Thursday, February 28, 2008

ऐतिहासिक चुनौतियों के बरक्स



सत्येंद्र रंजन
पाकिस्तान में चुनाव नतीजों ने देश में लोकतंत्र के उदय की वास्तविक उम्मीद जगाई है। असामान्य परिस्थियों, आतंकवाद के साये और चुनावी धांधली की अटकलों के बीच हुए इन चुनावों ने वह रास्ता खोला है, जिस पर अगर वहां के राजनीतिक दल सावधानी से चले तो देश पर से सेना, सामंतवाद, और अमेरिका का साठ साल पुराना शिकंजा कमजोर पड़ सकता है। ये चुनाव नतीजे तीन वजहों से बेहद खास हैं।
इनमें सबसे पहली बात यह कि पाकिस्तान के मतदाताओं ने अपनी लोकतांत्रिक आकांक्षा की अभिव्यक्ति आम राजनीतिक दलों के माध्यम से की है। अर्थात उन्होंने धार्मिक कट्टरपंथ को नकार दिया, जिसके उभार की ठोस गुंजाइश देश में मौजूद थी। उत्तर-पूर्व सीमा प्रांत और बलूचिस्तान जैसे प्रांतों में भी, जिन्हें अब चरमपंथी औऱ कट्टरपंथी ताकतों का गढ़ माना जाता है, कट्टरपंथियों की हार ने एक बार इस बात की तस्दीक की है कि इस्लाम के नाम पर बने इस देश की आम जनता कट्टरपंथी एजेंडे को स्वीकार नहीं करती है। बल्कि उसकी इच्छा वैसी राजनीतिक प्रक्रिया की है, जिसमें आम जन के हितों को तरजीह दी जाए। उत्तर पूर्व सीमा प्रांत में अवामी नेशनल पार्टी की जीत इस लिहाज से बेहद अहम है।
पाकिस्तान के मतदाताओं का दूसरा अहम पैगाम यह है कि देश के अंदरूनी मामलों में अमेरिका की दखंलदाजी उन्हें मंजूर नहीं है। बल्कि वे चाहते हैं कि एक संप्रभु देश की तरह पाकिस्तान अंतरराष्ट्रीय मामलों में अपनी स्वतंत्र नीति अपनाए। २००१ से लगातार अमेरिका द्वारा तैयार नुस्खे पर चल रहे पाकिस्तानी राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ के समर्थकों की करारी हार से यही संकेत मिलता है कि संप्रभुता के सौदे के बदले मिले अमेरिकी डॉलरों के बजाय आम पाकिस्तानी अपने देश के आत्म सम्मान को ज्यादा महत्त्व देता है। पाकिस्तान के इन चुनावों में पीपीपी और पीएमएल (नवाज) ने १९७३ के संविधान और न्यायपालिका की नवंबर २००७ के पहले की स्थिति की बहाली को अपना प्रमुख मुद्दा बनाया। इसे मिले जन समर्थन से यह साफ है कि पाकिस्तान के लोग आधुनिक ढंग की संसदीय व्यवस्था के हक में हैं, जिसमें अवरोध और संतुलन के पर्याप्त इंतजाम हों। उन्होंने इसका वादा करने वाले राजनीतिक दलों को साफ जनादेश दिया है। अब सबसे बड़ा सवाल यही है कि इस जनादेश का ये दल कैसे पालन करते हैं? पाकिस्तान की मुश्किल यह रही है कि पिछले दो दशक में पीपीपी औऱ पीएमएल (नवाज) राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी के बजाय राजनीतिक दुश्मन बने रहे हैं और इसलिए जब उनमें से किसी एक की निर्वाचित सरकार को सेना और सत्ता प्रतिष्ठान ने बर्खास्त किया, दूसरे दल इस अलोकतांत्रिक कदम का साथ दिया। बहरहाल, अब इतिहास उन्हें सैनिक शासक से असैनिक राष्ट्रपति बने परवेज मुशर्रफ के खिलाफ़ एक साथ खड़ा कर दिया है। मुशर्रफ को हटाने के एजेंडे पर इन दलों फिलहाल मोटी सहमति दिखती है। लेकिन सवाल है कि अगर मुशर्रफ हट गए तब भी क्या इन दलों में यह एका कायम रहेगी या फिर उनके आपसी टकराव से देश एक बार फिर राजनीतिक अस्थिरता पैदा हो जाएगी? दूसरा बड़ा सवाल यह है कि देश के दोनों प्रमुख दलों का एक ही पाले में रहना क्या स्वस्थ संसदीय लोकतंत्र के विकास के हित में है? विपक्ष की खाली जगह कहीं कट्टरपंथी या वे ताकतें नहीं भरने लगेंगी, जिनका हित लोकतंत्र को कायम न होने देने में है? ऐसे में क्या यह एक वांछित विकल्प हो सकता है कि पीपीपी मुशर्रफ से कामकाजी संबंध बनाते हुए सरकार चलाए और पीएमएल (नवाज) विपक्ष की भूमिका निभाए? इससे संभवतः देश में स्थिरता भी कायम रहेगी और धीरे-धीरे वास्तविक संसदीय लोकतंत्र की तरफ संक्रमण का रास्ता भी खुल सकता है। बहरहाल, ये सारे सवाल वो हैं, जिनका जवाब पाकिस्तान के चुनाव में विजयी हुए राजनीतिक दलों को ढूंढना है। अगर उन्होंने ऐसा किया तो वे एक ऐतिहासिक भूमिका निभाएंगे और अपने देश के लिए एक नया सवेरा लाने में कामयाब रहेंगे। वरना, इतिहास उन्हें आपसी स्वार्थ की वजह से अभूतपूर्व मौके को गंवा देने का दोषी ठहराएगा।

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