Saturday, March 28, 2009

भाजपा से और क्या उम्मीद?


सत्येंद्र रंजन
हरीला भाषण देने के लिहाज से वरुण गांधी भारतीय जनता पार्टी का अकेला चेहरा नहीं हैं। ना ही पहली बार राजनीतिक या चुनावी मंच से एक समुदाय विशेष के खिलाफ वैसी बातें कही गईं, जो वरुण गांधी के मुंह से पूरे देश ने सुना। नरेंद्र मोदी अपने ऐसे ही भाषणों की वजह से भाजपा के चमकते सितारे हैं। और योगी आदित्यनाथ, उनके गुरु महंत अवैद्यनाथ, उमा भारती, ऋतंभरा जैसे नामों की शोहरत वैसी ही भाषा की वजह से रही है। बल्कि अगर रामरथ यात्रा के दिनों को याद किया जाए, तो लालकृष्ण आडवाणी के कई भाषण उस श्रेणी में रखे जा सकते हैं। और २००२ में गोवा में दिया अटल बिहारी वाजपेयी का भाषण भी अभी लोगों को भुला नहीं है। इन सभी भाषणों में सुर की ऊंचाई और शब्दों के चयन का फर्क हो सकता है, लेकिन उनकी विषयवस्तु में एक ही बात झलकती है।

इसलिए वरुण गांधी ने जो कहा, उसमें कोई नई बात नहीं है। ना ही ये ऐसा पहला मामला है। अगर इस प्रकरण में कोई नई बात है तो वो यह कि इस बार भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था की संस्थाओं ने जिम्मेदारी की ज्यादा भावना के साथ प्रतिक्रिया दिखाई। चुनाव आयोग ने भाजपा को सलाह दी कि वो वरुण गांधी को उम्मीदवार न बनाए और इलाहाबाद हाई कोर्ट ने इस मामले में दर्ज एफ़आईआर को रद्द करने की अर्जी पहली ही सुनवाई में ठुकरा दी। दिल्ली हाई कोर्ट से अग्रिम जमानत की अवधि बढ़ने की उम्मीद न देखते हुए वरुण गांधी ने ये याचिका ही वापस ले ली।

इसके बाद वरुण गांधी और भाजपा ने नफरत फैलाने के आरोप का राजनीतिक लाभ उठाने की रणनीति पर चलना शुरू कर दिया है। वरुण गांधी के साथ पूरा संघ परिवार खड़ा है। इनमें उन संगठनों का जिक्र फिलहाल छोड़ देते हैं, जिनका कोई लोकतांत्रिक या संवैधानिक उत्तरदायित्व नहीं हैं। लेकिन एक वैध और पंजीकृत राजनीतिक दल के रूप में भाजपा इन जवाबदेहियों बच नहीं सकती। और भाजपा का दोहरापन फिर से सबके सामने है। उसका कहना है कि वरुण गांधी ने अगर वैसा कहा तो पार्टी उससे सहमत नहीं है, लेकिन उसे तमाम परिस्थितिजन्य सबूतों पर भरोसा नहीं है। चुनाव आयोग और पहली नजर में हाई कोर्ट को जो सच लगा है, उसके पीछे वह पूर्वाग्रह देखती है। इसलिए वह न सिर्फ वरुण गांधी को उम्मीदवार बनाए रखेगी, बल्कि वरुण गांधी, भले ही अघोषित रूप में, लेकिन अब पार्टी के स्टार प्रचारकों का हिस्सा बन जाएंगे।

संवैधानिक संस्थाओं के अनादर की इससे बड़ी मिसाल और क्या हो सकती है? लेकिन यह भी कोई पहली बार नहीं है। इन संस्थाओं के प्रति अपमान का भाव भाजपा की पुरानी पहचान है। बल्कि भारतीय संविधान में, जिसकी मूल भावना लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष है, भाजपा की आस्था पर सवाल हैं। भाजपा जब केंद्र की सत्ता में आई तो उसके पास अपना बहुमत नहीं था, इसके बावजूद उसने भारतीय संविधान के अमल की समीक्षा के लिए एक समिति बना दी। उस समिति के पीछे छिपा एजेंडा दरअसल किसी से छिपा नहीं था। यहां यह भी याद कर लेने के लायक है, जब बाबरी मस्जिद ध्वंस से देश में सांप्रदायिकता की लहर आई हुई थी, तब विश्व हिंदू परिषद के नेता स्वामी वामदेव ने भाजपा नेताओं की पूरी संगति में भारत के वैकल्पिक संविधान का मसविदा जारी किया था। उसके मुताबिक भारत को हिंदू राष्ट्र घोषित किया जाना था और हिंदू राष्ट्र की राज्य-व्यवस्था कैसे चलेगी, इसका जिक्र था।

यह परियोजना तभी पूरी हो सकती है, जब भाजपा अपने बहुमत के साथ सत्ता में आए। और यह तभी मुमकिन होगा, जब हिंदुत्व के नाम पर देश के बहुसंख्यक समुदाय की उग्र गोलबंदी हो। इसलिए कि भाजपा के पास कभी ऐसे सामाजिक-आर्थिक कार्यक्रम नहीं रहे, जिसके आधार पर विभिन्न वर्गों और समुदायों का वह ऐसा गठबंधन बना सके, जिससे सत्ता में पहुंचना मुमकिन हो। भाजपा ने अब तक जो राजनीतिक गठबंधन बनाए हैं, उसके पीछे कोई कार्यक्रम या विचार नहीं रहा। यह सिर्फ वोट के फौरी समीकरणों पर आधारित रहा है। ऐसे समीकरण भाजपा भविष्य में भी बना सकती है, लेकिन इससे वह अपना असली मकसद हासिल नहीं कर सकेगी।

इसलिए उग्र हिंदुत्व, अल्पसंख्यक विद्वेष और दक्षिणपंथी आर्थिक नीतियों की वकालत पार्टी की स्वाभाविक रणनीति है। यह काम वरुण गांधी जैसे वक्ताओं के साथ ही किया जा सकता है। यानी ऐसे भाषणों के जरिए जिनसे इंसान की निकृष्टतम भावनाओं को भड़काया जाए और लोगों को मार-काट करने के लिए उकसाया जाए। विनाश की यह वही रणनीति है, जिसका दुनिया को नाजीवाद और फासीवाद के दौर में अनुभव हो चुका है। दरअसल ये प्रवृत्तियां मानव सभ्यता के विकास का प्रतिवाद (एंटी-थिसिस) हैं और इसीलिए इसके खतरे को हर व्यक्ति को समझना चाहिए।

भाजपा को एक समय देश के एक वरिष्ठ नेता ने असभ्य पार्टी कहा था। अगर उपरोक्त संदर्भ को ध्यान में रखा जाए, तो इस कथन से सहज ही सहमत हुआ जा सकता है। सभ्यता एक ऐसा क्रम है जो मनुष्य को उसकी आदिम प्रवृत्तियों से ऊंचा उठाती है। वह मतभेदों और आपसी विरोध को निपटाने के लिए खून-खराबे और भौतिक लड़ाई के बजाय वैचारिक संघर्ष और विचार-विमर्श को तरीका बनाने के लिए प्रेरित करती है। लोकतांत्रिक राजनीति के विकास के साथ ऐसे संघर्षों और विरोध की अभिव्यक्ति या समाधान का सबसे बड़ा जरिया वोट बन गया है। यही लोकतंत्र और आधुनिक सभ्यता का सबसे बड़ा योगदान है।

सवाल है कि जिन ताकतों या दलों की इस प्रक्रिया में आस्था न हो, उन्हें क्या कहा जा सकता है? जो पार्टी जहरीली जुबान के बावजूद वरुण गांधी का बचाव करती हो, या अपने दंगाई इतिहास के बावजूद मायाबेन कोडनानी जिस पार्टी की बड़ी नेता बनी रहें, उसे किस परिभाषा के तहत सभ्य या लोकतांत्रिक कहा जा सकता है? भाजपा नेताओं से इन सवालों के जवाब की उम्मीद नहीं की जा सकती। दरअसल, उनसे विचार विमर्श की किसी प्रक्रिया में हिस्सा लेने की उम्मीद नहीं की जा सकती। उनसे सिर्फ जुमलेबाज़ी, गंभीर से गंभीर सवालों का मखौल उड़ाने और गलाफाड़़ शोर की ही अपेक्षा की जा सकती है।

लेकिन राहत की बात यह है कि भारतीय लोकतंत्र लगातार परिपक्व हो रहा है। जिन बातों पर पहले संस्थागत रूप से प्रतिक्रिया नहीं होती थी, या हलकी प्रतिक्रिया होती थी, वहां भी अब एक रुख लिया जा रहा है। इसीलिए वरुण गांधी जमानत न लेने या गिरफ्तारी देने के तमाम ड्रामे के बावजूद शहादत का दर्जा नहीं पा सकते। न ही उनकी पार्टी और उसके एजेंडे के लिए संभावनाएं उज्ज्वल नजर आती हैं। उन सबका खतरा अब भी है, मगर अब उस खतरे के बारे में कहीं ज्यादा जागरूकता है। यह भारतीय लोकतंत्र एवं हमारी आज की सभ्यता के लिए उम्मीद की एक बड़ी किरण है।

Saturday, March 21, 2009

तीसरे मोर्चे से नफ़रत क्यों?


सत्येंद्र रंजन
म चुनाव से ठीक पहले तीसरे मोर्चे के एक खास शक्ल ग्रहण कर लेने से न सिर्फ कांग्रेस और भाजपा के रणनीतिकारों के लिए परेशानी खड़ी हो गई है, बल्कि देश की राजनीतिक असलियत और सामाजिक संरचना से नावाकिफ़ जानकार भी बौखलाए हुए लगते हैं। मीडिया की चर्चाओं में अक्सर तीसरे मोर्चे को अस्थिरता की जड़ बताया जा रहा है। यहां तक कि इसमें शामिल दलों को ब्लैकमेलर और अपनी ताकत से ज्यादा मलाई खाने की हसरत रखने वाले नेताओं का जमावड़ा भी कहा जा रहा है। इसी के बीच वह सुझाव भी फिर सामने गया है, जो भारतीय प्रभु वर्ग की बहुत पुरानी ख्वाहिश है। यानी यह कि १५वें आम चुनाव का नतीजा आने के बाद कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी को आपस में मिलकर सरकार बनाने की संभावना पर विचार करना चाहिए। धर्मनिरपेक्षता के कुछ स्वघोषित पैरोकार यहां तक कह चुके हैं, तीसरे मोर्चे की ब्लैकमेलिंग देखने के बजाय वो पांच साल का भाजपा शासन सहना पसंद करेंगे।

ये बातें इस हकीकत को मानने के बावजूद कही जा रही हैं कि कांग्रेस और भाजपा की ताकत लगातार गिरती जा रही है, पिछले आम चुनाव में दोनों दलों ने अपने वोट प्रतिशत गवाएं थे और इस बार यह मुमकिन है कि ये दोनों दल पिछले बार की सीटों की साझा संख्या २८३ (कांग्रेस १४५ और भाजपा १३८) से काफी कम पर सिमट जाएं। इस बार यह संभव है कि लोकसभा में आधे से ज्यादा सीटें कांग्रेस और भाजपा के अलावा दलों के पास हों। तो जो दल देश के आधे से ज्यादा जनमत की नुमाइंदगी करने की स्थिति में हैं, आखिर उनके प्रति यह हिकारत का भाव क्यों? आखिर इसके पीछे कैसी मानसिकता है? आखिर यह सोच क्यों है कि भले बाकी दलों के पास ज्यादा सीटें हों, लेकिन कांग्रेस या भाजपा में से किसी एक के नेतृत्व में ही सरकार बनानी चाहिए?

यह दरअसल देश में उत्तरोत्तर लोकतंत्रीकरण से शासक वर्गों में पैदा हुई बेचैनी है। इस लोकतांत्रिक प्रक्रिया से उभर रही नई ताकतों, नई जन आकांक्षाओं और नए वर्ग समूहों से आ रहे नेताओं पर यह लगाम कसने की एक चाहत है। शासक वर्गों को अभी भी यह लगता है कि बीते वर्षों में कांग्रेस और भाजपा जैसी पार्टियां जो उनके हितों के अनुरूप पूरी तरह ढल चुकी हैं, उनके जरिए वो जनतांत्रिक परिघटना को नियंत्रित कर सकते हैं। इस मकसद में इन वर्गों की पहली पसंद निश्चित रूप से भाजपा है, जो सांप्रदायिक, भड़काऊ और कंजरवेटिव एजेंटे से आम जन को उनके असली मुद्दों से ज्यादा आसानी से भटका सकती है। मगर कांग्रेस ने आम आदमी की बात करते हुए भी प्रभु वर्ग के हितों के मुताबिक शासन करने की कला में जैसी महारत हासिल कर रखी है, उससे इन वर्गों की वह स्वाभाविक रूप से दूसरी पसंद है।

इस कथन से यह भ्रम बिल्कुल नहीं होना चाहिए कि कांग्रेस और भाजपा के अलावा बाकी दलों ने मौका मिलने पर शासन का कोई अलग चरित्र दिखाया है या अलग नीतियां अपनाई हैं। वामपंथी दलों को छोड़ दें तो बाकी दलों ने वैकल्पिक नीतियों के मामले पूरा दीवालियापन ही दिखाया है और उनके नेताओं का आचार-व्यवहार अगर बदतर नहीं तो कांग्रेस और भाजपा के नेताओं से बेहतर भी नहीं रहा है। १९८० और ९० के दशक में उनसे देश को जैसी नई दिशा की उम्मीद थी, वह अब टूट चुकी है।

लेकिन इन दलों और उनके नेताओं के उभार का महत्त्व वैकल्पिक नीतियों और अलग राजनीतिक संस्कृति के संदर्भ में नहीं है। उनका महत्त्व इस संदर्भ में है कि ‘एक व्यक्ति, एक वोट और हर वोट के समान मूल्य’ के जिस सिद्धांत पर हमारे संविधान में संसदीय लोकतंत्र को अपनाया गया, उसने आम जन में अपने अधिकारों एवं सम्मान की अभूतपूर्व आकांक्षा जगाई है और इससे बीते दशकों में उनका प्रतिनिधित्व करने वाली नई राजनीतिक ताकतें उभर कर सामने आई हैं। पहले राज्यों की सत्ता पर अधिकार जताने के बाद अब ये ताकतें देश की सत्ता पर अपना प्रभाव डाल सकने की स्थिति में हैं।

बहुत सी अलग राजनीतिक शक्तियों का उदय तो इसलिए भी हुआ कि उन्हें समाहित करने की क्षमता कांग्रेस पार्टी बरकरार नहीं रख सकी, जो कभी सभी तरह के विचारों और हितों का प्रतिनिधित्व करती थी। आज कांग्रेस का ढांचा ऐसा है कि उसमें किसी नए नेता के लिए अपने जनाधार और प्रतिभा के बल पर जगह बनाना और उम्मीदवारी का टिकट पाना मुश्किल है। वंशवाद और ऊपर से थोपे गए नेताओं की वहां ऐसी जकड़न है कि किसी इलाके की किसी नई ताकत के पास एकमात्र रास्ता यही बचता है कि वह अपनी अलग शुरुआत करे। इस परिघटना से कांग्रेस सिकुड़ती गई, जबकि नई ताकतें राजनीतिक फलक पर अपनी जगह बनाती गई हैं।

कांग्रेस को २००४ में अपनी इस विफलता की स्थितियों में सुधार का ऐतिहासिक मौका मिला। इससे वह नए भारत की लोकतांत्रिक एवं संघीय उम्मीदों के मुताबिक नई नीतियों और कार्यक्रम को अपनाते हुए एक वाम झुकाव रखने वाले धर्मनिरपेक्ष गठबंधन का स्वाभाविक नेता बन सकती थी। मगर प्रभु वर्ग की सेवा के अति उत्साह में उसने ये मौका गवां दिया। उसने नीतियों के सवाल पर वामपंथी दलों से विश्वासघात किया। इस क्रम में उसने अपना नैतिक कद गंवाया और साथ ही अपने नेतृत्व वाले यूपीए गठबंधन का राजनीतिक औचित्य भी खत्म कर दिया। ऐसे में क्या यह अस्वाभाविक है कि अब उसके सहयोगी दल उसे अपमानित कर रहे हैं?

भाजपा अपनी बुनियादी सोच में लोकतंत्र, संघवाद और हर प्रगतिशील मूल्य के खिलाफ है। वह विभिन्न दलों से गठबंधन सिर्फ गैर-कांग्रेसवाद के राजनीतिक समीकरण और मजबूरियों की वजह से बना सकी। लेकिन उड़ीसा की मिसाल अब यह जाहिर कर रही है कि यह समीकरण और मजबूरियां भी भाजपा के नेतृत्व में गठबंधन कायम रहने की गारंटी नहीं है।

इन स्थितियों ने लोकसभा चुनाव के परिदृश्य को बेहद अनिश्चित कर दिया है। इस अनिश्चितता से प्रभु वर्गों में बेचैनी लाजिमी है और यही बौखलाहट मीडिया में उनके प्रवक्ता टीकाकारों के जरिए जाहिर हो रही है। लेकिन उनकी टिप्पणियों में देश की बदलती असलियत की नासमझी भी सामने आ रही है, और यह समझ सकने की अक्षमता भी कि समय की धारा अब उनके साथ नहीं है। नया जनादेश दरअसल नए भारत की नई आकांक्षाओं को प्रतिबिंबित करेगा।

Wednesday, March 4, 2009

क्रिकेट पर हमला क्यों?


सत्येंद्र रंजन
पाकिस्तान में श्रीलंकाई क्रिकेटरों पर हमले पर भावुक होकर सोचने के कई बिंदु हैं। मसलन, अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट के १३२ साल के इतिहास में यह पहला मौका है, जब क्रिकेट खिलाड़ियों को निशाना बनाया गया। दरअसल १९७२ के म्युनिख ओलिंपिक में ११ इजराइली एथलीटों की हत्या के बाद यह पहला मौका है, जब खिलाड़ी इस तरह के घातक आतंकवादी हमले का निशाना बने। यह बात किसी विवेकशील व्यक्ति के समझ के परे है कि किसी आतंकवादी संगठन को आखिर खिलाड़ियों से क्या दुश्मनी हो सकती है? खिलाड़ी किसी देश या समुदाय की नीति बनाने के काम से नहीं जुड़े होते हैं। वे अपने हुनर से टीम में जगह बनाते हैं और उनकी प्रतिभा का सौंदर्य पूरी मानवता की साझा विरासत होता है।

बल्कि सामाजिक मनोविज्ञान के जानकारों का कहना है कि प्रतिद्वंद्विता या शत्रुता का भाव रखने वाले समाजों या देशों को खेल स्वस्थ प्रतिस्पर्धा का बेहतरीन मौका उपलब्ध कराते हैं। खेल के मैदान पर होड़ से मन का गुबार निकल जाता है, जबकि इसमें कोई हिंसा या नुकसान नहीं होता। खुद एक दशक पहले तक भारत और पाकिस्तान के क्रिकेट मुकाबले ऐसी प्रतिस्पर्धा की मिसाल रहे हैं।

अभी हाल तक जब कई देशों की टीमें पाकिस्तान दौरे पर जाने से इनकार करती थीं, तो पाकिस्तान और असल में हर जगह बहुत से लोगों का यह तर्क होता था कि आज तक कभी खिलाड़ियों को निशाना नहीं बनाया गया है, इसलिए इन टीमों का डर निराधार है। ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और इंग्लैंड जैसी टीमों की ऐसी आशंकाओं के पीछे नस्लीय सोच के अवशेष भी तलाशे जाते थे। इस साल जनवरी में जब भारतीय टीम पाकिस्तान नहीं गई तो इन हलकों में माना गया कि इसके पीछे वजह हमलों के अंदेशे से ज्यादा दोनों के बीच मुंबई पर हमले के बाद पैदा हुआ तनाव है। दौरे को हरी झंडी न देने के भारत सरकार के कदम को एक राजनीतिक फैसला माना गया। यह जुमला एक बार फिर दोहराया गया कि राजनीति को खेल से अलग रखा जाना चाहिए।

मगर लाहौर में १२ आतंकवादियों ने श्रीलंका के क्रिकेटरों पर गोलीबारी कर इन सारी दलीलों को एक साथ ध्वस्त कर दिया है। सौभाग्य से श्रीलंका के प्रतिभाशाली क्रिकेटर मामूली चोट के साथ ही बच गए, लेकिन आतंकवादियों की गोलियों से क्रिकेट को पहुंचा जख्म बहुत गहरा है। इसके परिणाम संभवतः क्रमिक रूप से जाहिर होंगे। पाकिस्तान २००८ में एक भी टेस्ट मैच नहीं खेल सका। दरअसल, श्रीलंकाई टीम ने वहां जाकर खेलने का जब जोखिम उठाया तो पाकिस्तानी टीम १४ महीनों के बाद किसी टेस्ट मैच में उतरी। इस हमले के बाद पाकिस्तान का यह इंतजार अब कई वर्ष लंबा हो सकता है। यह भी लगभग तय है कि उसे २०११ के विश्व कप की मेजबानी से हाथ धोना पड़ेगा।

लेकिन यह असर सिर्फ पाकिस्तान तक ही सीमित नहीं रहने वाला है। लाख टके का सवाल यह है कि क्या ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, दक्षिण अफ्रीका और इंग्लैंड जैसी टीमें अब भारतीय उपमहाद्वीप में आने को तैयार होंगी? गौरतलब है कि मुंबई हमले के बाद बड़ी मुश्किल से इंग्लैंड की टीम भारत आकर खेलने को राजी हुई थी, लेकिन तब यह भ्रम कायम था कि आतंकवादी खिलाड़ियों पर हमला नहीं करते हैं। अब यह भ्रम टूट चुका है। भारत भले स्थिर समाज हो और यहां की सुरक्षा व्यवस्था अपेक्षाकृत भरोसेमंद हो, लेकिन विदेशी खिलाड़ी इसे बेखौफ होकर खेलने के लायक मानेंगे, यह सवाल लंबे समय तक बना रहेगा। दस अप्रैल से शुरू होने वाली २०-२० क्रिकेट की इंडियन प्रीमियर लीग का कार्यक्रम अब खतरे पड़ चुका है। यहां यह गौरतलब है कि विश्व क्रिकेट आज भारतीय बाजार पर निर्भर है और भारतीय उपमहाद्वीप आज क्रिकेट का मुख्य केंद्र है। अगर इस केंद्र और बाजार को झटके लगते हैं तो अतंरराष्ट्रीय खेल के रूप में क्रिकेट के अस्तित्व पर सवाल खड़ा हो सकता है।

पाकिस्तान को अभी हाल तक क्रिकेट का ब्राजील कहा जाता था। इसलिए कि ब्राजील में जैसे फुटबॉल के कुदरती हुनर वाले खिलाड़ी पैदा होते हैं, वैसे ही क्रिकेटर पाकिस्तान पैदा करता था। बिना किसी स्थापित सिस्टम के उफनती प्रतिभा की बदौलत उभरे उन क्रिकेटरों ने न सिर्फ अपना और अपने देश का नाम रोशन किया, बल्कि दुनिया भर के क्रिकेट प्रेमियों का भरपूर मनोरंजन किया। लेकिन क्रिकेट की यह नर्सरी आज खतरे में है। अगर वहां दुनिया की टीमें नहीं आएंगी, क्रिकेट की स्पर्धाएं नहीं होंगी तो आखिर किन रोल मॉडल्स को सामने रख कर नई प्रतिभाएं उभरेंगी?

पाकिस्तान लंबे समय से आतंकवाद की गहरी मार झेल रहा है। यह वो आतंकवाद है, जिसे पैदा करने में खुद पाकिस्तान के सत्ताधारी एक दौर में अमेरिका के सहभागी बने। अमेरिका का मकसद अफगानिस्तान से सोवियत फौज को हटाना था, तो पाकिस्तान उन्हीं मुजाहिदीन के जरिए भारत को हजार जख्म देकर खून बहाते हुए कश्मीर पर कब्जा करना चाहता था। अमेरिका का पहला मकसद तो पूरा हुआ, मगर अफगानिस्तान उन्ही नीतियों की वजह से जैसा नासूर बन गया, उसे वह आज भी भुगत रहा है। पाकिस्तान ने भारत का खून जरूर बहाया, लेकिन एक उदार और आधुनिक समाज के रूप में उसके उभरने की संभावना पर आज आतंकवाद का वह भस्मासुर हमले बोल रहा है। स्वात घाटी लेकर अब क्रिकेट तक की खूबसूरती को ये धर्मांध ताकतें नष्ट कर रही हैं।

जाहिर है, पाकिस्तान के आम लोगों के लिए यह जागने का वक्त है। पाकिस्तान आतंकवाद का अड्डा बना हुआ है, इस सच को अब वो सिर्फ अपनी कीमत पर ही झुठला सकते हैं। इसलिए कि दुनिया इस सच से वाकिफ है और इससे निपटने के लिए प्रभावित देश अपने ढंग से तैयारी कर रहे हैं। अगर पाकिस्तान में आज भी कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि श्रीलंकाई क्रिकेटरों पर हमला भारत ने कराया, तो पाकिस्तान के भविष्य के बारे में सोच कर उनसे सिर्फ सहानुभूति ही रखी जा सकती है।

बहरहाल, यह स्थिति भारत के नीति-निर्माताओं के लिए भी एक बड़ी चुनौती है। उन्हें यह सोच कर खुश नहीं होना चाहिए कि आखिर उनकी बात सच साबित हुई। चुनौती आतंकवाद को परास्त करने की है। इसे भारत बनाम पाकिस्तान का रूप नहीं देना चाहिए। बल्कि पाकिस्तान के जिस किसी हिस्से में आतंकवाद से लड़ने की इच्छा नजर आए, उसे प्रोत्साहित करना और आतंकवाद के खिलाफ संघर्ष में उसे अंतरराष्ट्रीय बिरादरी का सहयोगी बनाना ही इस समय सबसे सही नीति हो सकती है।