Tuesday, September 11, 2007

पुलिस सुधारः मतलब और मकसद

सत्येंद्र रंजन

पुलिस सुधारों का मुद्दा पिछले नौ महीनों से खासी चर्चा में है। सुप्रीम कोर्ट ने पिछले सितंबर में पुलिस सुधारों का एक खाका बताते हुए केंद्र और राज्य सरकारों से इस पर अमल करने को कहा। सुप्रीम कोर्ट ने इसके लिए जो समयसीमा बताई न सिर्फ वह गुजर चुकी है, बल्कि उसके बाद दी गई अगली समयसीमा भी बीत गई है। केंद्र सरकार और ज्यादातर राज्यों ने सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देशों को आंशिक तौर पर ही माना है और सुझाए गए बाकी उपायों पर अमल को नामुमकिन बता दिया है। सिर्फ चार छोटे राज्यों- अरुणाचल प्रदेश, सिक्किम, मेघालय और हिमाचल प्रदेश ने सभी दिशानिर्देशों को लागू करने पर सहमति जताई है। बाकी राज्यों के एतराज व्यावहारिक और सैद्धांतिक दोनों हैं।
विभिन्न राज्यों ने अलग-अलग तरह की व्यावहारिक दिक्कतों का जिक्र किया है। जबकि कुछ हलकों से यह दलील देते हुए आपत्ति की गई है कि संविधान के तहत कानून-व्यवस्था राज्य सूची का विषय है और यह कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में आता है। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट का आदेश देना इस अधिकार क्षेत्र में दखल में है। मसलन, गुजरात सरकार ने जोर दिया है कि सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देश संविधान के तहत शक्तियों के बंटवारे का सीधा उल्लंघन हैं। साथ ही ये संविधान के संघीय स्वरूप और उसके बुनियादी ढांचे की अनदेखी भी है। जाहिर है, एक अच्छा उद्देश्य प्रक्रियागत आपत्तियों की भेंट चढ़ता लग रहा है।
पुलिस सुधार लंबे समय से उपेक्षित मुद्दा है, जबकि मानव अधिकारों की लड़ाई से जुड़े लोग इसकी जरूरत काफी गहराई से महसूस करते रहे हैं। यह मांग अब दशकों पुरानी हो चुकी है। १९७७ में जब केंद्र में जनता पार्टी की सरकार बनी तो पहली बार ये विषय व्यापक चर्चा का हिस्सा बना। मोरारजी देसाई की सरकार ने तब प्रतिष्ठित पुलिस अधिकारी डॉ. धर्मवीर की अध्यक्षता में पुलिस आयोग का गठन किया। धर्मवीर आयोग ने पुलिस सुधारों के बारे में महत्त्वपूर्ण और विस्तृत सिफारिशें कीं। लेकिन आयोग की रिपोर्ट सरकार की अलमारियों में धूल चाटती रही। उसके बाद से कांग्रेस, अपने को तीसरे मोर्चे का हिस्सा कहने वाले दल और भारतीय जनता पार्टी एवं उसकी सहयोगी पार्टियां केंद्र और विभिन्न राज्यों की सत्ता में आती और जाती रहीं हैं, लेकिन किसी सरकार ने लोकतंत्र की इस बेहद बुनियादी जरूरत पर ध्यान नहीं दिया।
अब सवाल है कि पुलिस सुधार लागू कराने की सुप्रीम कोर्ट की मौजूदा पहल देश की जनतांत्रिक शक्तियों में ज्यादा उत्साह क्यों पैदा नहीं कर पा रही है? इसके लिए सरकारों पर सार्वजनिक दबाव इतना क्यों नहीं बन सका कि वो पुलिस को स्वायत्त एजेंसी बनाने और आम लोगों की शिकायत सुनने की संस्थागत व्यवस्था करने जैसे वांछित सुझावों को मानने पर मजबूर हो जातीं? बल्कि लोकतांत्रिक विमर्श से जुड़े हुए कई लोग क्यों सरकारों की कुछ आपत्तियों को आज ज्यादा सही मानते हैं और उनके भीतर ऐसी राय बन रही है कि इस तरह से पुलिस सुधार लागू नहीं हो सकते? इन सवालों के जवाब ढूंढने के लिए हमें पुलिस सुधारों के पूरे परिप्रेक्ष्य पर समग्रता से विचार करना होगा। असल में पुलिस सुधारों की मौजूदा बहस में दो ऐसे पहलू हैं जो मौजूदा पहल को कमजोर करते हैं। इनमें एक पहलू कुछ राज्यों की तरफ से उठाए गए एक वाजिब सवाल से जुड़ा है और दूसरा पहलू इस कोशिश के पीछे की बुनियादी सोच पर सवाल उठाता है।
गौरतलब है कि पुलिस सुधारों के लिए सुप्रीम कोर्ट का आदेश उस दौर में आया जब न सिर्फ विधायिका और सरकारों के दायरे में, बल्कि लोकतांत्रिक रूप से जागरूक समूहों में भी न्यायपालिका के द्वारा शासन के दूसरे अंगों में दखल की शिकायत गहरी होती गई है। काफी समय तक इस न्यायिक सक्रियता के असली स्वरूप, मकसद और परिणामों को लेकर असमंजस बना रहा। ऊहापोह इसको लेकर भी रही कि आखिर इस परिघटना के प्रति कैसा रुख अख्तियार किया जाए। धीरे-धीरे लोकतांत्रिक समूहों में यह धारणा गहरी होती गई कि यह परिघटना कमजोर समूहों के हितों के खिलाफ जा रही है। उधर विधायिका और सरकारों के हलके में काफी समय तक बचाव का रुख रहा। लेकिन जब न्यायिक फैसलों का आरक्षण जैसे मुद्दों पर सामाजिक अस्मिता की नवजाग्रत चेतना के साथ अंतर्विरोध उभरने लगा तो राजनीतिक पार्टियों के स्वर भी तेज होने लगे। इसकी हम कई मिसाल देख सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने जब उच्च शिक्षा संस्थानों में पिछड़ी जातियों के लिए २७ फीसदी आरक्षण पर रोक लगाई तो इस फैसले के खिलाफ तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में बंद का आयोजन किया गया। कई राजनीतिक दलों ने खुलकर इस फैसले की आलोचना की और इसे बेअसर करने के लिए संसद का विशेष सत्र बुलाने की मांग की। उधर केंद्र सरकार जो कुछ समय पहले तक कार्यपालिका के अधिकारों के सवाल को नहीं उठा रही थी, उसने वन सलाहकार समिति के गठन के मुद्दे पर अडिग रुख अपना लिया। एक जन हित याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र को इस समिति में कुछ कथित स्वतंत्र विशेषज्ञों को रखने का आदेश दिया। केंद्र ने दलील दी कि इस समिति का गठन सरकार का अधिकार है और वह इस आदेश को नहीं मान सकता। इस रस्साकशी में समिति का गठन कई महीनों तक लटका रहा। आखिरकार सुप्रीम कोर्ट को पलक झपकानी पड़ी और केंद्र ने उसके आदेश पर अमल नहीं किया। इसी क्रम में हाल में दिल्ली में पर्याप्त बिजली मुहैया कराने का मामला आया। इस मसले पर दिल्ली सरकार ने क्या कदम उठाए हैं, सुप्रीम कोर्ट के यह पूछने पर सरकारी वकील का जवाब रहा- बिजली की सप्लाई संविधान के अनुच्छेद २१ के तहत नहीं आती है। सरकारी वकील ने कहा- इस सवाल से किसी कानून का कोई संबंध नहीं है। सुप्रीम कोर्ट कोई सुपर प्लानिंग ऑथरिटी नहीं है जो यह फैसला करे कि गैस प्लांट कहां लगाया जाए या कितनी बिजली की जरूरत है। अदालतों को ऐसे मामलों में दखल नहीं देना चाहिए।
चूंकि न्यायिक सक्रियता को काफी हद तक जन समर्थन हासिल रहा है, इसलिए काफी समय तक सरकारें या राजनीतिक दल तब खुलकर इसके खिलाफ नहीं आए। लेकिन मजदूर अधिकारों पर चोट करने वाले कई न्यायिक फैसलों, संविधान की नौवीं अनुसूची को बेअसर करने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले और अब ओबीसी आरक्षण पर रोक लगाए के बाद की स्थितियों से माहौल बदलता नजर आ रहा है। पुलिस अधिकारों पर विभिन्न राज्य सरकारों की प्रतिक्रिया से भी यह जाहिर होता है।
बहरहाल, पुलिस सुधार का एक और मौजूदा संदर्भ इसको लेकर लोकतांत्रिक समूहों में ज्यादा जोश पैदा नहीं कर पा रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस सुधार लागू करने संबंधी आदेश एक जन हित याचिका पर दिया। इस जन हित याचिका से जो नाम जुड़े हैं, उनके साथ नागरिक अधिकारों के लिए संघर्ष की साख नहीं जुड़ी हुई है। बल्कि वो नाम सिक्युरिटी एस्टैबलिशमेंट की उस सोच के ज्यादा करीब हैं, जो बुनियादी तौर पर नागरिक अधिकारों के खिलाफ है। अगर आप लंबे समय से मानव अधिकार संगठनों के खिलाफ रहे हों, सख्ती को विभिन्न प्रकार के असंतोष से भड़के संघर्षों से निपटने का सबसे सही तरीका मानते हों, फांसी जैसी अमानवीय और अपराध समाजशास्त्र के गहरे अध्ययन से बेमतलब साबित हो चुकी सजा के समर्थक हों, टेलीविजन की बहसों में आपको रूढ़िवादी सोच की नुमाइंदगी के लिए बुलाया जाता हो और आपका कुल रुख व्यापक लोकतांत्रिक संदर्भ के खिलाफ हो, तो आपकी ऐसी किसी पहल को संदेह से देखे जाने का पर्याप्त आधार पहले से मौजूद रहता है। ऐसी पहल की निष्पक्षता संदिग्ध रहती है और यह सवाल कायम रहता है कि क्या इस पहल के पीछे सचमुच जन अधिकारों की वास्तविक चिंता है?
सुप्रीम कोर्ट ने राजनीतिक हस्तक्षेप से पुलिस को मुक्त करने के लिए केंद्र और राज्यों के स्तर पर सुरक्षा आयोग बनाने, पुलिसकर्मियों की सेवा संबंधी सभी मामलों पर फैसला लेने के लिए पुलिस एस्टैबलिशमेंट बोर्ड गठित करने और पुलिस संबंधी जनता की शिकायतों पर विचार के लिए पुलिस शिकायत प्राधिकरण बनाने का आदेश दिया है। इन संस्थाओं के जरिए पुलिस के प्रबंधन और प्रशासन को बेशक फर्क आ सकता है। लेकिन इस संदर्भ में कुछ राज्यों की यह शिकायत भी उतनी ही जायज है कि आखिर उस हालत में पुलिस की जवाबदेही किसके प्रति होगी? क्या तब पुलिस विधायिका के प्रति जवाबदेह रहेगी और कार्यपालिका सुरक्षा संबंधी मामलों में अगर फौरन फैसले लेने चाहेगी तो क्या उसके रास्ते में नई संस्थाएं रुकावट नहीं बनेंगी? यहां यह गौरतलब है कि राजनीतिक कार्यपालिका के तहत पुलिस के रहने के कई नुकसान हैं, तो कुछ फायदे भी हैं। यह ठीक है कि राज्यों में मौजूद सरकारों के हित में पुलिस का उपयोग और कई बार दुरुपयोग भी होता है। लेकिन इसका दूसरा पहलू यह है कि पुलिस के कार्यों के लिए कार्यपालिका की जवाबदेही बनी रहती है। एक स्वायत्त पुलिस के कार्यों के लिए आखिर जवाबदेह कौन होगा? यहां यह ध्यान में रखने की बात है कि हम एक निरपेक्ष माहौल में नहीं रहते हैं। पुलिस विभाग भी समाज के व्यापक सत्ता ढांचे के बीच बनता और काम करता है। सामाजिक पूर्वाग्रह पुलिसकर्मियों में उतना ही देखने को मिलता है, जितना की आम लोगों में। पुलिस की कार्रवाइयों में अक्सर जातीय, वर्गीय और सांप्रदायिक पूर्वाग्रह के लक्षण देखने को मिलते हैं। पुलिस के अंदरूनी ढांचे में मौजूदा सामाजिक विषमता का प्रभाव साफ तौर पर देखा जा सकता है। जब जनतांत्रिक संदर्भ में पुलिस सुधारों की बात होती है तो इस अंदरूनी ढांचे में सुधार भी एजेंडे में शामिल रहता है। सदियों से शोषित और सत्ता के ढांचे से आज भी बाहर समूहों को कैसे उनकी आबादी के अनुपात में पुलिस के भीतर नुमाइंदगी दी जाए और कैसे उन्हें निर्णय लेने की प्रक्रिया का हिस्सा बनाया जाए, पुलिस सुधार का यह एक अहम पहलू है। अल्पसंख्यकों की नुमाइंदगी पुलिस में कैसे बढ़े और पुलिसकर्मियों की कैसे ऐसी पेशेवर ट्रेनिंग हो, जिससे वो सांप्रदायिक तनाव के वक्त निष्पक्ष रूप से काम करें, यह पुलिस सुधार का बहुत अहम बिंदु है।
लेकिन दुर्भाग्य से न तो पुलिस सुधारों के लिए दायर याचिका में इन बातों की जरूरत समझी गई है और न सुप्रीम कोर्ट ने इन असंतुलनों को दूर करने के लिए कोई आदेश दिए हैं। पुलिस की सामाजिक जवाबदेही तय करने का कोई उपाय भी नहीं बताया गया है, सिवाय पुलिस शिकायत प्राधिकरण के गठन की बात को छोड़कर। जबकि अगर मानव अधिकार सरंक्षण कानून १९९३ पर अमल करते हुए हर राज्य में मानव अधिकार आयोग बन जाएं और जिलों के स्तर पर मानवाधिकार अदालतें स्थापित हो जाएं तो ऐसे प्राधिकरण की शायद कोई जरूरत नहीं रहेगी।
दरअसल, इस संदर्भ में गौर करने की सबसे अहम बात यह है कि पुलिस सुधार एक राजनीतिक एजेंडा है। यह जन अधिकारों के संघर्ष से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। सामाजिक और आर्थिक सत्ता का ढांचा निरंकुश हो और पुलिस पेशेवर एवं लोकतांत्रिक ढंग से काम करे, ऐसा भ्रम सिर्फ दक्षिणपंथी आदर्शवाद का ही हिस्सा हो सकता है, जिसमें हवाई मूल्यों की बात दरअसल व्यवस्था में अंतर्निहित शोषण और विषमता को जारी रखने के लिए की जाती है। या अधिक से अधिक यह मध्यवर्गीय फैन्टेसी का हिस्सा हो सकता है, जो अपने समाज के यथार्थ से कटे रहते हुए समस्याओं के मनोगत समाधन ढूंढती रहती है।
हकीकत यह है कि भारत या दुनिया के विभिन्न समाजों में जिस हद तक लोकतंत्र स्थापित हो सका है और आम लोगों ने अपने जितने अधिकार हासिल किए हैं, वो राजनीतिक संघर्षों के जरिए संभव हुआ है। पुलिस सुधारों के लिए भी राजनीतिक संघर्ष से अलग कोई और रास्ता नहीं है। संघर्ष औऱ उससे पैदा होने वाली जन चेतना सरकारों पर वो दबाव पैदा करती हैं, जिससे वो कोई सकारात्मक पहल करने को मजबूर होती हैं। पिछले एक दशक का ही अनुभव यह है कि लालू प्रसाद यादव के लिए अगर मुस्लिम वोट अहम होते हैं तो उनके सत्ता काल में पुलिस दंगों को रोकने का कारगर औजार साबित होती है। नरेंद्र मोदी के राज में पुलिस दंगों में मददगार बन जाती है। वामपंथी मोर्चे की सरकार के तहत पुलिस का जनता से व्यवहार बदला हुआ नजर आता है और जब मायावती सत्ता में होती हैं तो उत्तर प्रदेश के दलित पुलिस का एक अलग ढंग का रुख देखते हैं। इन मिसालों को पुलिस के दुरुपयोग का सबूत भी कहा जाता है, लेकिन यह भी कहा जा सकता है कि पुलिस तभी जनतांत्रिक ढंग से पेश आती है, जब सत्ता का ढांचा ज्यादा जनतांत्रिक होता है। बेशक, पुलिस को एक हद तक स्वायत्ता मिलनी चाहिए, मगर यह स्वायत्तता पूरे राजनीतिक संदर्भ से अलग नहीं हो सकती। सुप्रीम कोर्ट का आदेश इस संदर्भ से कटा हुआ लगता है, इसीलिए उससे ज्यादा कुछ ठोस हासिल होने की उम्मीद असल में एक मृगमरीचिका साबित हो सकती है।

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