Sunday, February 21, 2010

पाकिस्तान के पेच और बातचीत

सत्येंद्र रंजन

भारत और पाकिस्तान के विदेश सचिव इस बात से राहत महसूस कर सकते हैं कि इस महीने नई दिल्ली में होने वाली उनकी बातचीत से दोनों ही देशों में कोई बड़ी अपेक्षाएं नहीं हैं। असल में उनका मिलना और बातचीत करना ही फिलहाल एक मकसद माना जा रहा है। पुणे पर आतंकवादी हमले के बावजूद हो रही इस बातचीत को दोनों देशों की सरकारें अपनी कामयाबी बताएंगी। पाकिस्तान सरकार अपनी जनता को यह बताना शुरू कर चुकी है कि भारत का बातचीत के लिए तैयार होना उसकी जीत है- दरअसल वहां दावा यह किया गया है कि भारत आखिरकार बातचीत के लिए मज़बूर हुआ है। ऐसा इसलिए हुआ है, क्योंकि पाकिस्तान ने कूटनीतिक चालें बेहतर ढंग से चली हैं। उधर महज बातचीत शुरू हो जाने भर से भारत सरकार इसके लिए बढ़े अंतरराष्ट्रीय, खासकर अमेरिकी दबाव के बोझ से कुछ राहत महसूस करेगी।

दोनों देशों की बातचीत मुंबई पर आतंकवादी हमले के बाद टूटी थी। मनमोहन सिंह सरकार ने पाकिस्तान की जमीन पर मौजूद भारत-विरोधी आतंकवादी ढांचे को नष्ट करने के लिए दबाव डालने की कूटनीति के तहत बातचीत रोकी थी। इसमें आंशिक सफलता ही मिली। पाकिस्तान ने मुंबई हमले की साजिश रचने के आरोपी कुछ जिहादियों पर मुकदमा चलाया और मुंबई में पकड़े गए आतंकवादी आमिर अजमल कसाब के पाकिस्तानी होने की बात मान ली। लेकिन आतंकवादी ढांचा वहां आज भी मौजूद है- इस बात के ढेरों सबूत हैं। इसके बावजूद अगर भारत सरकार बातचीत के लिए राजी हुई है, तो जाहिर है, वह इस नतीजे पर पहुंच चुकी है कि बातचीत न करने की कूटनीति अब अपेक्षित लाभ नहीं दे रही है।

इसके बावजूद यह तो शायद नहीं कहा जा सकता कि पाकिस्तान से बात करें या नहीं, इस अहम सवाल पर भारत असमंजस से निकल गया है। मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी बातचीत का जोरदार विरोध कर रही है। उसकी इस राय से देश का एक बड़ा हिस्सा सहमत है कि जब तक पाकिस्तान आतंकवाद के जरिए अपने कूटनीतिक मकसदों को हासिल करने की नीति नहीं छोड़ता है, उससे बातचीत नहीं होनी चाहिए। पुणे धमाके के बाद यह मांग और जोर पकड़ गई है। अब तक भारत सरकार इसके दबाव में नहीं आई है और उसने बेसब्री में एक बार फिर से अनबोलापन अपना लेने का फैसला नहीं किया है। इसके बावजूद भारत-पाक वार्ता का लंबे दौर में क्या भविष्य होगा, अभी कहना मुश्किल है।

असली दिक्कत यह है कि भारत में पाकिस्तान विमर्श अक्सर दो धुरियों पर सिमटा रहता है। इन धुरियों के बीच किसी विवेकपूर्ण संवाद की गुंजाइश आम तौर पर नहीं रहती और इसीलिए देश में पाकिस्तान और उससे भारत के रिश्तों को लेकर आम सहमति का अभाव ही रहता है। सोच की एक धारा पर आज तक ‘अखंड भारत’ का खुमार नज़र आता है। यह मुमकिन है कि इस धारा के लोगों ने भी यह स्वीकार कर लिया हो कि पाकिस्तान एक हकीकत है, लेकिन उनकी निगाहें देश के उन समुदायों (या वोट बैंक) पर ज्यादा रहती हैं, जिन्हें पाकिस्तान और मुसलमान में एक समीकरण का संकेत देकर देशी राजनीति में गोलबंद किया जा सकता है। इसलिए सोच की यह धारा पाकिस्तान के मामले में उग्र नजरिया अपनाए रहती है और ज़ुबानी जंग छेड़ने का कोई मौका अपने हाथ से नहीं जाने देती। निसंदेह भारतीय जनता पार्टी (या कहें संघ परिवार) के करीबी रणनीतिक नियोजक, पूर्व राजनयिक और बुद्धिजीवी इस धारा के सबसे मुखर प्रवक्ता हैं।

एक दूसरी धारा अमन की आशा का संदेश देने वालों की है। यहां सारा जोर यह कहने पर होता है कि हम (यानी भारत और पाकिस्तान की जनता) एक ही जैसे लोग हैं, हमारा एक इतिहास और संस्कृति है, लेकिन हमें राजनीति ने बांट रखा है। इसलिए सरहद पर मोमबत्तियां जलाकर, दोनों देशों के कलाकारों को साथ लाकर और ‘जनता से जनता का मेलजोल बढ़ाकर’ दुश्मनी की दीवार ढाही जा सकती है। ये ‘शांतिवादी’ लोग हैं, जो अक्सर भारत-पाकिस्तान तनाव के पीछे भारत का दोष तलाशते हैं और मांग करते हैं कि भारत सरकार पाकिस्तान से हर हाल में बातचीत जारी रखे और सभी दोतरफा समस्याओं को हल करे।

बहरहाल, सोच की इन दोनों ही धाराओं में एक अद्भुत समानता देखी जा सकती है- और वह है पाकिस्तान की ठोस स्थितियों की अनदेखी। जहां पहली धारा को सारा पाकिस्तान एक इकाई नज़र आता है, यानी वहां के सत्ता ढांचे में पिछले दशकों के दौरान उभरे अंतर्विरोध और समाज में मौजूद विभिन्न रुझानों को समझने को लेकर यह पूरी तरह लापरवाह बनी रहती है, वहीं दूसरी यानी ‘शांतिवादी’ धारा पाकिस्तानी सत्ता ढांचे के एक बड़े हिस्से में एक आस्था के रूप में मौजूद भारत-विरोध को पूरी तरह नज़रअंदाज किए रहती है। इसका परिणाम यह होता है कि पहली धारा सुरक्षा की संकीर्ण समझ और अपने बहुतेरे पूर्वाग्रहों से उबर नहीं पाती, वहीं ‘शांतिवादी’ धारा सामरिक और कूटनीतिक मकसदों के लिए आतंकवाद के इस्तेमाल की पाकिस्तानी रणनीति के खतरों से पूरी तरह आंख मूंदे रहती है।

पाकिस्तान में एक उभरती ‘सिविल सोसायटी’ है, जो जंग नहीं चाहती और इतिहास से मिली समस्याओं और पूर्वाग्रहों से उबरना चाहती है। भारत-पाकिस्तान संबंधों और असल में पूरी दक्षिण एशिया का भविष्य इस सिविल सोसायटी की जड़ें गहरी होने और पाकिस्तानी सत्ता तंत्र पर उसकी पकड़ मजबूत होने में है। लेकिन पाकिस्तान का आज का जो सत्ता तंत्र है, उस पर सेना और उन तत्वों की पकड़ कहीं ज्यादा मजबूत है, जिनका निहित स्वार्थ भारत से दुश्मनी जारी रखने में है। इन तत्वों का वरदहस्त जिहादी ताकतों की पीठ पर है, जो न सिर्फ कश्मीर को भारत से छीनना चाहते हैं, बल्कि जिस दो-राष्ट्र के सिद्धांत पर देश का विभाजन हुआ, उसे सफल बनाने के लिए धर्मनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक भारत को छिन्न-भिन्न करना चाहते हैं। आतंकवाद के पीछे यही असली मकसद है, जिसे जिहादी कभी छिपाने की कोशिश नहीं करते। दो साल पहले भले पाकिस्तान में नागरिक सरकार की बहाली हुई, लेकिन वहां असली सत्ता किस हद तक उसके हाथ में है, यह समझना कोई बहुत मुश्किल नहीं है। सेना अंतिम निर्णायक है, यह बात अक्सर जाहिर होती रहती है।

कुछ महीने पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पाकिस्तानी सत्ता तंत्र के इसी विभाजन की तरफ इशारा करते हुए यह सवाल उठाया था कि आखिर भारत किससे बात करे? इसके बावजूद अगर मनमोहन सिंह सरकार ने पाकिस्तान से बातचीत दोबारा शुरू करने की पहल की है तो इसके पीछे मुख्य रूप से दो वजहें मानी जा रही हैं। एक तो बातचीत रोककर जो कूटनीतिक दबाव बनाया गया, उसका लाभ अब चूक रहा है। पाकिस्तानी सत्ता तंत्र का एक हिस्सा अब फिर से भारत विरोधी आतंकवादी तत्वों की मदद में खुलकर सक्रिय हो गया है। बातचीत करते हुए भारत शायद पाकिस्तान के सामने इस पहलू को ज्यादा मजबूती से उठा सकता है।

दूसरी वजह अफगानिस्तान में बनती नई स्थितियों के बीच भारत पर बढ़ा अंतरराष्ट्रीय दबाव है। अमेरिका का आकलन है कि पाकिस्तान भारत से जारी तनाव का बहाना बनाकर अपनी फौज का जमाव अपने पूर्वी सीमा पर किए हुए है और इससे पश्चिमी यानी अफगानिस्तान से लगी सीमा पर तालिबान से लड़ाई कमजोर हो रही है। इसलिए अमेरिका भारत-पाक सीमा पर तनाव घटाना चाहता है और ऐसा तभी संभव है जब इन दोनों देशों में बातचीत शुरू हो। भारत के भी अफगानिस्तान की स्थिरता में बड़े दांव हैं, इसलिए वह वहां बनती स्थितियों के प्रति लापरवाह नहीं हो सकता।

ऐसी परिस्थिति में भारत ने पाकिस्तान से बातचीत की पहल की है। अब यह देखने की बात होगी कि यह बातचीत क्या रुख लेती है? इसमें सचमुच ऐसी प्रगति होती है, जिससे दोनों देशों के बीच समग्र वार्ता एक बार फिर शुरू हो सके या फिर यह कूटनीतिक हथियार भर रह जाती है? जाहिर है, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की पाकिस्तान नीति एक बार फिर कसौटी पर है। मनमोहन सिंह की पाकिस्तान और कश्मीर मसले को लेकर अपनी खास समझ रही है, मगर वे उसे अमली जामा पहनाने की दिशा में अब तक ज्यादा आगे नहीं बढ़ पाए हैं। क्या इस बार यह मुमकिन हो सकेगा?

मनमोहन सिंह की पाकिस्तान नीति की यह कह कर आलोचना जरूर की जा सकती है कि इसे तय करने में अमेरिका के प्रति उनके झुकाव और कई बार सीधे अमेरिकी दबाव का भी योगदान रहा है। इसके बावजूद उन्होंने जो नीति सामने रखी है, दोतरफा समस्याओं का उससे बेहतर और ज्यादा व्यावहारिक समाधान अब तक सामने नहीं आया है। डॉ. सिंह की नीति इस समझ पर आधारित है कि हम दोस्त चुन सकते हैं, लेकिन पड़ोसी नहीं। यह हकीकत है कि पाकिस्तान हमारा पड़ोसी है, इसलिए उससे हमें बात करनी होगी और विवादित मुद्दों पर उसका सामना करना होगा। डॉ. सिंह की दूसरी समझ यह है कि भारत ने पाकिस्तान में उलझे रहकर अपना बहुत समय गंवाया है और अगर उसे दुनिया की बड़ी ताकत के रूप में उभरना है, तो इस दुश्चक्र से उसे निकलना होगा। उसे अपनी तुलना अपने वजूद के संकट से जूझ रहे पाकिस्तान से नहीं, बल्कि तेज विकास और प्रगति की राह पर चल रहे चीन जैसे देशों से करनी होगी। पाकिस्तान से उलझाव खत्म हो, इसके लिए उसके साथ लंबे समय से खिंचते चले आ रहे विवादों को हल करना होगा और इसके लिए घिसे-पिटे रास्ते हट कर साहसी और अभिनव कदम उठाने होंगे।

डॉ. सिंह ने इसी समझ के आधार पर जनरल परवेज मुशर्रफ के साथ भारत-पाक वार्ता को एक ठोस रूप दिया था और जम्मू-कश्मीर जैसे विवाद को हल करने का एक फॉर्मूला तैयार कर लिया था। लेकिन पाकिस्तान की अंदरूनी उथल-पुथल ने उसे मंजिल तक नहीं पहुंचने दिया। बहरहाल, अपनी समझ के प्रति इसी भरोसे की वजह से डॉ. सिंह पिछले साल शरम-अल-शेख में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री युसूफ रज़ा गिलानी के साथ साझा बयान पर सहमत हुए थे और अब उनकी सरकार ने विदेश सचिव स्तर की वार्ता की पहल की है। अब भारत सरकार के सामने चुनौती यह तय करने की है कि इस वार्ता में वह उग्र रुख अपनाते हुए वह इसे सिर्फ आतंकवाद के मुद्दे पर सीमित कर दे, या इस बातचीत को समग्र वार्ता में तब्दील करने पर राजी हो जाए, जैसाकि पाकिस्तान चाहता है? पाकिस्तान, और भारत के ‘शांतिवादी’ लोगों की भी दलील है कि सभी दोतरफा मुद्दों पर बातचीत न करने का लाभ जिहादी तत्वों को मिलता है। ये तत्व इसके आधार पर पाकिस्तान में भारत विरोधी माहौल गरमाते हैं, जिसके बीच नागरिक सरकार एवं सिविल सोसायटी की स्थिति कमजोर होती है। लेकिन यह सवाल भी अपनी जगह प्रासंगिक है कि क्या पाकिस्तानी समाज की जरूरतों को पूरा करना भारत का दायित्व है? अगर बातचीत का मकसद समस्याओं को हल करना है तो पाकिस्तान सरकार को भी यह सिद्ध करना चाहिए कि उसमें इसके लिए अभिनव ढंग से सोचने का माद्दा और उस पर अमल करने का साहस है। ऐसा साहस परवेज मुशर्रफ दिखाते लग रहे थे, मगर मौजूदा सरकार ने उस बातचीत में उभरे फॉर्मूलों के वजूद को मानने से ही इनकार कर दिया है।
ऐसे में भारत सरकार के लिए संतुलित रास्ता चुनना आसान नहीं है। वैसे अभी की परिस्थितियों में संभवतः भारत सरकार के लिए सबसे वाजिब रास्ता बातचीत को एक दीर्घकालिक रणनीति के रूप में अपनाना ही लगता है। एक ऐसी कूटनीति के रूप में, जिसका इस्तेमाल पड़ोसी देश के अंतर्विरोधों को प्रभावित करने और उससे ज्यादा से ज्यादा सकारात्मक नतीजा हासिल करने के लिए किया जा सके। अगर बातचीत पाकिस्तान में ज़िहादी तत्वों के भारत विरोधी अभियान की धार कमजोर करने, भारत के मुद्दे पर पाकिस्तानी सेना एवं खुफिया एजेंसियों के मुकाबले पाकिस्तान के नागरिक शासन के हाथ मजबूत करने, और अफ़गान सीमा पर जिहादी तत्वों के खिलाफ़ कार्रवाई न करने के पीछे भारत को बहाना बनाने की पाकिस्तानी फौज की रणनीति कमजोर करने में सफल रहती है, तो बेशक भारत सरकार वार्ता प्रक्रिया को और आगे बढ़ाने पर सोच सकती है। यह एक इम्तिहान है। एक ऐसा कठिन काम, जिससे फ़ौरी नतीजों की उम्मीद नहीं की जा सकती। मगर भारत सरकार की यह पहल सही दिशा में है और इसलिए उसे हर तरह के अतिवादी विचारों को नजरअंदाज कर फिलहाल इस रास्ते पर कायम रहना चाहिए।

Tuesday, February 2, 2010

क्योंकि बीच का रास्ता नहीं होता


सत्येंद्र रंजन

राक हुसैन ओबामा की चमक सिर्फ एक साल में फीकी पड़ गई है। उनके ‘येस वी कैन’ (यानी हां हम कर सकते हैं) के नारे ने अपना वो जादुई असर खो दिया है, जिसकी ताकत से २००८ में पूरा अमेरिका झंकृत हो उठा था। इस बात के संकेत उनकी लोकप्रियता की गिरती दर से भी मिल रहे थे, लेकिन २० जनवरी को ओबामा और उनकी डेमोक्रेटिक पार्टी को इस कठोर हकीकत का सामना एक चुनावी नतीजे के रूप में भी करना प़ड़ा। उस दिन ओबामा ह्वाइट हाउस में अपने प्रवेश की पहली सालगिरह मना रहे थे और उसी रोज मैसाचुसेट्स से सीनेट के उपचुनाव का नतीजा आया। ये वो सीट है, जो करीब साढ़े चार दशक से डेमोक्रेटिक पार्टी के पास थी। वैसे भी मैसाचुसेट्स उदार मान्यताओं का वाला राज्य माना जाता है, इस लिहाज से डेमोक्रेट्स का गढ़ रहा है। यह सीट एडवर्ड केनेडी की थी, जिनका पिछले साल कैंसर की वजह से निधन हो गया। जाहिर है, इस हार से डेमोक्रेटिक पार्टी हिल गई है।

इसका असर ओबामा के पहले स्टेट ऑफ द यूनियन संबोधन पर दिखा। ओबामा ने मैसाचुसेट्स के उपचुनाव नतीजे से संभवतः यह संदेश ग्रहण किया है कि देश को आर्थिक मंदी से निकालने के उनके प्रयासों से लोग संतुष्ट नहीं हैं। इसलिए उनके इस भाषण पर सबसे ज्यादा यही मुद्दा छाया रहा। वे यह भरोसा दिलाने की कोशिश में जुटे नजर आए कि मंदी का सबसे बुरा दौर गुजर गया है और अब हालत सुधर रही है तो इसका असर रोजगार पर भी जल्द ही देखने को मिलेगा। ओबामा ने कहा- “लोगों को काम नहीं मिल रहा है। उन्हें चोट पहुंच रही है। उन्हें हमारी मदद की जरूरत है और मैं चाहता हूं कि बिना देर किए रोजगार विधेयक मेरी मेज पर आए। २०१० में नौकरियों पर ही हमारा ध्यान केंद्रित होना चाहिए।” उन्होंने ध्यान दिलाया कि प्रतिनिधि सभा ने रोजगार विधेयक को पास कर दिया है और सीनेट से भी ऐसा ही करने की अपील की। अमेरिका में इस वक्त बेरोजगारी तकरीबन १८ फीसदी है। इसका कुल असर इससे भी बड़ी आबादी पर है। तो ओबामा ने निशाना आउटसोर्सिंग पर भी साधा। उन कंपनियों को टैक्स रियायत पर रोक का एलान किया जो नौकिरयां आउटसोर्स कर रही हैं। जाहिर है, भारत जैसे देश के लिए यह बड़ी खबर बनी है।

बहरहाल, अब सवाल यह उठाया जा रहा है कि अगर ओबामा नौकरियों की समस्या हल करने में कुछ कामयाब हो जाते हैं तो क्या इससे वे अपना खो रहा रुतबा दोबारा हासिल करने में सफल रहेंगे? डेमोक्रेटिक पार्टी की मुख्य चिंता इस साल नवंबर में होने वाले कांग्रेस (संसद) के चुनाव हैं, जिसमें अभी उसका भारी बहुमत है, लेकिन अगर राजनीति मैसाचुसेट्स के रास्ते पर चली तो नवंबर में कांग्रेस की तस्वीर पूरी तरह पलट सकती है। डेमोक्रेट सांसद इसी संभावना से डरे हुए हैं और कम से कम दो सीनेटरों ने तो चुनाव न लड़ने का भी एलान कर दिया है। दूसरी तरफ पार्टी के दक्षिणपंथी झुकाव वाले सांसद हैं, जो यह दलील देने लगे हैं कि ओबामा की सोशलिस्ट छवि पार्टी को नुकसान पहुंचा रही है, इसलिए वे स्वास्थ्य देखभाल के मुद्दे पर ओबामा की पहल पर अब ब्रेक लगाना चाहते हैं। ऐसी आम धारणा है कि ओबामा के लिए इस ऐतिहासिक पहल को अंजाम तक पहुंचाना अब बेहद मुश्किल होगा। इसकी एक वजह तो यह है कि मैसाचुसेट्स के नतीजे के बाद सीनेट में डेमोक्रेटिक पार्टी के साठ सदस्य नहीं रहे, जो फिलिबुस्टर (विधायी व्यवधान) से किसी बिल को बचाने के लिए जरूरी होते हैं। दूसरी वजह यह है कि बहुत से डेमोक्रेट सांसद अब अपनी सीट बचाने के लिए दक्षिणपंथी वोटरों को लुभाने की रणनीति में जुटेंगे और इस मकसद से हेल्थ केयर विधेयक के खिलाफ रुख कर लेंगे।

चुनाव अभियान के दौरान ओबामा ने जो परिवर्तन की समां बांधी थी, अपने शासलकाल के पहले साल में उसे व्यवहार में उतारने के लिहाज से हेल्थ केयर उनका अकेला बड़ा प्रयास रहा है। अगर यह कानून बन गया तो तीन करोड़ साठ लाख अमेरिकी नागरिकों को स्वास्थ्य देखरेख की सुविधा मिल पाएगी। इसके अलावा सभी नागरिकों को बिना रोग के उनके पूर्व इतिहास को देखे स्वास्थ्य बीमा की सेवा मिल सकेगी। प्रतिनिधि सभा ने इस विधेयक का अपेक्षाकृत ज्यादा प्रगतिशील प्रारूप पास किया। सीनेट ने उसके प्रावधानों में कई ढिलाई ला दी। अब इन दोनों बिलों को मिलाकर सहमति का बिल तैयार होना था। अगर सीनेट में डेमोक्रेटिक पार्टी के साठ सदस्य बरकरार रहते तो आशा थी कि प्रतिनिधि सभा वाले प्रारूप के ज्यादातर प्रावधान सहमति के विधेयक में शामिल किए जाते। लेकिन अब यह मुमकिन नहीं दिख रहा है और इस बिल के कट्टर समर्थक भी यह कहने लगे हैं कि सीनेट से पास विधेयक पर ही सहमति बनाकर इसे अब पास करा लिया जाना चाहिए, वरना जितना संभव है, वह भी टालमटोल की विधायी प्रक्रियाओं में उलझ जाएगा।

तो यह वाशिंग्टन के राजकाज को बदलने के ओबामा के नारे, और इसके लिए उनके येस वी कैन के संकल्प की परिणति है! आखिर ऐसा क्यों हुआ? गौरतलब है कि ओबामा की जीत एक साधारण राजनीतिक घटना नहीं थी- या कम से कम उसे ऐसा माना नहीं गया था। नवंबर २००८ में जब वे अमेरिका के राष्ट्रपति चुने गए तो दुनिया भर के प्रगतिशील लोगों ने इसका जश्न मनाया। इसे इंसानियत की एक ऊंची छलांग माना गया। न सिर्फ अमेरिका के काले समुदाय के लोगों, बल्कि बाकी दुनिया में भी अनगिनत लोगों की आंखें तब खुशी से भर आई थीं। यह एक ऐतिहासिक न्याय की घड़ी थी। रंगभेद से दागदार अमेरिका ने जैसे ओबामा को राष्ट्रपति चुन कर एक प्रायःश्चित किया और दुनिया इस यज्ञ में शामिल हुई। बहरहाल, विजय एवं उत्साह के उन क्षणों में भी ऐसे लोगों की कमी नहीं थी, जो यह समझ रहे थे कि यही ओबामा का चरमोत्कर्ष है। तब काले समुदाय की एक बुजुर्ग महिला ने भीगी आंखों के साथ मीडिया से कहा था- अब ओबामा के सामने विफलता का रास्ता है और उनकी हर नाकामी का इस्तेमाल काले समुदाय की अयोग्यता साबित करने के लिए किया जाएगा। ऐसा होगा या नहीं, यह तो तय है कि पिछले एक साल में विफलता की ढलान पर ओबामा तेजी से फिसलते दिखे हैं।

आखिर क्यों? यह महज सतही समझ है कि ऐसा उनसे अति अपेक्षाएं जोड़ लेने की वजह से हुआ। हकीकत यह है कि अगर लोगों ने उनसे ज्यादा उम्मीदें जोड़ीं तो इसलिए कि उन्होंने खुद लोगों में परिवर्तन और नया दौर लाने के विमर्श के को केंद्र में रख कर अपना चुनाव अभियान चलाया। लेकिन चुनाव जीतने के बाद परिवर्तन की बात को उन्होंने अपनी आलमारी कहीं रख दिया और सबको साथ लेकर चलने, पूरे अमेरिका- रिपब्लिकन और डेमोक्रेट्स- दोनों का नेता बनने का जुमला ज्यादा उछालने लगे। अगर नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री पॉल क्रुगमैन जैसे विचारकों की राय उन्होंने सुनी होती तो शायद उनका सितारा इतनी जल्दी अस्त होता नहीं दिखता। ऐसे विश्लेषकों की कमी नहीं रही है जो लगातार यह लिखते रहे हैं कि डेमोक्रेटिक पार्टी सिर्फ अपने एजेंडे को आक्रामक रूप से लागू करते हुए ही अपनी प्रासंगिकता बनाए रख सकती है और सिर्फ इसी रूप में वह अपने समर्थक समूहों का वह उत्साह बनाए रख सकती है, जिसकी वजह से नवंबर २००८ में उसे ऐतिहासिक जीत मिली थी।

आर्थिक मंदी से देश के निकालने की कोशिश में जब जरूरत वॉल स्ट्रीट पर शिकंजा कसने की थी, तो ओबामा प्रशासन ने उससे सहयोग का रास्ता चुना। नाकाम होती कंपनियों को आम करदाताओं के धन से उबारा गया, लेकिन उन पर सार्वजनिक नियंत्रण के कोई प्रावधान नहीं किए गए। बैंकों के साथ भी ऐसी ही नरमी बरती गई। आर्थिक मंदी से देश को उबारने के लिए जो उपाय किए गए, वे भी जितने बड़े पैमाने पर किए जाने चाहिए थे, नहीं किए गए। पॉल क्रुगमैन जैसे अर्थशास्त्री लगातार चेतावनी देते रहे कि ओबामा प्रशासन ने नाकाफी उपाय किए हैं, जिससे अगर अर्थव्यवस्था सुधरती भी है तब भी रोजगार की स्थिति नहीं सुधरेगी। फिलहाल ऐसा ही होता दिख रहा है। दूसरी तरफ गुआंतेनामो बे की गैर कानूनी जेल को बंद करने, जलवायु परिवर्तन और विदेश नीति में कोई बड़ा बदलाव लाने में भी ओबामा प्रशासन पहले साल में कुछ हासिल नहीं कर पाया। इससे वामपंथी रुझान वाले तबकों में भारी निराशा हुई। ऐसी कुछ वेबसाइट्स पर उन्हें सौदेबाज, झूठा, धोखेबाज और जुडास तक लिखा जाने लगा।

इन बातों का निहितार्थ यह है कि ओबामा को लेकर उनके समर्थक समूहों में अब पहले जैसा उत्साह नहीं रहा। नतीजन, यह संभव है कि मैसाचुसेट्स में बहुत से डेमोक्रेटिक वोटर मतदान केंद्र तक नहीं गए हों। उधर अमेरिकी व्यवस्था पर फिर से कब्जा जमाने की कोशिशों में जुटे रिपब्लिकन मतदाता जोरशोर से वहां पहुंचे। जानकार मानते हैं कि इसी रुझान की वजह से रिपब्लिकन पार्टी का एक दशक तक अमेरिका में वर्चस्व रहा। यहां तक कि स्थायी रिपब्लिकन बहुमत की अवधारणा पेश कर दी गई। उस दौर में डेमोक्रेटिक पार्टी मध्यमार्ग की तलाश में जुटी रही थी। ओबामा ने अपने ओजस्वी भाषणों और अपने करिश्माई व्यक्तित्व से इस रुझान को तोड़ा। लेकिन जब काम करने की बारी आई तो वे ऐसा करिश्मा नहीं दिखा सके हैं।

बहरहाल ऐसा नहीं है कि ओबामा ने अपने पहले साल में कुछ भी बदला। अगर विश्व परिस्थितियों की कसौटी पर देखें तो अमेरिका की दिशा में कई बदलाव नजर आते हैं। इस संबंध में हम ब्रिटेन की ब्रैडफोर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर पॉल रॉजर्स के विश्लेषण पर गौर कर सकते हैं। रोजर्स अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा और खासकर आतंकवाद के खिलाफ अमेरिकी युद्ध के अध्ययनकर्ता हैं। इन विषयों पर वे २६ किताबें लिख चुके हैं। ह्वाइट हाउस में ओबामा के एक साल पूरा करने पर रोजर्स ने ओबामा के कार्यकाल का आकलन कुछ इस तरह किया- “ओबामा ने इराक में अमेरिका की नीति बदली है। वे अमेरिकी फौज को वहां से जल्द से जल्द वापस बुलाना चाहते हैं। अफगानिस्तान में वे युद्ध की नीति पर कायम हैं, लेकिन वे कम चरमपंथी गुटों के साथ बातचीत भी करना चाहते हैं। काहिरा में पिछले साल उन्होंने जो भाषण दिया, वह बेहद महत्त्वपूर्ण था। इससे उन्होंने मुस्लिम दुनिया तक पहुंचने की कोशिश की। लेकिन फिलस्तीनियों की स्थिति सुधारने के लिए वे ज्यादा कुछ नहीं कर पाए हैं। इस मुद्दे पर उन्हें भाषण देने से ज्यादा कुछ करने की जरूरत है। जहां तक ईरान की बात है, तो यह एक कठिन मसला है। लेकिन ओबामा जॉर्ज बुश की तुलना में ज्यादा सब्र से काम ले रहे हैं। रूस के साथ भी उन्होंने संबंध सुधारे हैं और खासकर परमाणु हथियारों में कटौती के लिए वे रूस के साथ मिलकर काम कर रहे हैं। ओबामा के समय में बदलाव यह आया है कि अब अमेरिका दूसरे देशों के साथ मिलकर काम करने को ज्यादा तैयार है। जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर यह बदलाव साफ दिखता है। बुश के जमाने से तुलना करें तो एक बड़ा अंतर नजर आएगा। बुश तो यह मानने को ही तैयार नहीं थे कि जलवायु परिवर्तन हो रहा है। कोपेनहेगन सम्मेलन सफल नहीं रहा। लेकिन इस मुद्दे पर आज प्रगति की ज्यादा संभावना है। अगर बुश होते या जॉन मैकेन जीते होते तो ऐसा नहीं होता।”

संभवतः इसीलिए हाल के एक सर्वे में देखने को मिला कि दुनिया के ज्यादातर देशों में ओबामा की लोकप्रियता बरकरार है। लेकिन दुनिया के जनमत से अमेरिका की राजनीति नहीं चलती। वहां जरूरत इस बात की थी कि ओबामा मध्य से वामपंथ की तरफ की राजनीति को नई शक्ल और वही जोश देते जो उन्होंने चुनाव अभियान में दिखाया था। लेकिन वहां उन्होंने दक्षिणपंथ से समझौता कर मध्यमार्ग पर चलने की कोशिश की और इसका परिणाम उनकी पार्टी के साथ-साथ खुद उनके एजेंडो को भी भुगतना पड़ रहा है। काश, उन्होंने अवतार सिंह पाश की यह कविता पढ़ी होती कि बीच का कोई रास्ता नहीं होता। या उन्होंने इस देसी भारतीय कहावत का संदेश सुना होता कि दो नावों पर पैर रख कर चलने का क्या नतीजा होता है। अगर अब भी वे ऐसा कर लें, तो जो सपना उन्होंने अपने देश के प्रगतिशील लोगों को दिखाया था, उसका दुःस्वप्न में अंत नहीं होगा।