Friday, November 5, 2010

अरुंधती को जवाब दें, लेकिन हमले से नहीं

सत्येंद्र रंजन

रुंधती राय अब संघ परिवार के निशाने पर हैं। भारतीय जनता महिला मोर्चा ने रविवार को दिल्ली में उनके घर पर तोड़फोड़ कर इसका सबूत दिया। बजरंग दल पहले ही एलान कर चुका है कि उसके कार्यकर्ता अब अरुंधती राय जहां जाएंगी, वहां विरोध जताएंगे। पूरी संभावना है कि यह विरोध बजरंग दल के जाने-पहचाने अंदाज में होगा। यहां तक कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय कार्यकारी मंडल ने एक प्रस्ताव पास कर यह कहा है कि कश्मीर के लिए “आजादी” की वकालत “राष्ट्र-द्रोह” से कम नहीं है। जाहिर है, यह प्रस्ताव अरुंधती राय के हाल में कश्मीर मसले में दिए गए बयानों के सिलसिले में ही है।

नतीजा यह है कि यह सारा विवाद लोकतांत्रिक विमर्श के मान्य तरीकों से बाहर चला गया है। अरुंधती राय के घर पर भारतीय जनता महिला मोर्चा की कार्यकर्ताओं ने जिस रूप में प्रदर्शन किया, उसे विरोध जताने का लोकतांत्रिक तरीका तो कतई नहीं कहा जा सकता। तोडफोड़ और हिंसा ऐसे विमर्श का हिस्सा नहीं हो सकते। ना ही वह विमर्श लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा होता है, जिसमें किसी को सीधे दोस्त या दुश्मन की श्रेणी में डाल दिया जाता है। लेकिन संघ परिवार के संगठनों का विमर्श और गतिविधियां ऐसी ही समझ के आधार पर चलती हैं और इसलिए अरुंधती राय के इस रूप में उनके निशाने पर आने में कोई हैरत की बात नहीं है।

इस घटना के बाद अरुंधती राय ने भारत सरकार को इस बात का श्रेय दिया है कि उसने उनके कश्मीर संबंधी बयानों के मामले में राजद्रोह का मामला न चलाने का फैसला कर एक हद तक “परिपक्वता” का परिचय दिया। लेकिन अब उन्हें शिकायत है कि उनके “विचारों के लिए उन्हें सजा देने” का का काम “दक्षिणपंथी उपद्रवियों” ने संभाल लिया है। निश्चित रूप से समाज के किसी समूह को ऐसे काम को अंजाम देने का अधिकार और सुविधा नहीं होनी चाहिेए और समाज के सभी लोकतांत्रिक एवं प्रगतिशील समूहों को ऐसी प्रवृत्तियों का पुरजोर विरोध करना चाहिए। लेकिन इन समूहों की यह जिम्मेदारी भी है कि वो अरुंधती राय अपने गैर-जिम्मेदार एवं अराजक बयानों और चरमपंथी समूहों के साथ मंच साझा कर न्याय की आवाज होने का जो भ्रम समाज में बनाती हैं, उसे न सिर्फ चुनौती दें, बल्कि उसके खोखलेपन को भी बेनकाब करें।

अरुंधती राय के पास सुविधा यह है कि वो जब चाहे “न्याय की आवाज” और जब चाहे लेखक के रूप में सामने आ जाती हैं। वो “न्याय की आवाज” होने की प्रतिष्ठा का उपभोग तो करना चाहती हैं, लेकिन उसकी कीमत नहीं चुकाना चाहतीं। नर्मदा मामले में कोर्ट की अवमाना के केस में जिस तरह जुर्माना चुका कर वे जेल से बाहर आ गई थीं, और उस मुद्दे पर व्यापक चर्चा जारी रहने का अवसर खत्म कर दिया था, वह आज भी लोगों को याद है। इस बीच चरमपंथी बातें कर वे उन समूहों को जरूर मोहित किए रहती हैं, जिन्हें दुनिया में सिर्फ भारत ही अकेला नाजायज राज्य नजर आता है। अरुंधती राय का प्रशंसक चरमपंथी बातों को ही सच समझने वाले लोगों का यही समूह है, जो “बड़े बांधों को एटम बम से भी ज्यादा खतरनाक”, माओवादियों को “बंदूकधारी गांधीवादी” और “कश्मीर के इतिहास में कभी भारत का हिस्सा ना होने” जैसी बातें और जुमले सुन कर तालियां बजाता है। लेकिन ये सारी बातें समाज और दुनिया के विकासक्रम की वास्तविक स्थिति, विवेक और तर्कसंगत विमर्श की अनदेखी कर कही जाती हैं। अरुंधती राय कश्मीर की “आजादी” की बात करते समय यह सवाल कभी नहीं उठाएंगी कि क्या कट्टरपंथी और धर्मांध संगठन, जिनकी बुनियाद में व्यक्ति की निजी आजादी और आधुनिक मूल्यों का हनन शामिल है, वे ही वहां “आजादी” का वाहक होंगे?

चूंकि अरुंधती राय ने एक किस्म के चरमपंथ और उग्रवाद का समर्थन किया है, तो उसकी प्रतिक्रिया में अब दूसरे तरह के चरमपंथी उन्हें “राष्ट्र-द्रोही” बता कर उनके खिलाफ मैदान में उतर गए हैं। यह एक ही तरह के विमर्श के दो छोर हैं, और लोकतंत्र एवं आधुनिक भारत के भविष्य के लिए ये दोनों ही समान रूप से हानिकारक या खतरनाक हैं। इनमें से किसी में उस स्तर की भी “परिपक्वता” नहीं झलकती, जितनी उनके “कश्मीरः आजादी ही एकमात्र रास्ता” वाले सेमीनार में उनके भाषणों के बाद खुद अरुंधती के शब्दों में भारत सरकार ने दिखाई है।

यह साफ है कि अरुंधती राय के घर पर भाजपा महिला मोर्चा ने प्रदर्शन सुनियोजित ढंग से किया और मीडिया में जो प्रचार हासिल करना उसका मकसद था, उसमें वह कामयाब रहा। लेकिन ऐसे विरोध से कुछ पार्टियों और संगठनों के अपनी सियासी मकसद भर हासिल हो सकते हैं। दूसरी तरफ इनसे जिन इलाकों या समूहों के बारे में अरुंधती राय जैसे लोग बोलने का दावा करते हैं, उनके बीच विपरीत प्रतिक्रिया भड़कने का अंदेशा भी रहता है। इसलिए यह अरुंधती राय के बयानों का सही जवाब नहीं है। इसका सही जवाब तार्किक और विवेकसम्मत विमर्श है, लेकिन इसे लोगों के सामने लाने में देश का लोकतांत्रिक जनमत अब तक नाकाम रहा है और इस वजह से दोनों तरफ के चरमपंथियों को मैदान खुला मिल गया है।

5 comments:

राजकुमार ग्वालानी said...

हिन्दु, मुस्लिम, सिख, ईसाई
जब सब हैं हम भाई-भाई
तो फिर काहे करते हैं लड़ाई
दीवाली है सबके लिए खुशिया लाई
आओ सब मिलकर खाए मिठाई
और भेद-भाव की मिटाए खाई

Mahesh Verma said...

ये धर्मनिरपेक्ष नाम के जीवधारियों की बिरादरी झूठ के पुलन्दे बांचती है. अरुन्धती के घर पर विरोध प्रदर्शन था, जो कि आम लोकतंत्र में हक होता है, लेकिन इन झूठों की बिरादरी हमला हमला चिल्ला रही है क्योंकि ये कहीं भी विरोध के लिये जगह नहीं छोड़ना चाहते.

मैंने तोड़फोड के फोटो के नाम पर दरवाजे के अन्दर एक गमला लुढका हुआ देखा है. क्या आपने कोई तोडफोड़ के फोटो देखे हैं? क्या आप उन 'तोड़्फोड़' के फोटो को यहां अपने ब्लाग पर लगायेंगे ?

वैसे इन लेफ्टियों से एथिक्स की उम्मीद तो कोई भी नहीं करता. तीस्ता सीतलवाड के फर्जीवाडे के बाद तो इनकी विश्वसनीयता कहीं भी नहीं बची.

Randhir Singh Suman said...

ज्योति पर्व के अवसर पर आप सभी को लोकसंघर्ष परिवार की तरफ हार्दिक शुभकामनाएं।

sky said...

हकीकत यह हैं की केंद्र की सरकार कश्मीर से जुड़े कई गंभीर सवालो से बचने के लिए इस "परिपक्वता" का परिचय दे रही है?

Anonymous said...

बेहतरीन लेखन