Friday, November 27, 2009

महाभारत से पहले कृष्ण-कूटनीति

सत्येंद्र रंजन

भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) की पैरवी कर रहे बुद्धिजीवियों की यह सदिच्छा सराहनीय है कि सरकार ऑपरेशन ग्रीनहंट शुरू करने के बजाय माओवादियों से बातचीत करे। इस मांग के नैतिक महत्त्व को संभवतः सरकार भी समझती है, इसीलिए उसने इस मुद्दे पर अपनी चालें चली हैं। यह बिल्कुल नया रुझान है कि माओवादियों की हिंसा या तोड़-फोड़ की हर कार्रवाई के बाद केंद्रीय गृह मंत्रालय सार्वजनिक बयान जारी करता है, जिसमें ऐसे तौर-तरीकों पर माओवादियों को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश के साथ-साथ उनके समर्थक बुद्धिजीवियों को भी चुनौती दी जाती है। उनसे कहा जाता है कि वे ऐसी कार्रवाइयों पर प्रतिक्रिया व्यक्त करें। इसी क्रम में माओवादियों से बातचीत की मांग उठाए जाने के बाद गृह मंत्री पी चिदंबरम ने इस मांग की नैतिक हवा निकालने की कोशिश की। उन्होंने यह शर्त रख दी कि अगर माओवादी हिंसा रोक दें तो सरकार उनसे हर मुद्दे पर बातचीत को तैयार है। इसके पहले सरकार का रुख यह होता था कि नक्सली या हथियारबंद लड़ाई लड़ रहे किसी गुट या संगठन से वह तभी बात करेगी, जब वे हथियार डाल दें। चिदंबरम ने साफ किया कि वे अभी माओवादियों से हथियार डालने को नहीं कह रहे हैं और माओवादियों के पैरोकारों से कहा कि वे इस गुट को हिंसा छोड़ कर बातचीत की मेज पर आने को राजी करें।

बहरहाल, सरकार से बातचीत के सवाल पर सीपीआई (माओवादी) ने अपना जो रुख जताया है वह गौरतलब है। पार्टी की सेंट्रल कमेटी के प्रवक्ता आजाद ने कहा है- “माओवादियों से हथियार डाल देने के लिए कहना उन ऐतिहासिक एवं सामाजिक-आर्थिक पहलुओं के प्रति घोर अज्ञानता को जाहिर करता है, जिनकी वजह से माओवादी आंदोलन का उभार हुआ है।” आजाद ने कहा- “इसके बावजूद, दोनों पक्षों की तरफ से युद्धविराम पर सहमति बन सकती है, अगर सरकार माओवादियों द्वारा हिंसा छोड़ने के बारे में अपना अतार्किक रुख छोड़ दे। उसे आत्मनिरीक्षण करना चाहिए और इस पर फैसला करना चाहिए कि क्या वह सरकारी आतंकवाद एवं जनता के खिलाफ अनियंत्रित हिंसा छोड़ने को तैयार है।” माओवादियों का कहना है कि कि सरकार अगर बातचीत चाहती है, वह पहले इसके लिए ‘अनुकूल माहौल’ बनाए। लेकिन पेच यह है कि इस ‘अनुकूल माहौल’ के लिए जो पूर्व-शर्तें रखी गई हैं, वह अगर सरकार पूरी कर दे तो शायद बातचीत की जरूरत ही नहीं रह जाएगी! यह एक लंबी फेहरिश्त है। इसमें माओवाद प्रभावित इलाकों से अर्धसैनिक बलों की वापसी से लेकर पुलिस और अर्धसैनिक बलों के ‘अमानवीय अत्याचार’ की जांच के लिए निष्पक्ष न्यायिक आयोग की स्थापना; गिरफ्तार हुए माओवादी पार्टी से जुड़े और उसके समर्थक तमाम लोगों की रिहाई से लेकर गैर-कानूनी गतिविधि (निरोधक) कानून, छत्तीसगढ़ विशेष लोक सुरक्षा कानून, सशस्त्र बल विशेष अधिकार कानून आदि जैसे कानूनों को रद्द करने; आदिवासियों के लिए सरकारी पुनर्वास शिविरों को बंद करने से लेकर सलवा जुडुम के हाथों विस्थापित हुए ‘दो लाख आदिवासियों’ एवं ‘सरकारी आतंक’ का शिकार हुए अन्य लोगों को उचित मुआवजा देने; बहुराष्ट्रीय कंपनियों एवं बड़े व्यापारिक घरानों से खनन के लिए हुए सभी सहमति-पत्रों को रद्द करने से लेकर सभी विशेष आर्थिक क्षेत्रों को खत्म करने की मांगें शामिल हैं। यानी जब सरकार इतनी मांगें मान लेगी तभी सीपीआई (माओवादी) बातचीत के लिए तैयार होगी।

ऑपरेशन ग्रीनहंट के लिए सरकार की चल रही तैयारियों और माओवादियों के इस रुख को देखते हुए यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि इन दोनों पक्षों के बीच आखिर बातचीत की कितनी गुंजाइश है। ऐसा लगता है कि इन दोनों पक्षों ने महाभारत की कथा के उस प्रकरण से सीख ली है, जिसके मुताबिक कृष्ण को यह मालूम था कि युद्ध होगा, इसके बावजूद उन्होंने शांति प्रस्ताव कौरवों के सामने रखे, ताकि जब युद्ध हो तो उसकी जिम्मेदारी कौरवों के माथे पर ही जाए। यानी यहां सरकार और माओवादी दोनों में कोई भ्रम में नहीं है कि आगे का रास्ता किधर है। अगर कोई भ्रम में है तो सिर्फ बातचीत की पैरवी कर रहे बुद्धिजीवी ही हैं।

लोकतंत्र में बातचीत निसंदेह विवादों और मुद्दों को हल करने का सबसे बड़ा माध्यम है। लेकिन यह माध्यम तभी कारगर होता है जब मुद्दे ठोस और सुपरिभाषित हों। अगर मुद्दे महज असली मकसद को ढकने के लिए उठाए गए हों, तो बातचीत से कुछ हासिल नहीं होता। इस संदर्भ में बुनियादी सवाल यह है कि क्या सीपीआई (माओवादी) सचमुच उन्हीं मुद्दों के लिए लड़ रही है, जिन्हें उठाकर उसने आदिवासी और कुछ दूसरे वंचित समूहों में अपना जनाधार बनाया है, या उसका असली मकसद ‘सशस्त्र क्रांति’ के जरिए राजसत्ता पर कब्जा करना है? इस सवाल का जवाब हम सभी जानते हैं। इसलिए जो बुद्धिजीवी या संगठन शांति और न्याय के नाम पर बातचीत की वकालत कर रहे हैं, उन्हें खुलकर यह बताना चाहिए कि क्या वे माओवादियों की धारणा के मुताबिक क्रांति का समर्थन करते हैं?

यह प्रश्न इसलिए ज्यादा अहम है, क्योंकि अभी जारी विमर्श में यह संदेश देने की कोशिश हो रही है कि मौजूदा हालात में सिर्फ दो पक्ष हैं- एक सरकार और दूसरा माओवादी। परोक्ष रूप से कहा यह जा रहा है कि माओवादी देश में न्याय, आदिवासियों के बुनियादी हितों की रक्षा और बेहतर भविष्य की एकमात्र शक्ति हैं, और जिनकी भी इन बातों में आस्था हो, उनके पास माओवादियों का समर्थन करने के अलावा कोई और विकल्प नहीं है। चरमपंथी दलीलों के बीच माओवादियों के अराजकतावादी तौर-तरीकों, उनके वैचारिक दिवालियेपन और नकारवादी नजरिए को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया जाता है। इस चर्चा में यह बात पूरी तरह गौण हो जाती है कि कैसे अपनी दुस्साहसी कार्रवाइयों से माओवादियों ने खनिज पदार्थों से संपन्न इलाकों में तमाम प्रतिरोध को तोड़ देने का मौका सरकार को मुहैया करा दिया है।

माओवादियों की इन कार्रवाइयों ने देश में वाम जनतांत्रिक शक्तियों के बीच फूट पैदा कर दी है। वाम जनतांत्रिक शक्तियों के बीच इस बात पर वर्षों से आम सहमति थी कि वाम चरमपंथ के फैलाव के लिए सरकार की नीतियां जिम्मेदार हैं और इस मसले से सिर्फ राजनीतिक रूप से ही निपटा जा सकता है। लेकिन माओवादियों ने देश की राजनीतिक परिस्थिति पर बिना गौर किए और अपनी ताकत के फर्जी अहंकार में संसदीय वामपंथ पर ही हमला बोल दिया है। यह उनके बिरादराना द्रोह और अवसरवाद की ही पराकाष्ठा है कि पश्चिम बंगाल में उन्हें ममता बनर्जी अपनी दोस्त नजर आने लगीं। इस बात को भूलकर कि ममता बनर्जी किन सामाजिक ताकतों की नुमाइंदगी करती हैं और उनका अपना मकसद क्या है, माओवादियों के प्रवक्ता यह खुला बयान देने लगे कि वे ममता को राज्य की भावी मुख्यमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं।

गौरतलब है कि ममता बनर्जी आज केंद्र में मंत्री हैं और माओवादियों के लिए वह हर शक्ति दोस्त है, जो भारतीय राज्य (सरकार) से लड़ रही हो। चाहे यूनाइटेड़ लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम (उल्फा) और उत्तर पूर्व के अन्य नस्लीय राष्ट्रवादी आतंकवादी संगठन हों या फिर इस्लामी आतंकवादी- माओवादियों की नजर में ये सभी मुक्ति की लड़ाई लड़ रहे हैं। उल्फा, एनएससीएन और पीएलए जैसे उत्तर-पूर्वी राज्यों के नस्लवादी संगठनों के साथ उन्होंने भारतीय राज्य के खिलाफ संघर्ष में सहयोग का समझौता किया है। पाकिस्तान की स्वात घाटी, उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत, संघ शासित कबीलाई इलाके (फाटा) और दूसरे इलाकों में तालिबान एवं इस्लामी चरमपंथियों की आतंकवादी कार्रवाइयां उन्हें ‘राष्ट्रीय मुक्ति का संघर्ष’ नजर आती हैं। जब पंजाब में खालिस्तानी आतंकवाद अपने चरम पर था, कई नक्सली संगठन उसे भी मुक्ति का आंदोलन मानते थे। यानी जो भी और जहां भी चाहे जिस उद्देश्य से भारतीय राज्य से लड़ रहा हो, वह माओवादियों की निगाह में सकारात्मक शक्ति है।
यह लाइन लेते हुए इस बात की बिल्कुल अनदेखी कर दी जाती है कि धर्मांध और प्रतिक्रियावादी ताकतें किस तरह प्रगतिशील मानव–मूल्यों के खिलाफ खड़ी हैं। खालिस्तानी गुटों या इस्लामी चरमपंथी संगठनों का महिलाओं की आजादी के प्रति क्या नजरिया है, अथवा क्या वे अपने धर्म के भीतर किसी तरह की असहमति को सहने को तैयार हैं, ऐसे सवाल माओवादियों के विमर्श में नहीं आते। उल्फा का नस्लीय उग्रवाद किस तरह गरीब बिहारी मजदूरों के खून का प्यासा हो जाता है, इस पर भी गौर नहीं किया जाता। क्या मजहब और नस्ल के आधार पर खड़े संगठनों का समता और मूलभूत मानवीय स्वतंत्रता के साथ कोई मेल है, इस सवाल पर अपने को माओवादी कहने वाली पार्टी खुद को किसी के प्रति जवाबदेह नहीं मानती।

सीपीआई (माओवादी) खुद को कम्युनिस्ट पार्टी मानती है, लेकिन उसे तालिबान और उन इस्लामी चरमपंथी ताकतों का समर्थन करने में कोई अंतर्विरोध नजर नहीं आता, जिनकी बुनियाद में साम्यवाद का विरोध शामिल रहा है। ये ताकतें उसी अमेरिका की मदद से खड़ी हुईं, जिससे आज वे अपनी वजहों से लड़ रही हैं और इस कारण माओवादी उन्हें मुक्ति के योद्धा मान रहे हैं। श्रीलंका में लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम और उसके तानाशाह नेता वी प्रभाकरण के खात्मे पर माओवादियों ने खूब आंसू बहाए। इसे भारत, दक्षिण एशिया और पूरी दुनिया में ‘क्रांतिकारी आंदोलन’ के लिए ‘नकारात्मक प्रभाव’ वाली घटना बताया गया। श्रीलंका में तमिल संघर्ष का कोई भी पर्यवेक्षक यह जानता है कि कैसे एलटीटीई और प्रभाकरण की युद्ध-पिपासा ने तमिलों के बाकी सभी संगठनों का खात्मा कर दिया। उनके आतंकवादी तौर-तरीकों ने वहां सबसे ज्यादा नुकसान तमिलों को ही पहुंचाया और अंत में खुद ही अपने दुस्साहसी अभियान का शिकार हो गए। लेकिन चूंकि वे लड़ रहे थे, चाहे उनके तरीके और मकसद कुछ भी हों, वे माओवादियों के लिए ‘क्रांतिकारी’ थे।

सीपीआई (माओवादी) ने अपने ऐसे ही नकारवादी रुख की वजह से आज वाम जनमत के एक बड़े हिस्से की हमदर्दी खो दी है। इसकी एक मिसाल सुमंत बनर्जी हैं, जो अपनी किताब ‘इन द वेक ऑफ नक्सलबाड़ीः ए हिस्ट्री ऑफ नक्सलाइट मूवमेंट इन इंडिया’ के लिए जाने जाते हैं। उन्हें नक्सलवादी धारा का हमदर्द समझा जाता रहा है। लेकिन अब उनकी यह टिप्पणी ध्यान देने लायक है- ‘बहस का बुनियादी मुद्दा भारत की कुल मौजूदा स्थिति के बारे में माओवादी नेतृत्व की विचारधारात्मक समझ, और उनकी नैतिक साख है। भारत के विभिन्न शोषित समूह विभिन्न तरह के संघर्षों के जरिए उपलब्ध लोकतांत्रिक अवसरों का उपयोग करने की कोशिश कर रहे हैं। इसे स्वीकार करने और सबको समाहित करने वाले कार्यक्रम में इन्हें साथ लेकर चलने के बजाय सीपीआई (माओवादी) के नेता भारतीय जन मानस का अतिवादी अनुमान लगाते हुए उपलब्ध विकल्पों की अनदेखी कर रहे हैं और सशस्त्र संघर्ष के अकेले रास्ते को प्राथमिकता दे रहे हैं। उनकी अपरिपक्वता का एक और कदम यह है कि वे अंध-नस्लवादी सशस्त्र संगठनों या ममता बनर्जी जैसी अवसरवादी राजनेताओं से समझौते कर लेते हैं, जिससे उनकी नैतिकता आरोपों के घेरे में आ जाती है। ऐसी सैन्यवादी प्राथमिकताओं और अल्पकालिक लाभ के राजनीतिक कदमों से उनके कार्यकर्ताओं की विचारधारात्मक प्रतिबद्धताएं क्षीण हो रही हैं।’

उपरोक्त टिप्पणी राजनीतिक समझ पर आधारित एक विश्लेषण है। अपने ग्लैमर, सेलिब्रिटी स्टेटस और उच्च मध्यवर्गीय सुख-सुविधाओं में जीने के साथ-साथ अपनी जन-पक्षीय छवि बनाने के लिए आतुर बुद्धिजीवी ऐसी समझ दिखाने में नाकाम रहे हैं। लेकिन यह साफ है कि उनकी शैली में वाम चरमपंथ का समर्थन देश में लोकतांत्रिक विमर्श को संकुचित कर रहा है। इस वक्त जरूरत सरकारों की नव-उदारवादी नीतियों और पूंजी परस्त प्राथमिकताओं का विरोध करने के साथ-साथ वाम चरमपंथ के वैचारिक खोखलेपन और दुस्साहस के खतरों को बेनकाब करने की है। सिर्फ इससे ही उस जनतांत्रिक दायरे की रक्षा की जा सकती है, जो देश में लोकतंत्र की उपलब्धियों की रक्षा और वाम राजनीति के उत्तरोत्तर विकास के लिए जरूरी है। यह समझना महत्त्वपूर्ण है कि भारतीय राज्य-व्यवस्था में बढ़ते दक्षिणपंथी रुझान को रोकने की शर्त वाम राजनीति की मजबूती है। सीपीआई (माओवादी) इस बुनियादी बात की अनदेखी कर और वाम-जनतांत्रिक दायरे में विभाजन पैदा कर असल में सत्ताधारी तबकों की ही मदद कर रही है। ऐसे में कथित माओवादी समस्या का हल बातचीत द्वारा ढूंढने की वकालत भले सराहनीय हो, लेकिन यह ठोस राजनीतिक विश्लेषण पर आधारित नहीं है और इसीलिए इस सदिच्छा के पूरी होने की कोई ठोस जमीन नजर नहीं आती।

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