Tuesday, November 20, 2007
चीन से लें कैसा सबक?
सत्येंद्र रंजन
चीन में कम्युनिस्ट पार्टी की १७वीं राष्ट्रीय कांग्रेस ने देंग शियाओ फिंग के ‘सोच के उद्धार’ (इमैनसिपेशन ऑफ माइंड) के आह्वान को एक नया अर्थ दिया है। देंग ने यह आह्वान माओ जे दुंग के समाजवाद के विचारों से पार्टी को उबारने के लिए किया था। देंग की मान्यता थी कि माओ के विचार चाहे जितने समतामूलक हों, लेकिन उनसे उत्पादक शक्तियों के अपनी पूरी संभावना को हासिल करने का रास्ता नहीं निकलता है। देंग के विचारों के मुताबिक जब तक समृद्धि नहीं आती, एक संपन्न का समाज का निर्माण मुमकिन नही है। १९८० के दशक से चीन देंग के रास्ते पर चला और समृद्धि के नए रिकॉर्ड कायम किए। लेकिन इसके परिणामों से देश के समाजवादी लक्ष्यों और चरित्र पर गहरे सवाल भी खड़े हुए। सामाजिक और क्षेत्रीय गैर बराबरी से देश मे नए तनाव पैदा हुए और जब जियांग जेमिन के तीन प्रतिनिधित्वों के सिद्धांत को २००२ मे हुई चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की सोलहवीं राष्ट्रीय कांग्रेस में स्वीकार कर लिया गया, जिसके तहत उन्नत उत्पादक शक्तियों को पार्टी में प्रतिनिधित्व देने की बात थी, तो इस आलोचना को खूब बल मिला कि चीन ने आखिरकार समाजवाद के आवरण तले पूंजीवाद को अपना लिया है।
देंग और जियांग के दौर विकास दर के रूप में समाजवाद को परिभाषित करने वाले रहे। अगर समाजवादी प्रयोगों के इतिहास पर गौर करें तो यह कोई नई बात नहीं है। सोवियत संघ में भी एक स्तर पर आकर विकास दर के रूप में ही समाजवाद को समझा जाने लगा था। तब समाजवादी विमर्श में यह बात जोर देकर कही जाती थी कि पूंजीवाद अपने अंतर्निहित स्वरूप की वजह से उत्पादक शक्तियो का विकास एक स्तर पर आकर अवरुद्ध कर देता है, जबकि समाजवाद इन शक्तियों को मुक्त कर उत्पादन और विकास की ऐसी परिस्थितियां पैदा करता है, जिससे सबकी आवश्यकताओं को पूरा करने लायक उत्पादन हो सके। सोवियत संघ की सफलता तब यही बताई जाती थी कि वहां की विकास दर एक दौर में पूंजीवादी खेमे से ज्यादा रही। चीन में भी देंग की नीतियों पर चलते हुए १० फीसदी विकास दर को हासिल किया गया। इसे देंग की नीतियों की बड़ी कामयाबी के रूप में देखा गया। लेकिन बढ़ते विकास दर के साथ बढ़ती विषमता से यह सवाल गहरा होता गया कि आखिर समाजवादी क्रांति का उद्देश्य और मतलब क्या है? २००२ के बाद से चीनी कम्युनिस्ट पार्टी में चले विमर्श से यह संकेत मिलता है कि सोलहवीं कांग्रेस से पार्टी और देश का नेतृत्व संभालने वाले हू जिन ताओ पिछले पांच साल में इस सवाल में उलझे रहे। अक्टूबर २००७ में हुई सत्रहवीं कांग्रेस में इस सवाल का जवाब उन्होंने अपने ‘विकास के वैज्ञानिक दृष्टिकोण’ के रूप में पेश किया। इस सिद्धांत को पार्टी ने मंजूरी दे दी। इसमें भी जोर ‘सोच के उद्धार’ पर है। लेकिन इस बार माओ के समता पर जोर के बजाय विकास दर और बुनियादी ढांचे के निर्माण में ही सारे प्रयास लगा देने की सोच से मुक्ति पाने पर जोर है। हू के ‘विकास के वैज्ञानिक दृष्टिकोण’ में आम जन को सर्वोच्च प्राथमिकता देने और उसके जरिए एक सद्भावनापूर्ण समाज बनाने को सबसे अहम बताया गया है। बात आगे बढ़ाने से पहले इस नजरिए की पेश की गई परिभाषा पर गौर कर लेना उचित होगा। हू ने कहा- ‘विकास का वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकास को उसके सारतत्व के रूप मे लेता है, जिसके केंद्र में आम जन हों, व्यापक, संतुलित और टिकाऊ विकास जिसकी बुनियादी शर्तें हों, और जिसमें संपूर्ण विचार को बुनियादी नजरिया बनाए जाए।’
कहा जा सकता है कि चीन पिछले दशकों में जिस रास्ते पर चला है, उसके बीच ये बातें महज रस्मी और दस्तावेजी हैं। व्यवहार में इसका अमल अब मुश्किल है। माओवादी दौर को कुछ यथार्थ और कुछ रूमानियत में याद करने वाले लोग यही मानते हैं कि चीन समाजवादी रास्ते से भटक चुका है। उसने धनी होने, बल्कि समाज के कुछ तबकों के धनी होने की होड में पीपुल्स डेमोक्रेटिक रिवोल्यूशन (जनता की जनवादी क्रांति) की बलि चढ़ा दी, जिसकी रणनीति माओ ने बनाई थी। इसलिए चीन आज न तो समतावादी समाज के लिए कोई आदर्श पेश करता है और न ही ऐसे मकसद को हासिल करने के प्रयासों में वह कोई सहयोगी शक्ति ही है।
इस आलोचना को हम दो स्तरों पर देख सकते हैं। एक स्तर वह बेसब्री है, जो तुरंत दुनिया भर में समाजवाद स्थापित होने की जोड़ी गई उम्मीदों के टूटने से पैदा हुई है। २०वीं सदी के मध्य में जब दूसरे विश्व युद्ध की समाप्ति के साथ सोवियत खेमे का तेजी से विस्तार हुआ और लगभग उसी समय चीन में माओवादी क्रांति हुई तो ऐसी उम्मीद जोड़ी गई कि इन्कलाब की यह लहर जल्द ही सारी दुनिया में फैल जाएगी। लेकिन यह उम्मीद पूरी नहीं हुई और १९९० का दशक के आते-आते जब सोवियत खेमा बिखर गया तो इस उम्मीद को बेहद गंभीर झटका लगा। इसी दौर में चीन ने देंग की राह पकड़ी। पूंजीवादी प्रचार माध्यमों में इस पूरी परिघटना को पूंजीवाद की अंतिम विजय और ‘इतिहास के अंत’ के रूप में पेश किया गया। इसका खासा असर उन ताकतों की सोच पर भी पड़ा, जिनके पास समाजवाद का सपना तो था, लेकिन वह एक रूढ़ या गतिरुद्ध सपना था।
इस आलोचना का दूसरा स्तर वे विचारधाराएं हैं, जो अपने ईमानदार मकसद के बावजूद दुनिया जैसी है, उसे उसी रूप में देखने में नाकाम हैं। व्यक्ति कैसे व्यवहार करता है, उसकी बुनियादी आकांक्षाएं और कमजोरियां क्या हैं, उसके व्यवहार और सोच को तय करने में बाहरी यानी भौतिक परिस्थितियों की भूमिका कितनी होती है, ये कुछ ऐसे अहम सवाल हैं, जिन पर आम तौर पर क्रांति के लिए बेसब्र शक्तियां वस्तुगत ढंग से विचार नहीं करतीं। न ही वे इस पर ज्यादा ध्यान देती हैं कि सामाजिक चेतना के स्तर से लोकतंत्र या समाजवाद या किसी दूसरी व्यवस्था का कितना रिश्ता है। लेकिन सवाल है कि इंसान के संपूर्ण विकासक्रम पर बिना गौर किए क्या कोई वांछित व्यवस्था बनाई जा सकती है?
वामपंथी विमर्श में हमेशा ही इस बात पर जोर रहा है कि मानव स्वतंत्रता किसी भी वांछित व्यवस्था का आदर्श है। लेकिन अब इस बात की अहमियत पहले से कहीं ज्यादा समझी जा रही है। इसीलिए अब यह बहस ज्यादा सार्थक ढंग से हो रही है कि मानव स्वतंत्रता क्या है? भौतिक अभाव से मुक्ति इस स्वतंत्रता के लिए कितनी और कहां तक जरूरी है तथा इसके आगे और कौन सी वो परिस्थितियां हैं, जो मानव स्वतंत्रता को सुनिश्चित करने के लिए जरूरी हैं? इस दिशा में एक बहुमूल्य कोशिश विकास को मानव स्वतंत्रता के संदर्भ में परिभाषित करने की हुई है। इसके मुताबिक विकास वही है जो मानव स्वतंत्रता का विस्तार करे। यह स्वतंत्रता आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक पहलुओं के साथ ही पूरी हो सकती है। लेकिन अब माना जा रहा है कि इस विकास और ऐसी स्वतंत्रता को हासिल करने का सबसे कारगार हथियार राजनीति या राजनीतिक गतिविधियां हैं।
जिस समाजवाद का अनुभव दुनिया ने पिछली सदी में किया उसकी सबसे बड़ी समस्या शायद यही रही कि उस समाजवाद के तहत आम जन की राजनीतिक गतिविधियों पर पहरे बैठा दिए गए। नतीजतन, आम आदमी की राजनीतिक चेतना के विकास का जो अवसर मिल सकता था, वह नहीं मिला। लोगों को पूर्ण रोजगार, सामाजिक सुरक्षा और खेल-कूद में भागीदारी एवं आगे बढ़ने के अभूतपूर्व अवसर तो मिले, लेकिन एक ऐसे जिम्मेदार और जागरूक नागरिक के रूप में वे नहीं उभर सके, जिनका वजूद व्यवस्था की एक इकाई के रूप में हो। यानी व्यवस्था के कर्ता-धर्ता होने के बजाय, उनका अस्तित्व व्यवस्था के मकसदों के लिए एक वस्तु के रूप में ज्यादा हो गया। उधर व्यवस्था चंद पार्टी नेताओं और नौकरशाहों के चंगुल में फंस गई। इसीलिए जिन आम जन के नाम पर समाजवादी व्यवस्थाएं कायम की गईं, वे ही एक मौके पर उस व्यवस्था के खिलाफ बगावत में भागीदार बन गए।
इस परिघटना का सबक यही है कि वही व्यवस्था टिकाऊ हो सकती है, जिसमें आम जन की वास्तविक भागीदारी बनी रहे। जिसमें आम जन सिर्फ व्यवस्था से संचालित होने वाले और व्यवस्था द्वारा तय लक्ष्यों का फायदा पाने वाले समूह नहीं रहें, बल्कि वे व्यवस्था को संचालित करने वाले औऱ उसके लक्ष्यों को तय करने वाले समूह बनें। लेकिन यह बात कहना जितना आसान है, उसे व्यवहार मे लाना उतना ही मुश्किल है। ऐसा कोई तंत्र या फॉर्मूला नहीं हो सकता, जिससे इस बात को सुनिश्चित कर दिया जाए। ऐसा सिर्फ तभी संभव हो सकता है, जब आम लोग खुद राजनीतिक प्रक्रिया का हिस्सा बनें और अपने अधिकारों की प्राप्ति और उनकी रक्षा के सतत संघर्ष से जुड़े रहें। यहां पर यह कथन बेहद महत्त्वपूर्ण मालूम पड़ता है कि ‘सतत जागरूकता ही स्वतंत्रता की गारंटी है।’
इसी बिंदु पर आकर क्रांतिकारी संगठन या पार्टी की भूमिका प्रासंगिक हो जाती है। हकीकत यही है कि आज भी दुनिया की अधिकांश जनता जागरूकता की रोशनी से बहुत दूर है। जिन लोगों के पास सारी सुविधाएं हैं, उनमें भी ज्यादातर लोग चिंतन और विचार की स्वतंत्रता को संकुचित करने वाली पुरातन संस्कृति और आधुनिक उपभोक्तावाद से ग्रस्त हैं। ऐसे लोगों को संगठित करने और उन्हें व्यापक क्रांतिकारी प्रक्रिया का हिस्सा बनाने की जिम्मेदारी क्रांतिकारी संगठनों पर आती है। लेकिन अपने को क्रांतिकारी कहने वाले ज्यादातर संगठनों की मुश्किल यह है कि वे विचारधाऱा के रूढ़ खांचे में ऐसे बंधे हुए होते हैं कि उससे निकलकर मानवीय एवं वस्तुगत सामाजिक आधार पर नई वामपंथी राजनीति की शुरुआत की पहल एक दूर का सपना बना हुआ है। सिर्फ इतना ही नहीं, इन संगठनों में पहचान का संकट, आपसी होड़ और एक हद ईर्ष्या की भावना भी इस कदर भरी हुई होती है कि उनके लिए पहला मकसद व्यापक रूप से वामपंथी दायरे में आने वाले संगठनों को नुकसान पहुंचाना बना रहता है।
इस जगह पर ‘सोच के उद्धार’ का आह्वान दुनिया भर के ऐसे सभी संगठनों के लिए बहुत अर्थभरा हो गया है। आज निसंदेह जरूरत अपने मस्तिष्क को गतिरुद्ध हो गई सोच से मुक्त करने की है। विचारधारा को एक खांचे के बजाय एक प्रयोग के रूप में देखा जाए तो यह संबंधित विचारधारा और उसे मानने वाली शक्तियों दोनों के लिए ज्यादा फायदेमंद हो सकता है। इस प्रयोग के कई पहलू हो सकते हैं। दरअसल, इस प्रयोग का फौरी स्वरूप संबंधित समाज के ढांचे और संगठन के अपने मकसद से ही तय हो सकता हैं।
चीन में हाल में जो हुआ है, और असल में पिछले छह दशकों में वहां जो हुआ है, उसे भी अगर अंतिम मंजिल के बजाय एक प्रयोग के रूप में देखा जाए तो हम उसकी अहमियत को बेहतर ढंग से समझ सकते हैं औऱ उससे अपने लिए बेहतर सबक हासिल कर सकते हैं।
चीनी क्रांति की प्रेरक विचारधारा मार्क्सवाद-लेनिनवाद जरूर रहा, लेकिन उसे माओ जे दुंग ने चीनी परिस्थितियों के मुताबिक ढाला। एक देश जिसे अफीम और वेश्याओं का देश कहा जाता था, वहां समता और जनवादी संस्कृति के न सिर्फ नए सपने देखे गए, बल्कि उन सपनों को ठोस आधार भी मिला। उस दौर की विचारधारा को मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओ चिंतन के रूप में चीन ने आज भी अपने संविधान और व्यापक आदर्शों के रूप अपना रखा है, लेकिन चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने इसके आगे भी प्रयोग किए। देंग शियाओ पिंग के सिद्धांत पर अमल करते हुए देश समृद्धि की राह पर आगे बढ़ा और जियांग जेमिन के तीन प्रतिनिधित्व के सिद्धांत से सोच की यह धारा अपने चरम पर पहुंची। लेकिन इससे घोषित लक्ष्यों और व्यावहारिक उपलब्धियों के बीच जो अंतर्विरोध उभरा, उससे चीनी कम्युनिस्ट पार्टी अब नई राह अपनाने को प्रेरित हुई है। अब हू जिन ताओ के ‘विकास के वैज्ञानिक दृष्टिकोण’ से नई समस्याओं का हल खोजने का इरादा जताया गया है। समाजवाद, समता और लोकतंत्र की अपनी मनोगत धारणाओं के आवेग में हम इस सारे विकासक्रम को सीधे खारिज कर सकते हैं, यह कहते हुए कि ये सारी बातें बनावटी हैं, असल में चीन पूंजीवादी रास्ते पर चल निकला है। वहां एक ऐसा पूंजीवाद है, जिसमें पश्चिमी पूंजीवाद की उदारता और वयस्क मताधिकार आधारित लोकतंत्र भी नहीं है।
लेकिन चीन को देखने का एक नजरिया यह भी है कि पिछले साठ साल के प्रयोगों ने दुनिया की सबसे ज्यादा आबादी वाले इस देश की तस्वीर बदल दी है। आर्थिक उपलब्धियां, बुनियादी ढांचे का विस्तार और खेल की महाशक्ति के रूप में चीन का उभार एक ऐसी हकीकत है, जो मनोगत सोच की तमाम दलीलों से खंडित नहीं होने वाली है। साथ ही एक हकीकत यह है कि इन उपलब्धियों के साथ ही देश के राजनीतिक विमर्श में समता और लोकतंत्र के आदर्श आज भी मौजूद हैं। यह सकारात्मक नजरिया मानव समाज के लिए शायद ज्यादा काम का हो सकता है।
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1 comment:
किसी भि देशमे प्रयोग किये गये सिद्दान्तओ को दुश्रे
देशमे हुबहु प्रयोग नही किये जा सकते
क्यो कि सभी देश के अर्थिक्,रज्नितिक्,भौगोलिक परिस्थितीया अलग अलग होती है।
http://hi.shvoong.com/social-sciences/political-science/1708028-%E0%A4%AD%E0%A4%97%E0%A4%A4-%E0%A4%B8-%E0%A4%B9-vs-%E0%A4%97/
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