Saturday, December 29, 2007

गुजरात में हार के सबक

सत्येंद्र रंजन
गुजरात विधानसभा के चुनाव की संभवतः एक ही सही व्याख्या हो सकती है और वह है मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की बेलाग जीत। २००४ के लोकसभा चुनाव नतीजों के आधार पर इस बार के विधानसभा चुनाव के परिणामों के जो अनुमान लगाने की कोशिशें हुईं, वो मुंह के बल गिरीं। गौरतलब है कि २००४ के लोकसभा चुनाव में राज्य की २६ में से १२ सीटें कांग्रेस के हक में गई थीं। और तब कांग्रेस ने १८२ में से ९१ विधानसभा सीटों पर बढ़त बना ली थी। उस चुनाव परिणाम को इस बात का संकेत माना गया कि २००२ में गोधरा और गुजरात दंगों से हुए सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के बाद गुजरात में सामान्य राजनीतिक स्थिति बहाल हो गई है।
लेकिन २००७ के नतीजों का संदेश यह है कि जब मुद्दा नरेंद्र मोदी बने तो २००२ का नज़ारा वापस आ गया। मोदी ने तब जो सांप्रदायिक ध्रुवीकरण किया था, उसे आज तक कायम रखने में वे सफल हैं। यह बात इस चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को मिली सीटों और वोट प्रतिशत दोनों से जाहिर होती है। इसलिए इन चुनाव नतीजों को समझने के लिए इन पहलुओं की चर्चा का शायद कोई महत्त्व नहीं है कि तकरीबन ११ सीटों पर बहुजन समाज पार्टी ने कांग्रेस की संभावनाओं को नुकसान पहुंचाया या कांग्रेस ने भाजपा के बागियों को टिकट देकर बड़ी राजनीतिक भूल की। इसके उलट यह बात कहीं ज्यादा सटीक लगती है कि ये सारे पहलू नहीं होते, तब भी मोदी लगभग इतनी ही बड़ी जीत दर्ज करते। दरअसल, देश का धर्मनिरपेक्ष खेमा इस तथ्य को स्वीकार कर और गुजरात के ठोस हालात को समझते हुए अगर गुजरात में हार से कुछ सबक ले तो शायद यह भविष्य के लिए ज्यादा फायदेमंद हो सकता है। इनमें सबसे पहली बात यह है कि देश में सांप्रदायिकता का एक ठोस सामाजिक आधार है, जिसका मजबूत ध्रुवीकरण अगर मुमकिन हो जाए तो वह बड़ी राजनीतिक ताकत बन जाता है। हालांकि १९८४ में राष्ट्रीय स्तर पर या १९९० के दशक में उत्तर प्रदेश में हुए ऐसे ध्रुवीकरण टिकाऊ नहीं हो सके, लेकिन गुजरात में यह गोलबंदी फिलहाल एक अभेद्य किले की तरह नजर आती है। यह गोलबंदी १९८० के दशक में आरक्षण विरोधी आंदोलन से शुरू हुई और तब से पटेल समुदाय गुजरात में भाजपा का लगभग स्थायी जनाधार बना हुआ है। इस बार केशुभाई पटेल की बगावत से यह उम्मीद बांधी गई कि शायद पटेल समुदाय का एक बड़ा हिस्सा भाजपा को वोट न दे। असल में, मोदी की हार से जुड़े अनुमानों के पीछे यह एक बड़ा पहलू था। कोली समुदाय में मोदी से नाराजगी की चर्चाओं ने ऐसी उम्मीदों को और बल दिया।
मगर चुनाव नतीजों ने यह जाहिर किया कि किसी समुदाय के अपने वर्ग और जातीय रुझान किसी एक नेता की इच्छा औऱ अनिच्छाओं से ज्यादा मजबूत होते हैं। पटेलों के सामने जब अपने एक नेता की इज्जत और जातीय हित के बीच चुनाव का सवाल आया तो उन्होंने जातीय हित को ज्यादा तरजीह दी। पटेलों को उस कांग्रेस को न जिताने में ही अपना हित दिखा जो क्षत्रिय-दलित-आदिवासी-मुस्लिम के सामाजिक गठबंधन को फिर से खड़ा करने की कोशिश में थी। वह गठबंधन जिसकी वजह से उनके सामाजिक औऱ राजनीतिक वर्चस्व को एक जमाने में चुनौती मिली थी। इसी तरह कोली समुदाय के एक-दो नेताओं की नाराजगी को पूरे समुदाय की नाराजगी के रूप में देखकर धर्मनिरपेक्ष समुदाय ने अपना ही नुकसान किया। गुजरात के चुनाव नतीजों का पैगाम यही है कि सामाजिक समीकरण और गठबंधन लंबी प्रक्रिया से तय होते हैं। फौरी राजनीतिक वजहों से इनमें बदलाव की उम्मीद करना महज एक सदिच्छा ही हो सकती है। दूसरी तरफ आदिवासी वोटों की जरूर कांग्रेस की तरफ वापसी हुई। लेकिन यह प्रक्रिया भी इतनी जोरदार नहीं थी जिससे आदिवासी बहुल मध्य गुजरात में कांग्रेस की लहर चल जाती। मध्य गुजरात के नतीजे भी दरअसल यही साफ करते हैं कि फौरी वजहों से जाति और वर्गों का जो राजनीतिक गठबंधन बनता है, वह टिकाऊ नहीं होता। आदिवासी २००२ के दंगों के बाद भाजपा खेमे में चले गए थे, लेकिन वहां पटेल और कुछ ओबीसी जातियों के वर्चस्व के बीच उनके लिए टिकाऊ जगह नहीं बन पाई।
इसके साथ ही भाजपा का शहरी मध्य वर्गीय आधार है, जो मोदी के आक्रामक नेतृत्व से ज्यादा मजबूती से गोलबंद हो गया। दक्षिणपंथी और लोकतंत्र विरोधी मानसिकता को मोदी जिस अशिष्ट भाषा में अभिव्यक्ति देते रहे हैं, वह मध्य वर्ग की अपनी इच्छाओं से काफी मेल खाती है। इसलिए मोदी न सिर्फ गुजरात, बल्कि देश के बाकी हिस्सों में भी इस वर्ग के एक बड़े हिस्सों के नायक हैं। इस तरह मोदी ने देहाती इलाकों में दबदबा रखने वाले समूहों और शहरों में दक्षिणपंथ के आधार समूहों का एक ऐसा प्रतिक्रियावादी राजनीतिक गठबंधन तैयार कर रखा है, जिसकी ताकत का सही अंदाजा गुजरात से बाहर बैठे बहुत लोग पहले नहीं लगा पाए। यह साफ है कि ऐसे राजनीतिक गठबंधन का कोई क्विक फिक्स जवाब नहीं हो सकता। इसका मुकाबला धर्मनिरपेक्ष औऱ प्रगतिशील ताकतों के दीर्घकालिक एवं प्रतिबद्ध सहयोग और साफ कार्यक्रम एवं एजेंडे के साथ ही किया जा सकता है। इस बात से शायद खुद कांग्रेस नेता भी इनकार नहीं कर सकते कि ऐसा संघर्ष उनकी पार्टी ने नहीं किया। चुनाव के ठीक वक्त पर उन्होंने पूरा जोर जरूर लगाया, लेकिन एक मजबूत आधार वाले नेता और पार्टी के ठोस वोट आधार के आगे यह नाकाफी साबित हुआ। यहां इस बात भी नजरअंदाज नहीं की जा सकती कि कांग्रेस की सारी रणनीति नकारात्मक वोटों को हासिल करने की टिकी थी। एंटी इन्कबेंसी से निसंदेह कई चुनावों के नतीजे तय होते रहे हैं। कांग्रेस के रणनीतिकारों ने गुजरात में इस पर काफी भरोसा किया। साथ ही उन्होंने भाजपा के बागियों की ताकत पर संभवतः जरूरत से ज्यादा यकीन कर लिया। लेकिन जब पार्टी गुजरे वर्षों के दौरान धर्मनिरपेक्ष राजनीति का कोई सकारात्मक एजेंडा लोगों के सामने नहीं रख पाई थी, तो ठीक चुनाव के वक्त पर आखिर वह कर भी क्या सकती थी? कांग्रेस के सामने यह समस्या अब सारे देश में आनी है। इसलिए कि २००४ में उसे फिर से अपनी तलाश करने का जो ऐतिहासिक मौका मिला, उसे उसने गवां दिया है। इसकी एक मिसाल आदिवासी कानून ही है, जो गुजरात के आदिवासी इलाकों में एक अहम मुद्दा बना। इस कानून को लागू करने में मनमोहन सिंह सरकार ने जैसी हिचक दिखाई है और उस मामले में कांग्रेस नेतृत्व की जैसी छवि उभरी है, उससे आदिवासियों के बीच उसकी साख बनाने का सवाल लगभग खत्म सा हो गया है। यही बात इस सरकार की दूसरी पहलकदमियों के साथ भी रही है। सरकार ने रोजगार गारंटी कानून और सूचना का अधिकार देने संबंधी कानून बनाने के आम जन के हित में जो काम किए भी अपनी वैचारिक दुविधा से उसने उसका राजनीतिक लाभ लेने के मौके गंवा दिए हैं। नतीजतन, आज वह सिर्फ सांप्रदायिकता विरोधी नकारात्मक वोटों के आसरे ही चुनाव मैदान में उतरने की उम्मीद कर सकती है।
इस सारी परिघटना से धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र औऱ दूसरे संवैधानिक मूल्यों के लिए भारी संकट खड़ा होता नजर आ रहा है। दरअसल, गुजरात के चुनाव पर इसलिए इतनी ज्यादा नजर थी, क्योंकि वह एक आम चुनाव नहीं था। वहां दांव पर सीधे लोकतंत्र और भारतीय संविधान के बुनियादी उसूल लगे हुए थे। हमें यह स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि इन संवैधानिक उसूलों की वहां हार हुई है। मोदी की विजय कि घड़ी में भी हम यह नहीं भूल सकते कि फरवरी २००२ में गोधरा कांड के बाद नरेंद्र मोदी ने देश को हिंदुत्व के शासन का नमूना दिखाया था। उन्होंने भौतिकशास्त्र के न्यूटन के क्रिया औऱ प्रतिक्रिया के सिद्धांत को राजनीति और सांप्रदायिक संबंधों के बीच ला कर कानून के शासन का खुला मखौल उड़ाया था। समुदायों के आपसी झगड़ों के बीच सरकार की निष्पक्षता की संवैधानिक अपेक्षा की उन्होंने धज्जियां उड़ा दीं। मोदी को अपनी इस करनी के लिए कभी अफसोस नहीं हुआ। बल्कि हमेशा वो गर्व से अपनी सरकार औऱ अपने दंगाई साथियों के पराक्रम का बखान करते रहे हैं। सिविल सोसायटी के भीतर इसीलिए नरेंद्र मोदी का नाम एक खास ढंग की प्रतिक्रिया पैदा करता रहा है। वो भारत की आधुनिक चेतना के आगे एक ऐसा सवाल बन कर खड़े हैं, जिसका जवाब संभवतः नागरिक समाज के पास नहीं है। एक ऐसा व्यक्ति जो आधुनिक राज्य-व्यवस्था के मूल सिद्धांतों को न मानता हो, जो अपनी संवैधानिक व्यवस्था के बुनियादी सिद्धांतों के लिए चुनौती बना हुआ हो, लेकिन वह इन्हीं सिद्धांतों के तहत चुनाव जीत कर एक प्रदेश के सबसे बड़े पद पर बना रहे, यह एक ऐसी दुविधा है, जिसका हल क्या हो, यह एक यक्ष प्रश्न रहा है। ताजा चुनाव नतीजों के साथ यह प्रश्न कहीं ज्यादा गहरा गया है।

2 comments:

Srijan Shilpi said...

गुजरात के चुनाव परिणामों के निहितार्थ का बढ़िया विश्लेषण।

मोदी की जीत वाकई एक यक्ष प्रश्न है, लेकिन उसका उत्तर उन चालीस फीसदी मतदाताओं की खामोशी में है जो मतदान करने नहीं गए। मोदी को गुजरात में अब भी कुल मिलाकर तीस फीसदी से कम गुजराती मतदाताओं का समर्थन हासिल है। सत्तर फीसदी लोग मोदी के पक्ष में नहीं हैं। लेकिन वे मुखर नहीं हैं, अपनी बात कहना नहीं जानते, अपनी अहमियत नहीं समझते।

जब तक हमारे सभी मतदाता चुनाव के वक्त मतदान करने नहीं जाएगी, तब तक लोकतंत्र का ऐसे ही मजाक बनता रहेगा।

संजय बेंगाणी said...

सैंवाधानिक संस्था द्वारा निश्पक्ष करवाये गये चुनाव के परिणाम संविधान का मजाक है? वाह क्या मजाक है!