Tuesday, October 23, 2007

इस हिंसा को समझें


दिवासी एवं अन्य वनवासी वन अधिकार कानून के पास हुए तकरीबन एक साल हो गया है। लेकिन अब तक इस पर अमल शुरू नहीं हुआ है, क्योंकि सरकार ने इसे लागू करने के नियमों को अधिसूचित नहीं किया है। खबर है कि आदिवासी मामलों का मंत्रालय इन नियमों को अंतिम रूप दे चुका है, लेकिन ऐन वक्त पर कांग्रेस आलाकमान के इस पर रोक लगा देने की वजह से कानून पर अमल रुका हआ है। खबरों के मुताबिक वन्य जीव लॉबी ने कांग्रेस के अभिजात्यवादी रुझान वाले नौजवान सांसदों के जरिए कांग्रेस आलाकमान को अपने प्रभाव में लिया और उसे यह समझाने में कामयाब रहा कि अगर मौजूदा रूप में यह कानून लागू हुआ तो बाघ जैसे जंगली जानवरों का सफाया तय है। इस तरह यह कानून बनने के पहले जिस मुद्दे पर तेज बहस हुई और जिस पर पहले ही काफी संतुलन कायम करने के लिए कई समझौते किए गए, उसे पिछले दरवाजे से फिर खड़ा कर दिया गया है।
यह इस बात की मिसाल है कि सत्ता के हलकों में इंसान पर पर्यावरण और जंगली जानवरों को तरजीह देने वाली मानसिकता किस कदर हावी है। यह कहने का मतलब यह नहीं है कि हम पर्यावरण और जंगली जानवरों को बचाने के पक्ष में नहीं हैं। लेकिन यह बात मजबूत तर्कों के साथ साबित की जा चुकी है कि जंगल और जंगली जीव दोनों की सबसे बेहतरीन सुरक्षा आदिवासी समूहों के जंगल पर अधिकार मानने के साथ ही हो सकती है। ये वो समूह हैं जिनका अपने परिवेश से सीधा लगाव है। लेकिन उन्हें उस भूमि पर कानूनी अधिकार मिले, जिस पर वे सदियों से रहते आए हैं, यह सुविधा संपन्न तबकों को मंजूर नहीं है। और इन तबकों का असर इतना ज्यादा है कि राजनीतिक दल अपने वोट के तात्कालिक फायदे को नज़रअंदाज कर भी उनकी बात मानने को तैयार हो जाते हैं। फिर इन दलों के ऊपर अदालतें हैं जो हर मुद्दे पर अभिजात्यवादी व्याख्या के साथ तैयार हैं।
यह मिसाल सिर्फ यह दिखाने के लिए दी गई है कि गरीब और वंचित तबकों का इस व्यवस्था में हक पाना कितना कठिन है। यहां बात उन तबकों की है, जो एक इलाके में रहते हैं और जो संसदीय जनतंत्र में बतौर वोट समूह के अपनी एक अहमियत रखते हैं। जिन समूहों के रहने की भी कोई तय जगह नहीं हो, उनके लिए चुनौती कितनी मुश्किल है, इसे आसानी से समझा जा सकता है। खानाबदोश समूहों के लिए इस लोकतंत्र में क्या जगह है और उनके कानूनी अधिकार क्या हैं, हाल की घटनाओं ने इस सवाल को बेहद अहम बना दिया है। बिहार के वैशाली जिले में नट जाति के दस लोगों को पीट मार डालने की घटना के साथ वहां के ग्रामीण समुदाय, पुलिस और राज्य सरकार की जो मानसिकता जाहिर हुई, उसके आधार पर सिर्फ यही कहा जा सकता है कि जातियों और समूहों पर कलंक थोपने और उन्हें सच मानने की अमानवीय और उपनिवेशवादी सोच से हमारा समाज आज तक नहीं उबर पाया है।
केंद्र सरकार ने इन समूहों के लिए पिछले साल एक आयोग का गठन किया था। इस आयोग ने अपनी रपटो में इन जातियों और समूहों की दुर्दशा की तरफ ध्यान खींचा है। इनमें से ज्यादातर जातियां वे हैं जिन्हें अंग्रेजों के जमाने में अपराधी जाति घोषित कर दिया गया था। यानी इन जातियों में जन्म लेना ही अपराधी होने का प्रमाण था। अपराध सामाजिक व्यवस्था में निहित अन्याय औऱ हिंसा का परिणाम है और अपराधी बनने के पीछे समाजशास्त्रीय और मनोवैज्ञानिक वजहें होती हैं, इस वैज्ञानिक समझ के उलट कुछ जातियों और समूहों को जन्मजात अपराधी बता देना मानव के मूलभूत अधिकारों पर प्रहार है। लेकिन ऐसा लगता है कि स्वतंत्र भारत में इन जातियों को डिनोटिफाई करने यानी अपराधी सूची से इन्हें हटाने के बावजूद बहुत से लोगों और प्रशासन की समझ इस मानव विरोधी सोच से उबर नहीं सकी है।
आदिवासियों और खानाबदोश जातियों के प्रति शासक और संपन्न वर्गो का यह रुख मौजूदा व्यवस्था में निहित हिंसा की एक मिसाल है। कहा जा सकता है कि यह अंतर्निहित हिसा ही आज लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ी चुनौती है।
- सत्येंद्र रंजन

1 comment:

अनिल रघुराज said...

सत्येद्र जी, सही कहा आपने कि जंगल और जंगली जीवों, दोनों की सबसे बेहतरीन सुरक्षा आदिवासी समूहों के जंगल पर अधिकार मानने के साथ ही हो सकती है। लेकिन क्या कीजिएगा, आज देश की 80 फीसदी खनिज संपदा और 70 फीसदी जंगल आदिवासी इलाकों में हैं। सरकार अगर आदिवासियों के हक को मान लेगी तो इन इलाकों के दोहन काम देशी-विदेशी कंपनियों को कैसे सौंप पाएगी?