सत्येंद्र रंजन
भारत के पास फुटबॉल की विश्वस्तरीय टीम क्यों नहीं है? यही सवाल इस लेखक ने भारतीय फुटबॉल टीम के पूर्व कोच सैयद नईमुद्दीन से पूछा था। नईमुद्दीन ने फौरन कहा- आप मारुति ८०० को मर्सिडीज के साथ नहीं दौड़ा सकते। इसका विस्तार करते हुए उन्होंने कहा कि भारत में बसी नस्लें शारीरिक रूप से कमजोर हैं। यूरोपीय- खास कर स्लाव नस्ल वाली आबादी, और अफ्रीकन शारीरिक गठन में मजबूत होते हैं। फुटबॉल कलात्मक खेल है, लेकिन उससे कहीं ज्यादा यह शारीरिक ताकत एवं क्षमता की मांग करता है। ९० मिनट तक 110x75 के मैदान में लगातार दौड़ना और विपक्षी टीम के खिलाड़ियों से कौशल और शक्ति में होड़ करना आसान नहीं है।
खेल, समाज और इतिहास पर गहरी निगाह रखने वाले कई जानकारों का कहना है कि भारत की जाति व्यवस्था और अस्पर्श एवं शुचिता की संस्कृति से अवदान के रूप में जो मानसिकता हमें मिली है, वह खेलों में भारत के पिछड़ा बने रहने की एक अहम वजह है। जिस खेल में हर पल शरीर का दूसरे शरीर से स्पर्श होता हो, वह भारतीय अभिजन समाज में स्वाभाविक रूप से वर्जित हो जाता है। इन जानकारों के मुताबिक इसीलिए भारतीय अभिजन ने क्रिकेट को अपनाया, जिसमें दो शरीरों का बहुत कम मौकों पर संपर्क होता है। कुछ अन्य जानकारों की राय रही है कि क्रिकेट जैसा सुस्त खेल, जिसमें शारीरिक ताकत की कम और दिमागी कौशल की ज्यादा जरूरत पड़़ती है, वह स्वाभाविक रूप से भारतीय मानस में ज्यादा स्वीकार्य और संभव दोनों ही साबित हुआ।
क्या यही वजह है कि भारतीय क्रिकेट टीम अपने सबसे बेहतर दौर में भी फील्डिंग में कमजोर बनी रहती है? या जिस क्वालिटी के स्पिनर यहां होते हैं, उसी दर्जे के तेज गेंदबाज नहीं होते? फुटबॉल के संदर्भ में विचार करते समय तंदुरुस्ती से जुड़े ये सवाल प्रासंगिक हो जाते हैं। और इसलिए भी कि ये दोनों खेल अंग्रेजों के साथ ही भारत आए। क्रिकेट को प्रभु वर्ग ने अपनाया, जबकि फुटबॉल अपेक्षाकृत कहीं ज्यादा आम जन के बीच फैला। दुनिया के स्तर पर आधुनिक फुटबॉल का इतिहास १८६३ में शुरू होता है, जब इंग्लैंड में फुटबॉल एसोशिएशन की स्थापना हुई। १८७२ में इंग्लैंड में शुरू हुआ एफ.ए. कप दुनिया में सबसे पुराना फुटबॉल टूर्नामेंट है, जो आज भी जारी है। लेकिन यह बात भारत में भी बहुत से लोगों को शायद मालूम ना हो कि फुटबॉल का दूसरा सबसे पुराना टूर्नामेंट अपने देश में ही खेला जाता है और वह डूरंड कप है, जिसकी शुरुआत १८८८ में हुई थी।
अभी विश्व कप चल रहा है, तो इस दौरान कई दिलचस्प और महत्त्वपर्ण जानकारियां भी सामने आ रही हैं। मसलन, ऑल स्पोर्ट्स पत्रिका के संपादक मारियो रोड्रिग्ज ने दक्षिण अफ्रीका प्रवास के दौरान महात्मा गांधी के फुटबॉल से रिश्तों की अहम जानकारी प्रस्तुत की है। उनके मुताबिक गांधीजी ने जोहानिसबर्ग और प्रीटोरिया में दो फुटबॉल क्लबों की स्थापना की थी। इनका नाम उन्होंने अहिंसा की अपनी विचारधारा के आधार पर ही पैसिव रेजिस्टेंस क्लब रखा था। इन क्लबों के जरिए उन्होंने फुटबॉल मैचों को दक्षिण अफ्रीका में रहने वाले भारतीय समुदाय के एक जगह इकट्ठा होने का मौका बनाया। उपलब्ध जानकारियों के मुताबिक अनेक मौकों पर गांधीजी मैचों के वक्त मौजूद रहते थे, और हाफ टाइम के दौरान खिलाड़ियों और दर्शकों से रंगभेद संबंधी मुद्दों और अहिंसा की राजनीति पर बातचीत करते थे। गांधीजी के १९१५ में भारत लौट आने के बाद भी ये क्लब कायम रहे, लेकिन आखिरकार १९३६ में बंद हो गए। जानकारों ने ध्यान दिलाया है कि अभिजन का खेल माने जाने वाले क्रिकेट और रग्बी के बजाय गांधीजी ने आमजन के खेल फुटबॉल में रुचि ली और उसका इस्तेमाल दक्षिण अफ्रीका के लोगों के साथ भारतीय समुदाय के लोगों का मेलजोल बढ़ाने के लिए किया।
जाहिर है, आज फुटबॉल जगत में भारत की हालत चाहे जितनी खस्ता हो, इस खेल से इस देश का एक ऐतिहासिक रिश्ता है। और इसी रिश्ते की वजह से भारतीय टीम ने १९५० के फीफा वर्ल्ड कप के लिए क्वालीफाई किया था। हालांकि भारतीय टीम इसलिए वहां नहीं गई, क्योंकि भारतीय खिलाड़ी जूता पहनकर खेलने के आदती नहीं थे, जबकि फीफा के नियमों के तहत खाली पांव नहीं खेला जा सकता था।
यह पहलू ध्यान में रखने लायक है। इसलिए कि खेल में पैसे और तकनीक की बढ़ती दखल का विभिन्न खेलों के मुकाबले से भारत के बाहर बने रहने का गहरा नाता रहा है। मसलन, हॉकी को लीजिए। जब तक ये खेल कुदरती घास पर खेला जाता था, ग्रेफाइट और फाइबल ग्लास के बजाय स्टिक साधारण लकड़ी की होती थी, रबर और प्लास्टिक से बनी गेंदों के बजाय चमड़े की सीवन वाली गेंदें इस्तेमाल की जाती थीं, भारत और पाकिस्तान इस खेल के सिरमौर थे। फुटबॉल भी कुछ दशक पहले तक प्राकृतिक माहौल में खेला जाता था। लेकिन आज कृत्रिम पिच, हाईटेक गेंदों और खिलाड़ियों की तैयारी में इस्तेमाल होने वाली टेक्नोलॉजी ने पूरा नजारा बदल दिया है।
सैयद नईमुद्दीन ने पहले निराशाजनक तस्वीर खींचने के बाद अपनी बात में यह जोड़ा था कि भारतीय टीम विश्व स्तर तक पहुंचे, उसके लिए बहुत तैयारी की जरूरत है। हट्ठे-कट्टे खिलाड़ी ढूंढने होंगे, अंतरराष्ट्रीय स्तर के मैदान और स्टेडियम बनाने होंगे, खिलाड़ियों को ट्रेनिंग देनी होगी, यूरोपीय स्पर्धा जैसा माहौल देना होगा- तब शायद कुछ हो सकता है। इसके साथ यह भी जोड़ा सकता है कि खेल संघों पर से स्वार्थी नेताओं और प्रशासकों का कब्जा खत्म हो और खिलाड़ियों के लिए सामाजिक सुरक्षा का पुख्ता इंतजाम हो, तो शायद हर चार साल बाद उठने वाले इस सवाल का कुछ उत्तर मिल सकता है कि आखिर दुनिया के सबसे लोकप्रिय खेल में हम क्यों इतने पीछे हैं?
भारत आज उभरती अर्थव्यवस्था वाला देश है। आज यहां बड़ा कॉरपोरेट सेक्टर है। स्पॉन्सर्स की कतार है। सारी सुविधाएं उपलब्ध हैं (या इच्छाशक्ति हो, तो उपलब्ध हो सकती हैं)। लेकिन इनसे बात बनती नहीं दिखती है। तो क्या दोष सचमुच अपनी खेल या सामाजिक संस्कृति में है? आखिर क्रिकेट में भी तमाम पैसा, प्रभाव और सुविधाओं के बावजूद खेल के मैदान पर हमारी स्थिति बहुत बेहतर नहीं है, तो क्या इसका संबंध भी उसी संस्कृति से है? जब हम दक्षिण अफ्रीका में एक अद्भुत माहौल, दुनिया पर इस खेल का जुनून, और उन सबके बीच अपने को गायब देख रहे हैं, तो ये कुछ बुनियादी सवाल हैं, जिन पर जरूर सोचा जाना चाहिए। आखिर भारत विश्व कप में कब खेलेगा?
Friday, June 18, 2010
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1 comment:
सर जी ! क्रिकेट के आगे किसी ने कुछ लिखा है तो बेहद खुशी है मुझे,फुटबाल मे इंडिया अभी जीरो है । तो हिरो बनने मे समय तो लगेगा हि । अब तक फिफा विश्व कफ मे भारत केवल एक बार हि प्रवेश पा सका है ।
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