Friday, December 19, 2008

वीपी सिंहः एक श्रद्धांजलि


सत्येंद्र रंजन
मुंबई में आतंकवादी हमले के सदमे और शोर के बीच भारत की एक अहम राजनीतिक शख्सियत दुनिया से उठ गई। विश्वनाथ प्रताप सिंह के निधन की खबर को भारतीय राष्ट्र पर मंडराते उस गंभीर संकट के बीच महसूस तो किया गया, लेकिन उस माहौल में इस पर चर्चा नहीं हो सकी। बहरहाल, वीपी सिंह ऐसी क्षणिक चर्चा के मोहताज नहीं थे। भारतीय राजनीति पर उनका असर कहीं दीर्घकालिक और दूरगामी है।

आम तौर पर वीपी सिंह को मंडल मसीहा के रूप में याद किया जाता है। यह नाम उन्हें प्रधानमंत्री रहते हुए अन्य पिछड़ी जातियों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण देने के उनके फैसले की वजह से मिला। यह एक ऐतिहासिक फैसला था और आज इस मुद्दे पर देश में राजनीतिक आम सहमति है, तब उस कदम के महत्त्व को कहीं बेहतर ढंग से समझा जा सकता है। वीपी सिंह ने जब मंडल आयोग की सिफारिश को लागू किया, तो उनके मकसद और तरीके पर कई सवाल उठे। उस फैसले के खिलाफ सवर्ण जातियों की घोर प्रतिक्रिया हुई। मोटे तौर पर इन्हीं जातियों से आने वाले अभिजात्य और शहरी मध्य वर्ग हमेशा के लिए उनके खिलाफ हो गए। कारपोरेट मीडिया में उनकी जो खलनायक की छवि बनी, वह उनकी मृत्यु के दिन तक खत्म नहीं हुई।

लेकिन इस कदम ने देश की राजनीति का स्वरूप ही बदल दिया। पूरे उत्तर भारत में व्यापक जन समुदाय की सोयी हुई राजनीतिक आकांक्षाएं इससे जिस तरह जगीं और उससे जिस नई राजनीतिक ऊर्जा का संचार हुआ, उसका असर आज सहज देखने को मिलता है। इससे देश की राजनीतिक व्यवस्था ज्यादा लोकतांत्रिक और ज्यादा प्रातिनिधिक बनी। इसकी प्रतिक्रिया में यथास्थितिवादी ताकतें भी गोलबंद हुईं, जिससे दक्षिणपंथी राजनीति को नई ताकत मिली और उनका ज्यादा उग्र रूप देखने को मिला। इन दोनों परिघटनाओं से जो सामाजिक और राजनीतिक संघर्ष शुरू हुआ, वह आज भी जारी है।

इसी संघर्ष का परिणाम है कि वीपी सिंह को लेकर देश में दो परस्पर विरोधी धारणाएं हैं। देश का एक तबका उन्हें आधुनिक भारतीय राष्ट्र के मूलभूत आधार- सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता- के प्रतीक के रूप में देखता है, तो दूसरी तरफ बहुत से लोगों के लिए वो नफ़रत के पात्र हैं। ऐसे लोग उन पर समाज को तोड़़ने और जातीय विद्वेष पैदा करने का इल्ज़ाम लगाते हैं। संभवतः परस्पर विरोधी दो ऐसी उग्र धारणाएं हाल के इतिहास में किसी और नेता के लिए नहीं रही। और यही वीपी सिंह की प्रासंगिकता है।

बहरहाल, वीपी सिंह मंडल मसीहा बाद में बने। ऐसा मसीहा बनने की हैसियत उन्होंने इसके पहले बगैर इस मुद्दे पर राजनीति किए हासिल की थी। यानी इसके पहले उन्होंने अपनी ऐसी हैसियत बनाई, जिससे वे प्रधानमंत्री के पद तक पहुंच सके। यह यात्रा डेढ़- पौने दशक से ज्यादा की नहीं थी। इस दौरान उनका सारा प्रभामंडल दो पहलुओं से बना- सत्ता का मोह और भ्रष्ट न होने की छवि। १९८० में उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बने तो राज्य को उन्होंने डाकुओं से मुक्ति दिलाने का वादा किया, जिनका उन दिनों, खासकर चंबल के इलाके में भारी आतंक था। दो साल में ऐसा नहीं कर पाए तो इस्तीफा पेश कर दिया। राजीव गांधी के शासनकाल में वित्त मंत्री बने तो देश के बड़े उद्योगपतियों पर कर चोरी के आरोप में छापे डलवाने का एक सिलसिला चलाया। इससे उद्योग जगत का इतना दबाव पड़ा कि राजीव गांधी ने उनसे वित्त मंत्रालय छीन कर उन्हें रक्षा मंत्री बना दिया। यह कदम राजीव गांधी को बेहद महंगा पड़ा, क्योंकि अब वीपी सिंह ने रक्षा सौदों में होने वाले भ्रष्टाचार पर नकेल कसनी शुरू कर दी। इससे एचडीडब्लू पनडुब्बी और बोफोर्स जैसे विवाद उठे, जिससे राजीव गांधी और कांग्रेस की एकछत्र सत्ता की बुनियाद हिल गई।

जब बतौर वित्त मंत्री वीपी सिंह उद्योगपतियों पर निशाना साधे हुए थे, तब उन्होंने एक गौरतलब बात कही थी। उन्होंने कहा था कि इस देश में जैसे एक गरीबी रेखा है, वैसे ही एक ‘जेल रेखा’ भी है। इस देश में एक खास सीमा से ज्यादा आमदनी वाला व्यक्ति जेल नहीं जाता है, चाहे वह कैसा भी अपराध करे। तब वीपी सिंह ने कहा था कि उनका मकसद कानून के दायरे को इस ‘जेल रेखा’ से ऊपर रहने वाले लोगों को पहुंचाना है। रक्षा सौदों में भ्रष्टाचार को मुद्दा बना कर उन्होंने राजनीतिक भ्रष्टाचार को सबसे अहम राष्ट्रीय मुद्दा बना दिया। जाहिर है, ऐसे मुद्दों के आधार पर जब उन्होंने एक बार फिर इस्तीफे को औजार बनाया, राजीव गांधी की सरकार छोडी तथा उन्हें कांग्रेस से निकाल दिया गया तो वे कांग्रेस विरोधी गठबंधन के स्वाभाविक नेता बन गए।

इसके बाद वीपी सिंह ने जिस सरकार का नेतृत्व किया, वह इस लिहाज से अजूबा थी कि वह एक साथ वामपंथी दलों और लगातार उग्र सांप्रदायिक रूप अपना रही भारतीय जनता पार्टी के समर्थन पर निर्भर थी। खुद वीपी सिंह की अपनी पार्टी, यानी जनता दल भी महत्त्वाकांक्षी एवं सत्ता लोलुप नेताओं के एक जमावड़े से ज्यादा कुछ नहीं था। यह सरकार ज्यादा दिन नहीं टिक सकती थी, यह बात शुरू से साफ थी। एक ऐसी अस्थिर और अल्पकालिक सरकार के साथ वीपी सिंह ने मंडल आयोग की रिपोर्ट पर अमल जैसा स्थायी महत्त्व का कदम उठाया और लालकृष्ण आडवाणी की राम रथयात्रा को रोकते हुए धर्मनिरपेक्षता की रक्षा के मुद्दे पर अपनी सरकार गिरने दी, यह उनकी सियासी चतुराई भी कही जा सकती है, लेकिन इससे एक ऐसी राजनीतिक पहल हुई, जिसने वीपी सिंह को लंबे समय तक के लिए प्रासंगिक बना दिया।

बहरहाल, वीपी सिंह जब दुनिया से विदा हुए हैं, उस वक्त अगर सामाजिक न्याय के सवाल को छोड़ दें तो राजनीति की स्वच्छता, भ्रष्टाचार का खात्मा, और धर्मनिरपेक्षता को सुरक्षित बनाने जैसे वो तमाम मुद्दे जहां के तहां नजर आते हैं, जिन्हें वीपी सिंह ने उठाया और जिनके आधार पर वो राजनीति में आगे बढ़े। इसे वीपी सिंह की नाकामी माना जा सकता है। या, यह कहा जा सकता है कि वे भी एक ऐसे राजनेता थे, जो जनता का मूड भांप कर मुद्दे उठाता था और उसका फायदा उठा कर आगे बढ़ जाता था। उसे अंजाम तक पहुंचाने की फिक्र उसे नहीं होती थी। यह हकीकत है कि इसके लिए उन्होंने संगठित ढंग से काम करने का प्रयास कभी नहीं किया। यह भी कहा जा सकता है कि मंडल का मंत्र भी उन्होंने एक खास परिस्थिति में ग्रहण किया, वह कोई उनकी बुनियादी निष्ठा नहीं थी। इन तथ्यों की रोशनी में वीपी सिंह को सस्ती जनप्रियता की राजनीति करने वाले एक नेता के रूप में भी देखा जा सकता है, जो मौजूदा व्यवस्था का ही एक हिस्सा थे।

इसके बावजूद कुछ विशेषताएं वीपी सिंह को सबसे अलग करती थीं। सत्ता को दांव पर लगाने का साहस और अलोकप्रिय होने का जोखिम उठाते हुए भी विवादास्पद फैसले की हिम्मत उन्हें एक खास छवि देती थी। एकांत पसंद निजी जिंदगी में कला और कविता को अभिव्यक्ति का माध्यम बनाने वाली इस शख्सियत के लिए सियासत में ऐसा करना मुमकिन होता रहा। और तभी एक बार वे प्रधानमंत्री पद की कुर्सी को ठुकरा सके और बतौर नागरिक की अपनी भूमिका में प्रासंगिक बने रह सके। गौरतलब है कि १९९६ में जब संयुक्त मोर्चा का प्रयोग हुआ तो उस समय वीपी सिंह इसके स्वाभाविक नेता थे। प्रधानमंत्री की कुर्सी एक बार फिर उनके सामने थी। लेकिन तब उन्होंने सचमुच यह दिखाया कि सत्ता का उनमें तुच्छ मोह नहीं है। दरअसल, इसके पहले ही वीपी सिंह अपनी भूमिका एक जागरूक नागरिक के रूप में सीमित चुके थे, जिसकी वजह से एक पत्रिका ने उन्हें ‘सिटीजेन सिंह’ नाम दिया था। इस भूमिका के साथ वीपी सिंह ने यह साबित किया कि राजनीति में सत्ता अहम और शायद सबसे अहम चीज होती है, लेकिन आखिरी चीज नहीं होती। सत्ता के बिना भी प्रासंगिक बने रहा जा सकता है, अगर आपके पास एक विचार और खास मकसद हो। यही वीपी सिंह का महत्त्व है।

11 comments:

Anonymous said...

v.p. singh bhartiya rajneti ke kalank the,jativad kee rajneeti ke janak ko aapka prem pranamya hai .jooth ke bofors pulinde ka kya hua ?

Anonymous said...

मंडल मसीहा बनने से ही जनता (मंडल से लाभान्वितों को छोड़ कर)के बीच वी.पी.सिंह का कद छोटा हुआ.

antaryatri said...

rajniti per har kisi se bat nahi ho sakti.pan bidi vale aur rajniti ke vidvan jaise ek manch per nahi baithte vaise hi thalue jo blogger ban kar budhi vilas kar rahe unki tippani se hi unke mansikdivalyepan ka pata chal jata hai.commen box ko to yeh sarvajnik sochalay samjhte hai.

drdhabhai said...

सही कह रहे हैं आप यदि ये मंडल मसीहा नहीं बनते तो हम गुर्जर,ब्राह्मण,दलित,राजपूत,पिछडे,अति पिछङे की जगह भारतीय बन जाते......वो दिन दूर नहीं जब देश के अगले विभाजन की नींव डालने के लिए इस मसीहा को याद किया जायेगा

Anonymous said...

हम तो लखनऊ में चतुर्वेदी ,पांडे और शर्मा जैसे नेताओ को मायावती का जब पैर पकड़ते देखते है तो वीपी याद आते है.

Unknown said...

देश को तो बाबा पार्टी वाही जी संसद में गांजा और भांग पिने वालो को भर डाले, उनसे खतरा है .वीपी सिंह को गली देने वाले सभी बाभन या मायावती का पैर पकड़ने वाले मिलेंगे

Sanjay Grover said...

jo maiN kahna chahta tha wo aapne lekh ki antim panktioN meN kah diya hai.
इसके बावजूद कुछ विशेषताएं वीपी सिंह को सबसे अलग करती थीं। सत्ता को दांव पर लगाने का साहस और अलोकप्रिय होने का जोखिम उठाते हुए भी विवादास्पद फैसले की हिम्मत उन्हें एक खास छवि देती थी। एकांत पसंद निजी जिंदगी में कला और कविता को अभिव्यक्ति का माध्यम बनाने वाली इस शख्सियत के लिए सियासत में ऐसा करना मुमकिन होता रहा। और तभी एक बार वे प्रधानमंत्री पद की कुर्सी को ठुकरा सके और बतौर नागरिक की अपनी भूमिका में प्रासंगिक बने रह सके। गौरतलब है कि १९९६ में जब संयुक्त मोर्चा का प्रयोग हुआ तो उस समय वीपी सिंह इसके स्वाभाविक नेता थे। प्रधानमंत्री की कुर्सी एक बार फिर उनके सामने थी। लेकिन तब उन्होंने सचमुच यह दिखाया कि सत्ता का उनमें तुच्छ मोह नहीं है। दरअसल, इसके पहले ही वीपी सिंह अपनी भूमिका एक जागरूक नागरिक के रूप में सीमित चुके थे, जिसकी वजह से एक पत्रिका ने उन्हें ‘सिटीजेन सिंह’ नाम दिया था। इस भूमिका के साथ वीपी सिंह ने यह साबित किया कि राजनीति में सत्ता अहम और शायद सबसे अहम चीज होती है, लेकिन आखिरी चीज नहीं होती। सत्ता के बिना भी प्रासंगिक बने रहा जा सकता है, अगर आपके पास एक विचार और खास मकसद हो। यही वीपी सिंह का महत्त्व है।

Anonymous said...

choudari satta na hathiya le isliye kamandal ka daw phek marbhukho ko apna vote bank banane wale us jaise mokaparast insan ke samane to jaychnd bhee pani bharata hai. haramjade ne bharat ki tasvir hi badal di.
aur tum jaise muft ki roti todane walo ki jamat khadi kar gaya.
sale ko fal bhi bhogana pada, ediya ghisata raha par mot na ayi.
sale ne kisi kamandal wale dakatar se ilaj kyo nahee karwaya, kyo mahage hospital me janata ka paisa barbad karata raha dharati ka bojh. kabhi is bare me socha hai lalloo.

antaryatri said...

haramjada to vah hota hai jo nam chupa ker comment karta hai.gali vah deta hai jo saririk roop se bahut kajoor hota hai.

antaryatri said...

haramjada to vah hota hai jo nam chupa ker comment karta hai.gali vah deta hai jo saririk roop se bahut kamjoor hota hai.

Anonymous said...

A Real Tribute To A Man Of Many Moods, Who Changed The Course Of Indian Politics. The Class Which Claims To Be The "BhagyaVidhata" of This Country Has Now Come To The Level Of Using Slang Rather Than Doing An Unbiased Value Judgement. We Can Debate On The Issue Rather Than Using Slang. Casteism Is Prevailing In India For Last 5,000 Years And Not The Bi-product Of Mandal Commission. Mandal Has Brought Some Genuine Hidden Issues Which Were Afflicting The Indian Society And Often Discussed In Closed Rooms To The Open Platform Of Debate. I Also Say That Mandal Is Not The Panacia For All The Ills Indian Society Is Facing.पढ़ सुन कर जानने के अलावे मैं नही जानता की वी पी सिंह कैसे शख्स थे - अच्छे थे या बुरे थे? लेकिन ये उसूल का पक्के थे और इनके मुद्दे बड़े थे/ समर्थन में या विरोध में 'मंडल' पर बहस जारी रहनी चाहिए ताकि भारत का लोकतंत्र जिंदा रहे, भले ही वी पी सिंह नही रहे/ एक खूबसूरत श्रद्धांजलि के लिए शुक्रिया!