Tuesday, February 2, 2010

क्योंकि बीच का रास्ता नहीं होता


सत्येंद्र रंजन

राक हुसैन ओबामा की चमक सिर्फ एक साल में फीकी पड़ गई है। उनके ‘येस वी कैन’ (यानी हां हम कर सकते हैं) के नारे ने अपना वो जादुई असर खो दिया है, जिसकी ताकत से २००८ में पूरा अमेरिका झंकृत हो उठा था। इस बात के संकेत उनकी लोकप्रियता की गिरती दर से भी मिल रहे थे, लेकिन २० जनवरी को ओबामा और उनकी डेमोक्रेटिक पार्टी को इस कठोर हकीकत का सामना एक चुनावी नतीजे के रूप में भी करना प़ड़ा। उस दिन ओबामा ह्वाइट हाउस में अपने प्रवेश की पहली सालगिरह मना रहे थे और उसी रोज मैसाचुसेट्स से सीनेट के उपचुनाव का नतीजा आया। ये वो सीट है, जो करीब साढ़े चार दशक से डेमोक्रेटिक पार्टी के पास थी। वैसे भी मैसाचुसेट्स उदार मान्यताओं का वाला राज्य माना जाता है, इस लिहाज से डेमोक्रेट्स का गढ़ रहा है। यह सीट एडवर्ड केनेडी की थी, जिनका पिछले साल कैंसर की वजह से निधन हो गया। जाहिर है, इस हार से डेमोक्रेटिक पार्टी हिल गई है।

इसका असर ओबामा के पहले स्टेट ऑफ द यूनियन संबोधन पर दिखा। ओबामा ने मैसाचुसेट्स के उपचुनाव नतीजे से संभवतः यह संदेश ग्रहण किया है कि देश को आर्थिक मंदी से निकालने के उनके प्रयासों से लोग संतुष्ट नहीं हैं। इसलिए उनके इस भाषण पर सबसे ज्यादा यही मुद्दा छाया रहा। वे यह भरोसा दिलाने की कोशिश में जुटे नजर आए कि मंदी का सबसे बुरा दौर गुजर गया है और अब हालत सुधर रही है तो इसका असर रोजगार पर भी जल्द ही देखने को मिलेगा। ओबामा ने कहा- “लोगों को काम नहीं मिल रहा है। उन्हें चोट पहुंच रही है। उन्हें हमारी मदद की जरूरत है और मैं चाहता हूं कि बिना देर किए रोजगार विधेयक मेरी मेज पर आए। २०१० में नौकरियों पर ही हमारा ध्यान केंद्रित होना चाहिए।” उन्होंने ध्यान दिलाया कि प्रतिनिधि सभा ने रोजगार विधेयक को पास कर दिया है और सीनेट से भी ऐसा ही करने की अपील की। अमेरिका में इस वक्त बेरोजगारी तकरीबन १८ फीसदी है। इसका कुल असर इससे भी बड़ी आबादी पर है। तो ओबामा ने निशाना आउटसोर्सिंग पर भी साधा। उन कंपनियों को टैक्स रियायत पर रोक का एलान किया जो नौकिरयां आउटसोर्स कर रही हैं। जाहिर है, भारत जैसे देश के लिए यह बड़ी खबर बनी है।

बहरहाल, अब सवाल यह उठाया जा रहा है कि अगर ओबामा नौकरियों की समस्या हल करने में कुछ कामयाब हो जाते हैं तो क्या इससे वे अपना खो रहा रुतबा दोबारा हासिल करने में सफल रहेंगे? डेमोक्रेटिक पार्टी की मुख्य चिंता इस साल नवंबर में होने वाले कांग्रेस (संसद) के चुनाव हैं, जिसमें अभी उसका भारी बहुमत है, लेकिन अगर राजनीति मैसाचुसेट्स के रास्ते पर चली तो नवंबर में कांग्रेस की तस्वीर पूरी तरह पलट सकती है। डेमोक्रेट सांसद इसी संभावना से डरे हुए हैं और कम से कम दो सीनेटरों ने तो चुनाव न लड़ने का भी एलान कर दिया है। दूसरी तरफ पार्टी के दक्षिणपंथी झुकाव वाले सांसद हैं, जो यह दलील देने लगे हैं कि ओबामा की सोशलिस्ट छवि पार्टी को नुकसान पहुंचा रही है, इसलिए वे स्वास्थ्य देखभाल के मुद्दे पर ओबामा की पहल पर अब ब्रेक लगाना चाहते हैं। ऐसी आम धारणा है कि ओबामा के लिए इस ऐतिहासिक पहल को अंजाम तक पहुंचाना अब बेहद मुश्किल होगा। इसकी एक वजह तो यह है कि मैसाचुसेट्स के नतीजे के बाद सीनेट में डेमोक्रेटिक पार्टी के साठ सदस्य नहीं रहे, जो फिलिबुस्टर (विधायी व्यवधान) से किसी बिल को बचाने के लिए जरूरी होते हैं। दूसरी वजह यह है कि बहुत से डेमोक्रेट सांसद अब अपनी सीट बचाने के लिए दक्षिणपंथी वोटरों को लुभाने की रणनीति में जुटेंगे और इस मकसद से हेल्थ केयर विधेयक के खिलाफ रुख कर लेंगे।

चुनाव अभियान के दौरान ओबामा ने जो परिवर्तन की समां बांधी थी, अपने शासलकाल के पहले साल में उसे व्यवहार में उतारने के लिहाज से हेल्थ केयर उनका अकेला बड़ा प्रयास रहा है। अगर यह कानून बन गया तो तीन करोड़ साठ लाख अमेरिकी नागरिकों को स्वास्थ्य देखरेख की सुविधा मिल पाएगी। इसके अलावा सभी नागरिकों को बिना रोग के उनके पूर्व इतिहास को देखे स्वास्थ्य बीमा की सेवा मिल सकेगी। प्रतिनिधि सभा ने इस विधेयक का अपेक्षाकृत ज्यादा प्रगतिशील प्रारूप पास किया। सीनेट ने उसके प्रावधानों में कई ढिलाई ला दी। अब इन दोनों बिलों को मिलाकर सहमति का बिल तैयार होना था। अगर सीनेट में डेमोक्रेटिक पार्टी के साठ सदस्य बरकरार रहते तो आशा थी कि प्रतिनिधि सभा वाले प्रारूप के ज्यादातर प्रावधान सहमति के विधेयक में शामिल किए जाते। लेकिन अब यह मुमकिन नहीं दिख रहा है और इस बिल के कट्टर समर्थक भी यह कहने लगे हैं कि सीनेट से पास विधेयक पर ही सहमति बनाकर इसे अब पास करा लिया जाना चाहिए, वरना जितना संभव है, वह भी टालमटोल की विधायी प्रक्रियाओं में उलझ जाएगा।

तो यह वाशिंग्टन के राजकाज को बदलने के ओबामा के नारे, और इसके लिए उनके येस वी कैन के संकल्प की परिणति है! आखिर ऐसा क्यों हुआ? गौरतलब है कि ओबामा की जीत एक साधारण राजनीतिक घटना नहीं थी- या कम से कम उसे ऐसा माना नहीं गया था। नवंबर २००८ में जब वे अमेरिका के राष्ट्रपति चुने गए तो दुनिया भर के प्रगतिशील लोगों ने इसका जश्न मनाया। इसे इंसानियत की एक ऊंची छलांग माना गया। न सिर्फ अमेरिका के काले समुदाय के लोगों, बल्कि बाकी दुनिया में भी अनगिनत लोगों की आंखें तब खुशी से भर आई थीं। यह एक ऐतिहासिक न्याय की घड़ी थी। रंगभेद से दागदार अमेरिका ने जैसे ओबामा को राष्ट्रपति चुन कर एक प्रायःश्चित किया और दुनिया इस यज्ञ में शामिल हुई। बहरहाल, विजय एवं उत्साह के उन क्षणों में भी ऐसे लोगों की कमी नहीं थी, जो यह समझ रहे थे कि यही ओबामा का चरमोत्कर्ष है। तब काले समुदाय की एक बुजुर्ग महिला ने भीगी आंखों के साथ मीडिया से कहा था- अब ओबामा के सामने विफलता का रास्ता है और उनकी हर नाकामी का इस्तेमाल काले समुदाय की अयोग्यता साबित करने के लिए किया जाएगा। ऐसा होगा या नहीं, यह तो तय है कि पिछले एक साल में विफलता की ढलान पर ओबामा तेजी से फिसलते दिखे हैं।

आखिर क्यों? यह महज सतही समझ है कि ऐसा उनसे अति अपेक्षाएं जोड़ लेने की वजह से हुआ। हकीकत यह है कि अगर लोगों ने उनसे ज्यादा उम्मीदें जोड़ीं तो इसलिए कि उन्होंने खुद लोगों में परिवर्तन और नया दौर लाने के विमर्श के को केंद्र में रख कर अपना चुनाव अभियान चलाया। लेकिन चुनाव जीतने के बाद परिवर्तन की बात को उन्होंने अपनी आलमारी कहीं रख दिया और सबको साथ लेकर चलने, पूरे अमेरिका- रिपब्लिकन और डेमोक्रेट्स- दोनों का नेता बनने का जुमला ज्यादा उछालने लगे। अगर नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री पॉल क्रुगमैन जैसे विचारकों की राय उन्होंने सुनी होती तो शायद उनका सितारा इतनी जल्दी अस्त होता नहीं दिखता। ऐसे विश्लेषकों की कमी नहीं रही है जो लगातार यह लिखते रहे हैं कि डेमोक्रेटिक पार्टी सिर्फ अपने एजेंडे को आक्रामक रूप से लागू करते हुए ही अपनी प्रासंगिकता बनाए रख सकती है और सिर्फ इसी रूप में वह अपने समर्थक समूहों का वह उत्साह बनाए रख सकती है, जिसकी वजह से नवंबर २००८ में उसे ऐतिहासिक जीत मिली थी।

आर्थिक मंदी से देश के निकालने की कोशिश में जब जरूरत वॉल स्ट्रीट पर शिकंजा कसने की थी, तो ओबामा प्रशासन ने उससे सहयोग का रास्ता चुना। नाकाम होती कंपनियों को आम करदाताओं के धन से उबारा गया, लेकिन उन पर सार्वजनिक नियंत्रण के कोई प्रावधान नहीं किए गए। बैंकों के साथ भी ऐसी ही नरमी बरती गई। आर्थिक मंदी से देश को उबारने के लिए जो उपाय किए गए, वे भी जितने बड़े पैमाने पर किए जाने चाहिए थे, नहीं किए गए। पॉल क्रुगमैन जैसे अर्थशास्त्री लगातार चेतावनी देते रहे कि ओबामा प्रशासन ने नाकाफी उपाय किए हैं, जिससे अगर अर्थव्यवस्था सुधरती भी है तब भी रोजगार की स्थिति नहीं सुधरेगी। फिलहाल ऐसा ही होता दिख रहा है। दूसरी तरफ गुआंतेनामो बे की गैर कानूनी जेल को बंद करने, जलवायु परिवर्तन और विदेश नीति में कोई बड़ा बदलाव लाने में भी ओबामा प्रशासन पहले साल में कुछ हासिल नहीं कर पाया। इससे वामपंथी रुझान वाले तबकों में भारी निराशा हुई। ऐसी कुछ वेबसाइट्स पर उन्हें सौदेबाज, झूठा, धोखेबाज और जुडास तक लिखा जाने लगा।

इन बातों का निहितार्थ यह है कि ओबामा को लेकर उनके समर्थक समूहों में अब पहले जैसा उत्साह नहीं रहा। नतीजन, यह संभव है कि मैसाचुसेट्स में बहुत से डेमोक्रेटिक वोटर मतदान केंद्र तक नहीं गए हों। उधर अमेरिकी व्यवस्था पर फिर से कब्जा जमाने की कोशिशों में जुटे रिपब्लिकन मतदाता जोरशोर से वहां पहुंचे। जानकार मानते हैं कि इसी रुझान की वजह से रिपब्लिकन पार्टी का एक दशक तक अमेरिका में वर्चस्व रहा। यहां तक कि स्थायी रिपब्लिकन बहुमत की अवधारणा पेश कर दी गई। उस दौर में डेमोक्रेटिक पार्टी मध्यमार्ग की तलाश में जुटी रही थी। ओबामा ने अपने ओजस्वी भाषणों और अपने करिश्माई व्यक्तित्व से इस रुझान को तोड़ा। लेकिन जब काम करने की बारी आई तो वे ऐसा करिश्मा नहीं दिखा सके हैं।

बहरहाल ऐसा नहीं है कि ओबामा ने अपने पहले साल में कुछ भी बदला। अगर विश्व परिस्थितियों की कसौटी पर देखें तो अमेरिका की दिशा में कई बदलाव नजर आते हैं। इस संबंध में हम ब्रिटेन की ब्रैडफोर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर पॉल रॉजर्स के विश्लेषण पर गौर कर सकते हैं। रोजर्स अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा और खासकर आतंकवाद के खिलाफ अमेरिकी युद्ध के अध्ययनकर्ता हैं। इन विषयों पर वे २६ किताबें लिख चुके हैं। ह्वाइट हाउस में ओबामा के एक साल पूरा करने पर रोजर्स ने ओबामा के कार्यकाल का आकलन कुछ इस तरह किया- “ओबामा ने इराक में अमेरिका की नीति बदली है। वे अमेरिकी फौज को वहां से जल्द से जल्द वापस बुलाना चाहते हैं। अफगानिस्तान में वे युद्ध की नीति पर कायम हैं, लेकिन वे कम चरमपंथी गुटों के साथ बातचीत भी करना चाहते हैं। काहिरा में पिछले साल उन्होंने जो भाषण दिया, वह बेहद महत्त्वपूर्ण था। इससे उन्होंने मुस्लिम दुनिया तक पहुंचने की कोशिश की। लेकिन फिलस्तीनियों की स्थिति सुधारने के लिए वे ज्यादा कुछ नहीं कर पाए हैं। इस मुद्दे पर उन्हें भाषण देने से ज्यादा कुछ करने की जरूरत है। जहां तक ईरान की बात है, तो यह एक कठिन मसला है। लेकिन ओबामा जॉर्ज बुश की तुलना में ज्यादा सब्र से काम ले रहे हैं। रूस के साथ भी उन्होंने संबंध सुधारे हैं और खासकर परमाणु हथियारों में कटौती के लिए वे रूस के साथ मिलकर काम कर रहे हैं। ओबामा के समय में बदलाव यह आया है कि अब अमेरिका दूसरे देशों के साथ मिलकर काम करने को ज्यादा तैयार है। जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर यह बदलाव साफ दिखता है। बुश के जमाने से तुलना करें तो एक बड़ा अंतर नजर आएगा। बुश तो यह मानने को ही तैयार नहीं थे कि जलवायु परिवर्तन हो रहा है। कोपेनहेगन सम्मेलन सफल नहीं रहा। लेकिन इस मुद्दे पर आज प्रगति की ज्यादा संभावना है। अगर बुश होते या जॉन मैकेन जीते होते तो ऐसा नहीं होता।”

संभवतः इसीलिए हाल के एक सर्वे में देखने को मिला कि दुनिया के ज्यादातर देशों में ओबामा की लोकप्रियता बरकरार है। लेकिन दुनिया के जनमत से अमेरिका की राजनीति नहीं चलती। वहां जरूरत इस बात की थी कि ओबामा मध्य से वामपंथ की तरफ की राजनीति को नई शक्ल और वही जोश देते जो उन्होंने चुनाव अभियान में दिखाया था। लेकिन वहां उन्होंने दक्षिणपंथ से समझौता कर मध्यमार्ग पर चलने की कोशिश की और इसका परिणाम उनकी पार्टी के साथ-साथ खुद उनके एजेंडो को भी भुगतना पड़ रहा है। काश, उन्होंने अवतार सिंह पाश की यह कविता पढ़ी होती कि बीच का कोई रास्ता नहीं होता। या उन्होंने इस देसी भारतीय कहावत का संदेश सुना होता कि दो नावों पर पैर रख कर चलने का क्या नतीजा होता है। अगर अब भी वे ऐसा कर लें, तो जो सपना उन्होंने अपने देश के प्रगतिशील लोगों को दिखाया था, उसका दुःस्वप्न में अंत नहीं होगा।

1 comment:

चंदन कुमार चौधरी said...

अर्थपूर्ण विश्लेषण है अच्छा लगा। ओबामा ने अपना एक साल का कार्यकाल पूरा किया है उसकी समीक्षा तो होनी ही चाहिए। एक उपचुनाव में मिली हार को आधार बना कर ओबामा की लोकप्रियता को कैसे तौला जा रहा है समझ में नहीं आ रहा है। हमारे देश में भी, उपचुनाव में मिली जीत-हार पूर्ण सत्य नहीं होती है। अमेरिका में अगर ओबामा की लोकप्रियता को लेकर कोई सर्वेक्षण हुआ होता तब कुछ कहा जा सकता था। वैसे मुझे यह आलेख बहुत ही अच्छा लगा। दो- चार दिन पहले अगर इसे पढ़ा होता तो मेरे लिए अच्छा होता।