सत्येंद्र रंजन
भारत के पास फुटबॉल की विश्वस्तरीय टीम क्यों नहीं है? यही सवाल इस लेखक ने भारतीय फुटबॉल टीम के पूर्व कोच सैयद नईमुद्दीन से पूछा था। नईमुद्दीन ने फौरन कहा- आप मारुति ८०० को मर्सिडीज के साथ नहीं दौड़ा सकते। इसका विस्तार करते हुए उन्होंने कहा कि भारत में बसी नस्लें शारीरिक रूप से कमजोर हैं। यूरोपीय- खास कर स्लाव नस्ल वाली आबादी, और अफ्रीकन शारीरिक गठन में मजबूत होते हैं। फुटबॉल कलात्मक खेल है, लेकिन उससे कहीं ज्यादा यह शारीरिक ताकत एवं क्षमता की मांग करता है। ९० मिनट तक 110x75 के मैदान में लगातार दौड़ना और विपक्षी टीम के खिलाड़ियों से कौशल और शक्ति में होड़ करना आसान नहीं है।
खेल, समाज और इतिहास पर गहरी निगाह रखने वाले कई जानकारों का कहना है कि भारत की जाति व्यवस्था और अस्पर्श एवं शुचिता की संस्कृति से अवदान के रूप में जो मानसिकता हमें मिली है, वह खेलों में भारत के पिछड़ा बने रहने की एक अहम वजह है। जिस खेल में हर पल शरीर का दूसरे शरीर से स्पर्श होता हो, वह भारतीय अभिजन समाज में स्वाभाविक रूप से वर्जित हो जाता है। इन जानकारों के मुताबिक इसीलिए भारतीय अभिजन ने क्रिकेट को अपनाया, जिसमें दो शरीरों का बहुत कम मौकों पर संपर्क होता है। कुछ अन्य जानकारों की राय रही है कि क्रिकेट जैसा सुस्त खेल, जिसमें शारीरिक ताकत की कम और दिमागी कौशल की ज्यादा जरूरत पड़़ती है, वह स्वाभाविक रूप से भारतीय मानस में ज्यादा स्वीकार्य और संभव दोनों ही साबित हुआ।
क्या यही वजह है कि भारतीय क्रिकेट टीम अपने सबसे बेहतर दौर में भी फील्डिंग में कमजोर बनी रहती है? या जिस क्वालिटी के स्पिनर यहां होते हैं, उसी दर्जे के तेज गेंदबाज नहीं होते? फुटबॉल के संदर्भ में विचार करते समय तंदुरुस्ती से जुड़े ये सवाल प्रासंगिक हो जाते हैं। और इसलिए भी कि ये दोनों खेल अंग्रेजों के साथ ही भारत आए। क्रिकेट को प्रभु वर्ग ने अपनाया, जबकि फुटबॉल अपेक्षाकृत कहीं ज्यादा आम जन के बीच फैला। दुनिया के स्तर पर आधुनिक फुटबॉल का इतिहास १८६३ में शुरू होता है, जब इंग्लैंड में फुटबॉल एसोशिएशन की स्थापना हुई। १८७२ में इंग्लैंड में शुरू हुआ एफ.ए. कप दुनिया में सबसे पुराना फुटबॉल टूर्नामेंट है, जो आज भी जारी है। लेकिन यह बात भारत में भी बहुत से लोगों को शायद मालूम ना हो कि फुटबॉल का दूसरा सबसे पुराना टूर्नामेंट अपने देश में ही खेला जाता है और वह डूरंड कप है, जिसकी शुरुआत १८८८ में हुई थी।
अभी विश्व कप चल रहा है, तो इस दौरान कई दिलचस्प और महत्त्वपर्ण जानकारियां भी सामने आ रही हैं। मसलन, ऑल स्पोर्ट्स पत्रिका के संपादक मारियो रोड्रिग्ज ने दक्षिण अफ्रीका प्रवास के दौरान महात्मा गांधी के फुटबॉल से रिश्तों की अहम जानकारी प्रस्तुत की है। उनके मुताबिक गांधीजी ने जोहानिसबर्ग और प्रीटोरिया में दो फुटबॉल क्लबों की स्थापना की थी। इनका नाम उन्होंने अहिंसा की अपनी विचारधारा के आधार पर ही पैसिव रेजिस्टेंस क्लब रखा था। इन क्लबों के जरिए उन्होंने फुटबॉल मैचों को दक्षिण अफ्रीका में रहने वाले भारतीय समुदाय के एक जगह इकट्ठा होने का मौका बनाया। उपलब्ध जानकारियों के मुताबिक अनेक मौकों पर गांधीजी मैचों के वक्त मौजूद रहते थे, और हाफ टाइम के दौरान खिलाड़ियों और दर्शकों से रंगभेद संबंधी मुद्दों और अहिंसा की राजनीति पर बातचीत करते थे। गांधीजी के १९१५ में भारत लौट आने के बाद भी ये क्लब कायम रहे, लेकिन आखिरकार १९३६ में बंद हो गए। जानकारों ने ध्यान दिलाया है कि अभिजन का खेल माने जाने वाले क्रिकेट और रग्बी के बजाय गांधीजी ने आमजन के खेल फुटबॉल में रुचि ली और उसका इस्तेमाल दक्षिण अफ्रीका के लोगों के साथ भारतीय समुदाय के लोगों का मेलजोल बढ़ाने के लिए किया।
जाहिर है, आज फुटबॉल जगत में भारत की हालत चाहे जितनी खस्ता हो, इस खेल से इस देश का एक ऐतिहासिक रिश्ता है। और इसी रिश्ते की वजह से भारतीय टीम ने १९५० के फीफा वर्ल्ड कप के लिए क्वालीफाई किया था। हालांकि भारतीय टीम इसलिए वहां नहीं गई, क्योंकि भारतीय खिलाड़ी जूता पहनकर खेलने के आदती नहीं थे, जबकि फीफा के नियमों के तहत खाली पांव नहीं खेला जा सकता था।
यह पहलू ध्यान में रखने लायक है। इसलिए कि खेल में पैसे और तकनीक की बढ़ती दखल का विभिन्न खेलों के मुकाबले से भारत के बाहर बने रहने का गहरा नाता रहा है। मसलन, हॉकी को लीजिए। जब तक ये खेल कुदरती घास पर खेला जाता था, ग्रेफाइट और फाइबल ग्लास के बजाय स्टिक साधारण लकड़ी की होती थी, रबर और प्लास्टिक से बनी गेंदों के बजाय चमड़े की सीवन वाली गेंदें इस्तेमाल की जाती थीं, भारत और पाकिस्तान इस खेल के सिरमौर थे। फुटबॉल भी कुछ दशक पहले तक प्राकृतिक माहौल में खेला जाता था। लेकिन आज कृत्रिम पिच, हाईटेक गेंदों और खिलाड़ियों की तैयारी में इस्तेमाल होने वाली टेक्नोलॉजी ने पूरा नजारा बदल दिया है।
सैयद नईमुद्दीन ने पहले निराशाजनक तस्वीर खींचने के बाद अपनी बात में यह जोड़ा था कि भारतीय टीम विश्व स्तर तक पहुंचे, उसके लिए बहुत तैयारी की जरूरत है। हट्ठे-कट्टे खिलाड़ी ढूंढने होंगे, अंतरराष्ट्रीय स्तर के मैदान और स्टेडियम बनाने होंगे, खिलाड़ियों को ट्रेनिंग देनी होगी, यूरोपीय स्पर्धा जैसा माहौल देना होगा- तब शायद कुछ हो सकता है। इसके साथ यह भी जोड़ा सकता है कि खेल संघों पर से स्वार्थी नेताओं और प्रशासकों का कब्जा खत्म हो और खिलाड़ियों के लिए सामाजिक सुरक्षा का पुख्ता इंतजाम हो, तो शायद हर चार साल बाद उठने वाले इस सवाल का कुछ उत्तर मिल सकता है कि आखिर दुनिया के सबसे लोकप्रिय खेल में हम क्यों इतने पीछे हैं?
भारत आज उभरती अर्थव्यवस्था वाला देश है। आज यहां बड़ा कॉरपोरेट सेक्टर है। स्पॉन्सर्स की कतार है। सारी सुविधाएं उपलब्ध हैं (या इच्छाशक्ति हो, तो उपलब्ध हो सकती हैं)। लेकिन इनसे बात बनती नहीं दिखती है। तो क्या दोष सचमुच अपनी खेल या सामाजिक संस्कृति में है? आखिर क्रिकेट में भी तमाम पैसा, प्रभाव और सुविधाओं के बावजूद खेल के मैदान पर हमारी स्थिति बहुत बेहतर नहीं है, तो क्या इसका संबंध भी उसी संस्कृति से है? जब हम दक्षिण अफ्रीका में एक अद्भुत माहौल, दुनिया पर इस खेल का जुनून, और उन सबके बीच अपने को गायब देख रहे हैं, तो ये कुछ बुनियादी सवाल हैं, जिन पर जरूर सोचा जाना चाहिए। आखिर भारत विश्व कप में कब खेलेगा?
Friday, June 18, 2010
Thursday, June 17, 2010
सामाजिक न्याय के शेष प्रश्न
सत्येंद्र रंजन
क्या जन-गणना में जाति भी पूछी जाए? यह सवाल फिलहाल केंद्र सरकार के एक मंत्रि-समूह के पास है, और उसके फैसले का सबको इंतजार है। सरकार का फैसला राजनीतिक होगा, इस बात का सहज अनुमान लगाया जा सकता है। ना सिर्फ व्यापक राजनीतिक फलक पर, बल्कि कांग्रेस के भीतर भी इस सवाल पर गहरे मतभेद हैं। हाल में बने राजनीतिक समीकरणों के मद्देनजर सत्ताधारी संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के लिए राष्ट्रीय जनता दल और समाजवादी पार्टी जैसे दलों की अनदेखी करना मश्किल हो गया है। ये दल जातीय जन-गणना के पक्षधर हैं। दूसरी तरफ कांग्रेस पार्टी फिर से उसके खेमे में आए मध्य वर्ग और अन्य प्रभु वर्गों की सोच की उपेक्षा भी नहीं कर सकती। इसलिए संभवतः सरकार एक ऐसा फैसला करेगी, जिस पर उसे सर्वाधिक सहमति की उम्मीद होगी।
जाति हमारे समाज की कैसी हकीकत है, वैसे तो हम सबको अपनी रोजमर्रा की जिंदगी से भी इसका अहसास है, लेकिन हाल में एक अंग्रेजी अखबार में छपी पी सईनाथ की एक रिपोर्ट ने उस पर और रोशनी डाली है। यह रिपोर्ट १९२०-३० दशक के अजात आंदोलन के बारे में है। रिपोर्ट के मुताबिक तब यह आंदोलन आज के महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के एक बड़े इलाके में फैला था। उसके प्रणेता गणपति भभूतकर थे, जिनके प्रभाव से हजारों लोगों ने जाति छोड़ दी और खुद को अजात कहने लगे। लेकिन आज इस आंदोलन का न सिर्फ पराभव हो चुका है, बल्कि उससे जुड़े लोग अपने दादा-नाना के परिवारों की जाति पता कर रहे हैं, ताकि वे उसे सरकारी दफ्तरों और शिक्षा संस्थानों में बता सकें। खुद गणपति भभूतकर के पोतों ने अपने दादा की जाति मालूम की है। यह उदाहरण हमें यह बताता है कि भारतीय समाज में जाति को तोड़ना या छोड़ना कितना मुश्किल है। उदात्त चेतना के लोगों या उनकी संतानों को भी घूम-फिर कर जाति फिर से अपने फंदे में लपेट लेती है।
इसीलिए उत्पीड़ित जातियां अगर अपनी सामूहिक जातीय पहचान को जता कर आज न्याय या समता की मांग करती हैं, तो उसकी एक प्रासंगिकता है। सामाजिक न्याय के एक औजार के तौर पर आरक्षण को स्वीकार किए जाने के पीछे असल में यही सबसे मजबूत तर्क रहा है। उनकी इस दलील में भी दम है कि जातीय उत्पीड़न की सच्चाई पर परदा डालकर जाति नहीं तोड़ी जा सकती।
और अगर एक बार जातीय आधार पर आरक्षण को सामाजिक न्याय का एक जरिया मान लिया गया है, तो समाज की असली जातीय संरचना सबके सामने लाई जाए, यह भी एक जायज मांग है। आरक्षण विरोधियों ने हाल के वर्षों में इस बात को चुनौती देने की कोशिश की है कि भारतीय समाज में आधी से ज्यादा आबादी अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी) की है। यूपीए के पिछले कार्यकाल में जब उच्च शिक्षा संस्थानों में आरक्षण का मामला सामने आया, तो यहां तक कि उच्चतर न्यायपालिका ने भी सरकार से ओबीसी की संख्या साबित करने को कहा। वैसे यह मुद्दा अप्रासंगिक था, क्योंकि अब तक जितने भी आंकड़े सामने आए हैं, उनमें किसी में यह नहीं कहा गया है कि ओबीसी की जनसंख्या २७ फीसदी से कम है। इसलिए नेशनल सैंपल सर्वे के मुताबिक अगर यह संख्या ४१-४२ प्रतिशत भी बताई गई हो, तब भी उससे ओबीसी को मिल रहे आरक्षण का आधार कहीं कमजोर नहीं होता।
फिर भी अगर यह सवाल आरक्षण विरोधी उठाते रहे हैं और अब जन-गणना हो रही है, तो मुख्य रूप से ओबीसी और दलित जन-समूहों में आधार रखने वाली पार्टियों की यह मांग विचारणीय है कि लगे हाथ जातियों की संख्या की गिनती भी कर ली जाए। इस काम में कुछ हलकों से व्यावहारिक दिक्कतों की बात उठाई गई है। ये आशंकाएं निराधार नहीं हैं, लेकिन अगर कोई काम करना होता है, तो उसका रास्ता निकालना होता है। भले जातीय गणना की बात देर से आई है, लेकिन अगर उसकी उपयोगिता अब से भी महसूस की जाती है, तो इस काम को कैसे अंजाम दिया जाए, इस पर सोच-विचार की जरूरत है।
लेकिन इस मुद्दे में असली पेच यह सवाल है कि इस गिनती के लिए जन-गणना के फॉर्म में अनुसूचित जाति/ जनजातियों की तरह ओबीसी के लिए भी एक कॉलम शामिल कर लिया जाए, या सबसे उसकी जाति पूछी जाए? इस सवाल ने उन लोगों के बीच भी मतभेद पैदा कर दिया है, जिनके बीच वैसे सामाजिक न्याय के सामान्य प्रश्नों पर सहमति रहती है। एक मांग यह उठाई गई है कि सबकी जाति पूछी जाए। लेकिन ये मांग उठाने वाले यह साफ नहीं कर पाते कि इससे क्या मकसद हासिल होगा? ओबीसी का कॉलम जोड़ने से सकारात्मक भेदभाव (पॉजिटिव डिस्क्रीमिनेशन) के सिद्धांत पर अमल के रास्ते में खड़ी की जा रही बाधाओं का अगर हल निकल सकता है, तो जातीय गणना को उससे ज्यादा व्यापक बना देने का आखिर उद्देश्य क्या है?
ये सवाल इसलिए महत्त्वपूर्ण हैं, क्योंकि इनसे बहुत सी दूसरी बातें जुड़ी हुई हैं। और वे बातें सिर्फ जातीय जन-गणना के रास्ते की भौतिक बाधाओं से नहीं जुड़ी हुई हैं। अगर हम प्रतिशोध और विध्न-संतोषी भावनाओं से ऊपर उठकर सोच सकें, तो यह जरूर समझ सकते हैं कि जो लोग संपूर्ण जातीय जन-जनगणना के पक्ष में नहीं हैं, वे सभी जातीय उत्पीड़न जारी रखने के पक्षधर या जातीय प्रभुत्व की अवचेतन मानसिकता से ग्रस्त नहीं हैं। जो जाति तोड़ने या जाति विहीन समाज बनाने की बात करते हैं, उनमें सभी ऐसे नहीं हैं, जिनका इरादा ऐसी आदर्शवादी बातों की आड़ में जातिवाद को कायम रखने का है। दरअसल, जाति तोड़ने के आदर्श को हर हाल में संदेह के नजरिए देखना पिछले डेढ़ सौ साल- और खासकर आजादी के बाद की अवधि- में भारतीय समाज में लगातार आगे बढ़ी आधुनिकीकरण की परिघटना और उदात्त मूल्यों के मजबूत हुए आधार को नकारना है।
पिछले ६२ साल में निसंदेह भारतीय समाज उतना नहीं बदला है, जिससे जातीय उत्पीड़न या धर्म के आधार पर भेदभाव अतीत की बात लगने लगें। लेकिन इस अवधि में कश्मीर से कन्याकुमारी तक आबादी का एक हिस्सा ऐसा जरूर अस्तित्व में आया है, जो अपनी हिंदुस्तानी या इंसानी पहचान को ज्यादा तरजीह देता है। यह वह तबका है, जो भारत के बेहतर भविष्य के प्रति भरोसा पैदा करता है। पूरी आबादी की तुलना में भले यह जन-समूह बहुत छोटा हो, लेकिन यह भारत के उस विचार का मूर्त रूप है, जो स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों में पैदा हुआ, और जो दादा भाई नौरोजी से लेकर रवींद्र नाथ टैगोर, महात्मा गांधी से लेकर जवाहर लाल नेहरू, ज्योति बा फुले से लेकर डॉ. अंबेडकर, और बहुत से कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट चिंतकों-कार्यकर्ताओं की देखरेख में पला-बढ़ा। इस चेतना से लैस लोग आज अगर अपनी जाति नहीं लिखवाना चाहते, तो इसके लिए उन्हें मजबूर नहीं किया जाना चाहिए।
आज हमारे सामने चुनौती क्या है? हमें गणपति भभूतकर की परंपरा को फिर से जिंदा करना है, या उन परिस्थितियों को मजबूत करना है, जिनकी वजह से उनके पोते को अपने दादा की जाति पता करनी पड़ती है? यह ठीक है कि ये परिस्थितियां पिछड़ी जातियों या उनसे उभरे नेताओं ने पैदा नहीं की हैं। बल्कि ये जातियां तो इन परिस्थितियों का शिकार रही हैं। मगर यहीं पर यह प्रश्न प्रासंगिक होता है कि इन नेताओं का मकसद इन परिस्थितियों से लड़ना और उन पर विजय पाना है, या जो लोग जाति को सचमुच नहीं मानते, उन्हें भी अपनी जाति के दड़बे में वापस धकेल देना है?
पेचीदगियां और भी हैं। मगर इन्हें संवेदनशील ढंग से तभी समझा जा सकता है, जब हम न्याय की एकांगी सोच और मूर्ति भंजन की विवेकहीन मानसिकता से उबर पाएं। मसलन, एक उदाहरण लीजिए। आज समाज में अंतर-जातीय विवाह करने वाले दंपतियों की कमी नहीं है। परंपरागत पितृसत्तात्मक व्यवस्था में यह माना जाता है कि अंतर-जातीय विवाह के बाद लड़की अपने पति की जाति में शामिल हो जाती है। लेकिन लैंगिक भेदभाव के प्रति जागरूक बहुत सी स्त्रियां आज इस परिपाटी से संघर्ष करती नजर आती हैं। ऐसे भी मामले हैं, जहां पारिवारिक उपनाम बदलने के विवाद से तलाक तक की नौबत आ गई है। अगर जातीय जन-गणना में सबकी जाति पूछनी अनिवार्य होगी, तो हम ऐसे जोड़ों को किस जाति में रखेंगे? क्या हम स्त्री को उसकी इच्छा के खिलाफ पति की जाति को अपनी जाति बताने के लिए विवश करेंगे? और फिर अंतर-जातीय दंपतियों की संतानों को किस जाति में रखेंगे?
आज मुश्किल यह है कि बहुत से लोग और समूह अपने न्याय के सवाल में इतना मशगूल हो जाते हैं कि वे न्याय के दूसरे प्रश्नों की न सिर्फ अनदेखी करते हैं, बल्कि कई मौकों पर उनके खिलाफ खड़े नजर आते हैं। मसलन, जातीय न्याय की लड़ाई लड़ने का दावा करने वाली पार्टियां स्त्रियों के लिए न्याय की बात उठने पर उसके खिलाफ झंडा लेकर खड़ी हो जाती हैं, जैसाकि हमने महिला आरक्षण विधेयक के मुद्दे पर देखा है। इसलिए जातीय जन-गणना की मांग में विवेक का साथ छोड़़ कर अपने विध्न-संतोषी मनोविज्ञान में बह जाना कोई अपवाद जैसी बात नहीं है।
अगर बात न्याय की है, तो इसे इसके पूरे संदर्भ में देखा जाना चाहिए। सरकारी नौकरियों या उच्च शिक्षा में आरक्षण इसका सिर्फ एक पहलू है, और यह लड़ाई सामाजिक न्याय के हक में जीती जा चुकी है। इस जीत की बेशक रक्षा करने की जरूरत है, मगर यह अंतिम मुकाम नहीं है। अब न्याय की लड़ाई आर्थिक मोर्चों पर कहीं ज्यादा ताकत और गंभीरता के साथ लड़ने की जरूरत है। न्याय की कोई लड़ाई ऐसी नहीं हो सकती, जो आधी आबादी यानी स्त्री की राजनीतिक भागीदारी, उसके यौन-व्यक्तित्व की स्वतंत्रता, और जिंदगी के सभी मामलों में खुद निर्णय लेने के उसके अधिकार को नकारने लगे। न्याय की कोई लड़ाई ऐसी भी नहीं हो सकती, जो सार्वजनीन मानवीय मूल्यों को अपना आदर्श न मानती हो और जो इनकी स्थापना के लिए मौजूद वस्तुगत परिस्थितियों की ठोस समझ पर आधारित ना हो।
क्या महज संयोग है कि जातीय आधार पर सामाजिक न्याय की लड़ाई में उबल पड़ने वाले लालू प्रसाद यादव ने अपने १५ साल के शासनकाल में भूमि-सुधार लागू करने की कोई कोशिश नहीं की। हालांकि नीतीश कुमार का भी ऐसा कोई इरादा नहीं है, लेकिन उनकी बनाई बंद्योपाध्याय कमेटी ने जब बटाईदारी कानून बनाने की सिफारिश की तो लालू प्रसाद यादव ने इसे नीतीश कुमार को घेरने का मुद्दा बना दिया। मुलायम सिंह यादव ने बड़े पूंजीपतियों और फिल्मी सितारों की सोहबत में जैसे समाजवाद का दर्शन कराया, क्या उसके बाद भी उनकी महिला आरक्षण विरोधी या जातीय जन-गणना समर्थक बातों के पीछे कोई वैध इरादा देखा जा सकता है? आखिर लालू प्रसाद, मुलायम सिंह और मायावती के लिए परमाणु दुर्घटना देनदारी कानून का सवाल उतना ही जोशीला मुद्दा क्यों नहीं है, जितना महिला आरक्षण का विरोध या जातीय जन-गणना का समर्थन है?
इसीलिए मुद्दा दरअसल रूढ़ हो गई सोच से निकलने का है। जरूरत न्याय के एकांगी जुनून से बाहर आने और न्याय की समग्र सोच विकसित करने की है। समाजशास्त्री नंदिनी सुंदर ने जातीय जन-गणना के सवाल पर लिखे अपने लेख में इस बात का जिक्र किया है कि तृतीय पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष न्यायमूर्ति ओ चिनप्पा रेड्डी ने आजादी के बाद से जाति को जन-गणना के अलग की समझ पर विचार किया था। उन्होंने कहा था कि अगर जाति को जन-गणना में शामिल किया गया होता, तो आयोग को बहुत सी समस्याओं का सामना न करना पड़ता। लेकिन इसके साथ ही उन्होंने कहा- “लेकिन अधिक निकट जाकर सोचने पर मुझे लगता है कि जन-गणना प्रक्रिया में जाति को शामिल न कर ठीक ही किया गया। जाति को भूलने की शुरुआत आखिर कहीं न कहीं से तो करनी होगी।”
यह तमाम समस्याओं के बीच भी नए समाज के निर्माण के लिए नए ढंग से सोचने की एक मिसाल है। आज यह मिसाल बेशकीमती है। इसकी अनदेखी हम अपने उच्चतर आदर्शों की अनदेखी करके ही कर सकते हैं।
क्या जन-गणना में जाति भी पूछी जाए? यह सवाल फिलहाल केंद्र सरकार के एक मंत्रि-समूह के पास है, और उसके फैसले का सबको इंतजार है। सरकार का फैसला राजनीतिक होगा, इस बात का सहज अनुमान लगाया जा सकता है। ना सिर्फ व्यापक राजनीतिक फलक पर, बल्कि कांग्रेस के भीतर भी इस सवाल पर गहरे मतभेद हैं। हाल में बने राजनीतिक समीकरणों के मद्देनजर सत्ताधारी संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के लिए राष्ट्रीय जनता दल और समाजवादी पार्टी जैसे दलों की अनदेखी करना मश्किल हो गया है। ये दल जातीय जन-गणना के पक्षधर हैं। दूसरी तरफ कांग्रेस पार्टी फिर से उसके खेमे में आए मध्य वर्ग और अन्य प्रभु वर्गों की सोच की उपेक्षा भी नहीं कर सकती। इसलिए संभवतः सरकार एक ऐसा फैसला करेगी, जिस पर उसे सर्वाधिक सहमति की उम्मीद होगी।
जाति हमारे समाज की कैसी हकीकत है, वैसे तो हम सबको अपनी रोजमर्रा की जिंदगी से भी इसका अहसास है, लेकिन हाल में एक अंग्रेजी अखबार में छपी पी सईनाथ की एक रिपोर्ट ने उस पर और रोशनी डाली है। यह रिपोर्ट १९२०-३० दशक के अजात आंदोलन के बारे में है। रिपोर्ट के मुताबिक तब यह आंदोलन आज के महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के एक बड़े इलाके में फैला था। उसके प्रणेता गणपति भभूतकर थे, जिनके प्रभाव से हजारों लोगों ने जाति छोड़ दी और खुद को अजात कहने लगे। लेकिन आज इस आंदोलन का न सिर्फ पराभव हो चुका है, बल्कि उससे जुड़े लोग अपने दादा-नाना के परिवारों की जाति पता कर रहे हैं, ताकि वे उसे सरकारी दफ्तरों और शिक्षा संस्थानों में बता सकें। खुद गणपति भभूतकर के पोतों ने अपने दादा की जाति मालूम की है। यह उदाहरण हमें यह बताता है कि भारतीय समाज में जाति को तोड़ना या छोड़ना कितना मुश्किल है। उदात्त चेतना के लोगों या उनकी संतानों को भी घूम-फिर कर जाति फिर से अपने फंदे में लपेट लेती है।
इसीलिए उत्पीड़ित जातियां अगर अपनी सामूहिक जातीय पहचान को जता कर आज न्याय या समता की मांग करती हैं, तो उसकी एक प्रासंगिकता है। सामाजिक न्याय के एक औजार के तौर पर आरक्षण को स्वीकार किए जाने के पीछे असल में यही सबसे मजबूत तर्क रहा है। उनकी इस दलील में भी दम है कि जातीय उत्पीड़न की सच्चाई पर परदा डालकर जाति नहीं तोड़ी जा सकती।
और अगर एक बार जातीय आधार पर आरक्षण को सामाजिक न्याय का एक जरिया मान लिया गया है, तो समाज की असली जातीय संरचना सबके सामने लाई जाए, यह भी एक जायज मांग है। आरक्षण विरोधियों ने हाल के वर्षों में इस बात को चुनौती देने की कोशिश की है कि भारतीय समाज में आधी से ज्यादा आबादी अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी) की है। यूपीए के पिछले कार्यकाल में जब उच्च शिक्षा संस्थानों में आरक्षण का मामला सामने आया, तो यहां तक कि उच्चतर न्यायपालिका ने भी सरकार से ओबीसी की संख्या साबित करने को कहा। वैसे यह मुद्दा अप्रासंगिक था, क्योंकि अब तक जितने भी आंकड़े सामने आए हैं, उनमें किसी में यह नहीं कहा गया है कि ओबीसी की जनसंख्या २७ फीसदी से कम है। इसलिए नेशनल सैंपल सर्वे के मुताबिक अगर यह संख्या ४१-४२ प्रतिशत भी बताई गई हो, तब भी उससे ओबीसी को मिल रहे आरक्षण का आधार कहीं कमजोर नहीं होता।
फिर भी अगर यह सवाल आरक्षण विरोधी उठाते रहे हैं और अब जन-गणना हो रही है, तो मुख्य रूप से ओबीसी और दलित जन-समूहों में आधार रखने वाली पार्टियों की यह मांग विचारणीय है कि लगे हाथ जातियों की संख्या की गिनती भी कर ली जाए। इस काम में कुछ हलकों से व्यावहारिक दिक्कतों की बात उठाई गई है। ये आशंकाएं निराधार नहीं हैं, लेकिन अगर कोई काम करना होता है, तो उसका रास्ता निकालना होता है। भले जातीय गणना की बात देर से आई है, लेकिन अगर उसकी उपयोगिता अब से भी महसूस की जाती है, तो इस काम को कैसे अंजाम दिया जाए, इस पर सोच-विचार की जरूरत है।
लेकिन इस मुद्दे में असली पेच यह सवाल है कि इस गिनती के लिए जन-गणना के फॉर्म में अनुसूचित जाति/ जनजातियों की तरह ओबीसी के लिए भी एक कॉलम शामिल कर लिया जाए, या सबसे उसकी जाति पूछी जाए? इस सवाल ने उन लोगों के बीच भी मतभेद पैदा कर दिया है, जिनके बीच वैसे सामाजिक न्याय के सामान्य प्रश्नों पर सहमति रहती है। एक मांग यह उठाई गई है कि सबकी जाति पूछी जाए। लेकिन ये मांग उठाने वाले यह साफ नहीं कर पाते कि इससे क्या मकसद हासिल होगा? ओबीसी का कॉलम जोड़ने से सकारात्मक भेदभाव (पॉजिटिव डिस्क्रीमिनेशन) के सिद्धांत पर अमल के रास्ते में खड़ी की जा रही बाधाओं का अगर हल निकल सकता है, तो जातीय गणना को उससे ज्यादा व्यापक बना देने का आखिर उद्देश्य क्या है?
ये सवाल इसलिए महत्त्वपूर्ण हैं, क्योंकि इनसे बहुत सी दूसरी बातें जुड़ी हुई हैं। और वे बातें सिर्फ जातीय जन-गणना के रास्ते की भौतिक बाधाओं से नहीं जुड़ी हुई हैं। अगर हम प्रतिशोध और विध्न-संतोषी भावनाओं से ऊपर उठकर सोच सकें, तो यह जरूर समझ सकते हैं कि जो लोग संपूर्ण जातीय जन-जनगणना के पक्ष में नहीं हैं, वे सभी जातीय उत्पीड़न जारी रखने के पक्षधर या जातीय प्रभुत्व की अवचेतन मानसिकता से ग्रस्त नहीं हैं। जो जाति तोड़ने या जाति विहीन समाज बनाने की बात करते हैं, उनमें सभी ऐसे नहीं हैं, जिनका इरादा ऐसी आदर्शवादी बातों की आड़ में जातिवाद को कायम रखने का है। दरअसल, जाति तोड़ने के आदर्श को हर हाल में संदेह के नजरिए देखना पिछले डेढ़ सौ साल- और खासकर आजादी के बाद की अवधि- में भारतीय समाज में लगातार आगे बढ़ी आधुनिकीकरण की परिघटना और उदात्त मूल्यों के मजबूत हुए आधार को नकारना है।
पिछले ६२ साल में निसंदेह भारतीय समाज उतना नहीं बदला है, जिससे जातीय उत्पीड़न या धर्म के आधार पर भेदभाव अतीत की बात लगने लगें। लेकिन इस अवधि में कश्मीर से कन्याकुमारी तक आबादी का एक हिस्सा ऐसा जरूर अस्तित्व में आया है, जो अपनी हिंदुस्तानी या इंसानी पहचान को ज्यादा तरजीह देता है। यह वह तबका है, जो भारत के बेहतर भविष्य के प्रति भरोसा पैदा करता है। पूरी आबादी की तुलना में भले यह जन-समूह बहुत छोटा हो, लेकिन यह भारत के उस विचार का मूर्त रूप है, जो स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों में पैदा हुआ, और जो दादा भाई नौरोजी से लेकर रवींद्र नाथ टैगोर, महात्मा गांधी से लेकर जवाहर लाल नेहरू, ज्योति बा फुले से लेकर डॉ. अंबेडकर, और बहुत से कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट चिंतकों-कार्यकर्ताओं की देखरेख में पला-बढ़ा। इस चेतना से लैस लोग आज अगर अपनी जाति नहीं लिखवाना चाहते, तो इसके लिए उन्हें मजबूर नहीं किया जाना चाहिए।
आज हमारे सामने चुनौती क्या है? हमें गणपति भभूतकर की परंपरा को फिर से जिंदा करना है, या उन परिस्थितियों को मजबूत करना है, जिनकी वजह से उनके पोते को अपने दादा की जाति पता करनी पड़ती है? यह ठीक है कि ये परिस्थितियां पिछड़ी जातियों या उनसे उभरे नेताओं ने पैदा नहीं की हैं। बल्कि ये जातियां तो इन परिस्थितियों का शिकार रही हैं। मगर यहीं पर यह प्रश्न प्रासंगिक होता है कि इन नेताओं का मकसद इन परिस्थितियों से लड़ना और उन पर विजय पाना है, या जो लोग जाति को सचमुच नहीं मानते, उन्हें भी अपनी जाति के दड़बे में वापस धकेल देना है?
पेचीदगियां और भी हैं। मगर इन्हें संवेदनशील ढंग से तभी समझा जा सकता है, जब हम न्याय की एकांगी सोच और मूर्ति भंजन की विवेकहीन मानसिकता से उबर पाएं। मसलन, एक उदाहरण लीजिए। आज समाज में अंतर-जातीय विवाह करने वाले दंपतियों की कमी नहीं है। परंपरागत पितृसत्तात्मक व्यवस्था में यह माना जाता है कि अंतर-जातीय विवाह के बाद लड़की अपने पति की जाति में शामिल हो जाती है। लेकिन लैंगिक भेदभाव के प्रति जागरूक बहुत सी स्त्रियां आज इस परिपाटी से संघर्ष करती नजर आती हैं। ऐसे भी मामले हैं, जहां पारिवारिक उपनाम बदलने के विवाद से तलाक तक की नौबत आ गई है। अगर जातीय जन-गणना में सबकी जाति पूछनी अनिवार्य होगी, तो हम ऐसे जोड़ों को किस जाति में रखेंगे? क्या हम स्त्री को उसकी इच्छा के खिलाफ पति की जाति को अपनी जाति बताने के लिए विवश करेंगे? और फिर अंतर-जातीय दंपतियों की संतानों को किस जाति में रखेंगे?
आज मुश्किल यह है कि बहुत से लोग और समूह अपने न्याय के सवाल में इतना मशगूल हो जाते हैं कि वे न्याय के दूसरे प्रश्नों की न सिर्फ अनदेखी करते हैं, बल्कि कई मौकों पर उनके खिलाफ खड़े नजर आते हैं। मसलन, जातीय न्याय की लड़ाई लड़ने का दावा करने वाली पार्टियां स्त्रियों के लिए न्याय की बात उठने पर उसके खिलाफ झंडा लेकर खड़ी हो जाती हैं, जैसाकि हमने महिला आरक्षण विधेयक के मुद्दे पर देखा है। इसलिए जातीय जन-गणना की मांग में विवेक का साथ छोड़़ कर अपने विध्न-संतोषी मनोविज्ञान में बह जाना कोई अपवाद जैसी बात नहीं है।
अगर बात न्याय की है, तो इसे इसके पूरे संदर्भ में देखा जाना चाहिए। सरकारी नौकरियों या उच्च शिक्षा में आरक्षण इसका सिर्फ एक पहलू है, और यह लड़ाई सामाजिक न्याय के हक में जीती जा चुकी है। इस जीत की बेशक रक्षा करने की जरूरत है, मगर यह अंतिम मुकाम नहीं है। अब न्याय की लड़ाई आर्थिक मोर्चों पर कहीं ज्यादा ताकत और गंभीरता के साथ लड़ने की जरूरत है। न्याय की कोई लड़ाई ऐसी नहीं हो सकती, जो आधी आबादी यानी स्त्री की राजनीतिक भागीदारी, उसके यौन-व्यक्तित्व की स्वतंत्रता, और जिंदगी के सभी मामलों में खुद निर्णय लेने के उसके अधिकार को नकारने लगे। न्याय की कोई लड़ाई ऐसी भी नहीं हो सकती, जो सार्वजनीन मानवीय मूल्यों को अपना आदर्श न मानती हो और जो इनकी स्थापना के लिए मौजूद वस्तुगत परिस्थितियों की ठोस समझ पर आधारित ना हो।
क्या महज संयोग है कि जातीय आधार पर सामाजिक न्याय की लड़ाई में उबल पड़ने वाले लालू प्रसाद यादव ने अपने १५ साल के शासनकाल में भूमि-सुधार लागू करने की कोई कोशिश नहीं की। हालांकि नीतीश कुमार का भी ऐसा कोई इरादा नहीं है, लेकिन उनकी बनाई बंद्योपाध्याय कमेटी ने जब बटाईदारी कानून बनाने की सिफारिश की तो लालू प्रसाद यादव ने इसे नीतीश कुमार को घेरने का मुद्दा बना दिया। मुलायम सिंह यादव ने बड़े पूंजीपतियों और फिल्मी सितारों की सोहबत में जैसे समाजवाद का दर्शन कराया, क्या उसके बाद भी उनकी महिला आरक्षण विरोधी या जातीय जन-गणना समर्थक बातों के पीछे कोई वैध इरादा देखा जा सकता है? आखिर लालू प्रसाद, मुलायम सिंह और मायावती के लिए परमाणु दुर्घटना देनदारी कानून का सवाल उतना ही जोशीला मुद्दा क्यों नहीं है, जितना महिला आरक्षण का विरोध या जातीय जन-गणना का समर्थन है?
इसीलिए मुद्दा दरअसल रूढ़ हो गई सोच से निकलने का है। जरूरत न्याय के एकांगी जुनून से बाहर आने और न्याय की समग्र सोच विकसित करने की है। समाजशास्त्री नंदिनी सुंदर ने जातीय जन-गणना के सवाल पर लिखे अपने लेख में इस बात का जिक्र किया है कि तृतीय पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष न्यायमूर्ति ओ चिनप्पा रेड्डी ने आजादी के बाद से जाति को जन-गणना के अलग की समझ पर विचार किया था। उन्होंने कहा था कि अगर जाति को जन-गणना में शामिल किया गया होता, तो आयोग को बहुत सी समस्याओं का सामना न करना पड़ता। लेकिन इसके साथ ही उन्होंने कहा- “लेकिन अधिक निकट जाकर सोचने पर मुझे लगता है कि जन-गणना प्रक्रिया में जाति को शामिल न कर ठीक ही किया गया। जाति को भूलने की शुरुआत आखिर कहीं न कहीं से तो करनी होगी।”
यह तमाम समस्याओं के बीच भी नए समाज के निर्माण के लिए नए ढंग से सोचने की एक मिसाल है। आज यह मिसाल बेशकीमती है। इसकी अनदेखी हम अपने उच्चतर आदर्शों की अनदेखी करके ही कर सकते हैं।
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