अब देश, खासकर धर्मनिरपेक्ष-लोकतंत्र में यकीन रखने वाले लोगों ने राहत की सांस ली है। आखिरकार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने ठोस सियासी हालात को अब समझा है। उन्होंने यह मान लिया है कि भले उनकी राय में भारत-अमेरिका असैनिक परमाणु सहयोग समझौता देश हित में हो, लेकिन देश का बहुमत इसे स्वीकार करने को तैयार नहीं है और लोकतंत्र में जनता का बहुमत की सर्वोपरि है। उनका यह कहना कि उनकी सरकार सिर्फ एक मुद्दे की सरकार नहीं है औऱ किसी सवाल पर निजी निराशा के बावजूद जिंदगी चलती रहती है, हकीकत का एक बयान है।
यह साफ है कि कांग्रेस पार्टी के भीतर इस समझ को बनाने में पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी की खास भूमिका रही है। इस तरह सोनिया गांधी ने एक बार फिर ऐतिहासिक महत्त्व की भूमिका निभाई है। सोनिया गांधी की ऐसी ही अंतर्दृष्टि से भाजपा नेतृत्व वाले शासन के समय धर्मनिरपेक्ष दलों के राजनीतिक ध्रुवीकरण की राह तैयार हुई थी, जिस पर अब खतरा मंडराने लगा था। एक बार फिर अपनी सूझबूझ से सोनिया गांधी ने उस खतरे को टाल दिया है। इस तरह धर्मनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक शक्तियों के बिखराव का अंदेशा फिलहाल टल गया है।
इस देश में विवेकशील लोगों के बीच भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की इस राय से इत्तेफाक़ रखते हैं कि अमेरिका से परमाणु समझौता देश के हित में और भविष्य के लिहाज से जरूरी है। मनमोहन सिंह सरकार ने यथासंभव सर्वोत्तम करार हासिल करने में कामयाबी पाई, इसे भी ठोस विश्लेषण के आधार पर माना जा सकता है। इसके बावजूद यह समझौता पर्याप्त राजनीतिक समर्थन नहीं जुटा सका तो इसकी वजह है समझौते का पूरा संदर्भ। इस समझौते को अमेरिका की व्यापक सामरिक रणनीति के हिस्से के रूप में देखा गया और ऐसे में साम्राज्यवाद विरोधी इतिहास और संस्कृति के पूरे परिप्रेक्ष्य में इसे जन समर्थन मिल सकना मुश्किल हो गया। कहा जा सकता है कि इस समझौते की मौत उसी दिन हो गई जब भारत ने अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी में ईरान के खिलाफ मतदान किया। इससे लोगों का यह शक गहरा हो गया कि यह समझौता हासिल करने के लिए मनमोहन सिंह सरकार किसी भी हद तक जा रही है औऱ वह देश की ऐतिहासिक विचारधारात्मक विरासत से समझौता कर रही है।
कम्युनिस्ट पार्टियों की साम्राज्यवाद के संदर्भ में स्पष्ट विचारधारा को देखते हुए यूपीए और मनमोहन सिंह सरकार को पहले ही इस समझौते को प्रतिष्ठा का सवाल नहीं बनाना चाहिए था। उन्हें यह समझना चाहिए था कि उनकी सत्ता के आधार का एक बड़ा हिस्सा उन ताकतों का है जो किसी भी हाल में इस मुद्दे पर समझौता नहीं कर सकतीं। इन ताकतों ने अगर सांप्रदायिक फासीवाद के खतरे को देखते हुए यूपीए को समर्थन दिया है तो उनके लिए साम्राज्यवाद का सवाल भी उतना ही बड़ा है। बहरहाल, देर से ही सही कांग्रेस, उसके साथी दलों और सरकार ने यह बात समझी है तो इससे भारतीय लोकतंत्र की शक्ति जाहिर होती है।
परमाणु करार पर यूपीए और वामपंथी दलों के बीच समिति अभी इस बारे में विचार-विमर्श कर रही है। अगर इसमें कोई सहमति बनती है तो उसके मुताबिक इस करार पर जरूर अमल होना चाहिए। अगर सहमति नहीं बनती है तो इसे भविष्य के लिए छोड़ दिया जाना चाहिए। यूपीए के घटक दलों और वामपंथी दलों के सामने फौरी मकसद धर्मनिरपेक्ष तालमेल को मजबूती देने का है। मध्यावधि चुनाव भले टल गया हो, लेकिन आम चुनाव भी बहुत दूर नहीं है। उस चुनाव में यह एकजुटता बनी रहे और सांप्रदायिक फासीवाद को फिर से देश की केंद्रीय राजनीतिक शक्ति बनने का मौका न मिले, इसे सुनिश्चित करना फिलहाल सबसे महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है। वामपंथी दलों को भारतीय जनता पार्टी के इस बयान पर गौर करना चाहिए कि अगर वह सत्ता में आती है तो परमाणु करार पर अमेरिका से फिर से बातचीत करेगी।
यहां यह नहीं भूला जा सकता कि अमेरिका के साथ भारत के रणनीतिक संबंधों की नींव भाजपा नेतृत्व वाले शासन के दौरान ही डाली गई। भाजपा की अपनी सोच साम्राज्यवाद समर्थक और धुर दक्षिणपंथी है। इसके लिए सांप्रदायिकता को आधार बनाकर राजनीतिक बहुमत जुटाना उसकी रणनीति है। ऐसे में उसके शासन में आने पर न सिर्फ परमाणु करार पर अमल तय है, बल्कि भारत का अमेरिका का जूनियर पार्टनर बनना भी निश्चित है। इस खतरे के मद्देनजर भी धर्मनिरपेक्ष एकता की मजबूती का महत्त्व सबको समझना चाहिए। सोनिया गांधी के हस्तक्षेप और प्रधानमंत्री के राजनीतिक वास्तविकता को स्वीकार कर लेने से इस एकता के लिए पैदा हुआ खतरा टल गया है। यह स्वागतयोग्य है। लेकिन इससे भी बड़ी चुनौतियां और इससे भी बड़ा उद्देश्य अभी आगे है।
- सत्येंद्र रंजन
यह साफ है कि कांग्रेस पार्टी के भीतर इस समझ को बनाने में पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी की खास भूमिका रही है। इस तरह सोनिया गांधी ने एक बार फिर ऐतिहासिक महत्त्व की भूमिका निभाई है। सोनिया गांधी की ऐसी ही अंतर्दृष्टि से भाजपा नेतृत्व वाले शासन के समय धर्मनिरपेक्ष दलों के राजनीतिक ध्रुवीकरण की राह तैयार हुई थी, जिस पर अब खतरा मंडराने लगा था। एक बार फिर अपनी सूझबूझ से सोनिया गांधी ने उस खतरे को टाल दिया है। इस तरह धर्मनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक शक्तियों के बिखराव का अंदेशा फिलहाल टल गया है।
इस देश में विवेकशील लोगों के बीच भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की इस राय से इत्तेफाक़ रखते हैं कि अमेरिका से परमाणु समझौता देश के हित में और भविष्य के लिहाज से जरूरी है। मनमोहन सिंह सरकार ने यथासंभव सर्वोत्तम करार हासिल करने में कामयाबी पाई, इसे भी ठोस विश्लेषण के आधार पर माना जा सकता है। इसके बावजूद यह समझौता पर्याप्त राजनीतिक समर्थन नहीं जुटा सका तो इसकी वजह है समझौते का पूरा संदर्भ। इस समझौते को अमेरिका की व्यापक सामरिक रणनीति के हिस्से के रूप में देखा गया और ऐसे में साम्राज्यवाद विरोधी इतिहास और संस्कृति के पूरे परिप्रेक्ष्य में इसे जन समर्थन मिल सकना मुश्किल हो गया। कहा जा सकता है कि इस समझौते की मौत उसी दिन हो गई जब भारत ने अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी में ईरान के खिलाफ मतदान किया। इससे लोगों का यह शक गहरा हो गया कि यह समझौता हासिल करने के लिए मनमोहन सिंह सरकार किसी भी हद तक जा रही है औऱ वह देश की ऐतिहासिक विचारधारात्मक विरासत से समझौता कर रही है।
कम्युनिस्ट पार्टियों की साम्राज्यवाद के संदर्भ में स्पष्ट विचारधारा को देखते हुए यूपीए और मनमोहन सिंह सरकार को पहले ही इस समझौते को प्रतिष्ठा का सवाल नहीं बनाना चाहिए था। उन्हें यह समझना चाहिए था कि उनकी सत्ता के आधार का एक बड़ा हिस्सा उन ताकतों का है जो किसी भी हाल में इस मुद्दे पर समझौता नहीं कर सकतीं। इन ताकतों ने अगर सांप्रदायिक फासीवाद के खतरे को देखते हुए यूपीए को समर्थन दिया है तो उनके लिए साम्राज्यवाद का सवाल भी उतना ही बड़ा है। बहरहाल, देर से ही सही कांग्रेस, उसके साथी दलों और सरकार ने यह बात समझी है तो इससे भारतीय लोकतंत्र की शक्ति जाहिर होती है।
परमाणु करार पर यूपीए और वामपंथी दलों के बीच समिति अभी इस बारे में विचार-विमर्श कर रही है। अगर इसमें कोई सहमति बनती है तो उसके मुताबिक इस करार पर जरूर अमल होना चाहिए। अगर सहमति नहीं बनती है तो इसे भविष्य के लिए छोड़ दिया जाना चाहिए। यूपीए के घटक दलों और वामपंथी दलों के सामने फौरी मकसद धर्मनिरपेक्ष तालमेल को मजबूती देने का है। मध्यावधि चुनाव भले टल गया हो, लेकिन आम चुनाव भी बहुत दूर नहीं है। उस चुनाव में यह एकजुटता बनी रहे और सांप्रदायिक फासीवाद को फिर से देश की केंद्रीय राजनीतिक शक्ति बनने का मौका न मिले, इसे सुनिश्चित करना फिलहाल सबसे महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है। वामपंथी दलों को भारतीय जनता पार्टी के इस बयान पर गौर करना चाहिए कि अगर वह सत्ता में आती है तो परमाणु करार पर अमेरिका से फिर से बातचीत करेगी।
यहां यह नहीं भूला जा सकता कि अमेरिका के साथ भारत के रणनीतिक संबंधों की नींव भाजपा नेतृत्व वाले शासन के दौरान ही डाली गई। भाजपा की अपनी सोच साम्राज्यवाद समर्थक और धुर दक्षिणपंथी है। इसके लिए सांप्रदायिकता को आधार बनाकर राजनीतिक बहुमत जुटाना उसकी रणनीति है। ऐसे में उसके शासन में आने पर न सिर्फ परमाणु करार पर अमल तय है, बल्कि भारत का अमेरिका का जूनियर पार्टनर बनना भी निश्चित है। इस खतरे के मद्देनजर भी धर्मनिरपेक्ष एकता की मजबूती का महत्त्व सबको समझना चाहिए। सोनिया गांधी के हस्तक्षेप और प्रधानमंत्री के राजनीतिक वास्तविकता को स्वीकार कर लेने से इस एकता के लिए पैदा हुआ खतरा टल गया है। यह स्वागतयोग्य है। लेकिन इससे भी बड़ी चुनौतियां और इससे भी बड़ा उद्देश्य अभी आगे है।
- सत्येंद्र रंजन
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