Thursday, November 5, 2009

यह सिर्फ ध्रुवों की कहानी नहीं है

सत्येंद्र रंजन
“माओवादी अपनी लापरवाह कार्रवाइयों से जनतांत्रिक जनमत को विमुख करने वाले हरसंभव कदम उठा रहे हैं। हर गुजरते दिन के साथ वे इसे ज्यादा साफ कर देते हैं कि नक्सलबाड़ी किसान विद्रोह और कॉमरेड चारू मजूमदार की विरासत से वे कितनी दूर भटक गए हैं।”- ये भारत की कम्युनिस्ट पार्टी- मार्क्सवादी-लेनिनवादी (लिबरेशन) के मुखपत्र के संपादकीय की पंक्तियां हैं। मुखपत्र ‘लिबरेशन’ के ताजा अंक के ही एक अन्य लेख में इस बात को और विस्तार देते हुए यह टिप्पणी की गई है- “... इस बीच माओवादी अपनी हर लापरवाह अराजकतावादी कार्रवाई, किसी पुलिस अधिकारी का सिर काटने जैसे हर कदम, जन-आंदोलन को अपने खास ढंग के माओवादी सैनिक संघर्ष में बदलने की हर घटना के साथ आम लोकतांत्रिक जनमत को विमुख और विरोधी बना रहे हैं और सरकार को दमन के कड़े कदम उठाने का मौका मुहैया करा रहे हैं।”

कुछ समय पहले एक इंटरव्यू में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव प्रकाश करात ने कहा- “हालांकि वे (माओवादी) अपने को कम्युनिस्ट पार्टी कहते हैं, लेकिन उनकी विचारधारा और व्यवहार मार्क्सवाद और कम्युनिस्ट पार्टी को जिस रूप में होना चाहिए, उसके बुनियादी सिद्धांतों के खिलाफ हैं। ... वे भारत की हकीकत की पहचान नहीं कर पाते। वे कहते हैं कि भारत अभी भी अर्ध-औपनिवेशिक देश है। उनकी राजनीति बंदूक के इस्तेमाल और हिंसा पर आधारित है, जिससे निश्चित रूप से मजदूर वर्ग के आंदोलनों और जन गोलबंदी में रुकावट आती है। विवेकहीन हिंसा में शामिल हो कर, जो अधिकतर अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ होती है, वे उसी जनता के खिलाफ कार्रवाई करने में सरकार के मददगार बन रहे हैं, जिनका समर्थक होने का वे दावा करते हैं।”

चालीस से ऊपर बुद्धिजीवियों, लेखकों और कलाकारों ने एक बयान में कहा है- “हम यह गंभीरता से महसूस करते हैं कि उनके (माओवादियों) द्वारा संहार और हत्या की कार्रवाइयां करते समय माओ दे दुंग जैसी सम्मानित हस्ती के नाम का का इस्तेमाल निंदनीय है।” बयान पर दस्तखत करने वालों में इरफान हबीब, तीस्ता सीतलवा़ड़, प्रभात पटनायक, जयती घोष, डीएन झा आदि जैसे मशहूर नाम हैं।

ये बयान गृह मंत्री पी चिदंबरम या व्यापक राजनीतिक-सामाजिक सवालों पर भी सुरक्षा केंद्रित नजरिया रखने वाले विशेषज्ञों के नहीं हैं। ये उन लोगों (या शक्तियों) के बयान हैं, जो देश में जनतांत्रिक जनमत का हिस्सा हैं। आखिर इन बयानों का संदेश क्या है? संदेश यह है कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के तौर-तरीके जनतांत्रिक संघर्ष के पूरे संदर्भ को कमजोर कर रहे हैं। माओवादी भले दावा सबसे कमजोर और वंचित समूहों की तरफ से लड़ने का करते हों, लेकिन वे वास्तव में इन समूहों की मुश्किलों को बढ़ा रहे हैं। इसलिए देश की मौजूदा ठोस हकीकत के भीतर अगर इन समूहों के हितों की वकालत करनी है, तो ऐसे वामपंथी चरमपंथ का राजनीतिक विरोध जरूरी है। दरअसल, यह सभी वामपंथी औऱ जनतांत्रिक शक्तियों की जिम्मेदारी है, वे सरकार के जन विरोधी कदमों के साथ-साथ दुस्साहसी चरमपंथ के खतरों को भी जनता के सामने उजागर करें। यह बात साफ किए जाने की जरूरत है कि मौजूदा जनतांत्रिक विमर्श या संघर्षों के बीच सिर्फ सरकार और माओवादी- ये ही दो पक्ष नहीं हैं।


जबकि महाश्वेता देवी, अरुंधती राय जैसे बुद्धिजीवियों और कई नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं का विमर्श सुनें तो लगता है कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) देश में न्याय का अकेला प्रतिनिधि संगठन है। ये बुद्धिजीवी यह मांग ठीक ही उठा रहे हैं कि सरकार सेना का अपनी ही जनता के खिलाफ इस्तेमाल न करे। सरकार की बड़े पैमाने पर अर्धसैनिक बलों की तैयारी है। इस कार्रवाई में भी आदिवासी और दूसरे वंचित समूहों के नागरिक अधिकारों का हनन होगा, इसका अंदाजा सहज लगाया जा सकता है। इसलिए विकसित होते घटनाक्रम पर मानवाधिकारों में आस्था रखने वाले लोगों का चिंतित होना स्वाभाविक है।

लेकिन जनतांत्रिक जनमत का जो हिस्सा माओवादियों को जन-संघर्ष का अकेला ध्रुव मान बैठा है, वह अपनी सियासी रुमानियत में जन संघर्षों के व्यापक परिप्रेक्ष्य की अनदेखी कर रहा है। आदिवासियों व दूसरे शोषित समूहों के हित, खनिज पदार्थों की लूट के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों और सरकार की मिलीभगत, इमरजेंसी की आहट, आदि जैसी दलीलें देकर उसकी तरफ से यह संदेश देने की कोशिश की जा रही है कि माओवादी अकेली ऐसी ताकत हैं, जो शोषण के मजबूत चक्र को तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं। अर्जुन सेनगुप्ता समिति की बहुचर्चित रिपोर्ट के आंकड़ों को बार-बार दोहरा कर माओवादियों की नकारवादी अराजक राजनीति को सही ठहराने की कोशिश अक्सर उनकी चर्चाओं में होते हम देख सकते हैं।

इन बातों से सरकारों के सामने कुछ प्रश्न जरूर खड़े होते हैं, लेकिन उनसे इन सवालों के जवाब नहीं मिलते कि भारतीय व्यवस्था की मनोगत समझ के साथ की गई दुस्साहसी कार्रवाइयों से स्थितियां कैसे बदलेंगी? कोई राजनीतिक शक्ति अपने संघर्ष में मानवाधिकारों एवं मानवता के बुनियादी सिद्धांतों का हनन आखिर कैसे कर सकती है? स्कूल में जाकर बच्चों के सामने किसी शिक्षक की हत्या या किसी अपहृत पुलिस अधिकारी का गला काट देने से क्रांति का कारवां कैसे आगे बढ़ता है? यह दलील दी जा सकती है कि माओवादी ऐसी कार्रवाई उन लोगों के खिलाफ करते हैं, जिनके पुलिस का मुखबिर होने का शक होता है या जिनके खिलाफ जन-आक्रोश रहता है। लेकिन क्या आक्रोश और आवेग में की गई कार्रवाइयों को क्रांतिकारी भी कहा जा सकता है, यह सवाल आज वामपंथ के पक्ष में होने का दावा करने वाले हर शख्स के सामने है।

माओवादियों ने अपने लिए यह सुविधा गढ़ रखी है कि वे अपने किसी विरोधी से संवाद नहीं करते। उसे वे सीधे व्यवस्था का दलाल, या संशोधनवादी या बुर्जुआ विमर्श से प्रभावित लोग करार देते हैं। दरअसल, उनके लिए वे मुद्दे भी खास मायने नहीं रखते, जिनकी वजह से उनका देश के कई इलाकों में जनाधार बना हुआ है। ये मुद्दे उनके लिए महज उस व्यापक सशस्त्र संघर्ष का माध्यम हैं, जिसके जरिए वे राजसत्ता पर कब्जा जमाना चाहते हैं। इसके बीच संवाद और बहस की गुंजाइश सचमुच बहुत कम है। यहां असहमति के लिए जगह बेहद संकरी है।

दूसरी तरफ सरकार विकास की जिस समझ से चलती है और जिन आर्थिक हितों की नुमाइंदगी करती है, उसे समझना कठिन नहीं है। इसलिए उसका विरोध जरूरी है। सरकार दावा कर रही है कि इस बार उसने वामपंथी चरमपंथ से निपटने की स्थायी योजना बनाई है। इसके तहत सुरक्षा बलों की कार्रवाई के साथ-साथ प्रभावित इलाकों का विकास भी किया जाएगा। पहले की तरह सुरक्षा बल कार्रवाई कर संबंधित इलाकों से फौरन वापस नहीं आएंगे। बल्कि वे वहां टिके रहेंगे और उनके संरक्षण में उन इलाकों में सड़क, अस्पताल, स्कूल आदि बनाए जाएंगे। सरकार का मानना है कि इस योजना से यह शिकायत दूर हो जाएगी कि माओवाद विकास की कमी की वजह से फैला है। लेकिन इस रणनीति में बुनियादी गड़बड़ी है, यह बात पूरे भरोसे के साथ कही जा सकती है।

अगर माओवादियों को देश के कमजोर और वंचित समूहों का समर्थन मिलता है, तो उसकी वजह विकास की कमी नहीं, बल्कि व्यवस्था में न्याय का अभाव है। मसलन, बिहार की मिसाल लें। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भूमि सुधार पर सुझाव देने के लिए बंदोपाध्याय कमेटी बनाई। कमेटी की सिफारिशें आ गईं तो पहले उस पर टालमटोल करते रहे और आखिरकार उस पर अमल से इनकार कर दिया। भूमि सुधारों पर अमल न होना ग्रामीण इलाकों में परंपरागत शोषण और बहुत बड़ी आबादी की बदहाली का सबसे बड़ा कारण है। अगर सरकारें आज भी इसके लिए तैयार नहीं हैं, तो वे खुद को न्याय के पक्ष में नहीं दिखा सकतीं। ऐसा ही मामला आदिवासी एवं अन्य वनवासी भू-अधिकार कानून पर अमल करने में कोताही है। अरुंधती राय और अन्य बुद्धिजीवी जब यह कहते हैं कि माओवादियों के खिलाफ कार्रवाई के पीछे मुख्य मकसद खनिज पदार्थों से भरपूर इलाकों में विस्थापन विरोधी प्रतिरोध को तोड़ कर इस संपदा को बड़ी या बहुराष्ट्रीय कंपनियों को सौंपना है, तो सरकारों के ऐसे रुख की वजह से उनकी बात बहुत से लोगों को विश्वसनीय लगती है।

मगर दिक्कत यह है कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) की रणनीति, तौर-तरीकों और उनका मकसद इस विमर्श से गायब रह जाता है। व्यक्तिगत हत्या और तोड़फोड़ के जिस रास्ते पर यह पार्टी चल रही है, क्या उससे भारत की मौजूदा परिस्थितियों के बीच सचमुच किसी क्रांति को अंजाम तक पहुंचाया जा सकता है, यह सवाल ये बुद्धिजीवी नहीं पूछते। इस पार्टी ने भारत की मौजूदा व्यवस्था और उसमें वर्ग संघर्ष के बीच दोस्त और दुश्मन की जो पहचान की है, वह कितनी वस्तुगत है और कितनी मनोगत, यह सवाल भी वे नहीं उठाते। शायद वो समझते हों कि इन सवालों को अभी उठाने से सरकार का पक्ष मजबूत होगा, लेकिन वे शायद यह नहीं समझते हैं कि बगैर इस सवाल को उठाए जब वे सरकार से कार्रवाई की योजना रोकने और माओवादियों से बातचीत की मांग उठाते हैं, तो समूचे जनतांत्रिक एवं व्यापक वामपंथी दायरे में भी उसकी साख नहीं बन पाती। इसीलिए सरकार उनके ‘रोमांटिक’ होने की छवि बनाने में कहीं ज्यादा सफल हो गई है।


मुश्किल यह है कि यह पूरी चर्चा दो ध्रुवों पर सिमट कर रह गई दिखती है। एक ध्रुव पर सरकार है और दूसरे पर माओवादी। सरकार का पक्ष है कि वह सार्वजनिक-व्यवस्था की रक्षा के लिए कार्रवाई करने जा रही है और इसके लिए उसके पास लोकतांत्रिक जनादेश है। माओवादियों के हमदर्द बुद्धिजीवियों की बात का सार है कि सीपीआई (माओवादी) उन समुदायों के संघर्ष की नुमाइंदगी कर रहे हैं, जिनकी आजीविका और स्थानीय संसाधनों पर कुदरती हक खतरे में है। क्या मौजूदा हकीकत सचमुच महज दो ध्रुवों की कहानी है?

हालत ऐसी बिल्कुल नहीं है। सीपीआई (माओवादी) सारे जन संघर्षों की बात तो दूर पूरे वामपंथ की भी नुमाइंदगी नहीं करती। असल में वह पूरी माओवादी धारा की भी प्रतिनिधि नहीं है। इस धारा की कई दूसरी पार्टियां हैं, जिन्होंने पिछले चार दशक के अनुभवों से सबक सीखा है और वे आज सीपीआई (माओवादी) की तरह न तो हिंसा के लिए उत्साहित रहते हैं औऱ ना ही वैसी दुस्साहसी लाइन पर चल रहे हैं। वामपंथ की ताकतें संसदीय राजनीति में भी हैं, जिन्होंने सांप्रदायिकता और नव-उदारवाद के खिलाफ संघर्ष में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। सीपीआई (माओवादी) इन सभी शक्तियों को ‘संशोधनवादी’ मानती है और पश्चिम बंगाल में तो उसने दरअसल मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के खिलाफ ही असली युद्ध छेड़ा हुआ है।

यह रणनीति असल में देश में प्रगतिशील धाराओं और वामपंथ को कमजोर कर रही है। साथ ही हिंसा के प्रति अति उनके उत्साह और दुस्साहसी कार्रवाइयों ने व्यवस्था (यानी सरकार) को माओवादियों के असर वाले इलाकों में बड़े पैमाने पर कार्रवाई का मौका दे दिया है। तो इस कार्रवाई में नागरिक अधिकारों का जो हनन होगा, क्या उसकी कुछ जिम्मेदारी सीपीआई (माओवादी) पर भी नहीं होगी? असली सवाल यह है कि व्यवस्था में अंतर्निहित और संगठित हिंसा से क्या उसी तरह लड़ा जाना चाहिए, जैसे माओवादी लड़ रहे हैं? अगर माओवादी समझते हैं कि भारत में सशस्त्र क्रांति से राजसत्ता पर कब्जा करने का वक्त आ चुका है, तो वे बेशक यह दिवास्वप्न देख सकते हैं। लेकिन उनके असर वाले इलाकों के आम लोगों को उनकी इस रूमानियत की कीमत क्यों चुकानी चाहिए?

रूमानी ‘क्रांतिकारियों’ के समर्थक या हमदर्द बुद्धिजीवियों को भी यह जरूर समझना चाहिए कि पेचीदा सवालों की अनदेखी और हालात को महज काले एवं सफेद में चित्रित कर वंचित समूहों की पैरवी नहीं की जा सकती। सीपीआई (माओवादी) नकारवादी अराजकता के रास्ते पर रही है। सरकार की जनतांत्रिक साख पर सवाल उठते वक्त इस खतरनाक रास्ते की आलोचना भी जरूर होनी चाहिए। वरना, हम दो में से किसी एक ध्रुव पर सिमटने को मजबूर हो जाएंगे और इनकी लड़ाई के बीच जन-अधिकारों की लड़ाई के कहीं पीछे छूट जाएगी।

इसीलिए देश के वाम-जनतांत्रिक समुदाय के सामने आज यह एक बड़ी चुनौती है कि जनतांत्रिक विमर्श को महज सरकार और माओवादियों के ध्रुवों में समेटने की कोशिशों के प्रति वह जागरूक हो और इसके खतरों से जनता को अवगत कराए। और इसके लिए यह जरूरी है कि सीपीआई (माओवादी) भारत में सभी जनतांत्रिक शक्तियों की बात तो दूर, माओवादी-नक्सलवादी धारा की भी अकेली प्रतिनिधि नहीं है, इस बात को खुल कर कहा जाए।

2 comments:

अफ़लातून said...

ओड़िशा में खनन विरोधी आन्दोलन से भाकपा(माओवादी) का कोई सम्बन्ध नहीं है । यह जरूर है कि माओवादियों के दमन के नाम पर खनन विरोधी आन्दोलनकारियों पर जुल्म ढाये जायेंगे।
हिंसा - अहिंसा की बहस को छोड़कर भी माओवादी बतायें कि क्या वे मौजूदा चीन के पूरी तरह विरुद्ध हैं?
माकपा और लिबरेशन अपने प्रस्तावों में चीन की पूंजीवादी नीतियों का विरोध नहीं करते।
माओ के सपने के समाज से भटकने के लिए सिर्फ़ कुछ नेताओं को जिम्मेदार मान लेने से भी काम नहीं चलेगा।

vidrohi said...

aapne bahut sahi likha hai. Main to inko MAOWADI nahi kehta.In bhatke huye logon ko main MARO-WADI kahta hun.good post