Tuesday, December 18, 2007

शुक्रिया, न्यायमूर्ति!



सत्येंद्र रंजन
दालतों के अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर दखल देने की बढ़ती की शिकायत के बीच सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश एके माथुर और मार्कंडेय काटजू ने सामयिक दखल दिया, जब उन्होंने जजों को उनकी संवैधानिक सीमा याद दिलाई। दोनों जजों ने यह बेलाग शब्दों में कहा कि अगर कोई काम सरकारें नहीं कर पातीं, तो उनका हल यह नहीं है कि न्यायपालिका संसद और सरकारों का काम अपने हाथ में ले ले, क्योंकि इससे न सिर्फ संविधान से तय शक्तियों का नाजुक संतुलन बिगड़ जाएगा, बल्कि न्यायपालिका के पास न तो इन कार्यों को अंजाम देने की महारत है और न ही उसके पास इसके लिए जरूरी संसाधन हैं। न्यायमूर्ति माथुर और न्यायमूर्ति काटजू ने न्यायपालिका के अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर दखल की कई मिसालें अपने इस फैसले में गिनाईं और जजों को सलाह दी कि वो अपनी सीमाओं को समझें एवं सरकार चलाने की कोशिश न करें। उन्होंने कहा कि जजों में विनम्रता होनी चाहिए और उन्हें सम्राटों जैसा व्यवहार नहीं करना चाहिए। संभवतः न्यायिक सक्रियता या अदालतों के अपनी हद लांघने की शिकायत पर इससे कड़ी टिप्पणी कोई और नहीं हो सकती। इन टिप्पणियों के साथ सुप्रीम कोर्ट की इस खंडपीठ ने राज्य-व्यवस्था के तीनों अंगों के बीच शक्तियों के संतुलन को लेकर चल रही बहस को एक नया आयाम दिया। हालांकि यह फैसला आने के दो दिन बाद प्रधान न्यायाधीश केजी बालकृष्णन की अध्यक्षता वाली एक बेंच ने यह कह कर कि अदालत दो जजों की टिप्पणियों से बंधी हुई नहीं है, इस फैसले को बेअसर करने की कोशिश की, लेकिन एक साधारण मामले में आए न्यायमूर्ति माथुर औऱ न्यायमूर्ति काटजू के फैसले ने इस विषय पर जारी बहस की प्रासंगिकता और उसके महत्त्व पर नए सिरे से ज़ोर जरूर डाल दिया है।
दरअसल, न्यायमूर्ति बालकृष्णन की टिप्पणी यह जाहिर करती है कि यह बहस अब ज्यादा तेज हो रही है औऱ खुद न्यायपालिका के भीतर एक हिस्सा ऐसा है जो न्यायपालिका के जरूरत से ज्यादा सक्रिय होने पर चिंतित है। निसंदेह न्यायमूर्ति काटजू इस हिस्से का प्रतिनिधित्व करते रहे हैं। असल में यह पहला मौका नहीं है जब उन्होंने लोकतांत्रिक संदर्भ में न्यायापालिका के अधिकारों पर बेलाग राय जताई हो। इसके पहले वे अदालत की तौहीन के सवाल पर आम तौर पर न्यायिक क्षेत्र में पाई जाने वाली राय से अलग समझ सार्वजनिक रूप से रख चुके हैं। न्यायमूर्ति काटजू उन जजों में हैं जो मानते हैं कि लोकतंत्र के युग में अदालत की अवमानना के कानून की कोई जरूरत नहीं है। उनकी राय में अदालत की अवमानना का मामला सिर्फ तभी चलाया जाना चाहिए जब कोई भौतिक रूप से अदालत के कामकाज में रुकावट डाले। वरना, अदालत के फैसलों की आलोचना के एक आम नागरिक के अधिकार का पूरा सम्मान किया जाना चाहिए।
बहरहाल, इस फैसले पर व्यापक प्रतिक्रिया देखने को मिली है। समाज के सभ्रांत तबकों के साथ कथित जन हित के लिए संघर्ष करने वाले सभ्रांत कार्यकर्ताओं में भी इसको लेकर चिंता देखने को मिली कि कहीं इससे जन हित याचिकाओं की पूरी परिघटना पर ही विराम न लग जाए। इसीलिए कई ऐसी बड़ी शख्सियतों ने, जिन्हें जन आंदोलनों के दायरे में इज्जत से देखा जाता है, न्यायमूर्ति माथुर और न्यायमूर्ति काटजू की राय के समर्थन में आने के बजाय न्यायमूर्ति बालकृष्णन की टिप्पणी के पक्ष में राय जताई। यह ध्यान दिलाया गया है कि १९८० के दशक में जन हित याचिकाओं को कानूनी मान्यता मिलने के बाद से इनके जरिए सरकारों औऱ प्रशासन को ज्यादा जिम्मेदार बनाया जा सका तथा कमजोर तबकों के हितों की रक्षा की जा सकी।
इसमें कोई संदेह नहीं कि जन हित याचिकाएं न्याय व्यवस्था के विकास का एक अहम मुकाम हैं, इसलिए उन्हें बिल्कुल खत्म कर देने का समर्थन किसी को नहीं करना चाहिए। लेकिन सवाल है कि न्यायमूर्ति माथुर और न्यायमूर्ति काटजू के फैसले से जन हित याचिकाओं के खत्म होने की आशंका आखिर कहां से पैदा होती है? उस फैसले का सार-तत्व सिर्फ यह है कि अदालतें अपने दायरे में रहें औऱ संविधान के तहत उन्हें जो जिम्मेदारी दी गई है, उसे निभाएं। इस जिम्मेदारी के तहत नागरिक के मूल अधिकारों की रक्षा शामिल है। इस कसौटी पर सरकार एवं संसद के कार्यों की न्यायिक समीक्षा का अधिकार उन्हें संविधान से मिला हुआ है। इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के बुनियादी ढांचे की अवधारणा स्थापित कर अपना दायरा और बढ़ा लिया है। यानी अदालत जिस सरकारी या विधायी कार्य को संविधान के बुनियादी ढांचे के खिलाफ माने, उसे वह रद्द कर सकती है।
असल में जब अदालतें इस सीमा में काम करती हैं और इसी दायरे में जन हित को परिभाषित करती हैं, तब उन पर कोई सवाल नहीं उठाया जाता। समस्या तब खड़ी होती है, जब वो मॉनिटरिंग कमेटियां बना कर सीधे प्रशासन का काम अपने हाथ में लेने लगती हैं, जैसा कि दिल्ली में अवैध निर्माणों के सिलसिले में हुआ, या अचानक कोई जज यह टिप्पणी करने लगता है कि वह किसी राज्य में चुनी हुई सरकार को बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लागू करवा देगा। राज्य-व्यवस्था के बाकी दोनों अंगों के प्रति जब अपमान का भाव न्यायिक टिप्पणियों का हिस्सा बन जाता है तो जाहिर है, न्यायपालिका न सिर्फ सार्वजनिक बहस के केंद्र में आ जाती है, बल्कि वह खुद अपने लिए आलोचना को न्योता देती है। संसद और सरकारों के प्रति अपमान का जो भाव आम जन तक राजनीतिक अधिकारों के प्रसार से बेचैन सभ्रांत तबकों में है, वही भाव न्यायपालिका में भी झलकने लगता है, तो यह सवाल खुद खड़ा हो जाता है कि आखिर न्यायपालिका सदियों से वंचित तबकों में बढ़ रही लोकतांत्रिक चेतना के साथ है, या वह लोकतंत्र को कुंद रखने की अभिजात्यवादी मानसिकता का साथ दे रही है? जन हित याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए न्यायपालिका ने अपनी जो नई भूमिका बनाई, उसे न्यायिक सक्रियता का नाम दिया गया। इस परिघटना के समर्थक समूहों का कहना है कि न्यायिक सक्रियता के जरिए अदालतों ने कमजोर और गरीब तबकों के हित में दखल दिया और सरकारों को जवाबदेह बनाया। लेकिन अगर हम पिछले ढाई दशकों भारतीय न्यायपालिका के इतिहास पर समग्र रूप से विचार करें तो यह कथन एक अर्धसत्य नजर आता है। अदालतों ने जन हित याचिकाओं पर बंधुआ मजदूरी जैसे कई मामलों में जरूर ऐसे फैसले दिए, जिन्हें प्रगतिशील कहा जा सकता है। लेकिन ऐसी ही याचिकाओं पर अदालतों ने बंद को असंवैधानिक, एवं हड़ताल को गैर कानूनी घोषित कर दिया और नौकरी संबंधी कई स्थितियों में मजदूरों के हितों पर करारी चोट की। १९९० के बाद जैसे-जैसे नव-उदारवादी आर्थिक नीतियां शासन व्यवस्था का हिस्सा बनती गईं, न्यायपालिका के ऐसे फैसलों का सिलसिला बढ़ता गया, जिनसे मजदूर एवं कर्मचारी तबकों के लिए व्यक्तिगत या सामूहिक सौदेबाजी मुश्किल होती गई। पर्यावरण रक्षा की अभिजात्यवादी समझ को न्यायिक समर्थन मिलता गया, जिससे हजारों परिवार उजड़ गए। विकास परियोजनाओं से विस्थापित हुए समूह अदालती चिंता के दायरे से बाहर होते गए।
साथ ही अदालतें सार्वजनिक नीतियों में खुलेआम दखल देने लगीं। मिसाल के तौर पर, असम में लागू गैर कानूनी आव्रजक (ट्रिब्यूनल से निर्धारण) कानून को रद्द करने से लेकर आंध्र प्रदेश में अल्पसंख्यकों को आरक्षण देने के सरकारी फैसलों पर न्यायपालिका का रुख समाज में मौजूद एक खास ढंग के पूर्वाग्रह को मजबूत करने वाला रहा है। शैक्षिक संस्थानों में अन्य पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण के प्रस्ताव पर रोक लगा कर सुप्रीम कोर्ट ने यही संदेश दिया कि उसे संसद की गरिमा की कोई परवाह नहीं है। गौरतलब है कि इस आरक्षण के लिए पास कानून पर सभी दलों में सहमति की दुर्लभ मिसाल देखने को मिली। ऐसा ही संदेश दिल्ली में अवैध निर्माणों की सीलिंग रोकने के संदर्भ में भी दिया गया, जब संसद में आम सहमति से पास कानून सुप्रीम कोर्ट की कसौटी पर खरा नहीं उतरा। जब कोई ऐसी सार्वजनिक नीति बने, जिस पर देश की जनता की नुमाइंदगी करने वाले सभी दल एकमत हों, तो उस पर रोक लगाकर आखिर अदालत किसके हित की रक्षा करती है, यह एक विचारणीय प्रश्न है। सुप्रीम कोर्ट संविधान की नौवीं अनुसूचि को असंवैधानिक ठहरा चुका है, जिसके जरिए संसद उन फैसलों को न्यायिक समीक्षा के दायरे से बाहर रखती थी, जिन पर आम सहमति होती थी, लेकिन जिन्हें संवैधानिक प्रावधानों, अनुच्छेद और धाराओं की यांत्रिक न्यायिक व्याख्या से रद्द किए जाने की आशंका होती थी। न्यायपालिका अपना अधिकार क्षेत्र बढ़ाते हुए यह फैसला दे चुकी है कि संसद का कोई भी कानून या संविधान संशोधन अब न्यायिक समीक्षा के दायरे से बाहर नहीं है। अगर अदालत समझती है कि उस कानून या संशोधन से किसी के बुनियादी अधिकार का उल्लंघन होता है तो उसे वह रद्द कर देगी। इस तरह संविधान के बुनियादी ढांचे की अवधारणा स्थापित करने के बाद बुनियादी अधिकारों को आधार बनाते हुए न्यायपालिका ने शासन व्यवस्था के भीतर खुद के सर्वोच्च होने की स्थिति बना ली है, जो संविधान की मूल भावना के अनुरूप नहीं है। दरअसल, अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम और फ्रांस की क्रांति के दौरान शासन के जिन मूल्यों का विकास हुआ और जिन्हें लोकतंत्र के मूल सिद्धांत के रूप में अपनाया गया, यह उसके भी खिलाफ है। शक्तियों के अलगाव, राज्य-व्यवस्था के अंगों के बीच अवरोध एवं संतुलन की व्यवस्था, और जन भावना की सर्वोच्चता के इन मूल्यों के बिना कोई भी लोकतंत्र महज एक ढांचा ही हो सकता है, वह वास्तविक लोकतंत्र नहीं हो सकता। इसलिए मौजूद बहस में सभी लोकतांत्रिक एवं प्रगतिशील ताकतों को स्वाभाविक रूप से जस्टिस माथुर और जस्टिस काटजू के विचारों के साथ होना चाहिए, जिन्होंने लोकतंत्र और संविधान के आधारभूत सिद्धांतों की व्याख्या की है। भारत में लोकतंत्र के जब जमीन तक पहुंचने की अभी शुरुआत हुई है, तो सत्ता औऱ सुविधाओं पर सदियों से कब्जा जमाए तबकों की बेचैनी समझी जा सकती है। भले ही धीमी गति से, लेकिन आगे बढ़ रही इस क्रांति के खिलाफ उनकी प्रति-क्रांति यानी काउंटर रिवोल्यूशन की मंशा को भी समझा जा सकता है। लेकिन लोकतंत्र के नाम पर चलने वाली संस्थाएं खुद इसमें यथास्थितिवादी ताकतों का हथियार बन जाएं, इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। लेकिन दुर्भाग्य से न्यायपालिका के एक हिस्से और कई दूसरी संवैधानिक संस्थाओं में ऐसा रुझान हाल के वर्षों में बढ़ता गया है। इसीलिए इस मौके पर यह बात जोर देकर कहे जाने की जरूरत है कि संविधान के तहत राज्य-व्यवस्था के तीनों अंगों के बीच संतुलन की जो व्यवस्था है, उसे बहाल किया जाना चाहिए। यह कह कर न्यायमूर्ति माथुर और न्यायमूर्ति काटजू ने लोकतंत्र की बड़ी सेवा की है। लेकिन हैरत यह है कि अपने को लोकतंत्र और मानव अधिकारों का रक्षक बताने वाले बहुत से बुद्धिजीवियों और कार्यकर्ताओं को यह बात गले नहीं उतर रही है। उन्हें लगता है कि संसद, राजनीतिक दल और सरकारें लोकतंत्र के रास्ते में बाधा हैं, जबकि अदालतें उन्हें रास्ते पर रखने का उपक्रम हैं। साफ है, ऐसा नासमझी में ही सोचा जा सकता है, या फिर तब सोचा जा सकता है, जब लोकतंत्र और जन अधिकारों की बात महज शौक के तहत की जाती हो और अपनी असली सोच संभ्रांत वर्ग के पूर्वाग्रहों से तय होती हो।
वरना, यह साधारण समझ की बात है कि लोकतंत्र की रक्षा की गारंटी सिर्फ लोग हैं। सिर्फ वे लोग जिनका हित इससे जुड़ा हुआ है। सिर्फ वे लोग जिनका सब कुछ लोकतंत्र के भविष्य के साथ दांव पर लगा हुआ है। वे लोग नहीं, जो बिना लोकतंत्र के भी सुख और सुविधा के साथ जी सकते हैं औऱ वे लोग तो कतई नहीं जिनके विशेषाधिकारों और खास सुविधाओं पर लोकतंत्र के बढ़ते कदम के साथ चोट पहुंचने का खतरा है। सवाल है कि आज न्यायपालिका इनमें से किन लोगों के हक में खड़ी नजर आती है? या दुनिया भर की लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के इतिहास में उसकी क्या भूमिका रही है? अगर हम इन सवालों पर गौर करें तो यह साफ होने में देर नहीं लगती कि आज न्यायपालिका को उसके संवैधानिक दायरे तक सीमित रखना एक ऐतिहासिक जरूरत बन चुकी है।
इसके लिए विधायिका के अधिकारों की नए सिरे से व्याख्या जरूरी है। विधायिका संविधान के बुनियादी ढांचे की व्याख्या का अधिकार अपने हाथ में लेकर और नौवीं अनुसूची की वैधानिकता बहाल करने की पहल कर इस दिशा में खास कदम बढ़ा सकती है। हालांकि विधायिका के भीतर दक्षिणपंथी और यथास्थितिवादी शक्तियों की मजबूत उपस्थिति को देखते हुए इसकी तुरंत उम्मीद नहीं की जा सकती, लेकिन देश की असली लोकतांत्रिक और प्रगतिशील शक्तियां उस मकसद पर जोर डालकर और इसके लिए जन समर्थन जुटाकर एक दबाव जरूर बना सकती हैं।

1 comment:

दिनेशराय द्विवेदी said...

न्याय प्रणाली भी राज्य का ऐक महत्वपूर्ण अंग है, उसका उद्देश्य भिन्न नहीं हो सकता। वर्तमान वर्ग विभाजित समाज में वह भी शासित वर्गों पर शासकों के दमन का औजार ही है। राज्य की सरकार की गिरती साख से खुद को अलग दिखाने की कोशिश ही न्यायिक सक्रियता है। शासक वर्गों के अनन्य सेवक अपने साथियों को उनकी औकात याद दिलाते रहें। यह राज्य के हित में उचित ही है?