Thursday, February 28, 2008
ऐतिहासिक चुनौतियों के बरक्स
सत्येंद्र रंजन
पाकिस्तान में चुनाव नतीजों ने देश में लोकतंत्र के उदय की वास्तविक उम्मीद जगाई है। असामान्य परिस्थियों, आतंकवाद के साये और चुनावी धांधली की अटकलों के बीच हुए इन चुनावों ने वह रास्ता खोला है, जिस पर अगर वहां के राजनीतिक दल सावधानी से चले तो देश पर से सेना, सामंतवाद, और अमेरिका का साठ साल पुराना शिकंजा कमजोर पड़ सकता है। ये चुनाव नतीजे तीन वजहों से बेहद खास हैं।
इनमें सबसे पहली बात यह कि पाकिस्तान के मतदाताओं ने अपनी लोकतांत्रिक आकांक्षा की अभिव्यक्ति आम राजनीतिक दलों के माध्यम से की है। अर्थात उन्होंने धार्मिक कट्टरपंथ को नकार दिया, जिसके उभार की ठोस गुंजाइश देश में मौजूद थी। उत्तर-पूर्व सीमा प्रांत और बलूचिस्तान जैसे प्रांतों में भी, जिन्हें अब चरमपंथी औऱ कट्टरपंथी ताकतों का गढ़ माना जाता है, कट्टरपंथियों की हार ने एक बार इस बात की तस्दीक की है कि इस्लाम के नाम पर बने इस देश की आम जनता कट्टरपंथी एजेंडे को स्वीकार नहीं करती है। बल्कि उसकी इच्छा वैसी राजनीतिक प्रक्रिया की है, जिसमें आम जन के हितों को तरजीह दी जाए। उत्तर पूर्व सीमा प्रांत में अवामी नेशनल पार्टी की जीत इस लिहाज से बेहद अहम है।
पाकिस्तान के मतदाताओं का दूसरा अहम पैगाम यह है कि देश के अंदरूनी मामलों में अमेरिका की दखंलदाजी उन्हें मंजूर नहीं है। बल्कि वे चाहते हैं कि एक संप्रभु देश की तरह पाकिस्तान अंतरराष्ट्रीय मामलों में अपनी स्वतंत्र नीति अपनाए। २००१ से लगातार अमेरिका द्वारा तैयार नुस्खे पर चल रहे पाकिस्तानी राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ के समर्थकों की करारी हार से यही संकेत मिलता है कि संप्रभुता के सौदे के बदले मिले अमेरिकी डॉलरों के बजाय आम पाकिस्तानी अपने देश के आत्म सम्मान को ज्यादा महत्त्व देता है। पाकिस्तान के इन चुनावों में पीपीपी और पीएमएल (नवाज) ने १९७३ के संविधान और न्यायपालिका की नवंबर २००७ के पहले की स्थिति की बहाली को अपना प्रमुख मुद्दा बनाया। इसे मिले जन समर्थन से यह साफ है कि पाकिस्तान के लोग आधुनिक ढंग की संसदीय व्यवस्था के हक में हैं, जिसमें अवरोध और संतुलन के पर्याप्त इंतजाम हों। उन्होंने इसका वादा करने वाले राजनीतिक दलों को साफ जनादेश दिया है। अब सबसे बड़ा सवाल यही है कि इस जनादेश का ये दल कैसे पालन करते हैं? पाकिस्तान की मुश्किल यह रही है कि पिछले दो दशक में पीपीपी औऱ पीएमएल (नवाज) राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी के बजाय राजनीतिक दुश्मन बने रहे हैं और इसलिए जब उनमें से किसी एक की निर्वाचित सरकार को सेना और सत्ता प्रतिष्ठान ने बर्खास्त किया, दूसरे दल इस अलोकतांत्रिक कदम का साथ दिया। बहरहाल, अब इतिहास उन्हें सैनिक शासक से असैनिक राष्ट्रपति बने परवेज मुशर्रफ के खिलाफ़ एक साथ खड़ा कर दिया है। मुशर्रफ को हटाने के एजेंडे पर इन दलों फिलहाल मोटी सहमति दिखती है। लेकिन सवाल है कि अगर मुशर्रफ हट गए तब भी क्या इन दलों में यह एका कायम रहेगी या फिर उनके आपसी टकराव से देश एक बार फिर राजनीतिक अस्थिरता पैदा हो जाएगी? दूसरा बड़ा सवाल यह है कि देश के दोनों प्रमुख दलों का एक ही पाले में रहना क्या स्वस्थ संसदीय लोकतंत्र के विकास के हित में है? विपक्ष की खाली जगह कहीं कट्टरपंथी या वे ताकतें नहीं भरने लगेंगी, जिनका हित लोकतंत्र को कायम न होने देने में है? ऐसे में क्या यह एक वांछित विकल्प हो सकता है कि पीपीपी मुशर्रफ से कामकाजी संबंध बनाते हुए सरकार चलाए और पीएमएल (नवाज) विपक्ष की भूमिका निभाए? इससे संभवतः देश में स्थिरता भी कायम रहेगी और धीरे-धीरे वास्तविक संसदीय लोकतंत्र की तरफ संक्रमण का रास्ता भी खुल सकता है। बहरहाल, ये सारे सवाल वो हैं, जिनका जवाब पाकिस्तान के चुनाव में विजयी हुए राजनीतिक दलों को ढूंढना है। अगर उन्होंने ऐसा किया तो वे एक ऐतिहासिक भूमिका निभाएंगे और अपने देश के लिए एक नया सवेरा लाने में कामयाब रहेंगे। वरना, इतिहास उन्हें आपसी स्वार्थ की वजह से अभूतपूर्व मौके को गंवा देने का दोषी ठहराएगा।
Tuesday, February 26, 2008
अमेरिकी चुनाव और भारतीय हित
सत्येंद्र रंजन
अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव के लिए डेमोक्रेटिक पार्टी का उम्मीदवार चुनने की प्रक्रिया में इस बार जैसा जोरदार मुकाबला देखने को मिला है और ठोस मुद्दों पर जैसी बहस हुई है, वैसी एक पूरी पीढ़ी की यादाश्त में दर्ज नहीं है। लोकतांत्रिक प्रक्रिया का एक जीवंत नजारा वहां देखने को मिल रहा है। इस परिघटना ने इसलिए ज्यादा रोमांच औऱ उत्साह पैदा किया है, क्योंकि इस बार वहां सचमुच एक युगांतकारी घटना हो सकती है। जॉर्ज बुश जूनियर के जन-विरोधी, भ्रष्ट और कई मायनों में आपराधिक शासन से परेशान मतदाता डेमोक्रेटिक पार्टी की तरफ झुकते नजर आ रहे हैं, और यह अब तय है कि डेमोक्रेटिक पार्टी की तरफ से कोई अश्वेत या महिला उम्मीदवार ही चुनाव मैदान में होगा। अगर अगले नवंबर तक अमेरिकी राजनीतिक स्थिति में कोई बड़ा बदलाव नहीं आ जाता है, तो इस बार ह्वाइट हाउस में सचमुच किसी अश्वेत या महिला को बतौर राष्ट्रपति देखा जा सकता है। अगर ऐसा होता है तो स्वतंत्रता और नागरिक अधिकारों के घोषणापत्र के साथ अमेरिकी राष्ट्र की स्थापना के करीब सवा दो सौ साल बाद यह मौका आएगा। १७७६ में कामयाब हुआ अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम मानव इतिहास की एक अहम घटना रहा है। लेकिन अश्वेतो और महिलाओं से जारी भेदभाव उस क्रांति पर आज तक एक बदनुमा दाग हैं, जिसके कुछ निशान हिलेरी क्लिंटन या बराक ओबामा की जीत से जरूर धोये जा सकेंगे।
पिछले करीब एक साल से अमेरिका में इन दो उम्मीदवारों के बीच अहम मुद्दों पर जोरदार बहस चली रही है। इस बहस में सबसे महत्त्वपूर्ण आयाम एक तीसरे उम्मीदवार जॉन एडवर्ड्स ने जोड़े, जो उम्मीदवार चुनने की प्रक्रिया के शुरुआती दौर में पिछड़ने के बाद अब इस होड़ से अलग हो चुके हैं। लेकिन उन्होंने कॉरपोरेट सत्ता, स्वास्थ्य देखभाल और विदेश नीति पर जो बहस छेड़ी वह अब भी हिलेरी क्लिंटन और बराक ओबामा के बीच बेहद तीखे ढंग से चल रही है। ये वो मुद्दे हैं, जिनके आधार पर पार्टी की उम्मीदवारी हासिल करने की कोशिश हो रही है और जिन पर सचमुच इस बार राष्ट्रपति चुनाव लड़ा जाएगा। बतौर महाशक्ति अमेरिका की दुनिया में जो हैसियत है और बतौर एक लोकतांत्रिक प्रयोग के वहां जो अनुभव हुए हैं, उसके मद्देनजर अमेरिकी चुनाव विश्व-व्यवस्था के लिए एक बेहद महत्त्वपूर्ण घटना है। जाहिर है, इसमें दुनिया भर के उन लोगों की गहरी दिलचस्पी है, जो अंतरराष्ट्रीय और देशों की अंदरूनी व्यवस्था को लोकतांत्रिक सिद्धांतो से चलाने के पक्षधर हैं।
लेकिन भारतीय समाचार माध्यमो और आम चर्चा में यह परिप्रेक्ष्य हमेशा की तरह इस बार भी गायब नज़र आ रहा है। यहां बात लोकतंत्र और अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के संदर्भ में होने के बजाय भारतीय हित के संदर्भ में ज्यादा होती है। फिर भारतीय हित को भी बेहद संकुचित ढंग से परिभाषित किया जाता है। समाज के कुछ तबकों के हित को पूरे देश के हित के रूप में पेश करना और उस चश्मे से अमेरिकी चुनाव जैसी घटना को देखना एक ऐसी सीमित दृष्टि पैदा करता है, जिससे किसी घटना के न तो सभी पहलू समझे जा सकते हैं और ना ही उसके अपने खास एवं ऐतिहासिक महत्त्व तक निगाह पहुंच सकती है। मसलन, भारत में चर्चा के खास बिंदु हैं कि नए राष्ट्रपति के शासनकाल में भारत-अमेरिका असैनिक परमाणु सहयोग के करार का क्या होगा, आउटसोर्सिंग पर क्या फर्क पड़ेगा और क्या एक डेमोक्रेटिक राष्ट्रपति भारत के लिए वैसी दोस्ती दिखाएगा, जैसी कथित तौर पर जॉर्ज बुश दिखाते रहे हैं। अगर भारत के व्यापक हित पर गौर करें तो अमेरिकी चुनाव के संदर्भ में ये सारे सवाल अप्रासंगिक हैं। भारत का हित इन तीन प्रश्नों से कतई तय नहीं होता है। मनमोहन सिंह सरकार के अंतरराष्ट्रीय मामलों में बुश प्रशासन की पिछलग्गू नीति अपना लेने से परमाणु करार का अब वैसे भी कोई भविष्य नहीं है, क्योंकि लोकतांत्रिक और वामपंथी ताकतें फिलहाल इस पर अमल नहीं होने देंगी। यह करार भारत की स्वतंत्र विदेश नीति का सौदा करने की कीमत पर हुआ, जिसे कोई स्वाभिमानी भारतीय स्वीकार नहीं कर सकता।
जहां तक आउटसोर्सिंग का सवाल है, यह बिजनेस मॉडल बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने अपने फायदे के लिए अपनाया हुआ है। अमेरिका में जिस काम के लिए उन्हें महंगी मजदूरी देनी पड़ती, वे काम भारत में वो सस्ती मजदूरी देकर करवा लेती हैं। इससे अमेरिका में कई लोगों के रोजगार के अवसर खत्म होते हैं और भारत में कई लोगों को रोजगार मिल जाता है। लेकिन प्रश्न यह है कि क्या यह देश की अर्थव्यवस्था के विकास और रोजगार पैदा करने की सही नीति का विकल्प है? बहरहाल, कोई देश अगर अपनी अर्थ-नीति में अपने कामगारो के हित के मुताबिक कोई बदलाव लाता है तो उसे कोई दूसरा देश अपने खिलाफ नहीं समझ सकता।
जॉर्ज बुश भारत के दोस्त हैं, यह धारणा उपरोक्त दोनों मुद्दों और इन जैसे दूसरे कुछ मुद्दों के आधार पर कही जाती है। लेकिन उनकी यह दोस्ती दरअसल, बड़ी बहुराष्ट्रीय- खास कर तेल औऱ हथियार कंपनियों- को फ़ायदा पहुंचाने की उनकी नीति का एक हिस्सा रही है, जिसके कुछ खास अंतरराष्ट्रीय पहलू हैं। इनमें एक भारत को अमेरिकी सामरिक रणनीति का हिस्सा बनाना भी है। भारत के शासक समूहों को कुछ फायदे देकर उन्हें अपने पाले में लेने की नीति को बुश ने अंजाम देने की कोशिश की और इसमें काफी हद तक वो सफल भी रहे। लेकिन यह कथित दोस्ती दरअसल, भारत की आम जनता के व्यापक हितों के खिलाफ है। इसलिए कि इससे देश में दक्षिणपंथी राजनीतिक विमर्श और नव उदारवादी आर्थिक नीतियों को ज्यादा ताकत मिली औऱ इससे गैर बराबरी बढ़ने के नए हालात पैदा हुए। बुश पिछले आठ साल में जिस रास्ते पर चले, उससे दूसरे विश्व युद्ध के बाद से विकसित हो रही अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को गहरा नुकसान पहुंचा है। विश्व मुद्दों पर बहुपक्षीय सहमति की व्यवस्था के ऊपर उन्होंने अमेरिका की एकतरफा कार्रवाई की नीति को तरजीह दी, जिसका परिणाम यह है कि न्यायपूर्ण और लोकतांत्रिक दुनिया बनाने का सपना आज और दूर हो गया है। इराक मुद्दे पर बुश प्रशासन की मनमानी ने संयुक्त राष्ट्र को बेमतलब साबित कर दिया। अमेरिका में जमींदारों के अपने वोट बैंक की चिंता में उसने विश्व व्यापार संगठन जैसे बहुपक्षीय मंच को निष्क्रिय कर रखा है। जलवायु परिवर्तन के क्योतो प्रोटोकॉल से अमेरिका को हटाने के बाद सारी दुनिया के बीच इस मुद्दे पर बनती सहमति का बुश प्रशासन मखौल उड़ाता रहा है। अंतरराष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय की स्थापना में उसने हर कदम पर बाधाएं खड़ी कीं और जब बहुत से देशों ने उसे संयुक्त राष्ट्र की सहमति से स्थापित किया, तब भी अमेरिका उसका हिस्सा नहीं है। रूस से अंतर-महाद्वीपीय मिसाइल संधि को एकतरफा ढंग से खत्म कर बुश प्रशासन ने अंतरराष्ट्रीय संधियों और समझौतों की बुनियाद पर ही चोट की।
हाल ही में आई पूर्व अमेरिकी उप राष्ट्रपति एल गोर की किताब ‘असॉल्ट औन रीजन’ बुश प्रशासन के दौर में लोकतंत्र, जन अधिकारों और इन सबके आधार मनुष्य के विवेक पर लगातार हुए लगातार हमलों का एक दस्तावेज है। यह साफ है कि बुश प्रशासन की नीतियां सिर्फ उन बड़ी कंपनियों, अमेरिका के बड़े जमींदारों और चर्च के कट्टरपंथी हिस्सो के हित में रही हैं, जो उसके समर्थन का आधार हैं। इन तबको का राज पूरी दुनिया पर स्थापित करना उसका मकसद रहा है। इस परियोजना में भारत के शासक समूहों को भी शामिल करने की कोशिश हुई है। नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों के जरिए अपनी सुख-सुविधा को बढ़ाने में जुटे और सुरक्षा की बेहद संकुचित समझ लेकर चलने वाले इन समूहों और उनके प्रचार तंत्र ने इसीलिए जॉर्ज बुश जूनियर को भारत का दोस्त और उनकी नीतियों को भारत के हित में घोषित किया हुआ है। मगर यह समझने की बात है कि जो नीतियां दुनिया में किसी व्यवस्था या प्रणाली को नहीं मानतीं, वे किसी के हित में नहीं हो सकतीं। दरअसल, अब इन नीतियों के खतरनाक असर को अमेरिका में भी समझा जा रहा है, इसीलिए आतंकवाद और राष्ट्रीय सुरक्षा का भय दिखाकर २००१ से २००४ तक बुश ने जो राजनीतिक बहुमत अपने हक में तैयार किया, वह २००६ आते-आते टूट गया और अब यह आशा प्रबल है कि २००८ उनकी रिपब्लिकन पार्टी की हार का साल है। गौरतलब है कि २००६ से पहले तक अमेरिका के राजनीतिक विमर्श में यह बात जोर देकर कही जाती थी कि रिपब्लिकन पार्टी का लगभग स्थायी बहुमत तैयार हो गया है, इसलिए राष्ट्रीय चुनाव में उसे शिकस्त देना नामुमकिन-सा है। इस कथन का आधार यह था कि १९६० के दशक में राष्ट्रपति जॉन एफ केनेडी और लिंडन जॉनसन के डेमोक्रेटिक शासन में अश्वेत समुदायों को मताधिकार के साथ-साथ सभी नागरिक अधिकार देने के जो फैसले हुए उससे गोरे समुदाय का एक बड़ा तबका हमेशा के लिए रिपब्लिकन समर्थक बन गया। टैक्स में कटौती की रिपब्लिकन नीति ने उसे धनी तबकों की प्रिय पार्टी बनाए रखा। गर्भपात, नारी, समलैंगिक औऱ अल्पसंख्यक समुदायों के अधिकारों की वकालत की वजह से चर्च डेमोक्रेटिक पार्टी के खिलाफ हो गया। इन सबसे रिपब्लिकन पार्टी का मजबूत आधार बना। जब ११ सितंबर २००१ को अमेरिका पर आतंकवादी हमले हुए तो सुरक्षा वहां एक बड़ा मुद्दा बन गया, जिस पर आक्रामक रुख अपना कर रिपब्लिकन पार्टी ने मध्य वर्ग और यहां तक कि निम्न मध्य वर्ग में भी अपना ठोस जनाधार तैयार कर लिया। माना गया कि इससे राजनीति का एक अपराजेय समीकरण तैयार हो गया है। लेकिन यह बात २००६ के संसदीय और राज्यों के चुनावों में गलत साबित हो गई। तब बुश प्रशासन की धनी समर्थक और युद्धवादी नीतियों की अलोकप्रियता साफ हो गई। यह अलोकप्रियता तब से और बढ़ती ही गई है।
भारत के लोकतांत्रिक समूहों के लिए अमेरिकी चुनाव में दिलचस्पी का यह पहला बिंदु होना चाहिए। बुश प्रशासन की हार दुनिया के व्यापक हित में है औऱ अगर इसकी स्थितियां वहां बन रही हैं, तो अमेरिकी साम्राज्यवाद के पूरे संदर्भ में इसकी चर्चा करते हुए देश के लोगों को यह बताया जाना चाहिए कि उग्र राष्ट्रवाद या गैर जरूरी युद्ध के लिए भावनाएं भड़का कर उसके पीछे की मंशा को हमेशा के लिए नहीं छिपाया जा सकता। यह बात ध्यान में रखने की है कि रिपब्लिकन पार्टी के सत्ता में रहने का यह मतलब नहीं होगा कि अमेरिका साम्राज्यवाद की नीतियों से हट जाएगा। इसका सिर्फ यह मतलब होगा कि ऐसी नीतियों को अमेरिका की आम जनता का समर्थन नही है औऱ वहां के आम लोग अपने हित वहां की बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ जोड़ कर नहीं, बल्कि उनके विरोध में देखते हैं। लोकतंत्र की कसौटी पर यह एक प्रगतिशील कदम होगा। अमेरिकी चुनाव में हमारी दिलचस्पी का दूसरा बिंदु बराक ओबामा बनाम हिलेरी क्लिंटन का मुकाबला है। डेमोक्रेटिक पार्टी की उम्मीदवारी की होड़ के आखिरी दौर में किसी गोरे पुरुष का न होना नस्ल और लिंग भेद के खिलाफ सदियों से जारी इंसान के संघर्ष में एक मील का पत्थर है। अगर यह परिघटना अपने आखिरी मुकाम तक पहुंची, यानी राष्ट्रपति चुनाव में इन दोनों के बीच किसी एक की जीत हुई, तो इसका पैगाम दूर तक जाएगा और न सिर्फ हम सबके लिए, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी इस घटना की अहमियत कायम रहेगी।
अगर घटनाओं को इन रूपों में देखने का नजरिया हम विकसित कर सकें तो इससे अपने हित की भी हम बेहतर समझ पैदा कर पाएंगे। मानवता का हित उन सिद्धांतों को लोकप्रिय बनाने और स्थापित करने में है, जो इंसान के सदियों के संघर्ष से विकसित हुए हैं। स्वतंत्रता, न्याय, लोकतंत्र और मानव अधिकार ऐसे सिद्धांत हैं, जिनके बिना कोई इंसान या समाज गरिमामय ढंग से नहीं जी सकता है। विश्व और विभिन्न देशों की सत्ता व्यवस्थाओं में इन सिद्धांतों की आज जरूर झलक मिलनी चाहिए। जो व्यवस्था इन सिद्धांतो पर हमले करती हो, वह दुनिया के हित में नहीं हो सकती। बुश प्रशासन एक ऐसी ही व्यवस्था के रूप में सामने आया। इसलिए उसकी हार पूरी दुनिया के हित में है।
Monday, February 11, 2008
एक विफल आंदोलन के सबक
सत्येंद्र रंजन
आजादी के बाद भारत में छात्र और लोगों की व्यापक भागीदारी वाले आंदोलनों की लंबी परंपरा रही है। इन आंदोलनों ने पिछले साठ साल के राजनीतिक माहौल पर अपना गहरा असर छोड़ा है। कई बार ये आंदोलन संकीर्ण और सांप्रदायिक एजेंडे के साथ हुए, लेकिन बहुत से मौकों पर इन आंदोलनों ने एक बड़े जन समुदाय की प्रगतिशील आकांक्षाओं की नुमाइंदगी भी की। अधिकांश मौकों पर आंदोलन कुछ निश्चित मांगों को लेकर हुए, और जैसा कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में होता है, सहमति के बिंदुओं की तलाश, सौदेबाजी और समझौते के साथ इन आंदोलनों का अंत हुआ। यानी कोई भी आंदोलन शायद अपनी सभी मांगे तो नहीं मनवा सका, लेकिन उसकी बहुत सी मांगों पर अमल के लिए सरकार या संबंधित दूसरे पक्ष राजी हो गए। समस्याओं के हल के इस लोकतांत्रिक तरीके ने भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था को न सिर्फ मजबूती दी है, बल्कि इसमें जान भी फूंकी है।
आंदोलनों के इस इतिहास के बीच १९७३ के गुजरात और १९७४ के बिहार के छात्र आंदोलन का एक अलग स्थान इस लिहाज से है कि भले उन आंदोलनों की शुरुआत भी छात्रों के फौरी मसलों और दिक्कतों से हुई, लेकिन उन आंदोलनों ने एक व्यापक राजनीतिक स्वरूप ग्रहण किया। इन आंदोलनों को यह स्वरूप देने में जिस एक शख्सियत की सबसे बड़ी भूमिका रही, वे जयप्रकाश नारायण थे। जेपी ने गुजरात के छात्र आंदोलन को अपना नैतिक समर्थन दिया, उसकी पृष्ठभूमि में यूथ फॉर डेमोक्रेसी की अपनी चर्चित अपील जारी की, और बिहार आंदोलन में न सिर्फ सक्रिय भागीदारी की, बल्कि उसका नेतृत्व भी संभाल। गुजरात आंदोलन की परिणति राज्य में कांग्रेस सरकार के इस्तीफे, विधानसभा के भंग होने, विपक्षी दलों के एकजुट हो कर जनता मोर्चा बनाने और १९७५ के विधानसभा चुनाव में जनता मोर्चे के सबसे बड़े गुट के रूप में उभरने के रूप में हुई। यानी छात्र आंदोलन से बने हालात से राज्य में पहली बार गैर- कांग्रेसी सरकार बनने का रास्ता साफ हुआ।
बिहार आंदोलन का असर शायद इससे भी ज्यादा रहा। ‘गुजरात की जीत हमारी है, अबकी बिहार की बारी है’, के नारे साथ बिहार में कांग्रेस विरोधी राजनीतिक गोलबंदी कहीं ज्यादा मजबूत हुई। जेपी के नेतृत्व की वजह से उस दौर की विपक्षी राजनीतिक गतिविधियों को जेपी आंदोलन के नाम से जाना गया। जब १९७५ में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के रायबरेली क्षेत्र से निर्वाचन को रद्द कर दिया और उसके बाद बने राजनीतिक टकराव के बीच इंदिरा गांधी ने देश में इमरजेंसी लगा दी तो इससे देश भर के स्तर पर विपक्षी गठबंधन बनने की जमीन तैयार हो गई। इमरजेंसी के बाद इंदिरा गांधी की हार औऱ जनता पार्टी की सरकार बनने के साथ जेपी आंदोलन अपने चरम बिंदु पर पहुंचा। यानी जेपी आंदोलन ने पहली बार देश में गैर कांग्रेसी सरकार का रास्ता तैयार किया। अगर इस राजनीतिक उथल-पुथल के लिहाज से देखें तो जेपी आंदोलन को बेशक एक सफल घटना माना जा सकता है।
लेकिन अगर आंदोलन के स्वरूप, घोषित उद्देश्यों और उसके दूरगामी प्रभाव की कसौटियों पर परखा जाए तो स्वतंत्र भारत के इतिहास में उस आंदोलन का स्थान तय करना एक बेहद मुश्किल काम है। यह काम मुश्किल इसलिए है कि जेपी आंदोलन जो करना चाहता था या कम से कम जो करने की बात कहता था, उसका अपना स्वरूप उससे बहुत अलग था। संभवतः यही वजह है कि आंदोलन कोई दूरगामी असर नहीं छोड़ सका। अगर आंदोलन के परिणामों की तलाश करें तो दो बातें सामने आती हैं। पहली तो यह कि इससे राजनीति में नौजवानों की एक नई पौध आई, जो आज बिहार की राजनीति को संचालित कर रही है। लेकिन ये नौजवान राजनीति की कोई नई संस्कृति भी पैदा कर सके, यह नहीं कहा जा सकता। इसका एक सकारात्मक परिणाम नौजवानों की उस धारा का सामने आना रहा, जिसने चुनावी राजनीति से अलग रहते हुए एक सीमित समय तक वैकल्पिक व्यवस्था की संभावनाओं पर चर्चा की औऱ कई जगहों पर जमीन पर बदलाव की लड़ाई लड़ने के प्रयोग किए। लेकिन यह घटना एक परिघटना का रूप नहीं ले सकी।
यही वजह है कि उतने बड़े पैमाने पर उथल-पुथल पैदा करने वाले आंदोलन को उस दौर के बाद नौजवान हुई पीढ़ी किसी अहम घटना के रूप में याद नहीं रखती। और अब जबकि आजादी के बाद का इतिहास लिखने की शुरुआत हुई है तो इतिहासकार जेपी आंदोलन को एक साधारण घटना ही मान रहे हैं।
दरअसल, अगर बिहार आंदोलन के पूरे घटनाक्रम पर नज़र डाली जाए तो यह समझना मुश्किल होता है कि क्या उस आंदोलन का सचमुच वही उद्देश्य था, जो नेताओं के भाषणों और पर्चे-पोस्टरों में बताया जाता था? बात छात्रों के लिए मिट्टी तेल और कॉपियों जैसी जरूरी चीजों की किल्लत से शुरू हुई। उस दौर के आर्थिक संकट से फैले जन असंतोष ने आंदोलन को और फैलने की जमीन मुहैया कराई। पुलिस की बर्बरता औऱ कई गोलीकांडों की वजह से आंदोलनकारियों को जनता की निगाहों में वैधता मिली। और आखिरकार जेपी के नेतृत्व ने उसे एक व्यापक आयाम दे दिया। पहले नारा लगा-‘भ्रष्टाचार मिटाना है, नया बिहार बनाना है।’ बाद में जेपी ने लोगों की जुटी भारी भीड़ के बीच एक भावुक क्षण में आंदोलन का उद्देश्य ‘संपूर्ण क्रांति’ घोषित कर दिया।
लेकिन यह गौरतलब है कि भ्रष्टाचार मिटाने और संपूर्ण क्रांति की इस यात्रा में सहयात्री कौन-कौन थे? इन सहयात्रियों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जनसंघ के लोग थे, जिनकी सांप्रदायिक औऱ दक्षिणपंथी राजनीति से देश वाकिफ था। इस आंदोलन में स्वतंत्र पार्टी के लोग थे, जिनका पूंजीवाद और सामंतवाद की रक्षा घोषित लक्ष्य था। इसमें संगठन कांग्रेस के लोग थे, जिन्होंने कांग्रेस के अंदर दक्षिणपंथी एजेंडे को आगे बढ़ाने की लड़ाई लड़ी थी, और इंदिरा गांधी के हाथों परास्त होने के बाद बदला लेने के मौके की तलाश में थे। आंदोलन के समर्थन में आए नेताओं में ऐसे नेताओं की कमी नहीं थी, जिन पर खुद भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लग चुके थे। गुजरात में जनता मोर्चे की जीत के बाद मोर्चे ने जैसे अवसरवाद का प्रदर्शन किया, उससे इस गोलबंदी की साख पर गहरे सवाल थे। अगर आंदोलन में कोई एक प्रगतिशील खेमा था, तो वह सोशलिस्टों का था, जो उस समय तक बहुत कमजोर हो चुका था।
अगर आंदोलन के वर्ग और जातीय आधार पर गौर करें तो यह एक मध्य औऱ निम्न मध्यवर्गीय आंदोलन था, जिस पर उच्च औऱ मध्य जातीयों से आए नौजवानों का वर्चस्व था। जनता पार्टी के शासन में आने के बाद आरक्षण के सवाल पर जिस तरह ये नौजवान नेता बंट गए, उससे यह साबित हो गया कि आंदोलन के दौरान उन्होंने संपूर्ण क्रांति के कैसे पाठ सीखे थे। बल्कि आंदोलन के दौरान ही जेपी द्वारा जनेऊ तोड़ने की सलाह देने पर उनके खिलाफ आंदोलन समर्थकों की ही जैसी प्रतिक्रिया भड़की वह काफी कुछ कहती थी। जेपी जैसी बड़ी शख्सियत इन हालात को कैसे नहीं समझ सकी, यह सोच कर हैरत होती है। इसलिए कि आंदोलन के वर्ग एवं राजनीतिक चरित्र पर गौर करते समय अक्सर यह महसूस होता रहता है कि बिहार आंदोलन दरअसल, जेपी की उसके पहले की अपनी विचारधारा का प्रतिवाद था।
यहां पर एक अहम सवाल कांग्रेस के मूल्यांकन का है। क्या उस दौर में या बीसवीं सदी लेकर आज तक के किसी दौर में भारतीय समाज में कांग्रेस की भूमिका आरएसएस से ज्यादा हानिकारक रही है? अगर भारत के पूरे इतिहास पर गौर करें तो संघ परिवार समाज की सबसे संकीर्ण, रूढ़िवादी, मानव-स्वतंत्रता की मूल भावनाओं के विरोधी और विषमता की सामाजिक धारा का प्रतिनिधित्व करता है। दूसरी तरफ कांग्रेस अपनी स्थापना के समय से एक ऐसा मंच रही है, जिस पर सभी तरह की सामाजिक धाराएं जगह पाती रही हैं, लेकिन उसका मूल स्वर उदार, प्रगतिशील और मानव स्वतंत्रता के पक्ष में रहा है। इंदिरा गांधी के जमाने में पार्टी में अधिनायक प्रवृत्तियां जरूर उभरीं। इसके बावजूद पार्टी का सामाजिक आधार औऱ राजनीतिक कार्यक्रम स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भारतीय राष्ट्र की पैदा हुई धारणा के अनुरूप था। राजनीतिक अवसरवाद और सत्ता को केंद्र में रख की जाने वाली राजनीति से पार्टी कई मौकों पर खतरनाक खेल खेलती दिखी, इसके बावजूद उसका मकसद कभी सांप्रदायिक या फासीवादी राज्य की स्थापना नहीं रहा। ऐसे में कांग्रेस के खिलाफ सांप्रदायिक-फासीवादी और धुर दक्षिणपंथी ताकतों की गोलबंदी किस लिहाज से देश के हित में या प्रगतिशाली परिवर्तन के हक में थी, यह न तो तब जेपी ने बताया और न ही आज तक जेपी आंदोलन के किसी समर्थक ने इसकी व्याख्या की है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जनसंघ (या अब भारतीय जनता पार्टी) के साथ स्वतंत्र पार्टी जैसी दक्षिणपंथी और दूसरी अवसरवादी राजनीतिक जमातों का गठबंधन बन जाए, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। लेकिन इन ताकतों को लेकर किसी प्रगतिशील आंदोलन को छेड़ने की बात की जाए, यह जरूर आश्चर्यजनक है। जेपी ने बिहार आंदोलन को संपूर्ण क्रांति का आंदोलन घोषित कर ऐसा ही आश्चर्य पैदा किया। लेकिन उस आंदोलन ने ऐसा कोई चमत्कार पैदा नहीं किया, जिससे वह आंदोलन वास्तव में क्रांतिकारी स्वरूप ग्रहण कर लेता।
इसके विपरीत यह हकीकत है कि उस आंदोलन ने सांप्रदायिक-फासीवादी ताकतों को नई राजनीतिक प्रतिष्ठा दी। १९९० के दशक में ये ताकतें देश की सबसे प्रमुख राजनीतिक शक्ति बन गईँ, हालांकि यह विवादास्पद है कि इसके पीछे १९७४ के आंदोलन से मिली प्रतिष्ठा की कितनी बड़ी भूमिका है। यह कहा जा सकता है कि उसके बाद इन ताकतों के उभार को रोकने में देश की धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशाली ताकतें नाकाम रहीं औऱ इसकी जिम्मेदारी जेपी या जेपी आंदोलन पर नहीं डाली जा सकती। यह भी कहा जा सकता है कि इन ताकतों को राजनीतिक स्वीकृति १९६७ के बाद संविद सरकारों के दौर में ही मिल गई थी, जनसंघ के साथ मिलकर विभिन्न दलों ने साझा सरकारें बनाईँ। लेकिन बात यहां जेपी आंदोलन की हो रही है, जिसने अपना लक्ष्य संपूर्ण क्रांति घोषित किया था। सवाल यह है कि क्या जिस आंदोलन में सांप्रदायिक, दक्षिणपंथी और कई भ्रष्ट ताकतें शामिल हों, वह ऐसे लक्ष्य से प्रेरित आंदोलन कहा जा सकता है? जेपी आंदोलन ने बात की संसदीय लोकतंत्र से आगे जाने की, लेकिन परिणाम संसदीय लोकतंत्र के भटकाव के रूप में सामने आया। बात वास्तविक जनतंत्र कायम करने की हुई, लेकिन ये दावे भारतीय समाज विकासक्रम के जिस पर स्तर पर था, उसकी अनदेखी करते हुए की गई। आंदोलन ने न तो अपने मकसदों को पाने के लिए कोई दीर्घकालिक रणनीति पेश की औऱ न ही ऐसी कार्यनीति, जो उसके उद्देश्यों से मेल खाती हो। अपने अंतिम परिणाम में यह उस समय के विपक्षी दलों की गोलबंदी का एक माध्यम बन गया, जिनका एकमात्र उद्देश्य कांग्रेस की सत्ता खत्म कर खुद सत्ता में आना था। धीरे-धीरे ये दल ही प्रमुख होते गए और जिन छात्रों ने आंदोलन की शुरुआत की थी और जो उसका मुख्य आधार थे, वे या तो इन दलों में समा गए या फिर अप्रसांगिक हो गए।
इस पूरे परिदृश्य को ध्यान में रखें तो बिहार आंदोलन भारतीय राष्ट्र की उस धारणा पर एक क्षेपक लगता है, जो स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान जन्मी और जिसे गांधी-नेहरू के नेतृत्व में मूर्त रूप दिया गया। इसके बावजूद इस आंदोलन के कुछ महत्त्वपूर्ण सबक हैं। सबसे पहला यह कि लोकतंत्र में आंदोलन ऐसे नहीं होने चाहिए, जिनकी मांगें सुपरिभाषित नहीं हो। ऐसे आंदोलन उथल-पुथल का जरिया ज्यादा बन जाते हैं। दूसरा सबक यह है कि आंदोलन में कौन सहयात्री है, इस पर जरूर गौर किया जाना चाहिए। अगर आंदोलन की सभी ताकतें सहमना नहीं हैं, तो न सिर्फ आंदोलन की विफलता तय है, बल्कि आंदोलन अपने घोषित मकसद से विपरीत परिणाम भी दे सकता है। तीसरा सबक यह है कि आंदोलन का उद्देश्य व्यापक ऐतिहासिक दृष्टि के साथ ही तय होना चाहिए। फौरी मकसद कई बार अहम होते हैं, लेकिन ये मकसद संपूर्ण ऐतिहासिक समझ से अलग नहीं हो सकते। इसके अलावा एक और सबक यह है कि किसी आंदोलन में शामिल रहे लोगों और जमातों में इतनी अंतर्दृष्टि और विवेक हमेशा जरूर रहना चाहिए कि वे उस आंदोलन का सही मूल्यांकन कर सकें। सिर्फ इसलिए कि वे उसमें शामिल रहे, उसका बचाव करते रहने की जरूरत नहीं है। बल्कि यह आंदोलन और अपने उद्देश्य के प्रति एक कर्त्तव्य है कि बाद के दौर में जो अनुभव हुए और जो कुछ सीखा गया, उसकी रोशनी में अपने अतीत पर विचार किया जाए।
Tuesday, February 5, 2008
सांप्रदायिक फासीवाद का गहराता साया
गुजरात और हिमाचल प्रदेश विधानसभाओं के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की भारी जीत के बाद देश भर के समाचार माध्यमों और आम चर्चा में यह धारणा मजबूत हो गई है कि भाजपा अब केंद्र की सत्ता में लौटने को तैयार है। २००७ के मध्य में उत्तर प्रदेश चुनाव में भाजपा की बुरी हार के बाद जो दिल्ली उसके लिए दूर बताई जा रही थी, वह अब उसकी पहुंच में होने की बात जोर-शोर से कही जा रही है। इस अनुमान को समाचार माध्यमों और आम चर्चा पर फौरी माहौल का असर माना जा सकता है। यह कहा जा सकता है कि इन चर्चाओं में समाज की गहरी समझ और दीर्घकालिक दृष्टि नहीं झलकती, इसलिए यादाश्त में जो बात ताजा होती है, उसके आधार पर निष्कर्ष बता दिए जाते हैं। इसीलिए २००५ और २००६ में जब भाजपा कई राज्यों में हारी और नेतृत्व के अंदरूनी संकट से ग्रस्त थी, तब उसे या कम से कम केंद्र की सत्ता में आने की उसकी संभावना को खत्म मान लिया गया था। लेकिन २००७ में पहले पंजाब और उत्तराखंड में और फिर हिमाचल प्रदेश में एंटी इन्कंबेसी लहर के जरिए भाजपा के चुनाव जीतने तथा गुजरात में एक बार फिर मोदी ब्रांड की राजनीति की कामयाबी की बदौलत केंद्र में उसकी वापसी तय बताई जा रही है।
बहरहाल, अगर हम इन माध्यमों के निष्कर्षों को छोड़ दें और देश के राजनीतिक समीकरणों पर पूरी गंभीरता से गौर करें तब भी इस मौके पर हम शायद ऐसे ही निष्कर्ष पर पहुंचेंगे। शायद यह कहना जल्दबाजी है कि भाजपा का २००९ के आम चुनाव में जीतना तय है। शायद यह बात भी अति उत्साह में ही कही जा सकती है कि कांग्रेस के सारे पत्ते नाकाम हो गए हैं, इसलिए वह २००४ जैसा करिश्मा नहीं दोहरा सकती। लेकिन इस बात में कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि अगले आम चुनाव में भाजपा और उसके साथी दल एक मजबूत चुनौती और यहां तक कि केंद्र की सत्ता पर अपनी मजबूत दावेदारी भी पेश करेंगे। वैसे हकीकत यह है कि अगर देश के सामाजिक समीकरणों को ध्यान में रखा जाए तो असल में यह चुनौती कभी उतनी कमजोर नहीं हुई थी, जितना समाचार माध्यमों ने बताया और आम चर्चा में जिसे मान लिया गया। भारतीय समाज में विभिन्न हितों का अभी जैसा ध्रुवीकरण है, उसके बीच दक्षिणपंथी-सांप्रदायिकता एक मजबूत शक्ति है औऱ इसकी ताकत को धर्मनिरपेक्ष ताकतें सिर्फ अपने को जोखिम में डाल कर ही नजरअंदाज कर सकती हैं। अगर बात गुजरात से ही शुरू की जाए तो इस बात शायद बेहतर ढंग से समझा जा सकता है। गुजरात में भाजपा १९९५ से लेकर २००२ तक लगातार तीन चुनाव जीत चुकी थी, इसलिए इस बार यह अनुमान लगाया गया कि एंटी इन्कंबेंसी का वहां शायद असर हो और भाजपा को हार का मुंह देखना पड़े। २००४ के लोकसभा चुनाव के नतीजे भी इस तरफ इशारा कर रहे थे। २००२ के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने वहां १८२ में से १२७ सीटें जीतीं, जबकि २००४ के लोकसभा चुनाव वह राज्य की २६ में से १२ सीटों पर हार गई। बल्कि अगर उन नतीजों को विधानसभा सीटों में तब्दील कर देखा जाए तो ९१ यानी ठीक ५० फीसदी सीटों पर तब राज्य में कांग्रेस ने बढ़त हासिल की। इसलिए यह अनुमान लगाने का ठोस आधार था कि गोधरा और गुजरात दंगों का माहौल ठंडा होने के बाद राज्य में सामान्य राजनीतिक स्थिति बहाल हो गई है और इस हालत में होने वाले चुनाव में सामान्य तर्कों के आधार पर भाजपा की जीत नहीं होनी चाहिए। कई सामाजिक वर्गों- खासकर पटेल और कोली समुदाय में भाजपा से नाराजगी की लगातार मीडिया में आई खबरों ने ऐसे अनुमान के पक्ष में और भी भरोसा पैदा किया। आज के समय में पटेल समुदाय का सबसे बड़ा नेता बताए जाने वाले केशुभाई पटेल की नरेंद्र मोदी से नाराजगी की खबरों ने यह माहौल बनाया कि गुजरात में जो समुदाय १९८० के दशक से भाजपा की रीढ़ है, इस बार वही खिसक सकता है और ऐसे में नरेंद्र मोदी की सत्ता में वापसी मुश्किल है।
मगर गुजरात के चुनाव नतीजों ने यह जाहिर किया कि किसी समुदाय के अपने वर्गीय और जातीय रुझान किसी एक नेता की इच्छा औऱ अनिच्छाओं से ज्यादा मजबूत होते हैं। पटेलों के सामने जब अपने एक नेता की इज्जत और जातीय हित के बीच चुनाव का सवाल आया तो उन्होंने जातीय हित को ज्यादा तरजीह दी। पटेलों को उस कांग्रेस को न जिताने में ही अपना हित दिखा जो क्षत्रिय-दलित-आदिवासी-मुस्लिम के सामाजिक गठबंधन को फिर से खड़ा करने की कोशिश में थी। वह गठबंधन जिसकी वजह से उनके सामाजिक औऱ राजनीतिक वर्चस्व को एक जमाने में चुनौती मिली थी।
गुजरात के चुनाव नतीजों से यही संदेश मिला कि सामाजिक समीकरण और गठबंधन लंबी प्रक्रिया से तय होते हैं। फौरी राजनीतिक वजहों से इनमें बदलाव की उम्मीद करना महज एक सदिच्छा ही हो सकती है। गुजरात में भाजपा का शहरी मध्य वर्गीय आधार न सिर्फ बना रहा बल्कि इसके और मजबूत होने के भी संकेत मिले। सामाजिक समीकरण के राजनीतिक परिणाम की मिसाल राज्य में आदिवासी वोटों में दिखी। इस बार बड़ी संख्या में आदिवासी मतदाता कांग्रेस की तरफ लौटे। आदिवासी २००२ के दंगों के बाद भाजपा खेमे में चले गए थे, लेकिन वहां पटेल और कुछ ओबीसी जातियों के वर्चस्व के बीच उनके लिए टिकाऊ जगह नहीं बन पाई।
अगर गुजरात के राजनीतिक संदेश को सारे देश पर फैला कर देखा जाए तो यह सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि अगले आम चुनाव या उसके पहले होने वाले कई राज्यों के विधानसभा चुनावों में भी दक्षिणपंथी-सांप्रदायिक शक्तियों का एक मजबूत ध्रुवीकरण देखने को मिलेगा। सवर्ण जातियां, शहरी मध्य वर्ग, धार्मिक कट्टरपंथी ताकतें औऱ उनके प्रभाव में आने वाले असंख्य अवसरविहीन लोग एक ऐसा सामाजिक आधार पर तैयार करते हैं, जिसके बूते भाजपा चुनावी सफलता की सीढ़ियां चढ़ सकती है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि पार्टी में नेतृत्व का कोई अंदरूनी संकट है या नहीं, या पार्टी का नेता कौन है, या पार्टी कैसा कार्यक्रम लेकर चुनावी मैदान में उतरती है।
भारतीय समाज में अभी मुख्य अंतर्विरोध लोकतंत्र के उत्तरोत्तर आगे बढ़ने की परिघटना और लोकतंत्र को पलटने (जिसे हम काउंटर रिवोल्यूशन कह सकते हैं) की कोशिशों के बीच है। इस अंतर्विरोध को समझे बगैर काउंटर रिवोल्यूशन यानी प्रति-क्रांति ताकतों से संघर्ष की कोई माकूल रणनीति नहीं बनाई जा सकती। लोकतंत्र के आगे बढ़ने की परिघटना से सदियों से दबे और शोषित रहे तबके अब अपना अधिकार और सम्मान मांग रहे हैं। इससे सदियों से समाज पर दबदबा रखने वाले समूहों का वर्चस्व खतरे में पड़ रहा है। इसकी प्रतिक्रिया में ये समूह एकजुट हो रहे हैं औऱ दक्षिणपंथी-सांप्रदायिक विचारों के तहत राजनीतिक रूप से गोलबंद हो रहे हैं। .ये समूह ही भाजपा, एनडीए में उसके साथी दलों और संघ परिवार की ताकत हैं औऱ इनके असर को कम करके नहीं आंका जा सकता।
दूसरी तरफ लोकतांत्रिक संघर्ष से जो ताकतें उभर रही हैं, उनमें राजनीतिक तालमेल का घोर अभाव है। इसकी एक मिसाल बहुजन समाज पार्टी है, जो आज दलितों की आकांक्षाओं की नुमाइंदगी कर रही है। लेकिन बसपा नेता मायावती सांप्रदायिक फासीवाद की चुनौती से बेखबर नजर आती हैं औऱ फिलहाल उनका एकमात्र एजेंडा कांग्रेस को नुकसान पहुंचा कर उसकी राजनीति जगह पर काबिज होना लगता है। इस प्रक्रिया में कांग्रेस के आधार में वे सेंध लगा रही हैं, जिससे भले बसपा न जीत सके, लेकिन कांग्रेस की हार जरूर तय हो जाती है। पिछले साल दिल्ली नगर निगम के चुनाव में बसपा की यह भूमिका भाजपा की भारी जीत की मुख्य वजह रही। हाल के हिमाचल प्रदेश के चुनाव में भी बसपा का यह असर देखने को मिला। अगले चुनावों में कई राज्यों में यह कहानी दोहराई जा सकती है।
वैसे कांग्रेस के सामने सबसे गंभीर समस्या वह खुद है। २००४ में उसे फिर से अपनी तलाश करने का जो ऐतिहासिक मौका मिला, उसे उसने गवां दिया है। पिछले चार साल में पार्टी दलित, आदिवासी, कमजोर वर्गों और गरीबों से खुद को जोड़ने में नाकाम रही है। जबकि यही वो सामाजिक आधार है, जिसकी बदौलत भारतीय राजनीति में वह अपनी जगह बनाए रख सकती है। इसके बजाय कांग्रेस पार्टी ने भ्रमित प्राथमिकताओं को ज्यादा अहमियत दी। अमेरिका से परमाणु करार में उसने अपनी जितनी ऊर्जा लगाई, अगर रोजगार गारंटी कानून, आदिवासी और अन्य वनवासी अधिकार कानून, सूचना का अधिकार कानूनों पर अमल, औऱ कृषि क्षेत्र की समस्याओं को दूर करने एवं सार्वजनिक क्षेत्र को दोबारा खड़ा करने की कोशिशों में भी उतनी ही ऊर्जा लगाती होती तो आज शायद कहानी कुछ और होती। दरअसल, मनमोहन सिंह सरकार ने आम जन के हित में जो काम किए भी अपनी वैचारिक दुविधा से कांग्रेस ने उसका राजनीतिक लाभ लेने के मौके गंवा दिए। उधर मनमोहन सिंह की मार्केट समर्थक छवि भी मध्य वर्ग को कांग्रेस की तरफ खींचने में नाकाम रही। अगर आज भाजपा आक्रामक और कांग्रेस एवं उसके साथी दल रक्षात्मक रुख अपनाए नजर आते हैं तो इसकी असली वजह यही है।
जबकि हकीकत यही है कि आज भी देश में धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र के कायम रखने के लिहाज से कांग्रेस की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। उसने क्षेत्रीय दलों से चुनावी गठबंधन कर और वामपंथी दलों से राजनीतिक तालमेल बना कर २००४ में यह भूमिका बखूबी निभाई थी। लेकिन उसके बाद धर्मनिरपेक्ष को राजनीति को प्रगतिशील एवं जनतांत्रिक स्वरूप देने में वह नाकाम रही।
हमने यूपीए सरकार से पहले छह साल तक सांप्रदायिक शासन का नजारा देखा। उस दौर में राजनीतिक और सामाजिक उत्पीड़न बढ़ने की जैसी मिसालें देखने को मिलीं,बौद्धिक आजादी पर जैसा पहरा रहा, राष्ट्रीय एजेंडे से जन हित के मुद्दे जैसे गायब नजर आए- या अगर एक शब्द में कहें तो धर्मनिरपेक्ष- लोकतंत्र को पलटने की कोशिशें जैसी कामयाब होती नजर आईं, उसे देखते हुए मौजूदा राजनीतिक माहौल के चिंताजनक पहलुओं को समझा जा सकता है। लेकिन हकीकत यही है कि राजनीति में सांप्रदायिकता का कोई क्विक फिक्स जवाब नहीं होता। इसका मुकाबला धर्मनिरपेक्ष औऱ प्रगतिशील ताकतों के दीर्घकालिक एवं प्रतिबद्ध सहयोग और साफ कार्यक्रम एवं एजेंडे के साथ ही किया जा सकता है। इस बात से शायद खुद कांग्रेस नेता भी इनकार नहीं कर सकते कि ऐसा संघर्ष उनकी पार्टी ने नहीं किया है। नतीजा यह है कि २००४ में जिस माहौल से देश बड़ी मुश्किल से निकला था, राजनीतिक क्षितिज पर माहौल फिर से गहराता लग रहा है।
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