Thursday, January 31, 2008
एडवर्ड्स के हटने के मतलब
अमेरिका में डेमोक्रेटिक पार्टी की उम्मीदवारी की होड़ से जॉन एडवर्ड्स के हट जाने के बाद यह तय हो गया है कि बराक ओबामा और हिलेरी क्लिंटन में से ही कोई एक अगले राष्ट्रपति चुनाव में डेमोक्रेटिक पार्टी का उम्मीदवार होगा। दरअसल, जॉन एडवर्ड्स को साउथ कैरोलाइना राज्य से काफी उम्मीदें थीं, इसलिए कि यह उनके अपने राज्य नॉर्थ कैरलाइना का पड़ोसी राज्य है। लेकिन यहां वो सिर्फ १८ फीसदी वोट हासिल कर सके। अब सारी निगाहें सुपर ट्यूजडे यानी पांच फरवरी पर है, जिस दिन २२ राज्यों में डेमोक्रेटिक प्राइमरी या कॉकस होंगे। उस रोज जिसने बाज़ी मारी, उसकी संभावना बेहद मजबूत हो जाएगी।
बहरहाल, जॉन एडवर्ड्स का पिछड़ना यह जरूर जाहिर करता है कि अमेरिका में भले इस वक्त बदलाव की लहर चल रही हो, लेकिन यह बदलाव ठोस नीतियों के दायरे में कम औऱ भावावेश में ज्यादा है। एडवर्ड्स अकेले ऐसे उम्मीदवार थे, जिन्होंने नीतियों के स्तर पर रिपब्लिकन पार्टी का विकल्प पेश किया। सबको स्वास्थ्य सुरक्षा देने की उन्होंने विस्तृत और व्यावहारिक योजना रखी। देश का नियंत्रण बहुराष्ट्रीय कंपनियों से वापस आम जनता के हाथ में लाने की राजनीतिक रणनीति भी लोगों के सामने पेश की। लेकिन ये नीतियां लोगों को प्रभावित नहीं कर सकीं। इसके उलट बराक ओबामा का ओजस्वी भाषण डेमोक्रेटिक पार्टी के परंपरागत और नए समर्थकों को ज्यादा लुभा रहा है।
अमेरिका के राजनीतिक रुझान पर गौर करें तो फिलहाल संकेत यही है कि इस बार राष्ट्रपति चुनाव में जीत डेमोक्रेटिक पार्टी के हाथ लगेगी। जॉर्ज बुश जूनियर की आर्थिक औऱ विदेश नीतियां बेहद अलोकप्रिय हो चुकी हैं, जिसका संकेत २००६ के अमेरिकी कांग्रेस के चुनाव में भी मिला, जब १९९२ के बाद पहली बार डेमोक्रेटिक पार्टी को संसद के दोनों सदनों में बहुमत हासिल हुआ। तभी स्थायी रिपब्लिकन बहुमत का दावा खोखला साबित हो गया। यह जाहिर हो गया कि बड़ी कंपनियों, चर्च, दक्षिणी राज्यों के सामंतों और रूढ़िवादी समूहों की साझा ताकत इतनी नहीं है कि वे हमेशा के लिए एक राजनीतिक बहुमत का निर्माण कर सके। उसके बाद से अर्थव्यवस्था में आई मंदी, बढ़ती बेरोजगारी, उलझता इराक का मकड़जाल और बुश प्रशासन के अधिकारियों की खराब हुई छवि ने रिपब्लिकन पार्टी के प्रति आम लोगों की नाराजगी और बढ़ाई है।
बराक ओबामा की खूबी यह है कि उन्होंने ऐसे बहुत से लोगों को अपनी तरफ खींचा है, जो परंपरागत रूप से डेमोक्रेटिक पार्टी के समर्थक नहीं रहे हैं। खासकर नौजवान तबकों में उनका नारा- चेंज, येस वी कैन (यानी- परिवर्तन हम ला सकते हैं) तेजी से लोकप्रिय हुआ है। ओबामा जब परिवर्तन की बात करते हैं तो उनका प्रत्यक्ष निशाना जरूर रिपब्लिकन पार्टी और जॉर्ज बुश होते हैं, लेकिन परोक्ष रूप से वे हिलेरी क्लिंटन पर भी वार करते हैं। बिल क्लिंटन के राष्ट्रपति रहते हुए क्लिंटन परिवार की राजनीति और आर्थिक सत्ता केंद्रों पर मजबूत पकड़ बनी। इसीलिए आम चर्चा में यह कहा जाता है कि वाशिंगटन ऐस्टैबिलिशमेंट हिलेरी क्लिंटन के साथ है। ओबामा इसी ऐस्टैबलिशमेंट से देश को मुक्ति दिलाने का वादा कर रहे हैं और उस पर राजनीति से अलग रहने वाले लोग भी खूब तालियां पीट रहे हैं।
ओबामा का यह प्रतीकात्मक महत्त्व जरूर है कि उन्होंने नस्लभेद को काफी हद तक डेमोक्रेटिक राजनीति में अप्रासंगिक बना दिया है। ओबामा के पिता केन्याई मूल के थे और उनके बीच का नाम हुसैन है, जो मुस्लिम अर्थ लिए हुए है। लेकिन ये पहलू उनकी चुनावी संभावनाओं को कमजोर नहीं बना रहे हैं। यहां शायद यह याद कर लेना प्रासंगिक है कि अतीत में जैकी जैक्सन जैसे सिविल लिबर्टी के मशहूर नेता सिर्फ इसलिए राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी हासिल नहीं कर सके, क्योंकि डेमोक्रेटिक पार्टी को यह भरोसा नहीं था कि काले समुदाय का कोई व्यक्ति अमेरिका में राष्ट्रपति के चुनाव में जीत सकता है। लेकिन वह बाधा इस बार नजर नहीं आती।
बल्कि इस बार यह मान कर चला जा रहा है कि अमेरिका या तो नस्ल की बेड़ी तोड़ेगा या लिंग की। एडवर्ड्स के पिछड़ जाने के बाद ओबामा या हिलेरी क्लिंटन में से एक को उम्मीदवारी मिलना तय है और इनमें से जो भी उम्मीदवार बने उसके राष्ट्रपति बनने की प्रबल संभावना है। यह निश्चित रूप से एक ऐतिहासिक महत्त्व की घटना होगी। लेकिन अगर एक बार फिर हम नीतियों के दायरे में लौटें तो इन दोनों उम्मीदवारों की नीतियों में ऐसा कुछ नजर नहीं आता जो अमेरिका सरकार का कामकाज पर कोई बुनियादी फर्क डाल सके। मसलन, हम इराक का सवाल लें। ओबामा इस बात का श्रेय जरूर लेते हैं कि उन्होंने शुरू से इराक युद्ध का विरोध किया। लेकिन बतौर सीनेटर उन्होंने इराक में मौजूद अमेरिकी फौज के लिए धन का प्रावधान करने के विधेयक का समर्थन किया और ईरान के खिलाफ सैनिक कार्रवाई की संभावना से उन्होंने इनकार नहीं किया है। हिलेरी क्लिंटन ने २००३ में इराक पर हमले का समर्थन किया था और ईरान के खिलाफ बुश प्रशासन की उग्र नीतियों की भी वो समर्थक रही हैं। इजराइल और फिलस्तीन पर भी दोनों के रुख में कोई फर्क नहीं है।
अंदरूनी मामलों में हिलरी क्लिंटन की मुश्किल यह है कि उनके साथ वही शक्तियां खड़ी हैं, जो हमेशा सत्ता के साथ होती हैं। ओबामा के साथ जरूर एक नई और आम लोगों की ताकत दिखती है, लेकिन जिस वाशिंगटन ऐस्टैबलिशमेंट की आलोचना करते हैं, उस पर वे लगाम कैसे लगाएंगे, इसका कोई कार्यक्रम उन्होंने जनता के सामने नहीं रखा है। इस तरह बात बात-घूम फिर कर यहीं आ जाती है कि बुश प्रशासन की अलोकप्रियता का फायदा डेमोक्रेटिक उम्मीदवार को जरूर मिल रहा है, लेकिन इससे अमेरिकी प्रशासन की मूल दिशा पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा। बहरहाल, दुनिया सिर्फ इसी उम्मीद में है कि डेमोक्रेटिक प्रशासन के तहत जॉर्ज बुश की एकतरफा कार्रवाई, अंतरराष्ट्रीय कानूनों की अनदेखी और नंगे साम्राज्यवाद की नीतियों पर रोक लगेगी और यही एक बड़े राहत की बात होगी।
Tuesday, January 15, 2008
समाजवादः आस्था या नारा?
सत्येंद्र रंजन
पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेब भट्टाचार्य के इस बयान ने वामपंथी हलके में काफी हलचल पैदा की है कि उनकी सरकार के सामने पूंजीवादी विकास के रास्ते पर चलने के अलावा कोई और विकल्प नहीं है। भट्टाचार्य का जब ये बयान आया तो मीडिया में ऐसी अटकलें लगाई गईं कि उन्होंने पार्टी लाइन से हट कर कोई बात कही है, जिस पर मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी सफाई पेश कर देगी। मगर ठीक इसके उलट पार्टी के सबसे वरिष्ठ नेता और पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु ने बुद्धदेब भट्टाचार्य के बयान का समर्थन किया। फिर पार्टी महासचिव प्रकाश करात ने भी इन दोनों नेताओं की राय से सहमति जताई। इस घटनाक्रम पर भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस जैसी पार्टियों और कॉरपोरेट मीडिया को चुटकी लेने का मौका जरूर मिला। लेकिन इसमें कोई हैरत की बात नहीं है। हैरत आरएसपी जैसी वामपंथी पार्टी की प्रतिक्रिया से हुई। इस प्रतिक्रिया का सार यह है कि माकपा अपनी मूल आस्था हट रही है औऱ अब वह खुल कर पूंजीवाद का गुणगान करने लगी है। माकपा अपनी बुनियादी आस्थाओं पर कितनी अडिग है, यह एक सार्वजनिक परीक्षण का विषय है। आस्था के परीक्षण की सबसे बेहतरीन कसौटी किसी सिद्धांत या विचारधारा के प्रति किसी पार्टी या संगठन के नेताओं और कार्यकर्ताओं की निष्ठा है। यह निष्ठा उनके व्यवहार में झलकनी चाहिए। जो पार्टी समाजवाद की बात करती हो, उसके नेताओँ और कार्यकर्ताओँ से यह अपेक्षा जरूर रहेगी कि वे अपनी निजी जिंदगी में ईमानदार रहें, सादगी बरतें और उस आम जन के साथ एक सामंजस्य कायम करें, जिसकी बेहतरी के लिए वे राजनीति में होने का दावा करते हैं। इस लिहाज से शायद महात्मा गांधी का जीवन सबके लिए आदर्श हो सकता है। और संभवतः ऐसी ही जीवनशैली की वजह से गांधीजी यह कहने का साहस जुटा पाए कि, ‘मेरा जीवन मेरा संदेश है।’
बहरहाल, माकपा नेताओं के ताजा बयान से पर चर्चा इस व्यापक संदर्भ में कम, और राजनीतिक नारेबाजी के संदर्भ में ज्यादा हो रही दिखती है। पश्चिम बंगाल के औद्योगीकरण, सिंगूर और नंदीग्राम जैसे मुद्दों पर माकपा के रुख से उसके विरोधियों को उस पर डंडा चलाने का जो एक मौका मिला, उसमें इन ताजा बयानों से कुछ और ताकत जुड़ गई है। आखिरकार अपने बचाव में माकपा को यह सफाई देनी पड़ी है कि वह ‘वर्गविहीन, शोषण-मुक्त और समाजवादी राज्य-व्यवस्था’ कायम करने के लिए काम करने पर अडिग है, लेकिन सिर्फ तीन राज्यों में सत्ता में रहते हुए समाजवाद कायम कर पाना मुमकिन नहीं है, इसलिए फिलहाल उसकी नीति वामपंथी एजेंडे को आगे बढ़ाना है। यानी पूंजीवादी विकास के क्रम में मजदूर, किसान और गरीब तबकों के हितों की रक्षा फिलहाल उसकी रणनीति है।
इस घटनाक्रम ने समाजवाद शब्द को एक बार फिर राष्ट्रीय राजनीतिक विमर्श में चर्चित कर दिया है। ये शायद संयोग ही हो, लेकिन इसी मौके पर सुप्रीम कोर्ट में दायर एक याचिका ने भी इस चर्चा को आगे बढ़ाने में अपना योगदान दिया है। इस याचिका में यह अपील की गई कि संविधान की प्रस्तावना में इमरजेंसी के दौरान जोड़े गए ‘समाजवाद’ शब्द को इससे हटा दिया जाए। साथ ही जन प्रतिनिधित्व कानून में संशोधन कर सभी राजनीति दलों के लिए समाजवाद में आस्था रखने की लगाई गई शर्त को भी रद्द कर दी जाए। सुप्रीम कोर्ट ने पहली अपील तो ‘समाजवाद’ की अपनी व्याख्या पेश करते हुए खारिज कर दी, लेकिन जन प्रतिनिधित्व कानून के संदर्भ में संबंधित पक्षों को नोटिस जरूर जारी कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने ‘समाजवाद’ की अपनी व्याख्या में कहा कि यह लोकतंत्र का ही एक और चेहरा है। हमें ‘समाजवाद’ को व्यापक और मानवीय संदर्भ में लेना चाहिए, न कि कम्युनिस्टों द्वारा पेश की जाने वाली व्याख्या के रूप में।
यह कहा जा सकता है कि सुप्रीम कोर्ट ने ‘समाजवाद’ की एक अराजनीतिक व्याख्या पेश की है और इसे एक दशक से पहले ‘हिंदुत्व’ की पेश व्याख्या के क्रम में रखा जा सकता है, जब सुप्रीम कोर्ट ‘हिंदुत्व’ को एक जीवन प्रणाली करार दिया था और जिससे दक्षिणपंथी-सांप्रदायिक राजनीति को एक कानूनी आवरण मिला था। बहरहाल, समाजवाद का सवाल कहीं गंभीर है। खासकर उन लोगों के लिए जो एक वैकल्पिक व्यवस्था बनाना चाहते हैं। एक ऐसी व्यवस्था जिसमें जन्म के आधार पर सुविधाएं तय नहीं हों और सबको अपनी क्षमता और प्रतिभा के विकास का समान अवसर मिले। एक ऐसी व्यवस्था में जिसमें जिंदगी की बुनियादी सुविधाएं मूल मानव अधिकार मानी जाएं और इन्हें उपलब्ध कराना सरकार, राज्य व्यवस्था या समाज की जिम्मेदारी हो। एक ऐसी व्यवस्था जो आम जन के प्रति जवाबदेह हो और जिसमें किसी स्त्री-पुरुष के बौद्धिक एवं आत्मिक विकास पर कोई प्रतिबंध नहीं हो। इसीलिए इस बहस को मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की आस्था, रणनीति और कार्यनीतियों से अलग कर देखने की जरूरत है।
मगर इस बहस को अराजनीतिक संदर्भ में भी नहीं देखा दा सकता। यह एक विशुद्ध राजनीतिक सवाल है। असल में समाजवाद की अवधारणा राजनीतिक चिंतन के विकासक्रम का हिस्सा है औऱ इस पर इसी संदर्भ में विचार होना चाहिए। यहां पर सबसे अहम सवाल यह है कि आखिर समाजवाद कोई व्यवस्था है, या नारा या फिर एक ऐसा आदर्श जिसे व्यवहार में पूरी तरह कभी हासिल नहीं किया जा सकता? मार्क्सवाद से अलग सोच में अक्सर समाजवाद को एक विचारधारा और एक आदर्श माना गया है, हालांकि ज्यादातर मौकों पर यह मान्यता नारेबाजी में तब्दील होकर रह गई है। कुछ मामलों में यह आस्था की एक ऐसी अमूर्त धारणा रही है, जिस अमल उतराने की रणनीति के बारे में सोचना तो दूर, बल्कि उसकी वस्तुगत व्याख्या भी मुश्किल रही है। इसलिए इसमें कोई अचरज की बात नहीं कि आज भी बहुत से समूहों, संगठनं और चिंतकों के लिए समाजवाद एक ऐसी धार्मिक आस्था की तरह है, जिस पर कोई तार्किक बहस उन्हें मंजूर नहीं होती। मार्क्सवादी चिंतन में समाजवाद कभी आदर्श नहीं रहा। अगर कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एगंल्स के ऐतिहासिक भौतिकवाद पर गौर करें तो समाजवाद, साम्यवाद से पहले का एक चरण है। एक ऐसा मुकाम, जहां से साम्यवाद के लिए यात्रा शुरू होगी। सोवियत संघ के जमाने में वहां की कम्युनिस्ट पार्टी का यह दावा था कि सोवियत खेमे में समाजवाद की स्थापना हो गई है, और वहां से साम्यवाद की तरफ जाने का सफर शुरू हो गया है। लेकिन १९९० तक आते-आते यह सफर उलटी दिशा में नजर आया। १९१७ की बोल्शेविक क्रांति के बाद सोवियत संघ में जिस समाजवाद की स्थापना हुई थी, वह बिखर गया और सोवियत खेमे में शामिल रहे देशों में खुला पूंजीवाद लौट आया। इसी दौर में चीन ने विकास की जो राह पकड़ी और उसमें जिस तरह उत्पादक शक्तियों की व्याख्या की गई, उसे भी समाजवाद की शास्त्रीय मार्क्सवादी समझ पर कुछ सवाल उठे। जाहिर है, इन दोनों घटनाक्रमों से पूरी दुनिया में समाजवाद के विमर्श में भारी बदलाव आया।
मार्क्सवादी व्यवस्थाओं ने समाजवाद का जो मॉडल पेश किया, उसकी एक बड़ी आलोचना यह रही है कि उनमें लोकतंत्र का अभाव था औऱ जहां वे व्यवस्थाएं वजूद में आईं, वहां के लोगों को नागरिक और राजनीतिक अधिकार नहीं मिले। कभी जोसेफ स्टालिन ने भले ये दावा किया कि समाजवाद ही लोकतंत्र का सर्वश्रेष्ठ रूप है, लेकिन अब इस आलोचना को मार्क्सवादी विचारकों का एक समूह पूरी गंभीरता से स्वीकार कर रहा है। ये विचारक यह मान रहे हैं कि समाजवाद की स्थापना के किसी चरण में लोकतंत्र से इनकार नहीं किया जाना चाहिए। यानी मानव के संपूर्ण विकास के लिए आर्थिक अधिकार जितने अहम हैं, राजनीतिक अधिकार भी उतने ही अहम हैं।
इस सिद्धांत पर दुनिया भर में (जाहिर है भारत में भी) अनेक विचारकों और राजनेताओं ने उसी दौर में जोर दिया था, जब सोवियत संघ एक मजबूत ताकत के रूप में उभर रहा था। सोवियत प्रयोग की एक दूसरी आलोचना वहां अपनाई गई विकास नीति भी थी। एक समय के बाद कहा जाने लगा कि सोवियत संघ ने राज्य के मालिकाने में दरअसल, पूंजीवादी नीति ही अपना ली है। आलोचकों ने सोवियत व्यवस्था को सरकारी पूंजीवाद करार दिया। आखिरकार, वह व्यवस्था अपने अंदरूनी अंतर्विरोधों से ढह गई। चीन आज ऐसी ही आलोचनाओं के रू-ब-रू है। वहां हम एक विशिष्ट प्रयोग होता देख रहे हैं, लेकिन इसका अंतिम परिणाम क्या होगा, यह अभी भविष्य की गर्त में है।
भारत में बाकी दुनिया से अलग एक नया प्रयोग यह हुआ कि यहां वोट की ताकत से कम्युनिस्ट पार्टी सत्ता में आई- पहले केरल में और फिर पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में। पूरी पूंजीवादी व्यवस्था के भीतर किसी एक या एक से ज्यादा राज्य में किसी कम्युनिस्ट पार्टी का सत्ता में रहना अपने आप में एक वैचारिक विसंगति है। यह कहा जा सकता है कि मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी इस विसंगति के बीच अब तक अपने लिए सटीक रास्ता और रणनीति तैयार करने में कामयाब रही है। वामपंथी ताकतों के साथ व्यापक एकता बनाना और भूमि-सुधार जैसे कार्यक्रमों को लागू अपने लिए ठोस जनाधार बनाना, और पंचायती व्यवस्था पर प्रभावी अमल कर इस जनाधार को कायम रखना उसकी कामयाबी के सूत्र रहे हैं। लेकिन पिछले एक साल के दौरान पश्चिम बंगाल के औद्योगीकरण के सवाल पर लंबे समय से कायम इस वामपंथी एकता और जनाधार में दरारें पड़ती नजर आई हैं।
वामपंथी एकता में दरार की वजह शायद समाजवादी और वामपंथी राजनीति की समझ को लेकर पैदा हुए मतभेद ही हैं। एक तरफ माकपा ऐतिहासिक विकासक्रम की अपनी समझ पर आगे बढ़ती दिख रही है तो दूसरी तरफ इसे अपनी समाजवादी आस्थाओं के खिलाफ मानते हैं। निजी पूंजी के निवेश, निवेशकों को कुछ जरूरी सुविधाएं और सुरक्षा देना और बड़े उद्योगों की स्थापना मतभेद के खास मुद्दे हैं। इस जारी बहस के बीच माकपा का सार्वजनिक तौर पर यह कहना अहम है कि भारत समाज अभी विकास के जिस स्तर पर है, उसमें पूंजीवादी विकास को अपनाना और वामपंथी राजनीति को आगे बढ़ाना एक अनिवार्यता है।
माकपा की इस लाइन के विरोधियों के आगे यह सवाल है कि अगर यह समझ गलत है तो आखिर इसका विकल्प है क्या है? पश्चिम बंगाल सरकार को राज्य के विकास की कैसी नीति अपनानी चाहिए, जिससे राज्य में रोजगार के अवसर पैदा हों और राज्य का आधुनिकीकरण हो? क्या उद्योगों का समाजवाद से कोई विरोध है? और क्या पूंजीवाद हर हाल में एक बुरी व्यवस्था है? गौरतलब है कि खुद मार्क्सवादी विचारधारा के तहत पूंजीवाद को सामंतवादी गुलामी और शोषण से मुक्ति दिलाने वाली व्यवस्था माना गया है औऱ इतिहास के एक दौर में इसकी भूमिका प्रगतिशील मानी गई है। सवाल है कि भारत की मौजूदा हालत के बीच क्या पूंजीवाद की यह भूमिका पूरी तरह खत्म हो गई है?
यहां एक अहम सवाल खुद वामपंथ की राजनीति पर है। अगर पूंजीवाद का खात्मा वामपंथी दलों का मकसद है तो पूंजीवादी व्यवस्था के भीतर उनके संसदीय राजनीति में हिस्सा लेने और सरकार बनाने का क्या तर्क है? अगर सरकार पूंजीवादी माहौल में बनेगी, तो उसे पूंजीवादी विकास के कई पहलुओं को स्वीकार करना होगा। अगर वामपंथी दल इसे स्वीकार नहीं कर सकते तो क्या यह उनके लिए उचित नहीं होगा कि वे इस व्यवस्था से अलग होकर माओवादियों के रास्ते का अनुकरण करें और बंदूक के जोर से सत्ता पर काबिज होने के रास्ते पर चलें? यहां यह गौरतलब है कि वामपंथ दरअसल पूंजीवादी संदर्भ में ही एक प्रासंगिक शब्द है। जब समाजवाद की स्थापना हो जाएगी, यानी व्यवस्था ही समाजवादी हो जाएगी तब वामपंथ यानी आम जन के हितों की वकालत की क्या प्रासंगिकता रहेगी?
दरअसल, समाजवाद भले मकसद हो, लेकिन वहां तक पहुंचने की राह में मौजूद चुनौतियों से कोई प्रगतिशील ताकत मुंह नहीं मोड़ सकती। जनता के लंबे संघर्षों से लोकतंत्र के जिस मुकाम तक भारत पहुंचा है, उसकी रक्षा और वहां से आगे बढ़ने की राह तैयार करना हर प्रगतिशील शक्ति की फर्ज है। इस लिहाज से माकपा की रणनीति प्रासंगिक लगती है, लेकिन अगर उसके साथियों के मन में कोई सवाल है तो विश्वसनीय तर्कों से उन्हें संतुष्ट करने की जिम्मेदारी भी उसकी है। बहरहाल, इस बहस का एक पैगाम उन लोगों के लिए भी है जो पूंजीवाद के विकास के साथ इतिहास का अंत मानते हैं। पैगाम यह है कि इतिहास की विकास यात्रा पूंजीवाद के साथ खत्म नहीं हुई है। मानव की स्वतंत्रता औऱ सबके लिए समान अवसर एवं अधिकार प्राप्त करना इस यात्रा की मंजिल है, औऱ उस मंजिल तक पहुंचने की प्रक्रिया तेज करने की कोशिश में जुटी शक्तियां लगातार इसके नए उपाय ढूंढ रही हैं।
Tuesday, January 8, 2008
बंदर कहना नस्लवाद है
सत्येंद्र रंजन
हरभजन सिंह ने सिडनी टेस्ट के दौरान एंड्र्यू साइमंड्स को बंदर कहा या नहीं, यह विवादास्पद है। अगर भज्जी कह रहे हैं कि उन्होंने ऐसा नहीं कहा तो भारतीय टीम मैनेजमेंट और बीसीसीआई को इस पर भरोसा करना चाहिए, और जिन सबूतों के आधार पर उनके ऊपर तीन टेस्ट मैचों की पाबंदी लगाई गई है, उसके खिलाफ मजबूत प्रमाण पेश करते हुए आईसीसी मैच रेफरी के इस फैसले को रद्द करवाने की कोशिश करनी चाहिए। बल्कि अगर यह साबित हो जाता है कि भज्जी ने ऐसा नहीं कहा तो उन पर झूठी तोहमत लगाने के लिए ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ियों को कानूनी नोटिस भेजा जाना चाहिए। लेकिन अगर भज्जी या कोई दूसरा खिलाड़ी खेल के बीच आवेश में आकर किसी दूसरे के लिए इस शब्द का इस्तेमाल करता है, तो इसका कोई बचाव नहीं हो सकता। दरअसल, किसी को ऐसे बचाव की कोशिश करनी भी नहीं चाहिए। भज्जी-साइमंड्स के मौजूदा विवाद में यह बात इसलिए अहम हो गई है, क्योंकि मीडिया और कई दूसरे हलकों से भज्जी के बचाव में अजीबोगरीब दलीलें पेश की गई हैं। इन दलीलों का सार यह है कि बंदर कहना कोई गाली नहीं है, और न ही इसमें कोई नस्लवाद है। बचाव की एक और दलील यह है कि अगर बंदर कहना नस्लवादी टिप्पणी हो, तो भी भज्जी शायद इससे वाकिफ न रहे हों औऱ अनजाने में उन्होंने यह बात कह दी हो। दूसरी बात के संदर्भ में सिर्फ कानून के क्षेत्र का यह सर्वमान्य सिद्धांत याद कर लेने की जरूरत है कि किसी सभ्य कानूनी व्यवस्था में अज्ञानता या जानकारी न होना कोई बचाव नहीं है। यानी आप कोई अपराध करने के बाद अपने बचाव में यह दलील पेश नहीं कर सकते कि आपको यह जानकारी नहीं थी कि वह काम अपराध है।
जहां तक बंदर कहने की बात है, तो इसका एक ऐतिहासिक संदर्भ है। बंदर भारत में पूजे जाते हैं, आखिर सबके पूर्वज बंदर थे या लोग प्यार से अपने बच्चों को भी बंदर कह देते हैं, ये बातें उस ऐतिहासिक संदर्भ की अज्ञानता में ही कही जा सकती हैं। भज्जी ने साइमंड्स को बंदर कहा या नहीं, हम नहीं जानते। लेकिन अगर उन्होंने कहा, तो जाहिर है, वे इस शब्द के जरिए साइमंड्स के प्रति श्रद्धा या प्यार नहीं जता रहे थे। अगर उन्होंने कहा तो इसके पीछे अपमान का ही भाव था। इस शब्द के साथ अपमान की भावना कैसे नस्लवादी संदर्भ ग्रहण कर लेती है, इसे समझने की जरूरत है।
पहली बात तो यह कि जब आप अपमान भाव के साथ किसी को बंदर कहते हैं, तो उसमें यह अंतर्निहित होता है कि आप उसे मानव के विकासक्रम में खुद से नीचे के स्तर पर बता रहे हैं। यह बात बहुत से मूलवासी समुदायों को इसलिए ज्यादा चुभती है, क्योंकि उनके साथ सदियों तक वास्तव में ऐसा ही व्यवहार किया गया है और इतिहास में इसकी उन्होंने बहुत महंगी कीमत चुकाई है। औद्योगिक क्रांति के बाद जब यूरोपीय साम्राज्यवाद ने कदम पसारने शुरू किए तभी यूरोप के गोरे नस्ल की जातियों ने ह्वाइटमेन बर्डन का सिद्धांत पेश किया, जिसका सारतत्व यह था कि दुनिया को ‘सभ्य’ बनाने की जिम्मेदारी गोरे लोगो के कंधों पर है। ‘सभ्य’ बनाने की इस मुहिम में एशिया, अफ्रीका औऱ लैटिन अमेरिका के बहुत से देशों ने इन जातियों ने गुलाम बना लिया। इस दौर में लैटिन अमेरिका की माया और अज़तेक जैसी कई सभ्यताएं लगभग नष्ट हो गईं, भारी कत्ले-आम हुआ और रेड इंडियन्स कहे जाने वाले मूलवासियों को उनकी ही जमीन और संसाधनों से खदेड़कर अमानवीय स्तर पर जीने को मजबूर कर दिया गया। अफ्रीका के काले समुदाय के लोगों को गुलाम बनाकर गोरे नस्ल के लोगों ने अपनी सुविधा के मुताबिक दुनिया में जहां चाहा, वहां ले जाकर उन्हें बसाया औऱ उनका मनमाना शोषण किया। यह सारा अत्याचार यही कहते हुए किया गया कि यूरोपीय गोरे समुदायों के अलावा बाकी सभी नस्ल और जातियां विकासक्रम में पिछड़ी हुई हैं। काले और मूलवासी समूहों को आम तौर पर जानवर के जैसा समझा गया। बंदर जैसे शब्द उनके लिए लगातार इस्तेमाल किए गए। यूरोपीय साम्राज्यवाद और नस्लीय भेदभाव के खिलाफ जब लंबा संघर्ष चला और तब जाकर कहीं उससे एक हद तक मुक्ति मिली। इसी विश्वव्यापी संघर्ष से नस्लवाद के खिलाफ जागरूकता आई। इस संघर्ष ने नस्ल, रंग और जाति के आधार पर भेदभाव के तमाम सिद्धांतों को चुनौती दी और आखिरकार विश्व व्यवस्था में यह बात स्वीकार की गई कि हर जाति, नस्ल, रंग, राष्ट्रीयता और संस्कृति के लोग समान हैं। उनके बीच नज़र आने वाला शारीरिक फर्क भौगोलिक और ऐतिहासिक कारणों से है। मानव सभ्यता का भविष्य इसी में है कि इंसान की मूलभूत एकता पर जोर दिया जाए। इसीलिए आज पश्चिम से लेकर पूरब तक हर जगह किसी को बंदर कहना या बंदर के बोलने जैसी आवाज निकालकर किसी को चिढ़ाना एक अपराध माना जाता है। नई जागरूकता के साथ पश्चिमी समाज अब अपने ऐतिहासिक अपराधों का प्रायःश्चित करता नजर आता है। अभी हाल ही में ऑस्ट्रेलिया में सत्ता में आई लेबर पार्टी की सरकार ने देश की मूलवासी आबादी से बीती सदियों में हुए अत्याचार के लिए अफसोस जताया है। यूरोप में फुटबॉल के मैदानों पर मंकी कहना या मंकी चैंट करना स्थापित अपराध है, जिसकी साफ सजा का प्रावधान है।
यह हो सकता है कि बंदर कहने के अर्थ की गंभीरता भारतीय समाज में बहुत से लोग महसूस न कर सकें। इसलिए कि भारत में उस प्रकार के नस्लीय भेदभाव और अत्याचार का इतिहास नहीं रहा है, जैसा अफ्रीका, लैटिन अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में रहा है। ठीक उसी तरह जैसे यूरोप या अफ्रीका में किसी के लिए यह समझना मुश्किल हो कि मोची या महार शब्दों का इस्तेमाल क्यों कुछ खास संदर्भों में अपमानजनक है। हाल में फिल्म आजा नचले के एक गाने में मोची शब्द के इस्तेमाल पर दलित समूहों ने जो एतराज जताया, उसे समझना जातीय अत्याचार के इतिहास से नावाकिफ लोगों के लिए मुश्किल हो सकता है। लेकिन भारतीय संदर्भ में इन शब्दों के पीछे हजारों साल के अन्याय का इतिहास छिपा है और इसीलिए सार्वजनिक विमर्श में इनका इस्तेमाल अब लगभग प्रतिबंधित हो गया है।
शब्दों के अर्थ का खास संदर्भ होता है औऱ बदलते वक्त औऱ संदर्भ के साथ ये अर्थ बदलते रहते हैं। मसलन, १९३० के दशक में हरिजन शब्द दलितों को सामाजिक प्रतिष्ठा दिलाने की कोशिश का हिस्सा हो सकता था, लेकिन आज इस शब्द के इस्तेमाल पर दलितों को ही गहरा एतराज होता है। यह एतराज इसलिए है कि वे समाज में अपनी प्रतिष्ठा अपने बुनियादी मानव अधिकारों के साथ पाना चाहते हैं, न कि किन्हीं दूसरे समुदायों की मेहरबानी से। हरिजन शब्द में यह संदेश देने की कोशिश थी कि दलित भी ईश्वर की संतान हैं, इसलिए उनसे मानवीय व्यवहार किया जाए। यह संदेश दलितों से ज्यादा सवर्ण जातियों के लिए था। लेकिन अपने अधिकारों के प्रति जागरूक दलित दूसरों की कृपा से मानवीय व्यवहार की अपेक्षा नहीं रखते। उन्होंने अपने लिए दलित शब्द इसलिए अपनाया है कि इससे यह जाहिर होता है कि इन समुदायों को सदियों तक दबा कर रखा गया। अत्याचार का यह बोध उनमें अपने बुनियादी हक और स्वाभाविक मानवीय प्रतिष्ठा पाने का मनोबल पैदा करता है।
अगर हम जाति और समुदायों के लिए शब्दों के इस ऐतिहासिक अर्थ को समझ सकें तो बंदर कहने का क्या मतलब है, इसे बेहतर ढंग से समझ सकते हैं। और अगर हम यह समझ लें तो शायद ऐसा कहने वाले किसी व्यक्ति की बचाव में बेमतलब की दलीलें नहीं गढ़ेंगे, जैसा हरभजन-साइमंड्स विवाद में हुआ है।
Tuesday, January 1, 2008
सानिया से सवाल क्यों?
सत्येंद्र रंजन
सानिया मिर्जा आधुनिकता की एक वक्तव्य हैं, इस कथन पर शायद ही किसी को एतराज हो। दरअसल, सानिया में ऐसी कई खूबियां हैं, जिनके आधार पर इस कथन की व्याख्या की जा सकती है। मसलन, सानिया ने एक बेहद प्रतिस्पर्धी खेल में दुनिया में अपनी जगह बनाई है, वे खेल को खेल की भावना से खेलती हैं, वे सोच-समझ कर और अर्थपूर्ण बातें बोलती हैं, असल में उनका हर इंटरव्यू उनकी बुद्धिमत्ता की मिसाल होता है, और भटकाव की तमाम परिस्थितियों के बावजूद उनका ध्यान अपने मकसद, यानी खेल पर अब तक टिका रहा है। शायद इन्हीं खूबियों की वजह से वे टेनिस की दुनिया में ‘बिग लीग’ तक पहुंच सकी हैं। सानिया की ये तमाम खूबियां ऐसी हैं, जिनकी वजह से किसी समाज और राष्ट्र को सहज ही उन पर फख्र हो सकता है। इसीलिए भारत में उन पर करोड़ों लोगों को फख्र है। जिस खेल में गिने-चुने मौकों को छोड़ कर भारत का नाम हाशिये पर ही रहा है, बल्कि महिला टेनिस की बात करें तो शायद हाशिये पर भी कभी नाम नहीं रहा, उसमें उन्होंने ग्रैंड स्लैम जैसे मुकामों तक इस देश का दांव पहुंचा दिया है। यह उनकी प्रतिभा और उनके पक्के इरादे का ही नतीजा है कि इस देश के खेल प्रेमी अब सचमुच इस खेल में भी सफलता के सपने देखने लगे हैं। अपनी सफलताओं के साथ सानिया ने बहुत छोटी उम्र में पूरे मुल्क का ध्यान अपनी तरफ खींचा। हमेशा ही अपने उत्पाद के इश्तहार के लिए मॉडल की तलाश में रहने वाले कारपोरेट जगत को उनमें एक आदर्श मॉडल की संभावनाएं नजर आईं। इसलिए उन पर पैसों की बरसात की खबरें मीडिया में छायी रही हैं। लेकिन इसके साथ ही ऐसी आशंकाएं भी उभरीं कि इस चमक-दमक में सानिया ऐसे खो और उलझ सकती हैं, जिससे खेल की उनकी संभावनाएं धूमिल हो जाएं। मगर साल २००७ इन आशंकाओं को गलत साबित करते हुए खत्म हुआ। इसके पहले के साल में डगमगाने के बाद गुजरे वर्ष में सानिया ने अपना फॉर्म फिर हासिल किया और बड़े विश्व मुकाबलों में भी अपनी छाप छोड़ी। इस तरह उन्होंने यह दिखाया कि खेल और कारोबार दोनों में संतुलन बनाए रखने के गुर उन्होंने सीख लिए हैं। अगर खेल के मैदान पर सानिया मिर्जा की खूबियों पर गौर करें तो संघर्ष भावना, और गलतियों से सीखने के साथ-साथ शांत बने रहना उनके बड़े सकारात्मक पहलू माने जा सकते हैं। सानिया वैसे नाज-नखरे नहीं दिखातीं, जैसा कई टेनिस खिलाड़ियों की आदत में शुमार होता है। न जीत में उनके चेहरे पर घमंड की झलक मिलती है और न हार में हताशा। कहा जा सकता है कि हर लिहाज से सानिया मिर्जा एक ऐसी खिलाड़ी हैं, जिनका अनुकरण करने के लिए दूसरे खिलाड़ियों को कहा जा सकता है। उनकी एक खूबी यह भी है कि अपने अब तक करियर में सानिया मिर्जा ने अपनी तरफ से कोई विवाद खड़ा नहीं किया है। इसके बावजूद अक्सर विवाद उन्हें घेर लेते हैं, यह शायद एक विडंबना ही है। यह इससे भी बड़ी विडंबना है कि इन विवादों का खेल से कोई संबंध नहीं होता।
अभी हाल में हैदराबाद की एक मस्जिद में एक इश्तहार की शूटिंग को लेकर उन्हें विवाद में घेरने की कोशिश हुई। इसे उनकी तेज बुद्धि की ही मिसाल माना जाएगा कि बिना ज्यादा वक्त गंवाए इस मजहबी मुद्दे पर माफी मांग कर उन्होंने विवाद से अपना पीछा छुड़ाया। और यह बात भी बहुत पुरानी नहीं हुई जब स्कर्ट पहनकर टेनिस कोर्ट में उनके उतरने के खिलाफ मजहबी फतवा जारी किया गया। यह बात बड़ी विचित्र लगती है कि जिस युवती पर उसके समुदाय को बेहद फख्र होना चाहिए, वह उसके ध्यान को ऐसे गैर जरूरी मुद्दे उठा कर भटकाने की कोशिश करे। एक बार फिर यहां सानिया के जज्बे और हिम्मत की दाद देनी होगी कि ऐसी कोशिशों के बावजूद वे अपना संतुलन कायम रखने में कामयाब रही हैं। बहरहाल, सानिया पर उठने वाले ऐसे सवाल सिर्फ उनसे ही संबंधित नहीं हैं। ये सवाल एक पूरी सोच की नुमाइंदगी करते हैं। इस सोच को समझने, बेनकाब करने और उससे संघर्ष करने की आज बेहद जरूरत है। इसलिए कि ये सवाल किसी एक व्यक्ति पर नहीं, बल्कि आधुनिक औऱ इंसानी उसूलों पर आधारित समाज बनाने की तमाम जद्दोजहद के रास्ते की रुकावट हैं। गौरतलब है कि सिडनी ओलंपिक के समय पश्चिम एशिया के एक इस्लामी संगठन ने बीच (समुद्र तटीय) वॉलीबॉल खेल के खिलाफ ही फतवा जारी कर दिया था। शिकायत यह थी कि उस खेल की खिलाड़ी बहुत कम कपड़े पहनती हैं और वो भड़काऊ नजर आती हैं। उनके वैसे अंग नजर आते हैं जिन्हें अगर उस संगठन या उसके जैसी सोच वाले लोगों की मानें तो, ढक कर रखे जाने चाहिए।
बात सिर्फ कुछ अंगों की नहीं है। दरअसल, इस सोच ने सदियों तक स्त्रियों को परदे में रहने को मजबूर किया। तब बात किसी खास अंग तक नहीं, बल्कि पूरी की पूरी स्त्री को ही बाहरी दुनिया की निगाहों से अलग रखने की रही। यह रवायत या सोच आज के दौर में भी खत्म हो गई हो, ऐसा नहीं है। और इस सोच पर किसी एक मजहब का एकाधिकार हो, ऐसा भी नहीं है। असल में ऐसे सवालों ने इंसान की सोच, उसकी स्वतंत्र चेतना और उसके व्यक्तित्व को बेड़ियों में जकड़े रखा है। इसलिए जब सानिया मिर्जा पर ऐसे सवाल उठते हैं तो उनका मुकाबला करने के लिए इस २० साल की लड़की को अकेले नहीं छोड़ा जा सकता। बल्कि यह संघर्ष सानिया का दायरा नहीं है। सानिया अपने रहन-सहन और अपने व्यक्तित्व से इन सवालों को चुनौती दे रही हैं तो उनसे यह अपेक्षा भी नहीं रखनी चाहिए कि वे एक सामाजिक कार्यकर्ता की तरह विचार और राजनीति के मैदान में उतर कर कठमुल्लों और कट्टरपंथियों से संघर्ष करें। यह संघर्ष असल में उन तमाम लोगों का है, जो स्वतंत्रता, समता और लोकतंत्र के आधुनिक मूल्यों में यकीन करते हैं।
इसलिए यह विचारणीय प्रश्न है कि सानिया का व्यक्तित्व आखिर क्या कहता है? सानिया का व्यक्तित्व असल में यह कहता है कि एक लड़की अपनी स्वतंत्र इच्छा से अपनी जिंदगी की दायरा तय कर सकती है। वह उस दायरे की जरूरतों के मुताबिक वस्त्र चुन सकती है और कामयाबी से बनी अपनी हैसियत को अपने ढंग से जी सकती है। सवाल है कि ऐसे वक्तव्य से आखिर किसे परेशानी होती है? इससे परेशानी उन समूहों को होती है जो स्त्री, उसके व्यक्तित्व, खास कर उसके यौन व्यक्तित्व (सेक्सुएलिटी) और उसकी इच्छाओं पर नियंत्रण कायम रखना चाहते हैं। वे यह नियंत्रण इसलिए कायम रखना चाहते हैं कि बिना इसके पितृ-सत्तात्मक व्यवस्था कायम नहीं रह सकती औऱ अगर ऐसा नहीं रहा तो गैर-बराबरी और दूसरों के शोषण पर आधारित व्यवस्था की जड़ें हिल सकती हैं।
इस व्यवस्था ने सामाजिक मानसिकता में कई कुंठाएं भर रखी हैं। इसके रिवाजों ने इंसान की बहुत सी स्वाभाविक भावनाओं को दमित कर रखा है। इन रिवाजों न सिर्फ स्त्री, बल्कि पुरुष के व्यक्तित्व के संपूर्ण विकास की संभावनाएं भी कुंद कर रखी हैं। जाहिर है, ऐसा रहते समाज में स्त्री और पुरुष के सहज एवं स्वाभाविक रिश्ते नहीं बन पाते औऱ इससे कुंठाएं लगातार गहरी होती जाती हैं। ये कुंठाएं कभी सानिया को स्कर्ट में देख कर भड़क सकती हैं तो कभी बीच वॉलीबॉल के मुकाबलों को देख कर। ऐसी कुंठाओं से भरी सोच यह नहीं समझ सकती कि स्वीमिंग पूल में कोई बुर्का पहन कर नहीं उतर सकता!
वास्तव में यह सोच ऐसी कई साधारण और सहज बातें नहीं समझ पाती। उसके लिए यह स्वीकार करना मुश्किल होता है कि स्त्री और पुरुष दोनों समान हैं और इनमें किसी के यौन पहलू के साथ परिवार या समाज की इज्जत का कोई संबंध नहीं है। अगर मैच खेलते वक्त सानिया मिर्जा के पांव नजर आते हैं तो इससे किसी समुदाय की इज्जत नहीं जाती। या अगर कोई लड़की किसी दूसरे समुदाय में शादी कर ले तो यह लड़के के समुदाय की जीत और लड़की के समुदाय की हार नहीं है। लेकिन क्या आज के दौर तक बॉलीवुड की अंतर-धर्मीय प्रेम और विवाह पर बनी एक भी ऐसी मुख्यधारा की फिल्म बताई जा सकती है, जिसमें लड़की मुस्लिम रही हो? ऐसा इसलिए नहीं है क्योंकि देश के बहुसंख्यक समुदाय की मानसिकता यह स्वीकार करने को तैयार नहीं है कि उसके यहां की कोई लड़की अपनी इच्छा से किसी मुस्लिम से प्रेम या विवाह कर ले। सानिया पर बार-बार उठने वाले सामाजिक सवाल ऐसी पारंपरिक सोच की झलक हैं। चूंकि सानिया सफल हैं, उन पर मीडिया की नजर होती है, इसलिए उन पर सवाल उठा कर यह सोच अपने इजहार का एक मौका तलाशती है। यह सोच यह दिखाना चाहती है कि सानिया अगर आधुनिकता की एक प्रतीक हैं तो उन्हें बार-बार पुरातन सोच के आगे झुकना होगा। इसके पीछे संदेश यह होता है कि कोई यह न मान ले कि पुरातनता कमजोर पड़ गई है या आज के नौजवान अपनी इच्छा से जी सकते हैं।
इसी वजह से सानिया मिर्जा को बार-बार विवाद में घेरने की कोशिश होती है। चूंकि सानिया की मंजिल कहीं और है, इसलिए उनका ऐसे विवादों से बच कर निकल जाने की कोशिश उनकी बुद्धिमत्ता की ही निशानी है। लेकिन आधुनिक भारतीय समाज इस चुनौती का सीधे मुकाबला करने से नहीं बच सकता। जो कट्टरपंथी मानसिकता सानिया की जीवन शैली पर सवाल खड़े करती है, उसे यह खुल कर चुनौती देने का वक्त है। उसे यह बताने की जरूरत है कि मजहब और परंपराओं के नाम पर अब किसी के व्यक्तित्व पर बेड़ियां नहीं लगाई जा सकतीं। अगर कोई मजहब या परंपरा किसी इंसान की स्वतंत्र शख्सियत और अपनी राह खुद तय करने के उसके बुनियादी हक को नही मानती, तो उसकी आज के दौर में कोई अहमियत नहीं है। सानिया इस दौर की, यानी आधुनिक जीवन शैली की एक सहज मिसाल हैं। वे भारत की दुनिया में उभरती ताकत की एक प्रतीक हैं और इस आधार पर इस देश के नौजवानों में आत्म विश्वास भरने वाली एक शख्सियत बन गई हैं। इसीलिए हम सबको उन पर नाज़ है। यह कहा जा सकता है कि उन पर उठने वाली तमाम अंगुलियां दरअसल, हमारे गर्व, हमारे आत्म-विश्वास औऱ भारत की आधुनिक छवि पर संशय पैदा करने की कोशिश का हिस्सा हैं। इसलिए इन्हें चुपचाप स्वीकार नहीं किया जा सकता। ठीक उसी तरह जैसे एमएफ हुसैन की कला और तसलीमा नसरीन की विचार की आजादी पर हिंसक हमलों को स्वीकार नहीं किया जा सकता।
सानिया, हुसैन, तसलीमा- ये उस भारत के प्रतीक हैं, जिसकी अवधारणा उपनिवेशवाद से संघर्ष करते हुए पैदा हुई और जिसे पिछले साठ साल में व्यवहार में उतारने की कोशिश हुई है। इंसान की बुनियादी आजादी, विरोध के प्रति सहनशीलता और लोकतांत्रिक संवाद भारत की इस अवधारणा में के आधार हैं। इसके हक में उन सभी लोगों को मजबूती से खड़ा होना होगा, जिन्हें इस भारत से प्यार है। इसीलिए सानिया का सवाल हम सबसे जुड़ा हुआ है, कट्टरपंथ के कुंठित हमलों से हम अपनी इस प्रतिभा को बर्बाद नहीं होने दे सकते।
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