Monday, February 11, 2008

एक विफल आंदोलन के सबक


सत्येंद्र रंजन
जादी के बाद भारत में छात्र और लोगों की व्यापक भागीदारी वाले आंदोलनों की लंबी परंपरा रही है। इन आंदोलनों ने पिछले साठ साल के राजनीतिक माहौल पर अपना गहरा असर छोड़ा है। कई बार ये आंदोलन संकीर्ण और सांप्रदायिक एजेंडे के साथ हुए, लेकिन बहुत से मौकों पर इन आंदोलनों ने एक बड़े जन समुदाय की प्रगतिशील आकांक्षाओं की नुमाइंदगी भी की। अधिकांश मौकों पर आंदोलन कुछ निश्चित मांगों को लेकर हुए, और जैसा कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में होता है, सहमति के बिंदुओं की तलाश, सौदेबाजी और समझौते के साथ इन आंदोलनों का अंत हुआ। यानी कोई भी आंदोलन शायद अपनी सभी मांगे तो नहीं मनवा सका, लेकिन उसकी बहुत सी मांगों पर अमल के लिए सरकार या संबंधित दूसरे पक्ष राजी हो गए। समस्याओं के हल के इस लोकतांत्रिक तरीके ने भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था को न सिर्फ मजबूती दी है, बल्कि इसमें जान भी फूंकी है।
आंदोलनों के इस इतिहास के बीच १९७३ के गुजरात और १९७४ के बिहार के छात्र आंदोलन का एक अलग स्थान इस लिहाज से है कि भले उन आंदोलनों की शुरुआत भी छात्रों के फौरी मसलों और दिक्कतों से हुई, लेकिन उन आंदोलनों ने एक व्यापक राजनीतिक स्वरूप ग्रहण किया। इन आंदोलनों को यह स्वरूप देने में जिस एक शख्सियत की सबसे बड़ी भूमिका रही, वे जयप्रकाश नारायण थे। जेपी ने गुजरात के छात्र आंदोलन को अपना नैतिक समर्थन दिया, उसकी पृष्ठभूमि में यूथ फॉर डेमोक्रेसी की अपनी चर्चित अपील जारी की, और बिहार आंदोलन में न सिर्फ सक्रिय भागीदारी की, बल्कि उसका नेतृत्व भी संभाल। गुजरात आंदोलन की परिणति राज्य में कांग्रेस सरकार के इस्तीफे, विधानसभा के भंग होने, विपक्षी दलों के एकजुट हो कर जनता मोर्चा बनाने और १९७५ के विधानसभा चुनाव में जनता मोर्चे के सबसे बड़े गुट के रूप में उभरने के रूप में हुई। यानी छात्र आंदोलन से बने हालात से राज्य में पहली बार गैर- कांग्रेसी सरकार बनने का रास्ता साफ हुआ।
बिहार आंदोलन का असर शायद इससे भी ज्यादा रहा। ‘गुजरात की जीत हमारी है, अबकी बिहार की बारी है’, के नारे साथ बिहार में कांग्रेस विरोधी राजनीतिक गोलबंदी कहीं ज्यादा मजबूत हुई। जेपी के नेतृत्व की वजह से उस दौर की विपक्षी राजनीतिक गतिविधियों को जेपी आंदोलन के नाम से जाना गया। जब १९७५ में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के रायबरेली क्षेत्र से निर्वाचन को रद्द कर दिया और उसके बाद बने राजनीतिक टकराव के बीच इंदिरा गांधी ने देश में इमरजेंसी लगा दी तो इससे देश भर के स्तर पर विपक्षी गठबंधन बनने की जमीन तैयार हो गई। इमरजेंसी के बाद इंदिरा गांधी की हार औऱ जनता पार्टी की सरकार बनने के साथ जेपी आंदोलन अपने चरम बिंदु पर पहुंचा। यानी जेपी आंदोलन ने पहली बार देश में गैर कांग्रेसी सरकार का रास्ता तैयार किया। अगर इस राजनीतिक उथल-पुथल के लिहाज से देखें तो जेपी आंदोलन को बेशक एक सफल घटना माना जा सकता है।
लेकिन अगर आंदोलन के स्वरूप, घोषित उद्देश्यों और उसके दूरगामी प्रभाव की कसौटियों पर परखा जाए तो स्वतंत्र भारत के इतिहास में उस आंदोलन का स्थान तय करना एक बेहद मुश्किल काम है। यह काम मुश्किल इसलिए है कि जेपी आंदोलन जो करना चाहता था या कम से कम जो करने की बात कहता था, उसका अपना स्वरूप उससे बहुत अलग था। संभवतः यही वजह है कि आंदोलन कोई दूरगामी असर नहीं छोड़ सका। अगर आंदोलन के परिणामों की तलाश करें तो दो बातें सामने आती हैं। पहली तो यह कि इससे राजनीति में नौजवानों की एक नई पौध आई, जो आज बिहार की राजनीति को संचालित कर रही है। लेकिन ये नौजवान राजनीति की कोई नई संस्कृति भी पैदा कर सके, यह नहीं कहा जा सकता। इसका एक सकारात्मक परिणाम नौजवानों की उस धारा का सामने आना रहा, जिसने चुनावी राजनीति से अलग रहते हुए एक सीमित समय तक वैकल्पिक व्यवस्था की संभावनाओं पर चर्चा की औऱ कई जगहों पर जमीन पर बदलाव की लड़ाई लड़ने के प्रयोग किए। लेकिन यह घटना एक परिघटना का रूप नहीं ले सकी।
यही वजह है कि उतने बड़े पैमाने पर उथल-पुथल पैदा करने वाले आंदोलन को उस दौर के बाद नौजवान हुई पीढ़ी किसी अहम घटना के रूप में याद नहीं रखती। और अब जबकि आजादी के बाद का इतिहास लिखने की शुरुआत हुई है तो इतिहासकार जेपी आंदोलन को एक साधारण घटना ही मान रहे हैं।
दरअसल, अगर बिहार आंदोलन के पूरे घटनाक्रम पर नज़र डाली जाए तो यह समझना मुश्किल होता है कि क्या उस आंदोलन का सचमुच वही उद्देश्य था, जो नेताओं के भाषणों और पर्चे-पोस्टरों में बताया जाता था? बात छात्रों के लिए मिट्टी तेल और कॉपियों जैसी जरूरी चीजों की किल्लत से शुरू हुई। उस दौर के आर्थिक संकट से फैले जन असंतोष ने आंदोलन को और फैलने की जमीन मुहैया कराई। पुलिस की बर्बरता औऱ कई गोलीकांडों की वजह से आंदोलनकारियों को जनता की निगाहों में वैधता मिली। और आखिरकार जेपी के नेतृत्व ने उसे एक व्यापक आयाम दे दिया। पहले नारा लगा-‘भ्रष्टाचार मिटाना है, नया बिहार बनाना है।’ बाद में जेपी ने लोगों की जुटी भारी भीड़ के बीच एक भावुक क्षण में आंदोलन का उद्देश्य ‘संपूर्ण क्रांति’ घोषित कर दिया।
लेकिन यह गौरतलब है कि भ्रष्टाचार मिटाने और संपूर्ण क्रांति की इस यात्रा में सहयात्री कौन-कौन थे? इन सहयात्रियों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जनसंघ के लोग थे, जिनकी सांप्रदायिक औऱ दक्षिणपंथी राजनीति से देश वाकिफ था। इस आंदोलन में स्वतंत्र पार्टी के लोग थे, जिनका पूंजीवाद और सामंतवाद की रक्षा घोषित लक्ष्य था। इसमें संगठन कांग्रेस के लोग थे, जिन्होंने कांग्रेस के अंदर दक्षिणपंथी एजेंडे को आगे बढ़ाने की लड़ाई लड़ी थी, और इंदिरा गांधी के हाथों परास्त होने के बाद बदला लेने के मौके की तलाश में थे। आंदोलन के समर्थन में आए नेताओं में ऐसे नेताओं की कमी नहीं थी, जिन पर खुद भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लग चुके थे। गुजरात में जनता मोर्चे की जीत के बाद मोर्चे ने जैसे अवसरवाद का प्रदर्शन किया, उससे इस गोलबंदी की साख पर गहरे सवाल थे। अगर आंदोलन में कोई एक प्रगतिशील खेमा था, तो वह सोशलिस्टों का था, जो उस समय तक बहुत कमजोर हो चुका था।
अगर आंदोलन के वर्ग और जातीय आधार पर गौर करें तो यह एक मध्य औऱ निम्न मध्यवर्गीय आंदोलन था, जिस पर उच्च औऱ मध्य जातीयों से आए नौजवानों का वर्चस्व था। जनता पार्टी के शासन में आने के बाद आरक्षण के सवाल पर जिस तरह ये नौजवान नेता बंट गए, उससे यह साबित हो गया कि आंदोलन के दौरान उन्होंने संपूर्ण क्रांति के कैसे पाठ सीखे थे। बल्कि आंदोलन के दौरान ही जेपी द्वारा जनेऊ तोड़ने की सलाह देने पर उनके खिलाफ आंदोलन समर्थकों की ही जैसी प्रतिक्रिया भड़की वह काफी कुछ कहती थी। जेपी जैसी बड़ी शख्सियत इन हालात को कैसे नहीं समझ सकी, यह सोच कर हैरत होती है। इसलिए कि आंदोलन के वर्ग एवं राजनीतिक चरित्र पर गौर करते समय अक्सर यह महसूस होता रहता है कि बिहार आंदोलन दरअसल, जेपी की उसके पहले की अपनी विचारधारा का प्रतिवाद था।
यहां पर एक अहम सवाल कांग्रेस के मूल्यांकन का है। क्या उस दौर में या बीसवीं सदी लेकर आज तक के किसी दौर में भारतीय समाज में कांग्रेस की भूमिका आरएसएस से ज्यादा हानिकारक रही है? अगर भारत के पूरे इतिहास पर गौर करें तो संघ परिवार समाज की सबसे संकीर्ण, रूढ़िवादी, मानव-स्वतंत्रता की मूल भावनाओं के विरोधी और विषमता की सामाजिक धारा का प्रतिनिधित्व करता है। दूसरी तरफ कांग्रेस अपनी स्थापना के समय से एक ऐसा मंच रही है, जिस पर सभी तरह की सामाजिक धाराएं जगह पाती रही हैं, लेकिन उसका मूल स्वर उदार, प्रगतिशील और मानव स्वतंत्रता के पक्ष में रहा है। इंदिरा गांधी के जमाने में पार्टी में अधिनायक प्रवृत्तियां जरूर उभरीं। इसके बावजूद पार्टी का सामाजिक आधार औऱ राजनीतिक कार्यक्रम स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भारतीय राष्ट्र की पैदा हुई धारणा के अनुरूप था। राजनीतिक अवसरवाद और सत्ता को केंद्र में रख की जाने वाली राजनीति से पार्टी कई मौकों पर खतरनाक खेल खेलती दिखी, इसके बावजूद उसका मकसद कभी सांप्रदायिक या फासीवादी राज्य की स्थापना नहीं रहा। ऐसे में कांग्रेस के खिलाफ सांप्रदायिक-फासीवादी और धुर दक्षिणपंथी ताकतों की गोलबंदी किस लिहाज से देश के हित में या प्रगतिशाली परिवर्तन के हक में थी, यह न तो तब जेपी ने बताया और न ही आज तक जेपी आंदोलन के किसी समर्थक ने इसकी व्याख्या की है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जनसंघ (या अब भारतीय जनता पार्टी) के साथ स्वतंत्र पार्टी जैसी दक्षिणपंथी और दूसरी अवसरवादी राजनीतिक जमातों का गठबंधन बन जाए, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। लेकिन इन ताकतों को लेकर किसी प्रगतिशील आंदोलन को छेड़ने की बात की जाए, यह जरूर आश्चर्यजनक है। जेपी ने बिहार आंदोलन को संपूर्ण क्रांति का आंदोलन घोषित कर ऐसा ही आश्चर्य पैदा किया। लेकिन उस आंदोलन ने ऐसा कोई चमत्कार पैदा नहीं किया, जिससे वह आंदोलन वास्तव में क्रांतिकारी स्वरूप ग्रहण कर लेता।
इसके विपरीत यह हकीकत है कि उस आंदोलन ने सांप्रदायिक-फासीवादी ताकतों को नई राजनीतिक प्रतिष्ठा दी। १९९० के दशक में ये ताकतें देश की सबसे प्रमुख राजनीतिक शक्ति बन गईँ, हालांकि यह विवादास्पद है कि इसके पीछे १९७४ के आंदोलन से मिली प्रतिष्ठा की कितनी बड़ी भूमिका है। यह कहा जा सकता है कि उसके बाद इन ताकतों के उभार को रोकने में देश की धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशाली ताकतें नाकाम रहीं औऱ इसकी जिम्मेदारी जेपी या जेपी आंदोलन पर नहीं डाली जा सकती। यह भी कहा जा सकता है कि इन ताकतों को राजनीतिक स्वीकृति १९६७ के बाद संविद सरकारों के दौर में ही मिल गई थी, जनसंघ के साथ मिलकर विभिन्न दलों ने साझा सरकारें बनाईँ। लेकिन बात यहां जेपी आंदोलन की हो रही है, जिसने अपना लक्ष्य संपूर्ण क्रांति घोषित किया था। सवाल यह है कि क्या जिस आंदोलन में सांप्रदायिक, दक्षिणपंथी और कई भ्रष्ट ताकतें शामिल हों, वह ऐसे लक्ष्य से प्रेरित आंदोलन कहा जा सकता है? जेपी आंदोलन ने बात की संसदीय लोकतंत्र से आगे जाने की, लेकिन परिणाम संसदीय लोकतंत्र के भटकाव के रूप में सामने आया। बात वास्तविक जनतंत्र कायम करने की हुई, लेकिन ये दावे भारतीय समाज विकासक्रम के जिस पर स्तर पर था, उसकी अनदेखी करते हुए की गई। आंदोलन ने न तो अपने मकसदों को पाने के लिए कोई दीर्घकालिक रणनीति पेश की औऱ न ही ऐसी कार्यनीति, जो उसके उद्देश्यों से मेल खाती हो। अपने अंतिम परिणाम में यह उस समय के विपक्षी दलों की गोलबंदी का एक माध्यम बन गया, जिनका एकमात्र उद्देश्य कांग्रेस की सत्ता खत्म कर खुद सत्ता में आना था। धीरे-धीरे ये दल ही प्रमुख होते गए और जिन छात्रों ने आंदोलन की शुरुआत की थी और जो उसका मुख्य आधार थे, वे या तो इन दलों में समा गए या फिर अप्रसांगिक हो गए।
इस पूरे परिदृश्य को ध्यान में रखें तो बिहार आंदोलन भारतीय राष्ट्र की उस धारणा पर एक क्षेपक लगता है, जो स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान जन्मी और जिसे गांधी-नेहरू के नेतृत्व में मूर्त रूप दिया गया। इसके बावजूद इस आंदोलन के कुछ महत्त्वपूर्ण सबक हैं। सबसे पहला यह कि लोकतंत्र में आंदोलन ऐसे नहीं होने चाहिए, जिनकी मांगें सुपरिभाषित नहीं हो। ऐसे आंदोलन उथल-पुथल का जरिया ज्यादा बन जाते हैं। दूसरा सबक यह है कि आंदोलन में कौन सहयात्री है, इस पर जरूर गौर किया जाना चाहिए। अगर आंदोलन की सभी ताकतें सहमना नहीं हैं, तो न सिर्फ आंदोलन की विफलता तय है, बल्कि आंदोलन अपने घोषित मकसद से विपरीत परिणाम भी दे सकता है। तीसरा सबक यह है कि आंदोलन का उद्देश्य व्यापक ऐतिहासिक दृष्टि के साथ ही तय होना चाहिए। फौरी मकसद कई बार अहम होते हैं, लेकिन ये मकसद संपूर्ण ऐतिहासिक समझ से अलग नहीं हो सकते। इसके अलावा एक और सबक यह है कि किसी आंदोलन में शामिल रहे लोगों और जमातों में इतनी अंतर्दृष्टि और विवेक हमेशा जरूर रहना चाहिए कि वे उस आंदोलन का सही मूल्यांकन कर सकें। सिर्फ इसलिए कि वे उसमें शामिल रहे, उसका बचाव करते रहने की जरूरत नहीं है। बल्कि यह आंदोलन और अपने उद्देश्य के प्रति एक कर्त्तव्य है कि बाद के दौर में जो अनुभव हुए और जो कुछ सीखा गया, उसकी रोशनी में अपने अतीत पर विचार किया जाए।

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