Thursday, January 31, 2008

एडवर्ड्स के हटने के मतलब


मेरिका में डेमोक्रेटिक पार्टी की उम्मीदवारी की होड़ से जॉन एडवर्ड्स के हट जाने के बाद यह तय हो गया है कि बराक ओबामा और हिलेरी क्लिंटन में से ही कोई एक अगले राष्ट्रपति चुनाव में डेमोक्रेटिक पार्टी का उम्मीदवार होगा। दरअसल, जॉन एडवर्ड्स को साउथ कैरोलाइना राज्य से काफी उम्मीदें थीं, इसलिए कि यह उनके अपने राज्य नॉर्थ कैरलाइना का पड़ोसी राज्य है। लेकिन यहां वो सिर्फ १८ फीसदी वोट हासिल कर सके। अब सारी निगाहें सुपर ट्यूजडे यानी पांच फरवरी पर है, जिस दिन २२ राज्यों में डेमोक्रेटिक प्राइमरी या कॉकस होंगे। उस रोज जिसने बाज़ी मारी, उसकी संभावना बेहद मजबूत हो जाएगी।
बहरहाल, जॉन एडवर्ड्स का पिछड़ना यह जरूर जाहिर करता है कि अमेरिका में भले इस वक्त बदलाव की लहर चल रही हो, लेकिन यह बदलाव ठोस नीतियों के दायरे में कम औऱ भावावेश में ज्यादा है। एडवर्ड्स अकेले ऐसे उम्मीदवार थे, जिन्होंने नीतियों के स्तर पर रिपब्लिकन पार्टी का विकल्प पेश किया। सबको स्वास्थ्य सुरक्षा देने की उन्होंने विस्तृत और व्यावहारिक योजना रखी। देश का नियंत्रण बहुराष्ट्रीय कंपनियों से वापस आम जनता के हाथ में लाने की राजनीतिक रणनीति भी लोगों के सामने पेश की। लेकिन ये नीतियां लोगों को प्रभावित नहीं कर सकीं। इसके उलट बराक ओबामा का ओजस्वी भाषण डेमोक्रेटिक पार्टी के परंपरागत और नए समर्थकों को ज्यादा लुभा रहा है।
अमेरिका के राजनीतिक रुझान पर गौर करें तो फिलहाल संकेत यही है कि इस बार राष्ट्रपति चुनाव में जीत डेमोक्रेटिक पार्टी के हाथ लगेगी। जॉर्ज बुश जूनियर की आर्थिक औऱ विदेश नीतियां बेहद अलोकप्रिय हो चुकी हैं, जिसका संकेत २००६ के अमेरिकी कांग्रेस के चुनाव में भी मिला, जब १९९२ के बाद पहली बार डेमोक्रेटिक पार्टी को संसद के दोनों सदनों में बहुमत हासिल हुआ। तभी स्थायी रिपब्लिकन बहुमत का दावा खोखला साबित हो गया। यह जाहिर हो गया कि बड़ी कंपनियों, चर्च, दक्षिणी राज्यों के सामंतों और रूढ़िवादी समूहों की साझा ताकत इतनी नहीं है कि वे हमेशा के लिए एक राजनीतिक बहुमत का निर्माण कर सके। उसके बाद से अर्थव्यवस्था में आई मंदी, बढ़ती बेरोजगारी, उलझता इराक का मकड़जाल और बुश प्रशासन के अधिकारियों की खराब हुई छवि ने रिपब्लिकन पार्टी के प्रति आम लोगों की नाराजगी और बढ़ाई है।
बराक ओबामा की खूबी यह है कि उन्होंने ऐसे बहुत से लोगों को अपनी तरफ खींचा है, जो परंपरागत रूप से डेमोक्रेटिक पार्टी के समर्थक नहीं रहे हैं। खासकर नौजवान तबकों में उनका नारा- चेंज, येस वी कैन (यानी- परिवर्तन हम ला सकते हैं) तेजी से लोकप्रिय हुआ है। ओबामा जब परिवर्तन की बात करते हैं तो उनका प्रत्यक्ष निशाना जरूर रिपब्लिकन पार्टी और जॉर्ज बुश होते हैं, लेकिन परोक्ष रूप से वे हिलेरी क्लिंटन पर भी वार करते हैं। बिल क्लिंटन के राष्ट्रपति रहते हुए क्लिंटन परिवार की राजनीति और आर्थिक सत्ता केंद्रों पर मजबूत पकड़ बनी। इसीलिए आम चर्चा में यह कहा जाता है कि वाशिंगटन ऐस्टैबिलिशमेंट हिलेरी क्लिंटन के साथ है। ओबामा इसी ऐस्टैबलिशमेंट से देश को मुक्ति दिलाने का वादा कर रहे हैं और उस पर राजनीति से अलग रहने वाले लोग भी खूब तालियां पीट रहे हैं।
ओबामा का यह प्रतीकात्मक महत्त्व जरूर है कि उन्होंने नस्लभेद को काफी हद तक डेमोक्रेटिक राजनीति में अप्रासंगिक बना दिया है। ओबामा के पिता केन्याई मूल के थे और उनके बीच का नाम हुसैन है, जो मुस्लिम अर्थ लिए हुए है। लेकिन ये पहलू उनकी चुनावी संभावनाओं को कमजोर नहीं बना रहे हैं। यहां शायद यह याद कर लेना प्रासंगिक है कि अतीत में जैकी जैक्सन जैसे सिविल लिबर्टी के मशहूर नेता सिर्फ इसलिए राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी हासिल नहीं कर सके, क्योंकि डेमोक्रेटिक पार्टी को यह भरोसा नहीं था कि काले समुदाय का कोई व्यक्ति अमेरिका में राष्ट्रपति के चुनाव में जीत सकता है। लेकिन वह बाधा इस बार नजर नहीं आती।
बल्कि इस बार यह मान कर चला जा रहा है कि अमेरिका या तो नस्ल की बेड़ी तोड़ेगा या लिंग की। एडवर्ड्स के पिछड़ जाने के बाद ओबामा या हिलेरी क्लिंटन में से एक को उम्मीदवारी मिलना तय है और इनमें से जो भी उम्मीदवार बने उसके राष्ट्रपति बनने की प्रबल संभावना है। यह निश्चित रूप से एक ऐतिहासिक महत्त्व की घटना होगी। लेकिन अगर एक बार फिर हम नीतियों के दायरे में लौटें तो इन दोनों उम्मीदवारों की नीतियों में ऐसा कुछ नजर नहीं आता जो अमेरिका सरकार का कामकाज पर कोई बुनियादी फर्क डाल सके। मसलन, हम इराक का सवाल लें। ओबामा इस बात का श्रेय जरूर लेते हैं कि उन्होंने शुरू से इराक युद्ध का विरोध किया। लेकिन बतौर सीनेटर उन्होंने इराक में मौजूद अमेरिकी फौज के लिए धन का प्रावधान करने के विधेयक का समर्थन किया और ईरान के खिलाफ सैनिक कार्रवाई की संभावना से उन्होंने इनकार नहीं किया है। हिलेरी क्लिंटन ने २००३ में इराक पर हमले का समर्थन किया था और ईरान के खिलाफ बुश प्रशासन की उग्र नीतियों की भी वो समर्थक रही हैं। इजराइल और फिलस्तीन पर भी दोनों के रुख में कोई फर्क नहीं है।
अंदरूनी मामलों में हिलरी क्लिंटन की मुश्किल यह है कि उनके साथ वही शक्तियां खड़ी हैं, जो हमेशा सत्ता के साथ होती हैं। ओबामा के साथ जरूर एक नई और आम लोगों की ताकत दिखती है, लेकिन जिस वाशिंगटन ऐस्टैबलिशमेंट की आलोचना करते हैं, उस पर वे लगाम कैसे लगाएंगे, इसका कोई कार्यक्रम उन्होंने जनता के सामने नहीं रखा है। इस तरह बात बात-घूम फिर कर यहीं आ जाती है कि बुश प्रशासन की अलोकप्रियता का फायदा डेमोक्रेटिक उम्मीदवार को जरूर मिल रहा है, लेकिन इससे अमेरिकी प्रशासन की मूल दिशा पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा। बहरहाल, दुनिया सिर्फ इसी उम्मीद में है कि डेमोक्रेटिक प्रशासन के तहत जॉर्ज बुश की एकतरफा कार्रवाई, अंतरराष्ट्रीय कानूनों की अनदेखी और नंगे साम्राज्यवाद की नीतियों पर रोक लगेगी और यही एक बड़े राहत की बात होगी।

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