Tuesday, September 1, 2009

वाम राजनीति के मुश्किल दिन

सत्येंद्र रंजन

भारत में वाम राजनीति आज जितने संकट में है, आजादी के बाद उतना शायद कभी नहीं थी। यह विडंबना ही है कि जब सांप्रदायिक ताकतों के सत्ता में आने का खतरा काफी घट गया है और दशकों के बाद सकारात्मक राजनीति की संभावना बेहतर हुई है, तब वामपंथी पार्टियों के सामने खुद को प्रासंगिक बनाए रखने का सवाल खड़ा हो गया है। यह वो मौका है, जब कांग्रेस नेतृत्व वाली सरकार की नीतियों का वामपंथी विकल्प पेश करने के लिए न सिर्फ अनुकूल स्थितियां है, बल्कि यह एक ऐतिहासिक जरूरत भी है। लेकिन संसद में अपनी बेहद कमजोर उपस्थिति की वजह से वामपंथी दल यह भूमिका निभाने में अक्षम हो गए हैँ। सच्चाई तो यह है कि मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और उसके सहयोगी दलों के सामने इस वक्त सबसे बड़ी चुनौती पश्चिम बंगाल में अपना किला बचाने की है। पिछले आम चुनाव में यह किला बुरी तरह हिल चुका है और उसके बाद भी पराभव रुकने के कोई संकेत नहीं मिल रहे हैं।

माकपा के नेतृत्व वाला वाम मोर्चा आज कई दिशाओं से निशाने पर है। एक तरफ पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के नेतृत्व में तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस का मोर्चा है, तो दूसरी तरफ अल्ट्रा लेफ्ट यानी उग्र वामपंथी ताकतें हैं। अल्ट्रा लेफ्ट में माओवादी, अन्य नक्सली संगठन और एसयूसीएआई जैसी हाशिये पर की पार्टियां प्रमुख हैं। वैचारिक हमला करने के लिए कथित जन आंदोलन और उनके समर्थक बुद्धिजीवी भी हैं। इन सबमें उद्देश्य का एक अद्भुत साझापन बन गया है। यानी उनके अंतिम मकसद चाहे जो हों, फिलहाल माकपा की जड़ें उखाड़ना उनका समान उद्देश्य बना हुआ है।

पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी और कांग्रेस के इर्द-गिर्द पूर्व सामंती ताकतों, बड़े व्यापारियों, मध्य वर्ग और नव धनिक तबकों की हमेशा से गोलबंदी रही है। इन तबकों का लेफ्ट विचारधारा से हितों का सीधा अंतर्विरोध है। भूमि सुधार और पंचायती व्यवस्था से राज्य का जो सामाजिक-राजनीतिक चेहरा बदला, उसका सबसे ज्यादा नुकसान इन्हीं तबकों को हुआ। ताजा परिस्थितियों में प्रति-क्रांति का इन तबकों का मंसूबा नई बुलंदियों पर है। लेकिन अल्ट्रा लेफ्ट की ताकतों के उग्र विरोध की वजहें राजनीतिक से ज्यादा मनोवैज्ञानिक हैं। माकपा ने अपनी नीतियों और उन पर अमल से एक ठोस वोट आधार का निर्माण करते हुए संसदीय राजनीति में हस्तक्षेप की अपनी हैसियत बनाई और कमोबेश इसे अब तक कायम रखा है। यह हैसियत देश में किसी दूसरी वामपंथी पार्टी या संगठन की नहीं है।

राजनीतिक मनोविज्ञान के विशेषज्ञ यह जानते हैं कि ऐसी सफलताएं समान वैचारिक पृष्ठभूमि के संगठनों और कार्यकर्ताओं में कैसा बिरादराना द्रोह और ईर्ष्या का भाव पैदा करती हैं। माओवादी या दूसरे नक्सलवादी संगठन यह जानते हैं कि जब तक माकपा को उसकी मौजूदा हैसियत से बेदखल नहीं किया जाता, वे वामपंथी विरासत और इसकी राजनीतिक भूमि को उससे नहीं हथिया सकेंगे। वैचारिक रूप से बहुत पहले माकपा को संशोधनवादी घोषित कर कम्युनिस्ट शब्दावली में उसकी नैतिक साख को वे अपनी तरफ से खत्म कर चुके हैं। लेकिन राजनीति के व्यापक परिदृश्य पर यह साख अब तक बची हुई है और यही माकपा की प्रासंगिकता है। अब नए हालात में उग्र वामपंथी ताकतों को लगता है कि माकपा की वैचारिक और नैतिक साख के साथ-साथ उसकी सांगठनिक मजबूती एवं राजनीतिक जमीन को नष्ट करने का भी उनके पास बेहतरीन मौका है।

जो मानसिकता अल्ट्रा लेफ्ट की ताकतों की है, वही कमोबेश अपने को जन आंदोलन कहने वाले संगठनों की भी है। अलग-अलग मुद्दों पर देश के अलग-अलग हिस्सों में उभरे इन संगठनों को भी इस नई स्थिति में अपने लिए राजनीतिक प्रासंगिकता बनाने का मौका दिख रहा है। नंदीग्राम और सिंगूर ने इन तीनों तरह की ताकतों को एक मंच पर आने का बहाना मुहैया कराया। लोकसभा चुनाव में वाम मोर्चे की हार से इनका हौसला बढ़ा और अब वो इस प्रयोग को आगे बढ़ाने में जुटी हुई हैं। सबका निशाना अब २०११ में होने वाला पश्चिम बंगाल विधानसभा का चुनाव है। उस चुनाव ने दो साल पहले से ही एक ऐतिहासिक महत्त्व हासिल कर लिया है। आखिर उस चुनाव से देश में वामपंथ का भविष्य तय होना है।

लोकसभा चुनाव के बाद कमजोर हुई माकपा पर माओवादियों ने हिंसक हमले तेज कर रखे हैं। चूंकि तृणमूल कांग्रेस का मकसद राज्य में स्थिति को बेकाबू दिखाना है, इसलिए वह ऐसी घटनाओं के प्रति दोहरा रुख अपनाते हुए सामने आती है। आम तौर पर माओवादियों को आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा मानने वाली कांग्रेस इसे नजरअंदाज करती है, क्योंकि उसे ममता बनर्जी की जरूरत है, जिनके कंधों पर सवार हो कर वह ३४ साल बाद पश्चिम बंगाल की सत्ता में साझीदार बनने का मंसूबा पाले हुए है। इन सभी दलों की रणनीति और अल्पकालिक कार्यनीति पर गौर करते हुए यह सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि पश्चिम बंगाल के लिए अगले दो साल बेहद मुश्किल रहने वाले हैं। इस अवधि में वहां हिंसा और प्रति-हिंसा का दौर शायद तेज होता जाएगा। माकपा विरोधी ताकतों की रणनीति यह भी है कि राज्य की वाम मोर्चा सरकार को प्रशासन के मोर्चे पर कोई ऐसा सुधार या पहल करने का मौका न दिया जाए, जिससे वह अगले दो साल में अपने खोये जनाधार को दोबारा हासिल कर ले।

वाम मोर्चे ने २००९ के चुनाव में पांच साल पहले की तुलना में ७ फीसदी वोट गंवाए। उसके सामने चुनौती यही है कि क्या अगले दो साल में वह इन्हें वापस अपने खेमे में ला सकेगा? कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस के साथ आ जाने से वाम मोर्चा विरोधी विरोधी वोटों के बंटवारे का फायदा पाने की उम्मीद नहीं कर सकता। तो वाम मोर्चा सरकार के सामने अब क्या विकल्प हैं? पिछले तीन महीनों में वाम दायरे में हुई चर्चाओं में वाम मोर्चे के समर्थन खोने के पीछे कई वजहों की पहचान की गई है। इनमें सबसे प्रमुख है उद्योग लगाने के लिए किसानों की जमीन के अधिग्रहण की कोशिशें, जिससे कृषक समाज में भय और आक्रोश पैदा हुआ। इसके अलावा राष्ट्रीय रोजगार गारंटी कानून, सार्वजनिक वितरण प्रणाली आदि जैसी योजनाओं पर अमल में लापरवाही और अल्पसंख्यकों के लिए विशेष उपाय करने में कोताही ऐसे पहलुओं के रूप में सामने आए हैं, जिससे अपने समर्थक आधार में वाम मोर्चा को लेकर मोहभंग जैसी स्थिति पैदा हुई।

जाहिर है, लोकसभा चुनाव में लेफ्ट फ्रंट को लगे झटके का सीधा शिकार पश्चिम बंगाल के औद्योगिकरण की कोशिशें हुई हैं। राज्य में निवेश आमंत्रित करने का वाम मोर्चा सरकार का उत्साह ठंडा हो गया है। वाम बुद्धिजीवियों के बीच इस मुद्दे पर सबसे तीखी बहस चल रही है कि क्या बिना उद्योग लगाए राज्य को विकास के अगले चरण में ले जाया जा सकता है? क्या इसके बिना बढ़ती आबादी के लिए रोजगार के अवसर पैदा किए जा सकते हैं, और इसके बगैर खेती पर से आबादी का बोझ घटाने के क्या उपाय हो सकते हैं? क्या किसी भी राज्य सरकार के पास इतने संसाधन हैं कि वह सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योग लगाकर अपनी आबादी की विभिन्न जरूरतें पूरी कर सके? और अगर उद्योग लगने हैं तो जमीन के अधिग्रहण का विकल्प क्या है?
माकपा के हमदर्द बुद्धिजीवी भी यह मानते हैं कि पार्टी इन सवालों का जवाब खोजे बिना मौजूदा संकट से नहीं निकल सकती। मसलन, मशहूर अर्थशास्त्री और मार्क्सवादी विचारक प्रभात पटनायक ने अपने हाल के एक लेख में लिखा है- “लेफ्ट साम्राज्यवाद के अपने प्रतिरोध को आगे नहीं बढ़ा सकता, अगर वह ‘विकास’ के प्रति वैकल्पिक नजरिया नहीं अपनाता है, वैसा नजरिया जो उस नव-उदारवाद से अलग हो, जिसे साम्राज्यवादी एजेंसियां हर जगह आगे बढ़ा रही हैं। .....इस नजरिए की प्रमुख विशेषता लेफ्ट के समर्थक वर्ग आधार के हितों की रक्षा होनी चाहिए। विकास को जनवादी क्रांति को आगे बढ़ाने के संदर्भ में परिभाषित किया जाना चाहिए, एक ऐसी परिघटना के रूप में जो लेफ्ट के समर्थक ‘आधारभूत वर्गों’ की आर्थिक हालत को सुधारने में मददगार हो।”

दरअसल, वाम मोर्चे के तीन दशक के शासन ने कई ऐसी सामाजिक-आर्थिक स्थियां पैदा की हैं, जिनका हल तलाश करना आसान नहीं है। कुछ जानकार मानते हैं कि राज्य में राष्ट्रीय रोजगार गारंटी कानून (नरेगा) पर अमल में इसलिए ढिलाई बरती गई, क्योंकि भूमि सुधार से गांवों में जो छोटे किसान अस्तित्व में आए, वे नहीं चाहते कि खेतिहर मजदूरों की सौदेबाजी की ताकत बढ़े। नरेगा खेतिहर मजदूरों की स्थिति मजबूत बनाता है और आम तौर पर इससे न्यूनतम मजदूरी का स्तर बढता है। पश्चिम बंगाल के छोटे किसान वाम मोर्चे की नीतियों से वजूद में आए और उसका समर्थन आधार हैं। बहरहाल, मजदूरों की उपेक्षा ने उन्हें वाम मोर्चे से नाराज कर दिया और वे अल्ट्रा लेफ्ट के खेमे में जा रहे हैं। चुनाव झटका लगने के बाद खबर है कि वाम मोर्चा नरेगा को लागू करने में कुछ ज्यादा ही उत्साह दिखा रहा है। इसका क्या परिणाम होगा, अभी कहना मुश्किल है। इससे खेतिहर मजदूरों में खोया समर्थन आधार एक हद तक वापस आ सकता है, लेकिन इससे छोटे किसान नाराज हुए तो वाम मोर्चे को लेने के देने भी पड़ सकते हैं।

चुनौती सांगठनिक स्तर पर भी है। १९६० के दशक के उत्तरार्द्ध से लेकर १९७७ तक माकपा कार्यकर्ताओं ने अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता और संघर्ष भावना से पार्टी का वह आधार बनाया, जिससे वो सत्ता में आ सकी। लेकिन अब ऐसे कार्यकर्ताओं का अभाव पार्टी में महसूस किया जा रहा है। पश्चिम बंगाल के पूर्व वित्त मंत्री और मार्क्सवादी विचारक अशोक मित्र ने लिखा है- “सीपीएम एक अभूतपूर्व स्थिति का सामना कर रही है और इस संकट से उबरना है तो उसे अपने सांगठनिक ढांचे और कार्यक्रम संबंधी रणनीति एवं गतिविधियों पर संपूर्ण पुनर्विचार करना होगा। इसके सामने एक कठिनाई यह है कि पश्चिम बंगाल में उसके तीन लाख कार्डधारी सदस्यों में ९० फीसदी ऐसे हैं, जिनका जन्म १९७७ के बाद हुआ। इन लोगों ने सिर्फ अच्छे दिन देखे हैं, जब पार्टी लगातार सत्ता में रही है। दरअसल उनमें से बहुत से लोग सिर्फ इसीलिए पार्टी के साथ हैं कि वह सत्ता में है। अगर वह सत्ता में नहीं रही तो यह प्रजाति कहीं गायब हो जाएगी।”

इन स्थितियों में कई विश्लेषक मानते हैं कि दो साल बाद वाम मोर्चे के सत्ता गंवा देने की वास्तविक आशंका है, क्योंकि जितने विकट सवाल पार्टी के पास हैं उनका हल ढूंढ सकने के लिए पार्टी के पास न तो पर्याप्त समय है, और ना ही इसके लिए वस्तुगत स्थितियां उनके अनकूल हैं। हालांकि अशोक मित्र जैसे विचारकों की राय है कि सत्ता से हटना संभवतः माकपा के लिए अच्छी बात होगी, क्योंकि वह तब अपने क्रांतिकारी जड़ों की तरफ एक बार फिर लौट सकेगी। लेकिन सवाल सिर्फ माकपा का नहीं है। सवाल यह है कि उस हालत में देश में वाम विमर्श क्या मोड़ लेगा? माकपा की आलोचना में अपनी पूरी ताकत झोंक देने वाले अल्ट्रा लेफ्ट और जन आंदोलन के समर्थक इस बात को पूरी तरह नजरअंदाज कर देते हैं कि पिछले तीन दशक में राष्ट्रीय राजनीति में जन-पक्षीय रुझान जोड़ने में वाम मोर्चे की अहम भूमिका रही है। जब सांप्रदायिक फासीवाद का खतरा बढ़ता जा रहा था, उस समय उसके खिलाफ राजनीतिक गोलबंदी की भूमिका वाम मोर्चे ने ही तैयार की। २००४ के बाद यूपीए सरकार के नव-उदारवादी रुझानों पर लगाम रखने और सरकारी नीतियों में सोशल डेमोक्रेटिक रुझान जोड़ने में वाम मोर्चे ने सर्व-प्रमुख भूमिका निभाई। इससे सांप्रदायिकता के खतरे को फिलहाल हाशिये पर धकेला जा सका है।

वाम मोर्चे के खास योगदान से जो राजनीतिक दिशा तैयार हुई, यूपीए-२ सरकार भी उसी पर चलने का संदेश दे रही है। अब समय सही वामपंथी नीतियों को सामने का है। लेकिन इस मौके पर वाम मोर्चा खुद गहरे संकट में फंस गया है। अल्ट्रा लेफ्ट और जन आंदोलन के समर्थक इस स्थिति में अपने लिए भले अवसर देख रहे हों, लेकिन अपनी उग्रता, दृष्टिकोण की नकारात्मकता और अपरिपक्वता की वजह से वे अभी वह भूमिका प्राप्त कर सकने में अक्षम हैं, जिसे वाम मोर्चा ने पिछले दशकों में जिम्मेदारी से निभाया है। इसलिए वाम मोर्चे का संकट पूरी वामपंथी राजनीति का संकट है, इस बात को समझा जाना चाहिए। अल्ट्रा लेफ्ट और जन आंदोलनों की ताकतें इस संकट को बढ़ाने में योगदान कर बेहद नकारात्मक भूमिका निभा रही हैं। इसका परिणाम भारतीय लोकतंत्र को लंबे समय तक भुगतना पड़ सकता है। बहरहाल, अगर वाम मोर्चे ने अपनी नीतियों और कार्यक्रमों में सुधार कर प्रलय के प्रवक्ताओं की भविष्यवाणियां गलत साबित कर दीं और पश्चिम बंगाल का अपना किला बचा लिया, तो वामपंथी राजनीति को न सिर्फ एक नई शक्ति मिलेगी, बल्कि देश के पूरे राजनीतिक विमर्श को भी एक सकारात्मक दिशा मिल सकेगी। फिलहाल इतना ही कहा जा सकता है।

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