सत्येंद्र रंजन
भारतीय लोकतंत्र जब अपने एक सबसे महत्त्वपूर्ण पड़ाव से गुजर रहा है, देश के एक प्रमुख अखबार ने इसे ‘Dance of Democracy’ नाम दिया है। मेनस्ट्रीम मीडिया में आम चुनाव की चर्चा क्रिकेट की शब्दावली में होना एक सामान्य बात है। मीडिया (कुछ अपवादों को छोड़ कर) में अक्सर यह चर्चा भी सुनी जा सकती है कि इस बार चुनाव में कोई मुद्दा नहीं है। तो मीडिया की चर्चाएं अक्सर नेताओं के भड़काऊ भाषणों, एक दूसरे पर कीचड़ उछालने वाले बयान, और सतही तथा अप्रसांगिक सवालों पर टिकी हुई नज़र आती है। बात अगर कुछ आगे बढ़ी तो जातीय समीकरण और गठबंधनों की जोड़-तोड़ तक यह चली जाती है। राजनीतिक दलों के चुनाव घोषणापत्रों को बेकार की चीज मान लिया गया है, इसलिए अक्सर मीडिया में इनकी कोई चर्चा नहीं होती। लोगों के सामने निष्कर्ष यह पेश किया जाता है कि ‘सब एक जैसे हैं‘। जब ‘सब एक जैसे हैं‘ तो फिर विकल्प की बात कहां है? इसलिए यह चुनाव एक राजनीतिक ड्रामा या जैसाकि वह देश का प्रमुख अखबार कह रहा है- एक डांस है यानी नाच। इसके मजे लीजिए, इससे आगे की कोई बात सोचने या समझने की जरूरत नहीं है!
यह नजरिया लोकतंत्र के उस आयोजन के प्रति है, जिसकी प्रक्रिया में देश के करोड़ों लोग शामिल हैं। देश के करोड़ों लोग जिससे अपनी सामाजिक-आर्थिक बेहतरी की उम्मीद जोड़े हुए हैं, और जिससे समाज के उन करोड़ों को लोगों के लिए इतिहास में पहली बार रोशनी की उम्मीद पैदा हुई है, जिन्हें सामाजिक निरंकुशता के दौर में सदियों तक जाति और आर्थिक हैसियत के आधार पर दबाए रखा गया। क्या सचमुच भारतीय लोकतंत्र कुछ नेताओं की महत्त्वाकांक्षा और कुर्सी की लालसा के अलावा कुछ और नहीं है? क्या सचमुच यह सिर्फ थैलीशाहों और अपराधियों का एक खेल है, जिसमें आम जन महज खामोश दर्शक है? और इन दर्शकों की दिलचस्पी चुनाव के नाम पर होने वाले ड्रामे और मनोरंजक बयानबाजियों तक में सामित है?
इन सवालों के जवाब इस पर निर्भर करते हैं कि आप इन्हें कहां से देख रहे हैं और आपके अपने स्वार्थ क्या हैं? लोकतंत्र बेशक उन लोगों के लिए बेमायने है, जो आराम की जिंदगी जी रहे हैं, या जिनके हित सामाजिक निरंकुशता की विरासत से जुड़े हुए हैं। ऐसे तबकों के लिए लोकतंत्र एक उपलब्धि नहीं, बल्कि एक खतरनाक प्रक्रिया है, और जिसे नियंत्रित करना उनका उद्देश्य है। इसके उलट इस देश के उन करोड़ों लोगों के लिए जो अपनी बुनियादी जरूरतों और मूलभूत मानवाधिकारों से वंचित हैं, यह व्यवस्था पर अपनी पकड़ बनाने का जरिया है, जिससे वो बेहतर भविष्य की उम्मीद जोड़ सकते हैं। बीते साठ साल की अविध इन तबकों में भले ही धीमी गति से, मगर निरंतर बढ़ी जागरूकता का इतिहास है। भारतीय संविधान में एक व्यक्ति एक वोट और एक वोट एक मूल्य का जो सिद्धांत अपनाया गया, उसका असर सामने आने में कुछ वक्त लगा। लेकिन इस सिद्धांत ने उन समूहों को अभूतपूर्व अवसर प्रदान किया, जो जिनके पास अपना अधिकार जताने के लिए सिर्फ संख्या बल का सहारा था।
बीते दशकों में भारत की राजनीतिक संरचना के सामाजिक आधार में व्यापक बदलाव आया है। इससे उत्तरोत्तर लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया एक मजबूत परिघटना बन गई है। लेकिन यही परिघटना शासक समूहों के लिए परेशानी की वजह बनी हुई है। उनकी चिंता है कि इसे कैसे रोका जाए? संसद और राजनीति के प्रति अक्सर इन समूहों में जाहिर होने वाला अपमान भाव दरअसल इसी प्रतिक्रिया का बढ़ते कदम को बाधित करने की कोशिश की जाती है, प्रचार माध्यमों से जनतांत्रिक शक्तियों के खिलाफ प्रचार अभियान चलाया जाता है, और राजनीतिक विमर्श को भटकाने की कोशिश की जाती है। इन सबके बावजूद लोकतंत्र का कारवां आगे बढ़ता गया है।
यह कारवां इस चुनाव के साथ एक नए मुकाम पर पहुंचेगा, यह अनुमान भरोसे के साथ लगाया जा सकता है। यह मुमकिन है कि भारतीय पूंजीवाद की दो सबसे प्रमुख प्रतिनिधि पार्टियां- कांग्रेस और भाजपा- इस बार मिल कर भी लोकसभा की आधी सीटें न जीत पाएं। ऐसे में छोटी और क्षेत्रीय पार्टियां- जिनका पूंजीवाद से कोई वैचारिक मतभेद नहीं है, लेकिन जो अपने जनाधार के चरित्र की वजह से नई उभरी सामाजिक ताकतों की नुमाइंदगी करती हैं, एक महत्त्वपूर्ण हैसियत में हो सकती हैं। वाम मोर्चा के साथ मिल कर ये पार्टियां नई दिल्ली से पूरे देश और पूरी व्यवस्था को नियंत्रित करने की शासक वर्गों की इच्छा में एक अड़चन साबित हो सकती हैं। लोकतांत्रिक नजरिए से यह एक स्वागतयोग्य घटना होगी, लेकिन शासक वर्गों के लिए यह गहरी चिंता का विषय है, जिसे वो राजनीतिक अस्थिरता के भय के रूप में पेश करते हैं। सवाल है कि क्या मीडिया के लिए यह विमर्श का गंभीर मुद्दा नहीं है?
१९८० के दशक में भारत में सांप्रदायिक राजनीति का जोरदार उभार हुआ। १९९० के दशक में हालत यहां तक पहुंच गई कि धर्मनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक भारत का विचार खतरे में पड़ गया। २००४ के चुनाव में ऐतिहासिक जनादेश से यह खतरा टला। लेकिन यह खतरा आज भी उतनी ही गंभीरता से मौजूद है, क्योंकि सांप्रदायिक राजनीतिक का सामाजिक आधार और राजनीतिक स्वार्थ ना तो तब कमजोर पड़े थे और ना आज कमजोर हुए हैं। इसीलिए भारतीय जनता पार्टी लगातार एक मजबूत ताकत बनी हुई है। दरअसल, इस चुनाव में और आने वाले कई चुनावों में यह एक प्रासंगिक मुद्दा रहेगा कि भाजपा को कैसे सत्ता में आने से रोका जाए। इसके बावजूद अगर मीडिया का बड़ा हिस्सा यह घोषणा करता दिखता है कि इस चुनाव में कोई मुद्दा नहीं है, तो जाहिर है कि खुद मीडिया के अपने रुझान गहरे विचार-विमर्श का विषय हैं।
देश गहरी आर्थिक मंदी में है। लाखों लोग बेरोजगार हो गए हैं। कृषि क्षेत्र में तो संकट अब वर्षों पुराना हो चुका है। किसानों की आत्महत्याएं अब खबर नहीं बनतीं। इंडिया शाइनिंग का भ्रम टूट चुका है। खुद मनमोहन सिंह सरकार द्वारा नियुक्त अर्जुन सेनगुप्ता कमेटी ने यह तथ्य सामने रखा कि आज भी देश के ७७ फीसदी लोग हर व्यावहारिक अर्थ में गरीब हैं। अल्पसंख्यक समुदाय अपनी सुरक्षा और बुनियादी नागरिक अधिकारों के हनन को लेकर चिंतित हैं। अगर राजनीतिक दल इन्हें मुद्दा नहीं बनाते तो क्या समाज के प्रबुद्ध वर्ग का यह कर्त्तव्य नहीं है कि चुनाव जैसे मौके पर वो इन असली मुद्दों की चर्चा करें? लेकिन इन बातों की चर्चा सही संदर्भ में मीडिया में (कुछ अपवादों को छोड़ कर) कहीं देखने को नहीं मिलती। क्या यह महज एक चूक है?
यह चूक नहीं है। यह मीडिया के ढांचे से जुड़ा एक पहलू है, जिस पर जनतांत्रिक शक्तियों को अब जरूर चर्चा करनी चाहिए? आखिर मीडिया का एजेंडा कैसे तय होता है और कौन तय करता है? दरअसल किसी भी उद्यम का चरित्र कैसे तय होता है? जाहिर है, यह उसे नियंत्रित करने वाली पूंजी तय करती है। मीडिया आज एक बड़ा उद्यम है, और वह इस आम सिद्धांत से अलग नहीं है। इसीलिए अगर बौद्धिकता या प्रबुद्धता का मतलब परिस्थितियों के वस्तुगत विश्लेषण और ईमानदार निष्कर्ष से है, तो उस अर्थ में आज के दौर में मीडिया एक प्रबुद्ध माध्यम नहीं रह गया है। यह समाज के निहित स्वार्थों का प्रवक्ता बन गया है, क्योंकि ये शक्तियां ही इसे नियंत्रित करती हैं। अगर इन शक्तियों का हित असली मुद्दों को उलझाने या उन पर परदा डालने में है, तो स्पष्ट है, मीडिया अपनी तमाम रिपोर्टिंग और बहस को इसी मकसद से अंजाम देगा। इस अर्थ में मेनस्ट्रीम मीडिया वही कर रहा है, जो उसका मकसद और काम है।
ऐसे में क्या इसमें कोई आश्चर्य है कि जुलाई २००८ में अपनी सरकार के विश्वास मत के समय तमाम भ्रष्ट तरीके अपनाने और तिकड़म के बावजूद मीडिया में मनमोहन सिंह की छवि ‘स्वच्छ‘ बनी हुई है। आखिर मनमोहन सिंह नव-उदारवाद के उपकरण और भारत में अमेरिकन ड्रीम के प्रतीक हैं, जिसका फायदा देश के उच्च और उच्च मध्यम वर्ग ने खूब उठाया है। मनमोहन सिंह ने वामपंथी दलों के समर्थन से चार साल सरकार चलाने के बाद उनसे टकराव लिया, इस पर इन तबकों ने खूब तालियां पीटीं, इसलिए कि जिन वामपंथी दलों को नव-उदारवादी नीतियों के रास्ते में रुकावट माना जाता था, आखिरकार मनमोहन सिंह ने उनसे पीछा छुड़ा लिया। अब मेनस्ट्रीम मीडिया यही चाहता है कि एक ऐसी सरकार बने जो वामपंथी दलों पर निर्भर न हो
।
लेकिन भारत ऐसी इच्छाओं के दायरे से बहुत बड़ा है। लोकतंत्र का दायरा अब ऐसी इच्छाओं की पहुंच से ज्यादा बड़ा हो चुका है। आम जन की अपेक्षाएं अब दिल्ली और मुंबई में बैठ कर नियंत्रित नहीं की जा सकतीं। इसलिए १५वें आम चुनाव का परिणाम अभी अनिश्चित होने के बावजूद यह जरूर अनुमान लगाया जा सकता है कि अगली लोकसभा में देश की नई उभर रही ताकतों के प्रतिनिधियों की महत्त्वपूर्ण उपस्थिति होगी। मेनस्ट्रीम मीडिया आरामदेह ड्राइंग रूम में बैठकर देश-दुनिया की चर्चा करने वाले अपने दर्शकों और पाठकों को नई स्थितियों से भयाक्रांत कर सकता है, उन्हें खुश करने के लिेए इन स्थितियों का मजाक उड़ा सकता है, और चुनाव में कोई मुद्दा नहीं है- जैसी बातें कह कर लोकतांत्रिक प्रक्रिया की साख कम करने की कोशिश कर सकता है, लेकिन इससे देश की हकीकत नहीं बदल जाएगी। इससे लोकतंत्र का आगे बढ़ता कारवां नहीं थमेगा और न ही इससे उन वर्गों का उत्साह थमेगा, जिनक लिए लोकतंत्र की सफलता उनके बेहतर भविष्य की गारंटी है।
Saturday, April 25, 2009
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3 comments:
जानबूझ कर जनता से संबंधित मुद्दों को चुनाव से बाहर कर दिया गया है। आश्चर्य की बात तो यह कि खुद वामपंथ भी इसी में उलझा हुआ है।
यह आलेख मुझे बहुत अच्छा लगा। मैं यह जानना चाहता हूं कि मीडिया अपने दिनों में कब वापस आएगा। बुरे दिनों के बाद सबका अच्छा दिन आता है,मीडिया को कितना समय लगेगा।
यह आलेख मुझे बहुत अच्छा लगा। मैं यह जानना चाहता हूं कि मीडिया अपने दिनों sey कब वापस आएगा। बुरे दिनों के बाद सबका अच्छा दिन आता है,मीडिया को कितना समय लगेगा
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