Friday, April 10, 2009

मुद्दा वही, विकल्प धुंधला


सत्येंद्र रंजन
लोकसभा चुनाव के लिए लड़ाई की लकीरें अब साफ हो गई हैं। जितने राज्य, उतने तरह के समीकरण। इन समीकरणों के परिणाम के कुल योग से अगली लोकसभा का स्वरूप बनेगा और देश को नई सरकार मिलेगी। सबसे अहम सवाल यही है कि वह सरकार कैसी होगी? एक ऐसी सरकार जिसकी धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र में आस्था होगी, या सांप्रदायिक फासीवाद के नुमाइंदे फिर से देश की सत्ता पर सवार हो जाएंगे?

इस बार सांप्रदायिक फासीवाद का मुखौटा लालकृष्ण आडवाणी हैं। भारतीय जनता पार्टी ने ११ साल बाद फिर से अपना अलग चुनाव घोषणापत्र जारी किया है। उसमें हिंदू राष्ट्रवाद को मौजूदा संदर्भ में सबसे स्पष्ट रूप से व्यक्त करने वाले तीन मुद्दों- राम जन्मभूमि, समान नागरिक संहिता और संविधान की धारा ३७० के खात्मे- को फिर से खुल कर राजनीतिक वादे के रूप में शामिल किया गया है। इससे पहले फरवरी में नागपुर में हुई भाजपा की राष्ट्रीय परिषद की बैठक से भी यही संदेश मिला कि भाजपा बार अपने मुख्य जनाधार की ज्यादा चिंता करते हुए हिंदुत्व से जुड़े मुद्दों को जोर-शोर से उठाएगी। चुनाव अभियान शुरू होते ही वरुण गांधी के प्रकरण से हिंदुत्व के मुद्दे में नई जान आ गई।

बहरहाल, अगर भाजपा सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की रणनीति पर चल रही है तो इसमें कोई अचरज की बात नहीं है। यह भाजपा का घोषित उद्देश्य है। वह अल्पसंख्यक द्वेष, बहुसंख्यक समुदाय के भीतर असुरक्षा की फर्जी भावना और आधुनिक मुल्यों के प्रति हिकारत फैला कर ही यह उद्देश्य पूरा कर सकती है। लालकृष्ण आडवाणी ने कुछ दिन पहले कहा- ‘मंदिर मुद्दे की वजह से ही भाजपा केंद्र और कई राज्यों में सत्ता आ सकी। इस मुद्दे ने भारतीय राजनीति की धारा बदल दी।’

मंदिर का मुद्दा आखिर क्या था? यह मुस्लिम समुदाय के प्रति नफ़रत फैलाने की एक ऐसी मुहिम थी, जिसका मकसद हिंदु समुदाय के एक बड़े हिस्से के मन में बैठे पूर्वाग्रहों को उभारना और उसकी बदौलत राजनीतिक गोलबंदी करना था। १९८० और ९० के दशकों में देश में मौजूद माहौल के बीच यह तरीका काफी कामयाब रहा। भाजपा एक बार फिर वही माहौल बनाना चाहती है। तनाव और दंगों का माहौल। पिछले २० साल के अनुभव ने यह साबित कर दिया है कि भाजपा के पास कोई ऐसा खास सामाजिक-आर्थिक कार्यक्रम नहीं है, जिसके आधार पर वह राजनीतिक बहुमत जुटा सके। उसकी जीत की सिर्फ दो स्थितियां हैं- एक, कांग्रेस या किसी अन्य धर्मनिरपेक्ष पार्टी की सरकार के खिलाफ एंटी इन्कबेंसी, और दो- उग्र हिंदुत्व की लहर।

इसलिए भाजपा हिंदुत्व की लहर उभारने की कोशिश में रहती है। इसी से उसका मुख्य आधार उत्साहित होता है। यह संघ परिवार और उससे प्रभावित आधार है। इस आधार के मुख्य प्रवक्ता मोहन भागवत, प्रवीण तोगड़िया, अशोक सिंघल, प्रमोद मुत्तालिक, योगी आदित्यनाथ और अब वरुण गांधी हैं। इसकी नायिका साध्वी प्रज्ञा और साध्वी ऋतंभरा हैं। जिस बात को ये लोग भदेस ढंग से कहते हैं, उसी को लालकृष्ण आडवाणी, अरुण जेटली, अरुण शौरी ज़हीन भाषा में बोलते हैं। और वही बात भाजपा के घोषणापत्र एवं दूसरे दस्तावेजों में जाहिर होती है। अगर यह विचार और ये शक्तियां कभी सफल हो गईं तो ‘भारत का वह विचार‘ परास्त हो जाएगा, जो स्वतंत्रता संग्राम के मूल्यों से पैदा हुआ, जो दादा भाई नौरोजी-रवींद्र नाथ टैगोर, महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू की देखरेख में फूला-फला।

छह साल के एनडीए राज में सबको समाहित करके चलने और सबके लिए न्याय पर आधारित इस ‘भारत के विचार‘ के लिए हमने क्रमिक रूप से गहराती चुनौतियां देखीं। वह अकेले भाजपा का शासन नहीं था। लेकिन शिक्षा, संस्कृति और आम विमर्श का भगवाकरण उस दौर की सबसे खास परिघटना रही। राज्य-व्यवस्था पर अनुदारवाद हावी रहा। इनकी आड़ में अभिजात्यवादी और धुर दक्षिणपंथी आर्थिक नीतियां अपनाई गईं। इन सबके खिलाफ ही मतदाताओं की वह गोलबंदी हुई, जिससे २००४ में एनडीए पराजित हो सका।

तब यह गोलबंदी इसलिए भी मुमकिन हुई कि देश के सामने एक उद्देश्य से बना एक विकल्प था। तब सोनिया गांधी ने इस विकल्प की रूपरेखा तैयार करने में ऐतिहासिक भूमिका निभाई। इस विकल्प को देश का जनादेश मिला। लेकिन उसके बाद की यह त्रासदी है कि सत्ता में आया गठबंधन- यूपीए- खासकर कांग्रेस पार्टी और सोनिया गांधी, उस जनादेश के मूल स्वर को भूल गए। धर्मनिरपेक्षता को आधार बना कर जनपक्षीय नीतियों पर अमल की ऐतिहासिक जिम्मेदारी वो नहीं निभा सके। साम्राज्यवाद परस्त और जन विरोधी नीतियों को अपना कर उन्होंने धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रीय आम सहमति से विश्वासघात किया। नतीजा यह है कि २००९ के चुनाव के पहले धर्मनिरपेक्ष विकल्प बिखरा हुआ है।

जबकि देश के सामने मुख्य मुद्दा वही है, यानी सांप्रदायिक फासीवादी ताकतों को देश की राज्य-व्यवस्था पर काबिज होने से कैसे रोका जाए। क्या १६ मई को आने वाले नतीजों से यह मुमकिन हो पाएगा? फिलहाल लालकृष्ण आडवाणी और हिंदुत्व मंडली के लिए संकेत बहुत उत्साहजनक नहीं हैं। मगर, अपनी जोखिम पर ही उनकी संभावना को बिल्कुल खत्म माना जा सकता है। अभी उम्मीद का एक पहलू यह है कि भाजपा के पास सहयोगी दलों की कमी है। जनता दल (यू) को छोड़कर उसके किसी सहयोगी को बड़ी कामयाबी मिलने की सूरत नजर नहीं आ रही है। लेकिन चुनाव के बाद के समीकरणों में उसके साथ नए सहयोगी नहीं जुट जाएंगे, यह भी कोई पूरी तरह आश्वस्त होकर नहीं कह सकता।

जाहिर है, ऐसे में देश के जागरूक लोगों के सामने सिर्फ एक विकल्प बचता है। वह है, बुद्धिमानी से मतदान। इसके पीछे सबसे प्रभावी सोच यही होनी चाहिए कि भाजपा को कैसे पराजित किया जाए। कौन सा उम्मीदवार यह करने में सबसे ज्यादा सक्षम है, इसकी पहचान उनकी राजनीतिक बुद्धि की शायद सबसे बड़ी परीक्षा होगी। देश में प्रगतिशील जमात का एक बड़ा हिस्सा यूपीए के विश्वासघात को अभी नहीं भूला है। वह इसका बदला लेना चाहेगा। मगर, देश के बड़े हिस्से में ऐसे लोगों को संभवतः इसका मौका नहीं मिले। जहां तीसरा विकल्प नहीं है, वहां ऐसे मतदाता आखिर क्या करें? उन्हें यूपीए के घटक दलों, बल्कि यहां तक कि कांग्रेस को भी वोट देने का अप्रिय फ़ैसला लेना होगा। आखिर दांव पर देश का भविष्य है। देश के आम जन की बेहतरी निसंदेह सबसे बड़ा सवाल है, मगर यह काम सांप्रदायिक शासन के तहत तो बिल्कुल मुमकिन नहीं है। इसीलिए भाजपा को हराना पहली प्राथमिकता है।

2 comments:

Ek ziddi dhun said...

जिस बात को ये लोग भदेस ढंग से कहते हैं, उसी को लालकृष्ण आडवाणी, अरुण जेटली, अरुण शौरी ज़हीन भाषा में बोलते हैं।....VAJPEYI BHI

Anonymous said...

बहुत साफ शब्दों में , मतदाता को सोच समझ कर मतदान करने की ये अपील सराहनीय हैं। वाक्ई देश को जोड़ने का काम सबसे अहम हैं,पहले यहीं सोचना चाहिए कि कौन राजनीतिक दल हमें जोड़ रहा हैं और कौन भारतीयों को एक दूसरे से भिड़ाने की जुगत में हैं। मतदान के लिए ये कसौटी अनिवार्य होनी चाहिए।