Saturday, March 21, 2009
तीसरे मोर्चे से नफ़रत क्यों?
सत्येंद्र रंजन
आम चुनाव से ठीक पहले तीसरे मोर्चे के एक खास शक्ल ग्रहण कर लेने से न सिर्फ कांग्रेस और भाजपा के रणनीतिकारों के लिए परेशानी खड़ी हो गई है, बल्कि देश की राजनीतिक असलियत और सामाजिक संरचना से नावाकिफ़ जानकार भी बौखलाए हुए लगते हैं। मीडिया की चर्चाओं में अक्सर तीसरे मोर्चे को अस्थिरता की जड़ बताया जा रहा है। यहां तक कि इसमें शामिल दलों को ब्लैकमेलर और अपनी ताकत से ज्यादा मलाई खाने की हसरत रखने वाले नेताओं का जमावड़ा भी कहा जा रहा है। इसी के बीच वह सुझाव भी फिर सामने गया है, जो भारतीय प्रभु वर्ग की बहुत पुरानी ख्वाहिश है। यानी यह कि १५वें आम चुनाव का नतीजा आने के बाद कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी को आपस में मिलकर सरकार बनाने की संभावना पर विचार करना चाहिए। धर्मनिरपेक्षता के कुछ स्वघोषित पैरोकार यहां तक कह चुके हैं, तीसरे मोर्चे की ब्लैकमेलिंग देखने के बजाय वो पांच साल का भाजपा शासन सहना पसंद करेंगे।
ये बातें इस हकीकत को मानने के बावजूद कही जा रही हैं कि कांग्रेस और भाजपा की ताकत लगातार गिरती जा रही है, पिछले आम चुनाव में दोनों दलों ने अपने वोट प्रतिशत गवाएं थे और इस बार यह मुमकिन है कि ये दोनों दल पिछले बार की सीटों की साझा संख्या २८३ (कांग्रेस १४५ और भाजपा १३८) से काफी कम पर सिमट जाएं। इस बार यह संभव है कि लोकसभा में आधे से ज्यादा सीटें कांग्रेस और भाजपा के अलावा दलों के पास हों। तो जो दल देश के आधे से ज्यादा जनमत की नुमाइंदगी करने की स्थिति में हैं, आखिर उनके प्रति यह हिकारत का भाव क्यों? आखिर इसके पीछे कैसी मानसिकता है? आखिर यह सोच क्यों है कि भले बाकी दलों के पास ज्यादा सीटें हों, लेकिन कांग्रेस या भाजपा में से किसी एक के नेतृत्व में ही सरकार बनानी चाहिए?
यह दरअसल देश में उत्तरोत्तर लोकतंत्रीकरण से शासक वर्गों में पैदा हुई बेचैनी है। इस लोकतांत्रिक प्रक्रिया से उभर रही नई ताकतों, नई जन आकांक्षाओं और नए वर्ग समूहों से आ रहे नेताओं पर यह लगाम कसने की एक चाहत है। शासक वर्गों को अभी भी यह लगता है कि बीते वर्षों में कांग्रेस और भाजपा जैसी पार्टियां जो उनके हितों के अनुरूप पूरी तरह ढल चुकी हैं, उनके जरिए वो जनतांत्रिक परिघटना को नियंत्रित कर सकते हैं। इस मकसद में इन वर्गों की पहली पसंद निश्चित रूप से भाजपा है, जो सांप्रदायिक, भड़काऊ और कंजरवेटिव एजेंटे से आम जन को उनके असली मुद्दों से ज्यादा आसानी से भटका सकती है। मगर कांग्रेस ने आम आदमी की बात करते हुए भी प्रभु वर्ग के हितों के मुताबिक शासन करने की कला में जैसी महारत हासिल कर रखी है, उससे इन वर्गों की वह स्वाभाविक रूप से दूसरी पसंद है।
इस कथन से यह भ्रम बिल्कुल नहीं होना चाहिए कि कांग्रेस और भाजपा के अलावा बाकी दलों ने मौका मिलने पर शासन का कोई अलग चरित्र दिखाया है या अलग नीतियां अपनाई हैं। वामपंथी दलों को छोड़ दें तो बाकी दलों ने वैकल्पिक नीतियों के मामले पूरा दीवालियापन ही दिखाया है और उनके नेताओं का आचार-व्यवहार अगर बदतर नहीं तो कांग्रेस और भाजपा के नेताओं से बेहतर भी नहीं रहा है। १९८० और ९० के दशक में उनसे देश को जैसी नई दिशा की उम्मीद थी, वह अब टूट चुकी है।
लेकिन इन दलों और उनके नेताओं के उभार का महत्त्व वैकल्पिक नीतियों और अलग राजनीतिक संस्कृति के संदर्भ में नहीं है। उनका महत्त्व इस संदर्भ में है कि ‘एक व्यक्ति, एक वोट और हर वोट के समान मूल्य’ के जिस सिद्धांत पर हमारे संविधान में संसदीय लोकतंत्र को अपनाया गया, उसने आम जन में अपने अधिकारों एवं सम्मान की अभूतपूर्व आकांक्षा जगाई है और इससे बीते दशकों में उनका प्रतिनिधित्व करने वाली नई राजनीतिक ताकतें उभर कर सामने आई हैं। पहले राज्यों की सत्ता पर अधिकार जताने के बाद अब ये ताकतें देश की सत्ता पर अपना प्रभाव डाल सकने की स्थिति में हैं।
बहुत सी अलग राजनीतिक शक्तियों का उदय तो इसलिए भी हुआ कि उन्हें समाहित करने की क्षमता कांग्रेस पार्टी बरकरार नहीं रख सकी, जो कभी सभी तरह के विचारों और हितों का प्रतिनिधित्व करती थी। आज कांग्रेस का ढांचा ऐसा है कि उसमें किसी नए नेता के लिए अपने जनाधार और प्रतिभा के बल पर जगह बनाना और उम्मीदवारी का टिकट पाना मुश्किल है। वंशवाद और ऊपर से थोपे गए नेताओं की वहां ऐसी जकड़न है कि किसी इलाके की किसी नई ताकत के पास एकमात्र रास्ता यही बचता है कि वह अपनी अलग शुरुआत करे। इस परिघटना से कांग्रेस सिकुड़ती गई, जबकि नई ताकतें राजनीतिक फलक पर अपनी जगह बनाती गई हैं।
कांग्रेस को २००४ में अपनी इस विफलता की स्थितियों में सुधार का ऐतिहासिक मौका मिला। इससे वह नए भारत की लोकतांत्रिक एवं संघीय उम्मीदों के मुताबिक नई नीतियों और कार्यक्रम को अपनाते हुए एक वाम झुकाव रखने वाले धर्मनिरपेक्ष गठबंधन का स्वाभाविक नेता बन सकती थी। मगर प्रभु वर्ग की सेवा के अति उत्साह में उसने ये मौका गवां दिया। उसने नीतियों के सवाल पर वामपंथी दलों से विश्वासघात किया। इस क्रम में उसने अपना नैतिक कद गंवाया और साथ ही अपने नेतृत्व वाले यूपीए गठबंधन का राजनीतिक औचित्य भी खत्म कर दिया। ऐसे में क्या यह अस्वाभाविक है कि अब उसके सहयोगी दल उसे अपमानित कर रहे हैं?
भाजपा अपनी बुनियादी सोच में लोकतंत्र, संघवाद और हर प्रगतिशील मूल्य के खिलाफ है। वह विभिन्न दलों से गठबंधन सिर्फ गैर-कांग्रेसवाद के राजनीतिक समीकरण और मजबूरियों की वजह से बना सकी। लेकिन उड़ीसा की मिसाल अब यह जाहिर कर रही है कि यह समीकरण और मजबूरियां भी भाजपा के नेतृत्व में गठबंधन कायम रहने की गारंटी नहीं है।
इन स्थितियों ने लोकसभा चुनाव के परिदृश्य को बेहद अनिश्चित कर दिया है। इस अनिश्चितता से प्रभु वर्गों में बेचैनी लाजिमी है और यही बौखलाहट मीडिया में उनके प्रवक्ता टीकाकारों के जरिए जाहिर हो रही है। लेकिन उनकी टिप्पणियों में देश की बदलती असलियत की नासमझी भी सामने आ रही है, और यह समझ सकने की अक्षमता भी कि समय की धारा अब उनके साथ नहीं है। नया जनादेश दरअसल नए भारत की नई आकांक्षाओं को प्रतिबिंबित करेगा।
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5 comments:
"...नया जनादेश दरअसल नए भारत की नई आकांक्षाओं को प्रतिबिंबित करेगा…" किस प्रकार की आकांक्षायें? क्षेत्रीय या जातीय? क्या इन आकांक्षाओं में "भारत" और "राष्ट्र" के लिये कोई जगह होगी? या फ़िर से चुनाव के बाद "शर्मनिरपेक्षता" के नाम पर अन्ततः कांग्रेस की गोद मे ही जा बैठेंगे? द्रमुक को पंजाब में कौन जानता है या बीजू (जद) को राजस्थान में कोई? फ़िर कैसे देश की जनता को महसूस होगा कि यह उसकी सरकार है? जबकि कांग्रेस और भाजपा के कैडर की पहुँच / पहचान देश के कोने-कोने में है… क्षेत्रीय दल किसी काम के नहीं हैं…
जरूरत तीसरे मोर्चे की नहीं, जनमोर्चे की है।
TISARE MORCHE KE UBHAR SE PARESAN NAHIH, UTASAHIT HONE KI JARURAT HAI. AAJ DESH MEN SABASE BHAROSE KE VAMPANTHI DAL HI HAIN. TABHI TAMAM SAJISON KE BAVJUD BENGAL MEN BANE HUYE HAIN. JANATA KA BHAROSA IN PAR HI HAI. MEADIA MEN INAKI UPECHA NAI BAAT NAHIN HAI. AB TO INHEN HI KENDRA KI SATTA SOUPANI CHAHYE. CHUNA MEN KUCH SEATEN KAM PAD JAYE TO CONGRESS KO INAKI MADAD KAR STHAI SARKAR BANANE MEN SAHYOG KARANA CHAHIYE. 5-10 PRATISHAT AMIRON KI JAGAH 90 PRATISHAT JANATA KE BARE MEN SOCHA JANA CHAHIYE. HAMARE RAM KI CHINTA BJP VALE CHODEN. GHAR ROOPI MANDIR KO SAVARNE KA KAM TISARE MORCHA VALE HI KAR SAKENGE. YEH BHAROSHA KIYA JA SAKATA HAI.
APANA DESH CONGRESS YA BHAJAPA KI JAGIR NAHIN HAI. CONGESS NE GANDHI KO BHULA DIYA HAI OUR BHAJAPA NE RAM TAK KO BECHANE KA APRADH KIYA HAI. INAHEN SATTA SE DOOR KIYA JANA CHHIYE. AAKHIR HAM KAB TAK ROJI-ROTI OUR BUNIYADI SUBIDHAON SE VANCHIT RAHENGE. JO NAYA KUCH KAR DIKHAYE UNHEN AAJAMANA CHAHTE. LEFT PARTIYON KO IS DISA MEN SAKRIYA HONA CHAHIYE. ADVANI KI PM BANANE KI LALAK SHARMNAK HAI. VE BASU KI TARAH RAJNEETI CHOD KYON NAHIN DETE.
It is a very good and thoughtful analysis. Specially Mayawati's recent declaration of her probable foriegn policy shows a sense of socialist and inclusive politics while rejecting the capitalist tilt. She may be a big hope if its just about mere opportunism .
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