Tuesday, February 26, 2008

अमेरिकी चुनाव और भारतीय हित



सत्येंद्र रंजन
मेरिका में राष्ट्रपति चुनाव के लिए डेमोक्रेटिक पार्टी का उम्मीदवार चुनने की प्रक्रिया में इस बार जैसा जोरदार मुकाबला देखने को मिला है और ठोस मुद्दों पर जैसी बहस हुई है, वैसी एक पूरी पीढ़ी की यादाश्त में दर्ज नहीं है। लोकतांत्रिक प्रक्रिया का एक जीवंत नजारा वहां देखने को मिल रहा है। इस परिघटना ने इसलिए ज्यादा रोमांच औऱ उत्साह पैदा किया है, क्योंकि इस बार वहां सचमुच एक युगांतकारी घटना हो सकती है। जॉर्ज बुश जूनियर के जन-विरोधी, भ्रष्ट और कई मायनों में आपराधिक शासन से परेशान मतदाता डेमोक्रेटिक पार्टी की तरफ झुकते नजर आ रहे हैं, और यह अब तय है कि डेमोक्रेटिक पार्टी की तरफ से कोई अश्वेत या महिला उम्मीदवार ही चुनाव मैदान में होगा। अगर अगले नवंबर तक अमेरिकी राजनीतिक स्थिति में कोई बड़ा बदलाव नहीं आ जाता है, तो इस बार ह्वाइट हाउस में सचमुच किसी अश्वेत या महिला को बतौर राष्ट्रपति देखा जा सकता है। अगर ऐसा होता है तो स्वतंत्रता और नागरिक अधिकारों के घोषणापत्र के साथ अमेरिकी राष्ट्र की स्थापना के करीब सवा दो सौ साल बाद यह मौका आएगा। १७७६ में कामयाब हुआ अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम मानव इतिहास की एक अहम घटना रहा है। लेकिन अश्वेतो और महिलाओं से जारी भेदभाव उस क्रांति पर आज तक एक बदनुमा दाग हैं, जिसके कुछ निशान हिलेरी क्लिंटन या बराक ओबामा की जीत से जरूर धोये जा सकेंगे।
पिछले करीब एक साल से अमेरिका में इन दो उम्मीदवारों के बीच अहम मुद्दों पर जोरदार बहस चली रही है। इस बहस में सबसे महत्त्वपूर्ण आयाम एक तीसरे उम्मीदवार जॉन एडवर्ड्स ने जोड़े, जो उम्मीदवार चुनने की प्रक्रिया के शुरुआती दौर में पिछड़ने के बाद अब इस होड़ से अलग हो चुके हैं। लेकिन उन्होंने कॉरपोरेट सत्ता, स्वास्थ्य देखभाल और विदेश नीति पर जो बहस छेड़ी वह अब भी हिलेरी क्लिंटन और बराक ओबामा के बीच बेहद तीखे ढंग से चल रही है। ये वो मुद्दे हैं, जिनके आधार पर पार्टी की उम्मीदवारी हासिल करने की कोशिश हो रही है और जिन पर सचमुच इस बार राष्ट्रपति चुनाव लड़ा जाएगा। बतौर महाशक्ति अमेरिका की दुनिया में जो हैसियत है और बतौर एक लोकतांत्रिक प्रयोग के वहां जो अनुभव हुए हैं, उसके मद्देनजर अमेरिकी चुनाव विश्व-व्यवस्था के लिए एक बेहद महत्त्वपूर्ण घटना है। जाहिर है, इसमें दुनिया भर के उन लोगों की गहरी दिलचस्पी है, जो अंतरराष्ट्रीय और देशों की अंदरूनी व्यवस्था को लोकतांत्रिक सिद्धांतो से चलाने के पक्षधर हैं।
लेकिन भारतीय समाचार माध्यमो और आम चर्चा में यह परिप्रेक्ष्य हमेशा की तरह इस बार भी गायब नज़र आ रहा है। यहां बात लोकतंत्र और अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के संदर्भ में होने के बजाय भारतीय हित के संदर्भ में ज्यादा होती है। फिर भारतीय हित को भी बेहद संकुचित ढंग से परिभाषित किया जाता है। समाज के कुछ तबकों के हित को पूरे देश के हित के रूप में पेश करना और उस चश्मे से अमेरिकी चुनाव जैसी घटना को देखना एक ऐसी सीमित दृष्टि पैदा करता है, जिससे किसी घटना के न तो सभी पहलू समझे जा सकते हैं और ना ही उसके अपने खास एवं ऐतिहासिक महत्त्व तक निगाह पहुंच सकती है। मसलन, भारत में चर्चा के खास बिंदु हैं कि नए राष्ट्रपति के शासनकाल में भारत-अमेरिका असैनिक परमाणु सहयोग के करार का क्या होगा, आउटसोर्सिंग पर क्या फर्क पड़ेगा और क्या एक डेमोक्रेटिक राष्ट्रपति भारत के लिए वैसी दोस्ती दिखाएगा, जैसी कथित तौर पर जॉर्ज बुश दिखाते रहे हैं। अगर भारत के व्यापक हित पर गौर करें तो अमेरिकी चुनाव के संदर्भ में ये सारे सवाल अप्रासंगिक हैं। भारत का हित इन तीन प्रश्नों से कतई तय नहीं होता है। मनमोहन सिंह सरकार के अंतरराष्ट्रीय मामलों में बुश प्रशासन की पिछलग्गू नीति अपना लेने से परमाणु करार का अब वैसे भी कोई भविष्य नहीं है, क्योंकि लोकतांत्रिक और वामपंथी ताकतें फिलहाल इस पर अमल नहीं होने देंगी। यह करार भारत की स्वतंत्र विदेश नीति का सौदा करने की कीमत पर हुआ, जिसे कोई स्वाभिमानी भारतीय स्वीकार नहीं कर सकता।
जहां तक आउटसोर्सिंग का सवाल है, यह बिजनेस मॉडल बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने अपने फायदे के लिए अपनाया हुआ है। अमेरिका में जिस काम के लिए उन्हें महंगी मजदूरी देनी पड़ती, वे काम भारत में वो सस्ती मजदूरी देकर करवा लेती हैं। इससे अमेरिका में कई लोगों के रोजगार के अवसर खत्म होते हैं और भारत में कई लोगों को रोजगार मिल जाता है। लेकिन प्रश्न यह है कि क्या यह देश की अर्थव्यवस्था के विकास और रोजगार पैदा करने की सही नीति का विकल्प है? बहरहाल, कोई देश अगर अपनी अर्थ-नीति में अपने कामगारो के हित के मुताबिक कोई बदलाव लाता है तो उसे कोई दूसरा देश अपने खिलाफ नहीं समझ सकता।
जॉर्ज बुश भारत के दोस्त हैं, यह धारणा उपरोक्त दोनों मुद्दों और इन जैसे दूसरे कुछ मुद्दों के आधार पर कही जाती है। लेकिन उनकी यह दोस्ती दरअसल, बड़ी बहुराष्ट्रीय- खास कर तेल औऱ हथियार कंपनियों- को फ़ायदा पहुंचाने की उनकी नीति का एक हिस्सा रही है, जिसके कुछ खास अंतरराष्ट्रीय पहलू हैं। इनमें एक भारत को अमेरिकी सामरिक रणनीति का हिस्सा बनाना भी है। भारत के शासक समूहों को कुछ फायदे देकर उन्हें अपने पाले में लेने की नीति को बुश ने अंजाम देने की कोशिश की और इसमें काफी हद तक वो सफल भी रहे। लेकिन यह कथित दोस्ती दरअसल, भारत की आम जनता के व्यापक हितों के खिलाफ है। इसलिए कि इससे देश में दक्षिणपंथी राजनीतिक विमर्श और नव उदारवादी आर्थिक नीतियों को ज्यादा ताकत मिली औऱ इससे गैर बराबरी बढ़ने के नए हालात पैदा हुए। बुश पिछले आठ साल में जिस रास्ते पर चले, उससे दूसरे विश्व युद्ध के बाद से विकसित हो रही अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को गहरा नुकसान पहुंचा है। विश्व मुद्दों पर बहुपक्षीय सहमति की व्यवस्था के ऊपर उन्होंने अमेरिका की एकतरफा कार्रवाई की नीति को तरजीह दी, जिसका परिणाम यह है कि न्यायपूर्ण और लोकतांत्रिक दुनिया बनाने का सपना आज और दूर हो गया है। इराक मुद्दे पर बुश प्रशासन की मनमानी ने संयुक्त राष्ट्र को बेमतलब साबित कर दिया। अमेरिका में जमींदारों के अपने वोट बैंक की चिंता में उसने विश्व व्यापार संगठन जैसे बहुपक्षीय मंच को निष्क्रिय कर रखा है। जलवायु परिवर्तन के क्योतो प्रोटोकॉल से अमेरिका को हटाने के बाद सारी दुनिया के बीच इस मुद्दे पर बनती सहमति का बुश प्रशासन मखौल उड़ाता रहा है। अंतरराष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय की स्थापना में उसने हर कदम पर बाधाएं खड़ी कीं और जब बहुत से देशों ने उसे संयुक्त राष्ट्र की सहमति से स्थापित किया, तब भी अमेरिका उसका हिस्सा नहीं है। रूस से अंतर-महाद्वीपीय मिसाइल संधि को एकतरफा ढंग से खत्म कर बुश प्रशासन ने अंतरराष्ट्रीय संधियों और समझौतों की बुनियाद पर ही चोट की।
हाल ही में आई पूर्व अमेरिकी उप राष्ट्रपति एल गोर की किताब ‘असॉल्ट औन रीजन’ बुश प्रशासन के दौर में लोकतंत्र, जन अधिकारों और इन सबके आधार मनुष्य के विवेक पर लगातार हुए लगातार हमलों का एक दस्तावेज है। यह साफ है कि बुश प्रशासन की नीतियां सिर्फ उन बड़ी कंपनियों, अमेरिका के बड़े जमींदारों और चर्च के कट्टरपंथी हिस्सो के हित में रही हैं, जो उसके समर्थन का आधार हैं। इन तबको का राज पूरी दुनिया पर स्थापित करना उसका मकसद रहा है। इस परियोजना में भारत के शासक समूहों को भी शामिल करने की कोशिश हुई है। नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों के जरिए अपनी सुख-सुविधा को बढ़ाने में जुटे और सुरक्षा की बेहद संकुचित समझ लेकर चलने वाले इन समूहों और उनके प्रचार तंत्र ने इसीलिए जॉर्ज बुश जूनियर को भारत का दोस्त और उनकी नीतियों को भारत के हित में घोषित किया हुआ है। मगर यह समझने की बात है कि जो नीतियां दुनिया में किसी व्यवस्था या प्रणाली को नहीं मानतीं, वे किसी के हित में नहीं हो सकतीं। दरअसल, अब इन नीतियों के खतरनाक असर को अमेरिका में भी समझा जा रहा है, इसीलिए आतंकवाद और राष्ट्रीय सुरक्षा का भय दिखाकर २००१ से २००४ तक बुश ने जो राजनीतिक बहुमत अपने हक में तैयार किया, वह २००६ आते-आते टूट गया और अब यह आशा प्रबल है कि २००८ उनकी रिपब्लिकन पार्टी की हार का साल है। गौरतलब है कि २००६ से पहले तक अमेरिका के राजनीतिक विमर्श में यह बात जोर देकर कही जाती थी कि रिपब्लिकन पार्टी का लगभग स्थायी बहुमत तैयार हो गया है, इसलिए राष्ट्रीय चुनाव में उसे शिकस्त देना नामुमकिन-सा है। इस कथन का आधार यह था कि १९६० के दशक में राष्ट्रपति जॉन एफ केनेडी और लिंडन जॉनसन के डेमोक्रेटिक शासन में अश्वेत समुदायों को मताधिकार के साथ-साथ सभी नागरिक अधिकार देने के जो फैसले हुए उससे गोरे समुदाय का एक बड़ा तबका हमेशा के लिए रिपब्लिकन समर्थक बन गया। टैक्स में कटौती की रिपब्लिकन नीति ने उसे धनी तबकों की प्रिय पार्टी बनाए रखा। गर्भपात, नारी, समलैंगिक औऱ अल्पसंख्यक समुदायों के अधिकारों की वकालत की वजह से चर्च डेमोक्रेटिक पार्टी के खिलाफ हो गया। इन सबसे रिपब्लिकन पार्टी का मजबूत आधार बना। जब ११ सितंबर २००१ को अमेरिका पर आतंकवादी हमले हुए तो सुरक्षा वहां एक बड़ा मुद्दा बन गया, जिस पर आक्रामक रुख अपना कर रिपब्लिकन पार्टी ने मध्य वर्ग और यहां तक कि निम्न मध्य वर्ग में भी अपना ठोस जनाधार तैयार कर लिया। माना गया कि इससे राजनीति का एक अपराजेय समीकरण तैयार हो गया है। लेकिन यह बात २००६ के संसदीय और राज्यों के चुनावों में गलत साबित हो गई। तब बुश प्रशासन की धनी समर्थक और युद्धवादी नीतियों की अलोकप्रियता साफ हो गई। यह अलोकप्रियता तब से और बढ़ती ही गई है।
भारत के लोकतांत्रिक समूहों के लिए अमेरिकी चुनाव में दिलचस्पी का यह पहला बिंदु होना चाहिए। बुश प्रशासन की हार दुनिया के व्यापक हित में है औऱ अगर इसकी स्थितियां वहां बन रही हैं, तो अमेरिकी साम्राज्यवाद के पूरे संदर्भ में इसकी चर्चा करते हुए देश के लोगों को यह बताया जाना चाहिए कि उग्र राष्ट्रवाद या गैर जरूरी युद्ध के लिए भावनाएं भड़का कर उसके पीछे की मंशा को हमेशा के लिए नहीं छिपाया जा सकता। यह बात ध्यान में रखने की है कि रिपब्लिकन पार्टी के सत्ता में रहने का यह मतलब नहीं होगा कि अमेरिका साम्राज्यवाद की नीतियों से हट जाएगा। इसका सिर्फ यह मतलब होगा कि ऐसी नीतियों को अमेरिका की आम जनता का समर्थन नही है औऱ वहां के आम लोग अपने हित वहां की बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ जोड़ कर नहीं, बल्कि उनके विरोध में देखते हैं। लोकतंत्र की कसौटी पर यह एक प्रगतिशील कदम होगा। अमेरिकी चुनाव में हमारी दिलचस्पी का दूसरा बिंदु बराक ओबामा बनाम हिलेरी क्लिंटन का मुकाबला है। डेमोक्रेटिक पार्टी की उम्मीदवारी की होड़ के आखिरी दौर में किसी गोरे पुरुष का न होना नस्ल और लिंग भेद के खिलाफ सदियों से जारी इंसान के संघर्ष में एक मील का पत्थर है। अगर यह परिघटना अपने आखिरी मुकाम तक पहुंची, यानी राष्ट्रपति चुनाव में इन दोनों के बीच किसी एक की जीत हुई, तो इसका पैगाम दूर तक जाएगा और न सिर्फ हम सबके लिए, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी इस घटना की अहमियत कायम रहेगी।
अगर घटनाओं को इन रूपों में देखने का नजरिया हम विकसित कर सकें तो इससे अपने हित की भी हम बेहतर समझ पैदा कर पाएंगे। मानवता का हित उन सिद्धांतों को लोकप्रिय बनाने और स्थापित करने में है, जो इंसान के सदियों के संघर्ष से विकसित हुए हैं। स्वतंत्रता, न्याय, लोकतंत्र और मानव अधिकार ऐसे सिद्धांत हैं, जिनके बिना कोई इंसान या समाज गरिमामय ढंग से नहीं जी सकता है। विश्व और विभिन्न देशों की सत्ता व्यवस्थाओं में इन सिद्धांतों की आज जरूर झलक मिलनी चाहिए। जो व्यवस्था इन सिद्धांतो पर हमले करती हो, वह दुनिया के हित में नहीं हो सकती। बुश प्रशासन एक ऐसी ही व्यवस्था के रूप में सामने आया। इसलिए उसकी हार पूरी दुनिया के हित में है।

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