Monday, May 18, 2009

झटका तगड़ा और चोट गहरी है


सत्येंद्र रंजन
वामपंथ को लगा झटका तगड़ा है। खासकर पश्चिम बंगाल में। भूगोल की भाषा में जिसे टेक्टोनिक शिफ्ट यानी जमीन के अंदर चट्टान का दरकना कहा जाता है, मामला कुछ वैसा है। राज्य के उद्योगीकरण का उत्साह लेफ्ट फ्रंट को महंगा पड़ा। नंदीग्राम और सिंगूर से उठी कंपन जमीन के नीचे फ्रंट की जड़ों तक पहुंच गई। यह साफ है कि मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और उसके सहयोगी दल पहले से इस बात का अंदाजा नहीं लगा सके, हालांकि पंचायत चुनाव और कई उपचुनावों से इसके संकेत मिल रहे थे।

नंदीग्राम और सिंगूर ने कुछ वैसे तबकों को नाराज किया, जो वाम मोर्चे का पिछले तीन दशक से आधार थे। चूंकि नंदीग्राम में मुस्लिम समुदाय के किसान ज्यादा थे, इसलिए इस मुद्दे ने मुस्लिम समुदाय में गुस्सा भर दिया। उधर वाम मोर्चा विरोधी सभी ताकतें एकजुट हो गईं। यह ममता बनर्जी से लेकर माओवादियों तक का गठबंधन था, जिसमें सोशलिस्ट यूनिटी सेंटर जैसी ताकतों को भी अपनी भूमिका और प्रासंगिकता ढूंढने का मौका मिल गया। कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस में चुनावी गठजोड़ हो जाने से वाम मोर्चा विरोधी वोटरों को एक ठोस विकल्प मिल गया। नतीजा ऐसे चुनाव परिणाम हैं, जिसका अगर वाम मोर्चा को अंदेशा नहीं था, तो उसके विरोधियों को भी इसकी उम्मीद नहीं थी।

अगर पश्चिम बंगाल में यह झटका नहीं लगता तो केरल में पराजय को हर पांच साल में वहां से आने वाले उलटे नतीजों की बात कह कर वामपंथी पार्टियां गहरे आत्म मंथन से बच सकती थीं। लेकिन अब उनके पास ऐसा कोई बहाना नहीं है। इसलिए उन्हें अब यह सोचना पड़ रहा है कि आखिर क्यों उनका अपना जनाधार खिसक गया। बहरहाल, स्थानीय कारणों के अलावा कुछ और वजहें हैं, जिन पर इन दलों के सिद्धांतकारों को अब सोचना चाहिए।

वामपंथी दलों ने २००४ में एक सुविचारित राजनीतिक लाइन के तहत कांग्रेस नेतृत्व वाली सरकार को केंद्र में बाहर से समर्थन दिया था। २००८ में उन्होंने सिद्धांत के आधार यह समर्थन वापस लिया। इन दोनों कदमों के राजनीतिक तर्क थे और इससे लेफ्ट की छवि उसके समर्थक और उससे सहानुभूति रखने वालों तबकों में ऊंची हुई। लेकिन इसके बाद वामपंथी दलों ने तीसरा मोर्चा बनाने की जो राजनीतिक लाइन ली, वह उसके बहुत से समर्थकों के भी गले नहीं उतरी।

कांग्रेस और भाजपा का विकल्प तैयार किया जाए, देश में बहुत से लोग चाहते हैं। लेकिन अहम सवाल यह है कि क्या मायावती, जयललिता, चंद्रबाबू नायडू, भजनलाल, बाबूलाल मरांडी और नवीन पटनायक ऐसा विकल्प दे सकते हैं? गैर कांग्रेस- गैर भाजपा विकल्प धुर दक्षिणपंथी आर्थिक नीतियों और सांप्रदायिकता की विरोधी ताकतें ही मुहैया करा सकती हैं। ऊपर जिन नेताओं का जिक्र आया है, उनमें सभी उस दौर में भाजपा से हाथ मिला चुके हैं, जब वह आक्रामक सांप्रदायिकता की सियासत कर रही थी, और उन नेताओं के दलों की आर्थिक नीतियां किसी भी रूप में कांग्रेस या भाजपा से अलग हैं, यह बात कोई विवेकशील व्यक्ति नहीं कह सकता।

तो क्या ये दल सिर्फ इसलिए कांग्रेस और भाजपा का विकल्प हो सकते थे कि वामपंथी दलों के साथ उन्होंने कार्यनीतिक (टैक्टिकल) समझौता कर लिया? चुनाव नतीजों से जाहिर है कि वामपंथी दल उन दलों को तो जनता की निगाह में वैधता तो नहीं दिला सके, खुद उनकी साख पर सवाल जरूर उठ खड़े हुए। अब वामपंथी दलों के सामने चुनौती खोयी साख को फिर से वापस पाने की है। इन दलों को अब इस सवाल पर विचार करना चाहिए कि क्या सिद्धांतहीन तीसरा विकल्प देने की राह पर चलना अब भी उचित है? क्या बेहतर यह नहीं होगा कि वो सिद्धांतनिष्ठ वामपंथी विकल्प तैयार करें? भले यह देश की राजनीति में छोटी ताकत रहे, लेकिन उसका नैतिक कद और रुतबा ज्यादा प्रभावशाली हो सके?

यह विडंबना ही है कि २००४ से साढ़े चार साल तक रचनात्मक और सकारात्मक भूमिका निभाने के बाद लेफ्ट फ्रंट बेहद कमजोर होकर १५वीं लोकसभा में लौटा है, जबकि यूपीए सरकार ने जो कदम लेफ्ट के दबाव में उठाए उसका फायदा उठाते हुए कांग्रेस १८ साल में सबसे बेहरतीन प्रदर्शन कर पाई है। कांग्रेस की सफलता के पीछे मनमोहन सिंह सरकार के प्रदर्शन को एक बड़ी वजह बताया जा रहा है। इस प्रदर्शन में राष्ट्रीय रोजगार गारंटी कानून, आदिवासी एवं अन्य वनवासी भू-अधिकार कानून, सूचना का अधिकार कानून और किसानों के लिए कर्ज माफी को अहम बताया गया है। राजनीति पर निगाह रखने वाले किसी भी शख्स को यह कहने में शायद ही कोई हिचक हो कि यूपीए सरकार ने इनमें से हर कदम लेफ्ट के दबाव में उठाया।

जबकि लेफ्ट के दबाव की वजह से रुपये की पूर्ण परिवर्तनीयता, बैंकों में विदेशी निवेश, और कई सरकारी कारखानों में विनिवेश रोके जा सके। अगर ऐसा नहीं होता विश्वव्यापी मंदी की भारत पर मार और गहरी होती। यानी जिन कदमों के लिए यूपीए सरकार में उत्साह नहीं था वो उसे उठाने पड़े और जिन कई कदमों के लिए अति उत्साह था, उन्हें वह नहीं उठा सकी। इसका सीधा श्रेय वामपंथी दलों को था। लेकिन इसका फायदा कांग्रेस को मिला, जबकि वामपंथी दलों की कमर टूट गई। वामपंथी दलों के लिए यह भी गहरे विचार-विमर्श का विषय है कि आखिर वो अपने राजनीतिक संघर्षों का फायदा क्यों नहीं उठा सके?

२००९ के जनादेश ने वामपंथी दलों को मनमोहन सिंह सरकार को समर्थन देने या ना देने की दुविधा से बचा दिया है। इस जनादेश ने उनकी संभवतः वैसी हैसियत भी नहीं छोड़ी है कि वो कोई बड़ी राष्ट्रीय भूमिका निभाने का भ्रम पाल सकें। ताजा जनादेश ने भाजपा को भी १९९१ से पहले की हालत में पहुंचा दिया है, इसलिए सांप्रदायिकता विरोधी कार्यनीति को अपनाने की मजबूरी भी फिलहाल उनके सामने नहीं है। ऐसे में यह झटका लेफ्ट के लिए एक अवसर भी साबित हो सकता है। वो गंभीर मंथन करें तो २०११ से पहले ऐसे सुधार के कदम उठा सकते हैं, जिससे पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में वो अपना गढ़ बचा सकें। अगर वो तीसरा मोर्चे जैसे विकल्प का भ्रम छोड़ दें और वाम मोर्चे को वैचारिक एवं सांगठनिक रूप से मजबूत करें तो कम से कम नीतियों में वो देश के सामने वामपंथी विकल्प जरूर पेश कर सकते हैं। लेकिन केंद्र सरकार पर ऐसी नीतियों का दबाव बन सके, इसके लिए अब उन्हें कम से कम पांच साल इंतजार करना होगा।

1 comment:

arfa khanum said...

अच्छा विष्लेषण है । ख़ासकर दो बिंदु- भाजपा की हार ने सांप्रदायिकता से लड़ने का मुद्दा भी लेफ्ट से छीन लिया और अगर कॉंग्रेस से वैचारिक विरोध है तो मायावती या नवीन पटनायक से किस तरह की वैचारिक समानता के साथ लेफ्ट तीसरा दल बनाने चला था। लेकिन ताज्जुब इस बात का है यहां भी जीत अमेरिकी नीतियों के मानने वालों और उन पर चलने वाले दलों और नेताओं की हुई है। क्या ये महज़ इत्तेफ़ाक है कि लगभग हर उस दल को हार का सामना करना पड़ा है जिसने अमेरिका और उसकी नीतियों ( भारत में परमाणू डील ) का विरोध किया। ख़ासकर बड़ी तादाद में मुसलमानों ने कॉंग्रेस को वोट देकर अमेरिका विरोधी विचारों के साथ कैसा बुनियादी समझौता किया । ऐसे देश में जहां बाक़ी जगहों के अलावा ख़ासकर केरल में मुस्लिम बहुल इलाकों में फिलिस्तीन पर हुए हमले एक बड़ा चुनावी मुद्दा था ।