Wednesday, June 18, 2008

बिहार में वामपंथ

सत्येंद्र रंजन
हिंदी भाषी राज्यों में बिहार को इस बात का श्रेय है कि उसने सबसे देर तक सांप्रदायिकता को सत्ता में आने से रोके रखा। २००५ के अंत में आखिरकार सांप्रदायिक और सवर्णवादी ताकतें जब वहां कामयाब हुईं, तब भी उन्हें नीतीश कुमार के मुखौटे की जरूरत पड़ी। इस नए घटनाक्रम में एक और बात साफ है कि बिहार में सवर्ण ताकतों को भी सत्ता में आने के लिए मंडल परिघटना को गले लगाना पड़ा है। वहां जमीनी स्तर पर सामाजिक बदलाव की जो प्रक्रिया १९९० के दशक में मंडलवादी राजनीति के विस्तार से शुरू हुई, उसे पलटना सांप्रदायिक और प्रतिक्रियावादी राजनीतिक ताकतों के लिए भी फिलहाल मुमकिन नजर नहीं आता है। गौरतलब है कि १९८०-९० के दशक में दक्षिणपंथी राजनीति को देश में मिली नई स्वीकृति और लगभग उसी समय बहुसंख्यक वर्चस्व की उठी लहर ने देश की राजनीतिक तस्वीर काफी हद तक बदल दी। इन दोनों विचारों की उग्र प्रतिनिधि ताकत के रूप में भारतीय जनता पार्टी का तेजी से उभार हुआ, और सारा हिंदी इलाका उसके प्रभाव में आ गया।

उन्नीस सौ नब्बे का पूरा दशक इस भगवा उभार का दौर है। लेकिन इस पूरे दौर में अगर बिहार इस लहर पर काफी हद तक लगाम लगाने में कायम रहा तो इसकी वजहें जरूर एक दिलचस्प अध्ययन का विषय हैं। इन वजहों की जड़ें दरअसल बिहार की राजनीति के अतीत में जाती हैं। यह अतीत आजादी की लड़ाई के दौर में पैदा हुआ। भूमि सुधार का आंदोलन उस दौर में ही बिहार की राजनीति की एक खास पहचान बना और वामपंथी विमर्श एक लोकप्रिय धारा के रूप में उभरा। स्वामी सहजानंद सरस्वती, जयप्रकाश नारायण, सूरज नारायण सिंह, कार्यानंद सिन्हा आदि कुछ ऐसे नाम हैं, जिन्हें इस विमर्श को आगे बढाने का श्रेय दिया जा सकता है। दरअसल, यह उस दौर में हुए संघर्षों का ही नतीजा रहा कि आजादी के बाद बिहार में (अब के झारखंड इलाके को छो़ड़ कर) कांग्रेस के बाद सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी के रूप में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी उभरी और सोशलिस्ट धारा की पार्टियों का व्यापक असर देखा गया।

भाकपा ने भूमि सुधार, परती जमीन पर गरीबों के कब्जे, बटाईदारों के हक आदि के लिए लगातार संघर्ष चलाया, जिससे राज्य के कई हिस्सों में उसका मज़बूत जनाधार बना। लेकिन साठ के दशक के अंत में नक्सलवाद के उदय और सत्तर के दशक में बिहार में उसके प्रसार के साथ स्थितियों में बदलाव शुरू हो गया। कमोबेश भाकपा के जनाधार को अपने प्रभावक्षेत्र में लेते हुए ही मार्क्सवादी-लेनिनवादी संगठनों ने बिहार में अपने कदम फैलाए। धीरे-धीरे भाकपा कुछ मध्य जातियों के बीच सिमटती गई। निसंदेह इमरजेंसी का समर्थन भी भाकपा को कमजोर करने वाला एक पहलू रहा। इससे मध्य वर्ग में पार्टी की लोकप्रियता और स्वीकृति पर असर पड़ा और वामपंथी रुझान वाले आदर्शवादी नौजवानों को मार्क्सवादी-लेनिनवादी संगठन या जेपी आंदोलन से उभरे संगठन ज्यादा आकर्षित करने लगे।

फिर भाकपा की जड़ों पर जोरदार प्रहार मंडलवाद के उभार से हुआ। १९९० के दशक के आरंभ में इस राजनीतिक परिघटना का नेतृत्व लालू प्रसाद यादव ने किया। जिन जातियों में लालू प्रसाद यादव का मजबूत जनाधार बना, लगभग वही जातियां राज्य के कई इलाकों में भाकपा का जनाधार थीं। मंडलवादी राजनीति ने इन जातियों को जातिगत आधार पर गोलबंद कर दिया। सामाजिक स्तर पर सीमित संदर्भों में यह एक प्रगतिशील परिघटना थी, लेकिन इसकी विडंबना यह रही कि यह परिघटना वामपंथी राजनीति की कीमत पर आगे बढी। चूंकि भाकपा की पूरी राजनीति संसदीय दायरे में काफी पहले सिमट चुकी थी, इसलिए जातीय वोट-ध्रुवीकरण के आधार पर खड़ी हुई नई राजनीति का मुकाबला करने में भाकपा सक्षम नहीं हो सकी।
बिहार समेत पूरे उत्तर भारत में पिछले डेढ़-पौने दो दशक का दौर जातीय और सांप्रदायिक राजनीति के मजबूत होने का रहा है। यह राजनीति परंपरागत वामपंथी राजनीति के एंटी थीसीस (प्रतिवाद) के बतौर विकसित हुई है। इस राजनीति के पीछे सीमित अर्थों में न्याय पाने की आकांक्षा जरूर है, लेकिन पूरे समाज को न्याय पर आधारित करने की महत्त्वाकांक्षा नहीं है। ऐतिहासिक अन्याय की याद दिलाते हुए जाति, नस्ल या संप्रदाय के आधार पर गोलबंदी एक आसान रास्ता और रणनीति है, जबकि बगैर प्रतिशोध की भावना के एक नया समाज बनाने के सपने को साकार करने की कोशिश उतनी ही मुश्किल है। जब समाज में पहले ढंग के न्याय की लड़ाई मुख्य बनी हुई हो, उस वक्त दूसरे ढंग के संघर्ष का कमजोर पड़ जाने को एक स्वाभाविक परिणति माना जा सकता है। यह अलग बहस का सवाल है कि ऐसे संघर्ष के कमजोर पड़ जाने के लिए जिम्मेदार कौन है?

लेकिन हकीकत यही है कि बिहार में आज वह वामपंथी धारा बेहद कमजोर हो चुकी है, जो लंबे समय तक राज्य में राजनीतिक और सामाजिक विपक्ष की नुमाइंदगी करती रही। संसदीय राजनीति में उसने अपनी ताकत मंडलवादी पार्टियों के हाथों गवां दी और संसदीय राजनीति के बाहर उग्र वामपंथी धारा ने उसे बेदखल कर दिया। उग्र वामपंथी धारा इस पूरे दौर में बिहार में न सिर्फ कायम रही है, बल्कि लगातार मजबूत भी होती गई है। १९८० के दशक में सीपीआई (एम-एल- लिबरेशन) इस धारा की सबसे मजबूत ताकत रही, लेकिन अब वो जगह सीपीआई (माओवादी) ले चुकी है। लिबरेशन जहां अंडरग्राउंड गतिविधियों के साथ-साथ संसदीय राजनीति में जगह बनाने की रणनीति के आधार पर चलती रही है, वहीं माओवादी अंडरग्राउंड जन युद्ध की अकेली रणनीति पर चल रहे हैं।

माओवादियों ने बिहार के बहुत बड़े इलाके में अपनी मजबूत उपस्थिति बना ली है। इतनी कि उनके बंद की अपील पर उन इलाकों का जन जीवन अस्त व्यस्त हो जाता है। वो ट्रेन सेवाओं को रोक देने की ताकत रखते हैं और पुलिस थानों समेत अपने दूसरे निशानों पर हमला करने में वो अक्सर कामयाब रहते हैं। जहानाबाद जैसी सबको चौंका देने वाली कार्रवाई को वो अंजाम दे चुके हैं। राज्य के एक बड़े इलाके में वो संसदीय राजनीति की समानांतर राजनीतिक धारा के रूप अपने कदम फैला रहे हैं। अक्सर ऐसी खबरें आती हैं कि कई इलाकों में संसदीय राजनीति में शामिल पार्टियों और नेताओ को अब उनसे तालमेल बना कर अपना वजूद बनाए रखने की कोशिश करनी पड़ रही है। सुरक्षा एजेंसियां उनके प्रसार को रोकने में अगर नाकाम नहीं, तो काफी हद तक बेअसर जरूर नजर आती हैं।

लेकिन प्रश्न है कि क्या यह उग्र वामपंथी धारा बिहार की व्यापक राजनीति में किसी वाम रुझान का स्रोत बन सकती है? जमीनी स्तर पर यह मुमकिन है कि कई जगहों पर वंचित और उत्पीड़ित समूहों को माओवादी धारा की वजह से राहत मिले, लेकिन क्या इससे एक वैसी ताकत उभर सकती है जो व्यापक जनतांत्रिक दायरे में सांप्रदायिक-फासीवाद का राजनीतिक स्तर पर मुकाबला कर सके और जो राज्य-व्यवस्था पर जनता का नियंत्रण बनाने में मददगार हो? ये सवाल माओवादी विमर्श में शायद अहम नहीं हैं, क्योंकि इस विचारधारा के तहत मौजूदा व्यवस्था के भीतर जनतंत्र की कल्पना का कोई मतलब नहीं है। मौजूदा भारतीय माओवादी धारा हथियारबंद जन युद्ध से राजसत्ता पर कब्जे में यकीन करती है। जब तक यह नहीं हो जाता, तब तक वामपंथ की किसी और राजनीति उसकी राय में निष्फल है।

जाहिर है, माओवादी चाहे जितने मजबूत हों, उनसे बिहार या पूरे देश में कहीं भी परंपरागत अर्थों में वामपंथ को कोई मजबूती नहीं मिलती। बल्कि ऐसे वामपंथ को नष्ट करना माओवादी अपना मकसद मानते हैं। इसीलिए हम बिहार में यह अंतर्विरोध बहुत साफ देख सकते हैं कि एक तरफ जहां माओवादियों की ताकत बढ़ती गई है, वहीं संसदीय राजनीति में वामपंथ लगातार कमजोर होता जा रहा है। इसका परिणाम यह होता है कि मौजूदा संसदीय राजनीति के तहत जनतंत्र के मजबूत होने की प्रक्रिया बाधित हो जाती है। इससे इस राजनीति में सांप्रदायिक, प्रतिक्रियावादी और यथास्थितिवादी ताकतों के लिए मैदान खुला मिल जाता है और उनके तहत राज्य-व्यवस्था पर जन विरोधी रुझान उत्तरोत्तर ज्यादा हावी होता जा रहा है।

बिहार में इस अंतर्विरोध और इससे पैदा हुए गतिरोध के टूटने की निकट भविष्य में कोई उम्मीद नज़र नहीं आती। मौजूदा परिस्थितियों में ऐसा तभी हो सकता है, अगर माओवादी वैचारिक उग्रता और राजनीतिक जिद से उबरने का साहस दिखाते और अपनी राजनीति को जनतांत्रिक दायरे में ले आते और मुख्यधरा की वामपंथी ताकतों के साथ संवाद कायम करते। लेकिन अभी यह महज एक सदिच्छा है, इसलिए बिहार में फिलहाल किसी मजबूत वामपंथी राजनीति के उभरने की उम्मीद की कोई ठोस जमीन नहीं है।

5 comments:

Unknown said...

वामपंथ बिहार मे कहिं कहिं नजर आ जाता है. लेकिन वहां वामपन्थ के नाम पर जो लुट खसोट करते हैं वो सबको मालुम है. वामपंथ के नाम पर नक्सलाइटस लुट मार मचाते रहते हैं. अभी सबसे ज्याद रन्गदारी टैक्स बिहार मे नक्सलाइट्स वसुलते हैं. वामपंथी भले कहे कि हमार उससे कोइ लेना देना नहि है लेकिन बिहार कि भोली भाली जनता ईसको समझ नही पाती. नक्सलाइट्स मे जिसको एरिया कमान्डर का पोस्ट मिल गया मानो कुबेर का खजाना मिल गया. नेता के नाम पर बन्गाली दादा दिपान्कर भटाचार्या जी कुछ डफ़ली बजाते नजर आयेन्गे. बिहारी क्या मर गये हैं जो बन्गाली उनकी राजनिति करेन्गे. सामन्त्वाद, भगवा, इत्यादि शब्दो के नाम पर समाज मे जातिवाद, वैमनस्य फ़ैलाने कि कहानी कितने दिनो बिकेगी? ललू जैसे नेता समझ गये कि समाज के सभी वर्गो को लिये बिना राजनिति सम्भव नहि है. किसानो और मजदुरो के बिच लडाइ लगा कर कितने दिनो राजनिति के रोटि सेकेन्गे वामपंथी?
अगर किसी कारण वस आप पोस्ट नहि कर पाये तो जवाब जरुर दिजियेगा chirjiv22 AT gmail dot com par

Nalin Vilochan said...

आपका पोस्ट पढ कर एक बात तो तय लगती है कि , आपको इस बात का भ्रम तो जरुर है कि वामपंथ बिहार मे एक राजनैतिक जगह रखती है । और आप यह दिवास्वपन देख रहे है कि वामपंथ कभी बिहार मे अपनी पहचान बना भी पाएगा । वामपंथ एक राजनैतिक जोक कि तरह है जो नक्सलवादी के चुसे हुए खुन पर जिंदा है ।

बिक्रम प्रताप सिंह said...

बहुत अच्छा लिखा आपने। वाकई आज बिहार में वामपंथ कमजोर हो रहा है और इसकी जो वजहें आपने बताई हैं वो भी जायज हैं। मुझे याद है कभी मेरे यहां से (मधुबनी से) सीपीआई के भोगेंद्र झा सांसद चुने जाते थे। लेकिन ९० के दशक से वामपंथ बिहार से पलायित हो गया। बेगूसराय औऱ पूर्णिया में भी इसका वजूद अब पहले सा नहीं रहा। वैसे अगर भारत में वामपंथ के कर्ताधर्ता कोशिश करें तो इसे बिहार में भी पुनः खड़ा किया जा सकता है। सबसे बड़े दुख की बात है कि खुद को गरीबों का हिमायती कहने वाले ये वामदल अपनी बात को, अपनी विचारधारा को और अपने मकसद को गरीबों तक नहीं पहुंचा पाते हैं (खासकर बिहार में)। जहांतक दीपांकर भट्टाचार्य की बात है इससे मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता कि फलां नेता किस राज्य का है। जरूरी नहीं कि बिहार का भला चाहने वाला हर शख्स एक बिहारी ही हो।

रिम्मी (Rimmi) said...

Bahut acche Sir,
Itni gahrayi se Bihar mein Wampanth ke itihas ki jaankari mujhe kabhi nahi thi...

Apke aage main kya likhon... par jahan tak mujhe samajh aata hai...

Aaj ki tarikh mein agar Bihar mein kisi party ko apni Jadein Jamani hai to sabse pahle use aapni upastithi darj karani hogi...

Wqampanth ka astitva Bihar ab NAXAL ke roop mein Sthapit ho gaya hai... ya ye kahe ki Naxalites paryaywachi ban gaya hai...

Kyonki aaj bhi Bihar mein EK SOCH ki zarroorat saaf jhalakti hai...
Aur janta ko Nitish sarkar mein wo Raah dikhti hai Jo unhe Taraqi ke raste le jayega...
to pahal jagrookta aur ek IMAANDAR koshish ki honi chahiye Jade khud jam jayegi...

कुमार आलोक said...

८० के दशक तक बिहार में भारतीय कम्युनिष्ट पा‍टीॆ की शाखाएं पंचाय स्तर तक थी ..जनसंघषोंॆ में उनकी सक्रिय भागीदारी थी १९९० में गठबंधन की सरकार बिहार में बनीं ..लालू प्रसाद ने सबसे ज्यादा नुकसान माकपा और भाकपा का किया ..१९९५ चुनाव में माकपा और भाकपा की हार पर लालू ने कहा सीपीआइ हाफ और माकपा साफ ...जहानाबाद संसदीय हल्के से इंदिरा लहर के बाबजूद भाकपा जीती और लगातार ६ बार ....रिम्मी ने ठिक ही कहा उपस्थिती तो दजॆ करानी ही होगी ...जाति और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण ने इन दोनों पाटिॆयों को बिहार में सवाॆधिक नुकसान पहुंचाया.......