Friday, January 9, 2009

आतंकवाद और लापरवाह सियासत

सत्येंद्र रंजन
ई बनी राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी की भूमिका और दायरे पर हाल ही में हुए मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में एनडीए से जुड़े मुख्यमंत्रियों ने जैसे सवाल उठाए और उस पर सरकार का जो जवाब रहा, उससे यह बात साफ हो गई कि बेदह महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर भी राजनीतिक दलों का रवैया कितना लापरवाह और गैर-जिम्मेदार रहता है। एनडीए के मुख्यमंत्रियों ने कहा कि यह एजेंसी संघीय ढांचे के खिलाफ है, क्योंकि कौन से मामले वो अपने हाथ में लेगी और कौन से नहीं लेगी, यह तय करने में राज्य सरकारों की कोई भूमिका नहीं होगी। इस पर गृह मंत्री चिदंबरम ने कहा कि अगर इस एजेंसी को गठित करने के लिए बनाए गए कानून में कोई छेद है, तो उसे भरने के लिए फरवरी में संसद में संशोधन विधेयक लाया जा सकता है।

सिर्फ़ इन दो बयानों से यह साफ हो जाता है कि यह कानून सोच-विचार कर नहीं बनाया गया है। मुंबई पर आतंकवादी हमले के बाद देश में बने माहौल के बीच यह एक जल्दबाजी में की गई प्रतिक्रिया थी। मकसद आतंकवाद से लड़ना नहीं बल्कि देश की जनता को यह दिखाना (अथवा भ्रम पैदा करना) था कि सरकार कुछ कर रही है। गौरतलब है कि भारतीय जनता पार्टी और एनडीए के उसके सहयोगी दल आरंभ से आतंकवाद के खिलाफ कोई राष्ट्रीय या संघीय एजेंसी बनाए जाने के खिलाफ थे। यह प्रस्ताव प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का था, लेकिन विपक्ष की सहमति न मिलने की वजह से लंबे समय से टल रहा था।

लेकिन मुंबई हमलों के बाद जिस तरह मीडिया ने माहौल बनाया, खास कर जैसे राजनेताओं के खिलाफ सभ्रांत वर्ग के गुस्से का इजहार वहां देखने को मिला, उससे वामपंथी दलों को छोडकर बाकी विपक्षी दलों ने इस कानून के विरोध की हिम्मत नहीं दिखाई। वामपंथी दलों ने भी महज अपना विरोध दर्ज भर कराया, इसमें उन्होंने अपनी ताकत नहीं झोंकी। अब माहौल ठंडा होने पर एऩडीए इस कानून की खामियां उजागर कर रहा है और उधर सरकार के सोच-विचार का हाल यह है कि वह कानून बनने के महीने भर के भीतर ही इसमें संशोधन को तैयार हो गई है। यूपीए सरकार और एनडीए दोनों का यह नजरिया ही यह समझने के लिए काफी है कि वो आतंकवाद से लड़ने के प्रति कितने गंभीर हैं?

जब इतने गैर जिम्मेदार तरीके से इतने महत्त्वपूर्ण मसलों पर राजनीतिक दल काम करते हों तो उनसे आप नागरिक अधिकारों और बुनियादी लोकतांत्रिक सिद्धांतों के प्रति सचेत रहने की आशा शायद ही कर सकते हैं। इसकी मिसाल सामने है एक दूसरे कानून के रूप में। सरकार ने राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी के साथ ही गैर कानूनी गतिविधि (निरोधक) कानून में संशोधन भी पास करा लिया। इसमें कई ऐसे प्रावधान जोड़ दिए गए हैं, जो पहले पोटा में थे और जिनका कांग्रेस पार्टी और उसके सहयोगी दल विरोध करते थे। मसलन, प्राकृतिक न्याय के खिलाफ यह प्रावधान कि इस कानून के तहत आरोपी बनाए जाने पर खुद को निर्दोष साबित करने की जिम्मेदारी आरोपी की है। और यह कि अब इस कानून के तहत छह महीनों तक जमानत नहीं हो सकेगी। यूपीए सरकार ने सिर्फ इतनी रहम दिखाई कि पुलिस के सामने दिए गए बयान को आखिरी सबूत मानने का प्रावधान संशोधित कानून में शामिल नहीं किया। इस संशोधन से भाजपा औऱ उसके साथी खुश हैं। उनका यह दावा सही है कि आखिरकार इस मुद्दे पर उनकी वैचारिक जीत हुई है।

लेकिन समस्या यह है आतंकवाद के पेच कहीं ज्यादा उलझे हुए हैं और उसका समाधान सिर्फ ऐसे कानूनों ने नहीं हो सकता। टाडा और पोटा के अनुभवों के बाद तो यह बात को सामान्य विवेक से ही समझा जा सकता है। दरअसल, कानून की भूमिका तब शुरू होती है, जब आतंकवादी गतिविधियों को अंजाम दे दिया गया होता है। उसके बाद अगर आतंकवादी पकड़े जा सकें तब उन पर मुकदमे की प्रक्रिया शुरू होती है और कठोरतम कानून भी सिर्फ उसी स्थिति में कारगर हो सकता है। लेकिन जो आतंकवादी आत्मघाती होने की हद तक चले जाते हैं, वो ऐसी स्थितियों से शायद ही डरते हैं। हालांकि यह बात अनेक बार दोहराई जा चुकी है, लेकिन इस संदर्भ में इसे जरूर याद कर लिया जाना चाहिेए कि टाडा और पोटा दोनों के ही तहत सजा होने का प्रतिशत बेहद कम रहा और यह बात बहुत से आतंकवाद विरोधी सुरक्षा विशेषज्ञों ने भी मानी कि वे कानून आतंकवाद पर लगाम लगाने में नाकाम रहे।

जब वो कानून अपेक्षित नतीजे नहीं दे सके तो नए कानून इस कसौटी पर खरे उतरेंगे ऐसी उम्मीद रखने की शायद ही कोई वजह है। बल्कि यह बात अब ज्यादा साफ हो चुकी है कि अधिक जरूरत हमलों को रोकने के उपायों की है, जिसमें खुफिया तंत्र और सुरक्षा एजेंसियों के बीच तालमेल बेहतर करना सबसे पहली शर्त है। सरकार ने इस दिशा में कुछ कदम उठाए हैं, लेकिन ये कितने सफल होंगे, अभी यह देखना है। बहरहाल, इससे भी ज्यादा जरूरी ऐसा सामाजिक परिवेश बनाने की है, जिसमें आतंकवाद को अपने पैर पसारने का मौका न मिले। गौरतलब है कि कठोर कानून, जिनमें बुनियादी नागरिक अधिकारों की रक्षा का ख्याल न किया गया हो, विभिन्न वर्गों और समुदायों के बीच ऐसे असंतोष की वजह बन जाते हैं, जिससे विपरीत नतीजा सामने आता है।

मुश्किल यह है कि देश के शासक समूहों ने आतंकवाद और उससे लड़ने को तरीकों पर व्यापक नजरिया अपनाने के बजाय इस पूरी बहस को संकीर्ण दायरे में समेट दिया है। इसकी ही ये मिसाल है कि जिहादी आतंकवाद, क्षेत्रीय उग्रवाद और वाम-चरमपंथ को एक ही खाने में डाल दिया गया है। ये सारी धाराएं क्यों पैदा हुईं और इनके पीछे कौन सी ताकतें हैं, बिना इसका वस्तुगत विश्लेषण किए इन सबसे निपटने का एक जैसा तरीका अपनाना शासक वर्गों की समझदारी पर गहरे सवाल उठाता है। आधुनिक, सबको समान दर्जे के साथ खुद में शामिल कर चलने वाले धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक भारतीय राष्ट्रवाद की मूल धारणा पर हमला करने वाले धर्मांध आतंकवादियों का मकसद किसी भी रूप में उन चरमपंथियों से मेल से नहीं खाता जो देश की आबादी के एक बड़े हिस्से के विकास एवं बुनियादी स्वतंत्रताओं से वंचित रहने की वजह से शक्ति एवं प्रासंगिकता हासिल करते हैं। न ही उनकी लड़ाई का तरीका एक जैसा है।

बहरहाल, ये सारी बातें तभी राष्ट्रीय विमर्श में महत्त्व पा सकती हैं, अगर सचमुच किसी समस्या का हल निकालने का सब्र एवं इच्छाशक्ति हो। या फिर ऐसा लोकतांत्रिक दबाव हो, जिसकी अनदेखी सत्ताधारी नहीं कर सकें। दुर्भाग्य यह है कि जिस मीडिया का दबाव कारगर होता है, वह खुद कॉरपोरेट पूंजी के हितों के मुताबिक बेहद संकीर्ण वैचारिक दायरे में काम कर रहा है और कठोर कानून से सबको सुरक्षित बनाने का भ्रम पैदा करने में सरकार के साथ सहभागी है। इसका परिणाम यह हो रहा है कि हम आतंकवाद से तो सुरक्षित नहीं ही हो पा रहे हैं, लंबे संघर्ष से हासिल हमारी नागरिक स्वतंत्रताएं भी संकुचित होती जा रही हैं।

1 comment:

anju said...

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