Tuesday, January 8, 2008

बंदर कहना नस्लवाद है


सत्येंद्र रंजन
रभजन सिंह ने सिडनी टेस्ट के दौरान एंड्र्यू साइमंड्स को बंदर कहा या नहीं, यह विवादास्पद है। अगर भज्जी कह रहे हैं कि उन्होंने ऐसा नहीं कहा तो भारतीय टीम मैनेजमेंट और बीसीसीआई को इस पर भरोसा करना चाहिए, और जिन सबूतों के आधार पर उनके ऊपर तीन टेस्ट मैचों की पाबंदी लगाई गई है, उसके खिलाफ मजबूत प्रमाण पेश करते हुए आईसीसी मैच रेफरी के इस फैसले को रद्द करवाने की कोशिश करनी चाहिए। बल्कि अगर यह साबित हो जाता है कि भज्जी ने ऐसा नहीं कहा तो उन पर झूठी तोहमत लगाने के लिए ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ियों को कानूनी नोटिस भेजा जाना चाहिए। लेकिन अगर भज्जी या कोई दूसरा खिलाड़ी खेल के बीच आवेश में आकर किसी दूसरे के लिए इस शब्द का इस्तेमाल करता है, तो इसका कोई बचाव नहीं हो सकता। दरअसल, किसी को ऐसे बचाव की कोशिश करनी भी नहीं चाहिए। भज्जी-साइमंड्स के मौजूदा विवाद में यह बात इसलिए अहम हो गई है, क्योंकि मीडिया और कई दूसरे हलकों से भज्जी के बचाव में अजीबोगरीब दलीलें पेश की गई हैं। इन दलीलों का सार यह है कि बंदर कहना कोई गाली नहीं है, और न ही इसमें कोई नस्लवाद है। बचाव की एक और दलील यह है कि अगर बंदर कहना नस्लवादी टिप्पणी हो, तो भी भज्जी शायद इससे वाकिफ न रहे हों औऱ अनजाने में उन्होंने यह बात कह दी हो। दूसरी बात के संदर्भ में सिर्फ कानून के क्षेत्र का यह सर्वमान्य सिद्धांत याद कर लेने की जरूरत है कि किसी सभ्य कानूनी व्यवस्था में अज्ञानता या जानकारी न होना कोई बचाव नहीं है। यानी आप कोई अपराध करने के बाद अपने बचाव में यह दलील पेश नहीं कर सकते कि आपको यह जानकारी नहीं थी कि वह काम अपराध है।
जहां तक बंदर कहने की बात है, तो इसका एक ऐतिहासिक संदर्भ है। बंदर भारत में पूजे जाते हैं, आखिर सबके पूर्वज बंदर थे या लोग प्यार से अपने बच्चों को भी बंदर कह देते हैं, ये बातें उस ऐतिहासिक संदर्भ की अज्ञानता में ही कही जा सकती हैं। भज्जी ने साइमंड्स को बंदर कहा या नहीं, हम नहीं जानते। लेकिन अगर उन्होंने कहा, तो जाहिर है, वे इस शब्द के जरिए साइमंड्स के प्रति श्रद्धा या प्यार नहीं जता रहे थे। अगर उन्होंने कहा तो इसके पीछे अपमान का ही भाव था। इस शब्द के साथ अपमान की भावना कैसे नस्लवादी संदर्भ ग्रहण कर लेती है, इसे समझने की जरूरत है।
पहली बात तो यह कि जब आप अपमान भाव के साथ किसी को बंदर कहते हैं, तो उसमें यह अंतर्निहित होता है कि आप उसे मानव के विकासक्रम में खुद से नीचे के स्तर पर बता रहे हैं। यह बात बहुत से मूलवासी समुदायों को इसलिए ज्यादा चुभती है, क्योंकि उनके साथ सदियों तक वास्तव में ऐसा ही व्यवहार किया गया है और इतिहास में इसकी उन्होंने बहुत महंगी कीमत चुकाई है। औद्योगिक क्रांति के बाद जब यूरोपीय साम्राज्यवाद ने कदम पसारने शुरू किए तभी यूरोप के गोरे नस्ल की जातियों ने ह्वाइटमेन बर्डन का सिद्धांत पेश किया, जिसका सारतत्व यह था कि दुनिया को ‘सभ्य’ बनाने की जिम्मेदारी गोरे लोगो के कंधों पर है। ‘सभ्य’ बनाने की इस मुहिम में एशिया, अफ्रीका औऱ लैटिन अमेरिका के बहुत से देशों ने इन जातियों ने गुलाम बना लिया। इस दौर में लैटिन अमेरिका की माया और अज़तेक जैसी कई सभ्यताएं लगभग नष्ट हो गईं, भारी कत्ले-आम हुआ और रेड इंडियन्स कहे जाने वाले मूलवासियों को उनकी ही जमीन और संसाधनों से खदेड़कर अमानवीय स्तर पर जीने को मजबूर कर दिया गया। अफ्रीका के काले समुदाय के लोगों को गुलाम बनाकर गोरे नस्ल के लोगों ने अपनी सुविधा के मुताबिक दुनिया में जहां चाहा, वहां ले जाकर उन्हें बसाया औऱ उनका मनमाना शोषण किया। यह सारा अत्याचार यही कहते हुए किया गया कि यूरोपीय गोरे समुदायों के अलावा बाकी सभी नस्ल और जातियां विकासक्रम में पिछड़ी हुई हैं। काले और मूलवासी समूहों को आम तौर पर जानवर के जैसा समझा गया। बंदर जैसे शब्द उनके लिए लगातार इस्तेमाल किए गए। यूरोपीय साम्राज्यवाद और नस्लीय भेदभाव के खिलाफ जब लंबा संघर्ष चला और तब जाकर कहीं उससे एक हद तक मुक्ति मिली। इसी विश्वव्यापी संघर्ष से नस्लवाद के खिलाफ जागरूकता आई। इस संघर्ष ने नस्ल, रंग और जाति के आधार पर भेदभाव के तमाम सिद्धांतों को चुनौती दी और आखिरकार विश्व व्यवस्था में यह बात स्वीकार की गई कि हर जाति, नस्ल, रंग, राष्ट्रीयता और संस्कृति के लोग समान हैं। उनके बीच नज़र आने वाला शारीरिक फर्क भौगोलिक और ऐतिहासिक कारणों से है। मानव सभ्यता का भविष्य इसी में है कि इंसान की मूलभूत एकता पर जोर दिया जाए। इसीलिए आज पश्चिम से लेकर पूरब तक हर जगह किसी को बंदर कहना या बंदर के बोलने जैसी आवाज निकालकर किसी को चिढ़ाना एक अपराध माना जाता है। नई जागरूकता के साथ पश्चिमी समाज अब अपने ऐतिहासिक अपराधों का प्रायःश्चित करता नजर आता है। अभी हाल ही में ऑस्ट्रेलिया में सत्ता में आई लेबर पार्टी की सरकार ने देश की मूलवासी आबादी से बीती सदियों में हुए अत्याचार के लिए अफसोस जताया है। यूरोप में फुटबॉल के मैदानों पर मंकी कहना या मंकी चैंट करना स्थापित अपराध है, जिसकी साफ सजा का प्रावधान है।
यह हो सकता है कि बंदर कहने के अर्थ की गंभीरता भारतीय समाज में बहुत से लोग महसूस न कर सकें। इसलिए कि भारत में उस प्रकार के नस्लीय भेदभाव और अत्याचार का इतिहास नहीं रहा है, जैसा अफ्रीका, लैटिन अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में रहा है। ठीक उसी तरह जैसे यूरोप या अफ्रीका में किसी के लिए यह समझना मुश्किल हो कि मोची या महार शब्दों का इस्तेमाल क्यों कुछ खास संदर्भों में अपमानजनक है। हाल में फिल्म आजा नचले के एक गाने में मोची शब्द के इस्तेमाल पर दलित समूहों ने जो एतराज जताया, उसे समझना जातीय अत्याचार के इतिहास से नावाकिफ लोगों के लिए मुश्किल हो सकता है। लेकिन भारतीय संदर्भ में इन शब्दों के पीछे हजारों साल के अन्याय का इतिहास छिपा है और इसीलिए सार्वजनिक विमर्श में इनका इस्तेमाल अब लगभग प्रतिबंधित हो गया है।
शब्दों के अर्थ का खास संदर्भ होता है औऱ बदलते वक्त औऱ संदर्भ के साथ ये अर्थ बदलते रहते हैं। मसलन, १९३० के दशक में हरिजन शब्द दलितों को सामाजिक प्रतिष्ठा दिलाने की कोशिश का हिस्सा हो सकता था, लेकिन आज इस शब्द के इस्तेमाल पर दलितों को ही गहरा एतराज होता है। यह एतराज इसलिए है कि वे समाज में अपनी प्रतिष्ठा अपने बुनियादी मानव अधिकारों के साथ पाना चाहते हैं, न कि किन्हीं दूसरे समुदायों की मेहरबानी से। हरिजन शब्द में यह संदेश देने की कोशिश थी कि दलित भी ईश्वर की संतान हैं, इसलिए उनसे मानवीय व्यवहार किया जाए। यह संदेश दलितों से ज्यादा सवर्ण जातियों के लिए था। लेकिन अपने अधिकारों के प्रति जागरूक दलित दूसरों की कृपा से मानवीय व्यवहार की अपेक्षा नहीं रखते। उन्होंने अपने लिए दलित शब्द इसलिए अपनाया है कि इससे यह जाहिर होता है कि इन समुदायों को सदियों तक दबा कर रखा गया। अत्याचार का यह बोध उनमें अपने बुनियादी हक और स्वाभाविक मानवीय प्रतिष्ठा पाने का मनोबल पैदा करता है।
अगर हम जाति और समुदायों के लिए शब्दों के इस ऐतिहासिक अर्थ को समझ सकें तो बंदर कहने का क्या मतलब है, इसे बेहतर ढंग से समझ सकते हैं। और अगर हम यह समझ लें तो शायद ऐसा कहने वाले किसी व्यक्ति की बचाव में बेमतलब की दलीलें नहीं गढ़ेंगे, जैसा हरभजन-साइमंड्स विवाद में हुआ है।

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