Sunday, April 4, 2010

बिहार और विकास के प्रश्न

सत्येंद्र रंजन

नीतीश कुमार क्या बिहार के विकास पुरुष हैं? यह सवाल राज्य के सामाजिक कार्यकर्ताओं के बीच एक तीखी बहस छेड़ देता है। जवाब एक हद तक इस पर निर्भर करता है कि बोल रहा व्यक्ति किसी वर्ग एवं जातीय पृष्ठभूमि से आया है, लेकिन इस जवाब में अक्सर विकास के बारे में अलग-अलग समझ भी जाहिर होती है। इस बहस में उभरने वाले दोनों ही पक्षों की अपनी-अपनी दलीलें हैं। नीतीश कुमार के समर्थक कहते हैं कि मुख्यमंत्री ने बिहार को सड़कें दी हैं। बिहार में सफर करते हुए बहुत अच्छी सड़कें तो नहीं दिखतीं, लेकिन अगर वहां पहले आज जैसी सड़कें भी नहीं थीं, तो इसे विकास जरूर माना जाएगा। तो बताया जाता है कि नीतीश कुमार के राज में सड़कें बन रही हैं, और अस्पताल एवं स्कूलों में डॉक्टर और मास्टर उपस्थित रहने लगे हैं। नीतीश कुमार के समर्थक दावा करते हैं कि लालू प्रसाद यादव-राबड़ी देवी के राज में बिहार बर्बाद हो गया था, पिछले पांच वर्षों में वह आबाद हुआ है।

लालू प्रसाद यादव के समर्थक कहते हैं कि लालूजी ने सदियों से शोषित और दबे-कुचले तबकों को ज़ुबान दी। आज उनकी बदौलत उन तबकों के लोग अपने गांवों में खड़े और निडर होकर बोल सकते हैं। उन तबकों के लिए यह विकास कहीं ज्यादा मायने रखता है। इस तर्क से बहुत से वैसे लोग भी सहमत हैं, जो लालू बनाम नीतीश की बहस में सिमटे नहीं रहना चाहते। बल्कि उनकी चिंता एक न्यायपूर्ण, अपेक्षाकृत अधिक लोकतांत्रिक समाज का निर्माण है। इसीलिए ये लोग यह सवाल भी उठाते हैं कि लालू प्रसाद यादव जिस परिघटना के प्रतीक हैं, वह लोगों को ज़ुबान देने के बाद ठहर क्यों गई? वह भूमि सुधार जैसे आर्थिक न्याय, बुनियादी ढांचे के विकास और निवेश से समृद्धि लाने की तैयारियों की दिशा में क्यों नहीं मुड़ी?

अगर एक दूरी बनाकर सोचा जाए, तो दोनों ही पक्षों की दलीलों में दम नज़र आता है। गरीब और बेहद शोषित तबकों के लिए भले यह बहुत मायने न रखता हो, मगर बुनियादी ढांचा और कुशल प्रशासन भी समाज की बेहतरी एवं सुख-समृद्धि के लिए जरूरी है, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता। मगर अब दुनिया भर में जो विकास की समझ ज्यादा मान्यता पा रही है, उसमें विकास को सिर्फ इन दो पहलुओं में सीमित नहीं माना जाता है। अमर्त्य सेन और महबूब-उल हक जैसी शख्सियतों के बौद्धिक प्रयासों से विकास की परिभाषा पिछले दशकों के दौरान काफी बदल गई है। अब विकास को समाज में स्वतंत्रता के विस्तार के संदर्भ में ज्यादा समझा और देखा जाता है। ऐसे में सड़क का निर्माण अगर विकास है, तो दबे और बुनियादी अधिकारों से वंचित समूहों की स्वतंत्रता में विस्तार उससे कहीं बड़ा विकास है। आर्थिक विकास दर विकास का महज एक पैमाना है। लोगों की सेहत, शिक्षा और सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों में सुधार इसका उससे कहीं बड़ा पैमाना है। लेकिन यह शायद बिहार का दुर्भाग्य यह है कि आज वहां इन दोनों पैमानों को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा माना जा रहा है।

लालू प्रसाद यादव के दौर में बिहार में मंडल की परिघटना ने जातीय उत्पीड़न की जकड़न से दबे-कुचले वर्गों को काफी हद तक मुक्त किया, यह एक तथ्य है। मगर सेहत, शिक्षा एवं आर्थिक मामलों में उस दौर में प्रगति नहीं हुई, यह भी एक तथ्य है। बहरहाल, उस सामाजिक परिघटना ने बिहार की राजनीति की शक्ल बदल दी। राजनीति पर से सवर्ण जातियों का वर्चस्व ऐसा टूटा कि अब उसके फिर कायम होने की कोई सूरत सामने नहीं है। नीतीश कुमार के पीछे भी इस परिघटना की ताकत रही है। लेकिन नीतीश कुमार कभी इस परिघटना के स्वाभाविक नेता नहीं बन सके। यह बात तो १९९५ के विधानसभा चुनाव में ही साफ हो गई थी कि वे सामाजिक न्याय के मुद्दे पर लालू प्रसाद को नहीं पछाड़ सकते। इसी बात की समझ उन्हें भारतीय जनता पार्टी की गोद में ले गई।

भारतीय जनता पार्टी देश के बाकी हिस्सों की तरह बिहार में भी उन वर्गों (जातियों) की प्रतिनिधि ताकत है, जिनका सामाजिक वर्चस्व पिछले दशकों में कमजोर पड़ा है। बिहार और उत्तर प्रदेश में एक दौर में भाजपा इन जातियों पर दबदबे से कांग्रेस को बेदखल करते हुए एक मजबूत ताकत के रूप में उभरी थी। उप्र एवं मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में उसने सोशल इंजीनियरिंग की अपनी सियासी रणनीति के जरिए कुछ पिछड़ी जातियों को अपने इस सामाजिक आधार से जोड़ने में सफलता पाई। लेकिन बिहार में यह रणनीति कभी इतनी कारगर नहीं हुई कि वह लालू प्रसाद यादव को उखाड़ फेंकती। तो उसके लिए भी नीतीश कुमार मजबूरी बन गए। भाजपा का सवर्ण और हिंदुत्व के प्रभाव में आया वोट आधार एवं नीतीश कुमार के नेतृत्व में लालू से नाराज पिछड़ी जातियों के जुड़ने से वह सामाजिक आधार तैयार हुआ, जिसकी बदौलत आखिरकार २००५ में जनता दल (यू)- भाजपा गठबंधन ने लालू प्रसाद यादव को पटखनी दे दी।

आज अगर बिहार की राजनीतिक सरंचना और वहां विकास के सवाल पर खड़ी बहस को समझना है, तो नीतीश कुमार के इस राजनीतिक जनाधार को समझना बहुत जरूरी है। इस जनाधार में कुछ ऐसी जातियां जरूर शामिल रही हैं, जो कभी लालू प्रसाद की ताकत थीं। लेकिन मुख्य रूप से नीतीश कुमार की ताकत वे जातियां हैं, जिनका राजनीतिक वर्चस्व लालू प्रसाद की परिघटना ने तोड़ दिया था। इस अर्थ में यह बात कही जा सकती है कि नीतीश कुमार एक प्रतिक्रियावादी सामाजिक आधार की बदौलत पांच साल पहले सत्ता में आए थे। बहरहाल, मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने ऐसी सियासी चालें चलीं, जिससे वे अपने वोट आधार का विस्तार करने में सफल रहे हैं। इन चालों में अति-पिछड़ी एवं महा-दलित और पसमंदा मुसलमानों के उनके कार्ड सबसे ज्यादा कारगर रहे हैं। लालू प्रसाद यादव के दौर में चूंकि यादव और कुछ नई ताकतवर जातियों का दबदबा कायम होता गया था, अतः नीतीश कुमार के लिए अति पिछड़ी जातियों को फोड़ लेना आसान रहा है। इसी तरह महा-दलित के नारे के तहत रामविलास पासवान के पांव के नीचे से ज़मीन खींच लेने में भी वे काफी हद तक सफल नजर आते हैं। भाजपा के साथ होने की वजह से मुसलमानों का मामला थोड़ा पेचीदा है, मगर नीतीश ने यहां भी एक भ्रम का माहौल तो बनाए ही रखा है।

इस नई परिघटना में कई सकारात्मक बातें हुई हैं। मसलन, अति पिछड़ों और महा-दलितों को पंचायती राज में मिले आरक्षण से सामाजिक न्याय की प्रक्रिया और आगे बढ़ी है। महिलाओं को वहां पचास फीसदी आरक्षण देकर नीतीश कुमार पूरे देश के सामने एक मिसाल कायम कर ही चुके हैं। संसद और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए आरक्षण का समर्थन कर उन्होंने प्रगतिशील खेमे में अपने लिए अच्छी भावनाएं पैदा की हैं। इन अर्थों में कहा जा सकता है कि नीतीश कुमार ने विकास की नई अवधारणा के संदर्भ में भी बिहार को आगे बढ़ाया है। मगर बात शायद इतनी सीधी नहीं है।

हकीकत यह है कि अपने शासनकाल, बल्कि पिछले डेढ़ दशक में जब से वे भाजपा के साथ गए हैं, नीतीश कुमार बिहार में सामाजिक न्याय की प्रतिक्रिया में गोलबंद हुई ताकतों के सहारे आगे बढ़ते रहे हैं। इन ताकतों से पीछा छुड़ाना कितना कठिन है, इसकी मिसाल बंदोपाध्याय कमेटी से जुड़े विवाद में देखने को मिली। नीतीश कुमार ने सत्ता में आने के बाद यह कमेटी भूमि सुधारों पर अमल के बारे में सुझाव देने के लिए बनाई थी। बताया जाता है कि कमेटी की सिफारिशों के मुताबिक एक विधेयक का प्रावधान भी तैयार किया गया। लेकिन यह बात नौकरशाही ने लीक कर दी, जिससे भूपति जातियां भड़क गईं। जानकारों के मुताबिक पिछले लोकसभा चुनाव में भारी जीत के कुछ ही समय बाद १८ विधानसभा क्षेत्रों में हुए उपचुनावों में जेडी (यू)-भाजपा गठबंधन की हार के पीछे इन्हीं जातियों की बगावत थी। इससे नीतीश कुमार ने अपने लिए उचित संदेश ग्रहण किया और भूमि सुधारों की बात अपने एजेंडे से हटा दी।

हर पर्यवेक्षक को यह मालूम है कि नीतीश कुमार के सत्ता में आने के बाद बिहार में रिवर्सल की एक प्रक्रिया चली। लालू प्रसाद यादव के १५ साल के राज में जिन नौकरशाहों को जातीय समीकरण के तहत शटिंग में रखा गया था, वे महत्त्वपूर्ण जगहों पर लौट आए। लालू प्रसाद यादव ने कुछ जातियों का वर्चस्व तोड़ने के लिए विकास कार्यों में ठेकेदारी की प्रथा खत्म कर दी थी। इससे विकास जरूर गतिरुद्ध हुआ था, लेकिन इससे शोषक मानी जाने वाली जातियां सामाजिक तौर पर कमजोर पड़ीं। कमजोर तबकों को ज़ुबान मिलना और वर्चस्व वाली जातियों का कमजोर पड़ना- इस एक ही प्रक्रिया के दो पहलू थे। नीतीश कुमार के राज में यह प्रक्रिया पलट गई है। ‘विकास’ को गति तो मिली है, लेकिन ठेकेदारी के जरिए उन जातियों का रुतबा भी लौटा है, जो लालू प्रसाद के निशाने पर रही थीं।

नीतीश के राज में विकास दर में देखी गई बढ़ोतरी का यही वर्गीय आधार है। यह नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों की एक बेहतरीन मिसाल है, जिसमें बुनियादी ढांचे और औद्योगिक विकास के साथ सामाजिक विशेषाधिकार प्राप्त वर्गों की पकड़ और मजबूत होती जाती है। बिहार में फिलहाल औद्योगिक विकास का कोई बड़ा उदाहरण नहीं है। लेकिन जो भी विकास वहां पिछले पांच साल में हुआ है, उसमें सामाजिक और आर्थिक न्याय का कोई पहलू शामिल नहीं रहा है। अति पिछड़ों, महा-दलितों और पसमंदा मुसलमानों की बात जरूर की गई है, जो अपने-आप में सकारात्मक दिखती है, मगर जिसके पीछे मकसद १९९० के दशक में सामाजिक न्याय की शुरू हुई परिघटना को आगे बढ़ाना नहीं, बल्कि उसमें फूट डालकर पुराने वर्चस्ववादी समूहों के हितों को सुरक्षित करना ज्यादा रहा है।

इसके बावजूद अगर सियासी नजरिए से देखें तो नीतीश कुमार आज मजबूत विकेट पर हैं। कुछ महीनों के बाद होने वाले विधानसभा चुनाव में वे फेवरिट (यानी जिनके जीत की संभावना ज्यादा हो) के रूप में मैदान में उतरेंगे। इसकी एक वजह तो यह है कि उनके राजनीतिक कार्ड अब तक सही पड़े हैं, लेकिन इससे भी बड़ी वजह यह है कि उनके प्रतिद्वंद्वी लालू-पासवान की जोड़ी एक चुकी हुई ताकत लगती है। लालू प्रसाद यादव अपनी राजनीति को लेकर आज कई सवालों के घेरे में हैं। मंडल परिघटना के बाद न्याय की राजनीति को आगे ले जाने में विफलता, परिवारवाद. प्रगतिशील राजनीति को तिलांजलि और किसी भी तरह वापसी के लिए हाथ-पांव मारते हुए अंधविश्वास को बढ़ावा देने की हद तक जाकर उन्होंने भविष्य तो दूर अपनी वर्तमान प्रासंगिकता भी खो दी है। अब लालू-पासवान की जोड़ी की सारी उम्मीदें इस पर टिकी हैं कि कांग्रेस का बिहार में कितना पुनरुद्धार होता है और क्या वह फिर से ऊंची जातियों को अपनी तरफ खींच पाती है? लेकिन कांग्रेस का पुनरुद्धार एक दोधारी तलवार है। अगर कांग्रेस जेडी (यू)-भाजपा का ऊंची जातियों का आधार तोड़ने में सफल होगी, तो वह लालू-पासवान के मुस्लिम-दलित वोट आधार में भी सेंध लगाएगी। अगर राहुल गांधी बिहार के मध्यवर्ग को लुभा कर नीतीश-भाजपा को चोट पहुंचा पाए, तो सोनिया गांधी की गरीब समर्थक छवि से लालू-पासवान को भी नुकसान हो सकता है।

नीतीश कुमार के लिए फायदे की बात यह है कि उनके समर्थकों में मुख्य रूप से उन जातियों के लोग हैं, जो अपने हितों के लेकर ज्यादा जागरूक रहते हैं और इस लिहाज से सियासी कदम ज्यादा सावधानी से उठाते हैं। पिछले पांच साल के ‘विकास’ से इन जातियों को नई ताकत मिली है। दूसरी तरफ लालू-पासवान के समर्थकों के पास नीतीश कुमार के ‘विकास’ को चुनौती देने के तर्क और तथ्य तो हैं, लेकिन उन पर आधारित किसी संगठित राजनीतिक रणनीति का उनके पास अभाव नजर आता है। इसीलिए नीतीश आज मजबूत विकेट पर हैं। अगले छह महीनों में फर्क सिर्फ कांग्रेस ही डाल सकती है, जिसने पिछले लोकसभा चुनाव में राज्य में फिर से उठ खड़े होने के संकेत दिए थे। लेकिन सवाल यह है कि जब बिहार में सामाजिक न्याय के रिवर्सल (पलटने) की ताकतें अपने हितों के लिए करो या मरो के अंदाज में होंगी, तब क्या वे कांग्रेस को आजमाने का जोखिम उठाएंगी या वे आजमाए हुए नीतीश कुमार के नेतृत्व पर ही दांव लगाने में अपना भला समझेंगी? बहरहाल, यह बात साफ है कि न्याय के साथ विकास के रास्ते से बिहार भटक चुका है। यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि उसे ‘गरीबों की ज़ुबान’ और ‘विकास’ में से किसी एक को चुनना पड़ रहा है।

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