है कि जो ताकतें अपने को क्रांतिकारी मानती हैं, उनका पहला दुश्मन सांप्रदायिक फासीवाद नहीं, बल्कि मुख्यधारा की वामपंथी पार्टियां हों। इसे संकुचित सोच का ही नमूना कहा जा सकता है कि मुख्यधारा राजनीति में मौजूद वामपंथ को ये ताकतें अपना दुश्मन समझें और इस वामपंथ की ऐतिहासिक भूमिका और महत्त्व को नजरअंदाज करें। समाज के विकासक्रम के स्तर को बगैर समझे अति या उग्र वामपंथ का क्या नतीजा हो सकता है और उससे समाज को कितना फ़ायदा हो सकता है, यह ऐसी सभी ताकतों के लिए आज विचार का बेहद प्रासंगिक प्रश्न है। इस बिंदु पर इन सभी ताकतों के लिए सोच के उद्धार की जरूरत एक बार फिर खुद जाहिर हो जाती है।
भारत के उग्र वामपंथी यहां पर नेपाल के माओवादियों से कुछ सबक जरूर ले सकते हैं। प्रचंड और उनके साथी कॉमरेड्स को इस बात का श्रेय जरूर दिया जाना चाहिए कि समय के मुताबिक उन्होंने सोच के उद्धार का परिचय दिया, एवं ‘जनता’ और ‘दुश्मन’ की सही समझ विकसित की। इसका परिणाम यह हुआ कि नेपाल के सामाजिक और राजनीतिक विकासक्रम में उन्होंने अपनी ऐतिहासिक भूमिका बनाई है। नेपाल के माओवादियों ने राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के सिद्धांत को स्वीकार किया और गठबंधन की समय एवं स्थान के उपयुक्त रणनीति अपनाई। क्या भारतीय माओवादी इस प्रयोग को भी भटकाव और संशोधनवाद कह कर खारिज कर देंगे? यहां गौरतलब है कि नेपाली माओवादियों ने वैसी संसदीय व्यवस्था की स्थापना के लिए अपने विचार और रणनीति में बदलाव किया, जो भारत में आज काफी हद तक अपनी जड़ें जमा चुकी है।
हमारे संसदीय लोकतंत्र में सभी तबकों का समान प्रतिनिधित्व नहीं है, यह बात सच है। बल्कि पैसा और सामाजिक विशेषाधिकारों का शिकंजा इस लोकतांत्रिक व्यवस्था पर भी कसा हुआ है, यह बात बेहिचक कही जा सकती है। संसद को शासक तबकों की आपसी मुर्गा लड़ाई का मंच कहने के पीछे भी कुछ सच्चाई हो सकती है। लेकिन ये आलोचनाएं ही पूरा सच हैं, किसी विवेकशील व्यक्ति या संगठन के लिए यह मानना शायद मुमकिन नहीं है। संसदीय लोकतंत्र का पिछले साठ साल का प्रयोग भारतीय व्यवस्था में भारी उथल-पुथल की वजह बना है। एक व्यक्ति एक वोट, एक वोट एक मूल्य का जो सिद्धांत भारतीय संविधान में अपनाया गया, वह सदियों से दबे और मूक समूहों में जागरूकता एक बड़ा हथियार साबित हुआ है। माओवादी या कोई भी दूसरी विचारधारा अगर इस परिघटना को उसके सही परिप्रेक्ष्य में नहीं देख पाती है, तो यह उसके नजरिए का दोष ही माना जाएगा।
दरअसल, आज सबसे बड़ी चुनौती इस लोकतांत्रिक प्रयोग से हासिल उपलब्धियों को बचाने और इस प्रयोग को आगे बढ़ाने की है। ऊपर जिस काउंटर रिवोल्यूशन का जिक्र किया गया है, उसे इसी प्रक्रिया को पलटने की एक कोशिश के बतौर देखा जा सकता है। इस लिहाज से तमाम लोकतांत्रिक, या अगर मार्क्सवादी-लेनिनवादी शब्दावली में कहें तो जनवादी ताकतों का आज यह कर्त्तव्य है कि वे इस मकसद के लिए एकजुट रणनीति अपनाएं। इस रणनीति का सबसे पहला कदम संसद की संवैधानिक हैसियत पर जोर है। इस हैसियत पर न्यायपालिका, और कुछ संवैधानिक संस्थाओं की तरफ से हमले लगातार तेज होते जा रहे हैं। इस प्रति-क्रांति को रोकने के लिए सभी वामपंथी और लोकतांत्रिक शक्तियों की साझा ताकत की जरूरत है।
लेकिन माओवादियों की मौजूदा सोच के साथ मुश्किल यह है कि वह मौजूदा पूरी व्यवस्था को खारिज कर चलती है। उसमें लोकतांत्रिक प्रयोगों से हासिल हुई कामयाबियां कोई मायने नहीं रखतीं। दरअसल, इस सोच में वैसी हर व्यवस्था दुश्मन है, जिसका संचालन खुद उनके हाथों में न हो। बल्कि जो लोग वामपंथ की बात करते हुए संसदीय व्यवस्था का हिस्सा हैं, वे इस सोच में ज्यादा बड़े दुश्मन हैं। इसीलिए सोच की इस धारा से कुछ सवाल जरूर पूछे जाने चाहिए। पहला, यह कि मान लिया जाए कि अगर मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी वर्ग-शत्रु हैं औऱ कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी में कोई फर्क नहीं है, तो माओवादियों के पास सांप्रदायिक फासीवाद को रोकने का फौरी विकल्प क्या है? या जब तक माओवादी सफल नहीं हो जाते तब तक देश को सांप्रदायिक फासीवाद को झेलने के लिए तैयार रहना चाहिए? अगर यह मान लिया जाए कि माकपा और दूसरे वामपंथी दल क्रांति के रास्ते में बाधा हैं, तो प्रश्न यह है कि मौजूदा व्यवस्था के भीतर क्या जनता के न्यूनतम हितों की वकालत की कोई गुंजाइश है औऱ अगर है, तो वह कौन कर सकता है?
जादी के बाद जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में भारत लोकतंत्र, संघवाद और सामाजिक न्याय के जिस रास्ते पर चला, जाहिर है माओवादी उसे फर्जी मानते हैं। राष्ट्र निर्माण की जिस प्रक्रिया से देश गुजरा, और जिस मकसद को पूरा कर पाने में अभी भी कुछ मुश्किलें हैं, माओवादी उसे भारतीय साम्राज्यवाद की मिसाल मानते हैं। उनके पास भारत में राष्ट्रीयता के सवाल का अपना सिद्धांत है, जिसके तहत भारतीय राज्यों को भारतीय संघ से अलग होने का पूरा हक है, और जहां इस कथित हक के लिए लड़ाई चल रही है, वह एक जनवादी लड़ाई है। नक्सलवादियों के एक गुट ने पंजाब के खालिस्तानी आतंकवाद को भी जनवादी लड़ाई की श्रेणी में रखा था। लेकिन सवाल है कि क्या ऐसे संघर्षों को चलाने वाली ताकतें उसी न्याय भावना से प्रेरित रही हैं, जो मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओ की विचारधारा का मकसद है? अक्सर यह देखा गया है कि ऐसी लड़ाइयों को आगे बढ़ाने वाली ताकतें अपने नजरिए में प्रतिक्रियावादी, संकीर्ण और कई मौकों पर धार्मिक कट्टरपंथी रही हैं। ऐसी ताकतों की लड़ाई का सिर्फ इसलिए समर्थन कि उससे भारतीय राज्य को तोड़ा जा सकता है, कैसी क्रांतिकारिता है, इस सवाल पर अब सभी लोकतांत्रिक शक्तियों को जरूर विचार करना चाहिए।
दरअसल, समस्या है ठोस ऐतिहासिक नजरिए का अभाव। जिस समाज का हम हिस्सा हैं, वह विकास के किन दौर से गुजरा है, वहां किस तरह की शक्तियां सक्रिय हैं, उनमें कौन सी शक्तियां विकास और प्रगति में सहयोगी और कौन सी विरोधी या अड़चन हैं, इसकी पहचान सिर्फ ऐसे ही नजरिए से की जा सकती है। भारतीय राज्य का अगर वर्ग विश्लेषण किया जाए तो इस पर पूंजीवाद का शिकंजा जरूर नजर आएगा। इस पर सामंती प्रभाव के अवशेष भी देखे जा सकते हैं। चूंकि पूंजीवाद आज के दौर में वैश्विक रूप ले रहा है, इसलिए भारतीय राज्य पर अंतरराष्ट्रीय या बहुराष्ट्रीय पूंजी का प्रभाव भी देखा जा सकता है। लेकिन साथ ही इस पर नई उभर रही सामाजिक शक्तियों का प्रभाव भी है, जिनकी वजह से शोषित और वंचित तबकों को अपने हक की लड़ाई को आगे बढ़ाने में मदद मिल रही है। विकासक्रम के मौजूदा चरण में भारतीय राज्य को पूरी तरह जन विरोधी घोषित कर इसके विनाश का आह्वान दरअसल एक ऐसी आपदा को आमंत्रण है, जिसका सबसे बुरा परिणाम गरीब तबकों को ही भुगतना होगा।
रीब और वंचित तबकों के लिए आज यह आवश्यक है, भारत का जो विचार गांधी-नेहरू औऱ वामपंथ के विमर्श से लोकप्रिय हुआ, नागरिकों के बुनियादी अधिकार, सामाजिक न्याय और प्रगति जिसकी आत्मा हैं, उसकी रक्षा की जाए और उस सपने को वास्तव में साकार करने के संघर्ष का हिस्सा बना जाए। इस भारत के लिए निसंदेह आज सबसे बड़ा खतरा सांप्रदायिक फासीवाद से है, लेकिन नव-उदारवादी आर्थिक नीतियां भी इसके लिए एक बड़ी चुनौती बन गई हैं। इन दोनों से फौरी लड़ाई की रणनीति और उस पर सभी प्रगतिशील ताकतों की एकता आज ऐतिहासिक जरूरत है। व्यवस्था में आमूल परिवर्तन क्रांतिकारी शक्तियों का अंतिम लक्ष्य जरूर बना रहे, लेकिन उन्हें स्वतंत्रता आंदोलन में विकसित हुए भारत के विचार यानी आइडिया ऑफ इंडिया की रक्षा को अपना फौरी लक्ष्य जरूर बनाना चाहिए। इस लक्ष्य को पाने में चरमपंथ शायद ज्यादा सहायक नहीं हो सकता।
गर पिछले साठ साल की भारत की यात्रा पर गौर करें तो सामाजिक परिवर्तन की कई परिघटनाएं रेखांकित की जा सकती हैं। तमिलनाडु में द्रविड़ आंदोलन ने पिछली सदी में ब्राह्मणवाद की जड़ें हिला दीं और आज कम से कम वहां राजनीति में ब्राह्मणवादी ताकतें अपने दोबारा उभार का सपना नहीं देख सकतीं। उत्तर भारत में लोहियावादी सोशलिस्ट संगठनों ने अन्य पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण की जो लड़ाई लड़ी, उसका नतीजा १९९० के दशक में सामने आया। अब उत्तर भारत के ज्यादातर राज्यों में सवर्ण जातियों का दबदबा राजसत्ता पर काफी कमजोर हो गया है। डॉ. भीमराव अंबेडकर भले अपने जीवन काल में दलितों का उत्थान नहीं देख सके, लेकिन कांशीराम और मायावती ने उनके कुछ विचारों को आज एक राजनीतिक यथार्थ में परिवर्तित कर दिया है। जिन दलित जातियों को सदियों तक समाज से बाहर रखा गया, जिनके सम्मान और बुनियादी अधिकारों का हर कदम पर उल्लंघन हुआ, वो अब देश की राजनीति में एक महत्त्वपूर्ण शक्ति के रूप में उभर रही हैं। भारतीय संविधान को बनाने में डॉ. अंबेडकर ने जो खास भूमिका निभाई और जिन सिद्धांतों को उनकी कोशिशों की वजह से इसमें जगह मिली, भले देर से ही सही, लेकिन अब उनका असर देश की राजनीति और समाज पर नजर आने लगा है। दलित और पिछड़ी जातियों का राजनीतिक और सामाजिक उभार आजादी के बाद के भारत की शायद सबसे दूरगामी महत्त्व की परिघटना है। लेकिन यह इसीलिए मुमकिन हो सका कि देश के एकीकरण की प्रक्रिया ने एक ठोस रूप ग्रहण किया और आर्थिक विकास का एक रास्ता तैयार किया जा सका। इन सकारात्मक घटनाओं को खारिज करना वस्तुस्थिति को नकारना है। यह कम से कम मार्क्सवादी या विवेकशील नजरिया नहीं हो सकता।
व्यवस्था में न्याय, सबका हित और लोकतंत्र सबसे ऊपर हो, इसे आज सुनिश्चित किए जाने की आवश्यकता है। इन उद्देश्यों को कैसे पाया जाए, प्रगति विरोधी या काउंटर रिवोल्यूशन की ताकतों को कैसे परास्त किया जाए, सभी क्रांतिकारी, प्रगतिशील और लोकतांत्रिक ताकतों की आज यही सबसे पहली चिंता होनी चाहिए। और अगर यह चिंता है तो इन ताकतों के बीच आज व्यापक संवाद की जरूरत है। यह संवाद सभी वामपंथी और जनता के हितों की बात करने वाली ताकतों में बनना चाहिए। इन ताकतों में मतभेद जरूर बने रहेंगे, अगर कोई नंदीग्राम होता है तो उस पर तीखी बहस और विरोध भी हो सकता है, लेकिन ऐसे मतभेद, विरोध या बहस दोस्ताना दायरे में रहने चाहिए। नंदीग्राम जैसी घटनाएं एक वामपंथी ताकत पर डंडा बरसाने का बहाना नहीं बनना चाहिए।
अगर लोकतंत्र के दूरगामी हित के नजरिए से देखें तो फिलहाल सबसे दुर्भाग्य की बात यही है कि जो भी ताकतें व्यापक वाम और जनवादी दायरे का हिस्सा हैं, उनमें सबसे ज्यादा गुस्सा और लड़ने का जज्बा इसी दायरे के भीतर की ताकतों से है। और जो ताकत जितनी छोटी है, उसका नजरिया भी उतना ही छोटा है। अपनी अलग पहचान जताने का रुझान उनमें इतना बलवती दिखता है कि वे यह को भूल जाती हैं कि उनका बुनियादी मकसद क्या है, इस मकसद को पाने के विभिन्न चरण क्या हैं और इस संघर्ष में कौन दोस्त और कौन दुश्मन है।
स गतिरोध को तोड़ने में परिवर्तन की दो धाराएं आज बहुत खास भूमिका निभा सकती हैं। इसमें एक मुख्यधारा का वामपंथ है और दूसरा माओवादी हैं। हालांकि मौजूदा हालात के बीच यह दिवास्वप्न या महज सदिच्छा लग सकती है, इसके बावजूद यह सवाल चूंकि महत्त्वपूर्ण है, इसलिए इस पर विचार भी जरूर होना चाहिए कि क्या मुख्यधारा के वामपंथी दल माओवादियों को भटके कार्यकर्ता मानने के बजाय उनकी उग्रता के वास्तविक संदर्भ पर गौर कर सकते हैं और क्या माओवादी मुख्यधारा की वामपंथी पार्टियों को दुश्मन की श्रेणी में रखने की सोच से उबर सकते हैं? अगर यह मुमकिन हो सके तो एक ऐसे संवाद की शुरुआत हो सकती है, जो काफी आगे तक जा सकती है औऱ आखिरकार इतिहास के इस मुकाम पर वंचित समूहों के हितों से जुड़ी सभी ताकतों के बीच एक पुल की बुनियाद साबित हो सकती है। अगर ऐसी सभी ताकतें इसी मौके पर अपना अंतिम लक्ष्य हासिल कर लेने की अयथार्थ मानसिकता से निकल सकें तो यह जरूर मुमकिन हो सकता है। इस रास्ते में माओ का जनता के भीतर के अंतर्विरोधों को हल करने का सिद्धांत इन सभी ताकतों का सबसे कारगर औजार बन सकता है। अगर इस सिद्धांत पर सभी वामपंथी, लोकतांत्रिक औऱ प्रगतिशील ताकतें ध्यान दें तो निसंदेह एक नव-वामपंथ का उदय हो सकता है, जिसकी न सिर्फ इस देश बल्कि दुनिया को आज सबसे ज्यादा जरूरत है।