Tuesday, April 15, 2008
अब पहले खाने के बारे में सोचिए!
सत्येंद्र रंजन
दुनिया जिस समय विकास के एक नए स्तर पर पहुंची मानी जा रही है और ये मान लिया गया था कि अब इंसान की बुनियादी समस्याएं देर सबेर हल हो जाएंगी, उसी समय मानव समाज को सबसे बुनियादी समस्या ने घेर लिया है। समस्या खाने की है। अनाज का गहरा संकट सारी दुनिया में पैदा हो गया है और उसका सीधा असर लगभग हर समाज पर पड़ रहा है। जाहिर है, हर मसले की तरह इस संकट का भी सबसे बुरा असर गरीबों पर पड़ रहा है। विश्व बैंक का अनुमान है कि अगर इस समस्या का जल्द हल नहीं निकला तो निम्न मध्य वर्ग के दस करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे चले जाएंगे। लेकिन सवाल है कि आखिर ये हल कैसे निकलेगा? क्या दुनिया भर की सरकारें इसके लिए जरूरी संकल्प दिखाएंगी?
बहरहाल, किसी समाधान पर चर्चा के पहले समझने की सबसे जरूरी बात यह है कि आखिर ये समस्या पैदा क्यों हुई? बीसवीं सदी में खेतों की पैदावार बढ़ाने की नई तकनीक सामने आई, जिससे भूख पर विजय की वास्तविक संभावनाएं पैदा हुईं। खेती में उत्पादकता में भारी बढ़ोतरी ने आबादी बढ़ने के बावजूद अतिरिक्त अनाज की उपलब्धता को संभव बनाया। लेकिन २१वीं सदी के पहले दशक में मानव समाज की वह उपलब्धि कहीं खोती नज़र आ रही है। आखिर ऐसा क्यों हुआ? स्पष्टतः इसकी इंसानी और आसमानी दोनों वजहें हैं, लेकिन इंसानी वजहें ज्यादा हैं और ये वजहें तब तक दूर नहीं होंगी, जब तक सरकारों की नीतियों और प्रभावशाली तबकों की सोच में बुनियादी बदलाव नहीं आता है।
पहले इस संकट के आसमानी यानी कुदरती वजहों पर गौर करते हैं। हालांकि इसमें एक खास पहलू यह है कि आसमानी वजहों के पीछे भी एक हद तक इंसान का ही हाथ है। अभी दुनिया को जिस खाद्य संकट का सामना करना पड़ रहा है, उसके पीछे एक कारण ऑस्ट्रेलिया में पिछले दो साल से पड़ रहा अकाल है। ऑस्ट्रेलिया दुनिया में गेहूं का दूसरा सबसे बड़ा निर्यातक है। वहां से निर्यात न हो पाने की वजह से विश्व बाजार में गेहूं की भारी कमी हो गई है। मलेशिया और फिलीपीन्स जैसे पूर्वी एशियाई देशों में चावल की पैदावार घटने से ऐसी ही स्थिति चावल को लेकर बनी है।
लेकिन कुदरत की मार पर आसानी से काबू पाया जा सकता था, अगर अमेरिका और लैटिन अमेरिका के कुछ देशों में अनाज की खेती के लिए उतनी जमीन मौजूद रहती जितनी अभी हाल तक रहती थी और वहां अनाज का इस्तेमाल खाने के बजाय दूसरे मकसद के लिए नहीं होता। दरअसल, कच्चे तेल के बढते दाम और तेल के भंडार खत्म होने के अंदेशे की वजह से अमेरिका जैसे देशों ने जैव-ईंधन पर जोर देना शुरू कर दिया है। वहां मक्के और गन्ने की खेती ज्यादा जमीन पर की जाने लगी है और इन फसलों का इस्तेमाल इथोनेल जैसे बायो-फ्यूयल यानी जैव ईंधन बनाने के लिए होने लगा है। अमेरिका और ब्राजील जैसे देशों की सरकारें जैव ईंधन के लिए काम आने वाली फसलों की खेती के लिए सब्सिडी दे रही हैं और किसानों को इसकी खेती में ज्यादा फायदा नज़र आ रहा है। इससे खाने के अनाज के लिए उपलब्ध जमीन और अनाज की मात्रा दोनों घट रही है। इससे विश्व बाजार में अनाज की कमी हो गई है और उसकी कीमत बढ़ रही है।
भारत जैसे बडी आबादी वाले देश में जहां अनाज की आत्म-निर्भरता महज तकनीकी तौर पर ही हासिल की जा सकी थी, हाल के वर्षों में अनाज के बजाय कपास और ऐसी दूसरी फसलों की खेती का चलन बढता गया है, जिसे बाजार में बेच कर पैसा कमाया जा सके। किसान ऐसी खेती करने पर इसलिए मजबूर होते हैं, क्योंकि अनाज का उन्हें भरपूर दाम नहीं मिलता और अनाज उपजाने वाले किसान गरीबी में दम तोड़ते रहते हैं। दुर्भाग्य यह है कि बिक्री के लिए उपजाई जाने वाली गैर अनाज फसल में नुकसान होने का अंदेशा सामान्य से ज्यादा रहता है और इसीलिए विदर्भ जैसे इलाके में किसान सबसे गहरे संकट में हैं। लेकिन इस अनुभव से कोई सबक लेने के बजाय अब भारत भी जैव ईंधन की दौड़ में शामिल होने को तैयार होता दिख रहा है। इसके लिए ऐसी नीति का खाका तैयार कर लिया गया है और खबर है कि मई के आखिर तक कृषि मंत्री शरद पवार की अध्यक्षता वाली मंत्रियों की एक समिति इसे अंतिम रूप देने वाली है। इस खाके मुताबिक २०१७ तक देश की परिवहन ईंधन की कुल जरूरत का दस फीसदी जैव ईंधन से हासिल करने का लक्ष्य रखा गया है। इसके लिए एक करोड़ २० लाख हेक्टेयर में जैव ईंधन तैयार करने में काम आने वाली फसलें उपजाई जाएंगी। गौरतलब है कि देश में बायो डीजल तैयार करने पर पहले ही काम शुरू हो चुका है। आंध्र प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में इसके लिए छह लाख एकड़ जमीन पर एक खास पौधे की खेती की जा रही है।
जाहिर है, खाद्य संकट का सीधा रिश्ता अब तेल से जुड़ गया है। ऐसे में इसमें कोई हैरत की कोई बात नहीं कि तेल और अनाज की महंगाई साथ-साथ दुनिया को झेलनी पड़ रही है। विश्व बाजार में कच्चे तेल का भाव ११० डॉलर प्रति बैरल की सीमा को लांघ चुका है। तेल का दाम बढ़ने से परिवहन महंगा होता है, उससे अनाज की आपूर्ति महंगी होती है। उधर धनी-मानी तबकों की जीवन शैली महंगी होती है और उनमें भविष्य में ऊर्जा की उपलब्धता को लेकर आशंकाएं पैदा होती है। इससे वे विकल्प की तलाश में जुटते हैं और उन्होंने एक विकल्प जैव ईंधन के रूप में चुना है। इस दुश्चक्र से दुनिया भर के गरीबों के मुंह से आहार छीने जाने की हालत पैदा हो गई है।
अगर सिर्फ भारत के आंकड़ों पर गौर करें तो यहां गेहूं, मोटे अनाज, दलहन और तिलहन की खेती वाली जमीन में लगातार गिरावट आ रही है। मसलन, पिछले साल देश में दो करोड़ ८२ लाख १४ हजार हेक्टेयर जमीन पर गेहूं की खेती हुई थी, तो इस साल यह खेती सिर्फ दो करोड़ ७७ लाख ४८ हजार हेक्टेयर जमीन पर हुई है। मोटे अनाजों की पिछले साल ७० लाख ५७ हजार हेक्टेयर जमीन पर खेती हुई थी, जो इस साल ६८ लाख १६ हजार हेक्टेयर रह गई है। यही हाल दालों और तिलहन का भी है। साफ है कि अनाज की पैदावार देश की कृषि नीति में प्राथमिकता नहीं रह गई है, औऱ इसका नतीजा अब सामने आने लगा है।
लेकिन अनाज संकट की वजहें यहीं तक सीमित नहीं हैं। इसका संबंध बिगड़ते जलवायु और विकासशील देशों में खान-पान की बदलती आदतों से भी है। धरती के बढ़ते तापमान के साथ बारिश का चक्र बिगड़ गया है और इससे कहीं ज्यादा बारिश, तो कहीं सूखा पड़ने की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। उधर समुद्र में जलस्तर बढ़ने से कई तटीय इलाकों के डूबने का खतर बढ़ता जा रहा है। इससे भी खेती की काफी जमीन इनसान के हाथ से निकल सकती है। जानकारों के मुताबिक ऑस्ट्रेलिया में पड़े अकाल के पीछे जलवायु परिवर्तन की खास भूमिका है। चीन, भारत और कई दूसरे विकासशील देशों में तेजी से औद्योगिक विकास ने जलवायु परिवर्तन की वह रफ्तार तेज कर दी है, जो पहले ही पश्चिम की उपभोक्तावादी जीवनशैली की वजह से खतरनाक रूप ले रही थी। इन देशों में औद्योगिक विकास का एक और परिणाम यहां के धनी तबकों में पश्चिमी ढंग की जीवनशैली का प्रसार है। क्रयशक्ति में इजाफे और उपभोग की बढ़ती प्रवृत्ति के साथ इन देशों में अनाज की खपत भी तेजी से बढ़ी है। मसलन, अब लोग यहां मांसाहार ज्यादा करने लगे हैं। जानकारों के मुताबिक १०० कैलोरी के बराबर बीफ (गोमांस) तैयार करने के लिए ७०० कैलोरी के बराबर का अनाज खर्च करना पड़ता है। इसी तरह बकरे या मुर्गियों के पालन में जितना अनाज खर्च होता है, उतना अनाज अगर सीधे खाना हो तो वह कहीं ज्यादा लोगों को उपलब्ध हो सकता है।
ऊर्जा की बढ़ती मांग और बढ़ते उपभोग के साथ-साथ बढ़ती आबादी ने संकट में एक नया आयाम जोड़ दिया है। खासकर एशिया के देशों में आबादी के स्थिर होने का लक्ष्य अभी दूर की बात है। इस बीच एक बार फिर यह हालत पैदा हो गई है कि आबादी में इजाफे की दर अनाज की पैदावार बढ़ने की दर से आगे निकल गई है। ऐसे में अनाज की किल्लत एक स्वाभाविक परिघटना है। बहरहाल, अब उम्मीद की एक वजह यही नजर आती है कि भले ही देर से लेकिन अब सरकारें इस संकट के प्रति जागरूक होती लग रही हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का जैव ईंधन के लिए अनाज की जमीन के इस्तेमाल के खिलाफ चेतावनी देना इस बात का प्रमाण है कि आम तौर पर उद्योग जगत के हितों को तरजीह देने वाले नेता भी अब यह समझने लगे हैं कि अगर पर्याप्त अनाज उपलब्ध नहीं रहा तो औद्योगिक सभ्यता की जड़ें भी हिल जाएंगी। इसके अलावा लोकतांत्रिक समाजों के बढ़ते दायरे के साथ अब आम जन की बुनियादी समस्याओं से बिल्कुल मुंह मोड़े रखना सरकारों के लिए मुमकिन नहीं रह गया है। विश्व बैंक जैसी अंतराष्ट्रीय पूंजी की हितैषी संस्था का भी खाद्य संकट को लेकर चिंतित होना यह बताता है कि इस संकट ने आखिरकार सभी स्तरों पर हलचल पैदा की है।
लेकिन क्या हलचल वास्तव में नीतियों में किसी आमूल बदलाव की शुरुआत कर सकेगी, इस वक्त यह सबसे बड़ा सवाल है। इसलिए कि ये ऐसी समस्या नहीं है जो कुछ फ़ौरी कदमों से हल कर ली जाए। इसके लिए सोच में बड़े बदलाव की जरूरत है। यह समझने की जरूरत है कि दुनिया चाहे विकास की जिस मंजिल पर पहुंच जाए, खेती उसकी बुनियादी आवश्यकता बनी रहेगी। बिना भोजन किए न तो अंतरिक्ष की यात्रा की जा सकती है और न इंटरनेट और सूचना तकनीक के जरिए सारी दुनिया से जुड़े रहने का आनंद लिया जा सकता है। इसलिए खेती और किसानों को सम्मान देना, किसानों की मेहनत का पूरा दाम देना और उन्हें विज्ञान एवं तकनीक के विकास से उपलब्ध हर सुख-सुविधा मुहैया कराना हर विकास नीति के केंद्र में होना चाहिए।
खासकर यह संकट भारत जैसे विशाल आबादी वाले देश के लिए एक बड़ा सबक है। जिस देश में खाने के लिए एक अरब दस करोड़ मुंह हों, वहां खेती की अनदेखी सिर्फ विनाश को निमंत्रण देते हुए ही की जा सकती है। मुख्य रूप से उस समय जब विश्व बाजार से अनाज के आयात का विकल्प बेहद संकुचित होता जा रहा है। इस मौके पर १९६० के दशक में सीखा गया वो सबक सबको जरूर याद कर लेना चाहिए कि अगर देश की संप्रभुता कायम रखनी है और देश को स्वाभिमान के साथ दुनिया में खड़ा रहना है तो अनाज पैदावार में आत्मनिर्भरता उसकी बुनियादी शर्त है। तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने 'जय किसान' का जो नारा दिया था, उसकी अहमियत आज एक बार फिर समझे जाने की जरूरत है।
इसके साथ ही देश के राजनेता अगर कई देशों के हाल के घटनाक्रम पर गौर करें और उससे जरूरी सबक लें तो वे अपने देश के साथ-साथ अपना भी कुछ भला कर सकते हैं। हैती में अनाज की महंगाई की वजह से भड़के दंगों पर पुलिस फायरिंग के बाद आखिरकार वहां के प्रधानमंत्री को इस्तीफा देना पड़ा है। उधर मिस्र, कैमरून, सेनेगल, बर्किना फासो के साथ-साथ अपने पड़ोसी बांग्लादेश में भी अनाज के लिए दंगों की खबरें मिली हैं। अर्जेंटीना में इस खतरे से जागी वामपंथी सरकार ने अनाज के निर्यात पर पाबंदी लगा दी तो इस संकट में अपनी उपज से ज्यादा पैसा कमाने की उम्मीद लगाए बड़े किसानों के विरोध प्रदर्शनों का उसे सामना करना पड़ा।
फिलहाल भारत में महंगाई का खूब शोर है। विपक्ष के लिए सरकार पर हमला बोलने का यह एक असरदार मुद्दा है। कॉपोरेट मीडिया के पास जन हितैषी का लाबादा ओढ़ने का इससे मौका मिला है। इसका सकारात्मक पक्ष यह है कि इससे सरकार दबाव में आई है और वह महंगाई रोकने के कुछ कदम उठाने को मजबूर हुई है। लेकिन इस सारी चर्चा में संकट की असली गंभीरता, उससे जुड़े तथ्य और उसके व्यापक आयाम गायब हैं। जरूरत इन सभी पहलुओं पर सभी संभव नजरिए से विचार करने और समाधान के कदम उठाने की है। इसमें सबकी बराबर की जिम्मेदारी है। और सबके लिए आजादी के तुरंत बाद कहा और उसके बाद सैकड़ों बार दोहराया गया जवाहर लाल नेहरू का यह कथन सर्वाधिक प्रासंगिक हो गया है कि फिलहाल बाकी सब कुछ इंतजार कर सकता है, लेकिन कृषि नहीं। उसके बारे में तुरंत सोच बदले जाने और कदम उठाने की जरूरत है।
Saturday, April 5, 2008
कितना कारगर है ये नुस्खा?
सत्येंद्र रंजन
पहले भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और फिर मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महाअधिवेशन से वामपंथी राजनीति और रणनीति के मुद्दे बेहतर ढंग से उभर कर सामने आए हैं। जाहिर है, बड़ी और ज्यादा जवाबदेह पार्टी होने के नाते माकपा ने इन मुद्दों पर अपनी समझ को ज्यादा ठोस ढंग से व्यक्त किया। तीन साल पर होने वाले इन सम्मेलनों में दोनों पार्टियों ने अपनी सांगठनिक स्थिति, अपने सामने मौजूद चुनौतियों और अपने भावी लक्ष्यों पर भी विचार-विमर्श किया, लेकिन एक आम नागरिक की ज्यादा दिलचस्पी उन मुद्दों में है, जिनका देश की राजनीति पर आने वाले समय में असर हो सकता है। इस लिहाज से दोनों पार्टियों की मोटे तौर पर तीन कार्यनीति और रणनीतियों पर हम गौर कर सकते हैं।
माकपा ने अपनी उन्नीसवीं पार्टी कांग्रेस की समाप्ति के साथ यह साफ किया कि आज के राजनीतिक संदर्भ में उसके तीन खास मकसद हैं- नव उदारवादी आर्थिक नीतियों का विरोध, भारत को अमेरिकी सामरिक परियोजना में जूनियर पार्टनर बनने से रोकना और भारतीय जनता पार्टी को केंद्र की सत्ता में दोबारा न आने देना। पार्टी ने अपनी ज्यादातर कार्यनीति और रणनीतियां इन्हीं तीन मकसदों से बनाई औऱ उनका एलान किया है। इनमें पहले दो मकसद दीर्घकालिक हैं, और उनके लिए लंबे संघर्ष की जरूरत है। जबकि तीसरा मकसद फौरी है और पार्टी की इस कार्यनीति का इम्तिहान एक साल के अंदर ही होने वाला है।
नव-उदारवाद दुनिया भर में जारी एक परिघटना है, जिसकी वैचारिक और राजनीति जमीन पिछली आधी सदी से ज्यादा समय में बहुराष्ट्रीय पूंजी की सक्रिय कोशशों से तैयार हुई है। करीब दो दशक पहले सोवियत खेमे के दुनिया के नक्शे से गायब हो जाने से इस परिघटना के रास्ते में मौजूद सबसे बड़ी रुकावट खत्म हो गई औऱ उसके बाद से यह तेजी से आगे बढ़ी है। भारत के भीतर धनी और खासकर कॉरपोरेट हितों से जुड़े समूहों और शक्तियों ने इस आर्थिक-राजनीतिक विचार और इससे जुड़ी नीतियों के पक्ष में माहौल बनाने में पूरी ताकत झोंक रखी है। नतीजा यह हुआ है कि दक्षिणपंथ से लेकर मध्यमार्गी राजनीतिक दलों में इन नीतियों पर आज आम सहमति नजर आती है।
दरअसल, अमेरिकी साम्राज्यवाद के पक्ष में भारतीय विदेश नीति का झुकना नव-उदारवादी राजनीतिक परिघटना का ही एक परिणाम है। यह स्वाभाविक ही है कि जो राजनीतिक ताकतें देश के अंदर गरीब औऱ कमजोर तबकों को बेलगाम पूंजीवाद की मर्जी पर छोड़ने की दलील स्वीकार कर लें, वे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खुद को उस शक्ति के साथ जोड़ें, जो इस दलील को दुनिया भर में थोपने की कोशिश कर रही है। इसलिए इसमें कोई हैरत की बात नहीं है कि कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार विदेश नीति के मामले में उसी रास्ते पर चलने को उतावली नजर आई है, जिस पर भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार चली थी। यह दरअसल, देश के धनी और प्रभुत्वशाली तबकों का दुनिया के ऐसे ही समूहों के साथ अपने हित और अपनी आकांक्षाएं जोड़ने की परिघटना है, जिसे इस देश के जनतांत्रिक और प्रगतिशील समूहों को जरूर समझना चाहिए। इसीलिए नव-उदारवाद का विरोध और स्वतंत्र विदेश नीति के लिए संघर्ष इस वक्त दो बेहद अहम राजनीतिक मुद्दे हैं और असल में एक दूसरे से जुड़े हुए हैं।
माकपा एवं भाकपा ने इन दोनों परिघटनाओं को चर्चा में लाकर एक तरह से अपनी जिम्मेदारी निभाई है। इसके बावजूद यह जरूर कहा जा सकता है कि इन सवालों पर लंबे संघर्ष का कोई खाका इन दोनों पार्टियों ने पेश नहीं किया है। बल्कि इसके लिए जिस तीसरे विकल्प की कार्यनीति माकपा ने पेश की है, वह समस्याओं से भरी हुई है। तीन साल पहले खुद माकपा ने कहा था कि सिर्फ चुनावी गठबंधन या चुनाव बाद के समीकरणों के लिए तीसरा मोर्चा बनाने के हक में वह नहीं है। वह ऐसे तीसरे विकल्प के पक्ष में है, जो नीतियों और कार्यक्रमों पर सहमति और साथ-साथ संघर्ष से उभरे। ऐसे तीसरे विकल्प के संकेत आज भी भारत के राजनीतिक क्षितिज पर कहीं नजर नहीं आते। लेकिन अब माकपा और भाकपा ने समाजवादी पार्टी, तेलुगू देशम पार्टी और उनके सहयोगी क्षेत्रीय दलों के साथ अपना मेल-जोल बढ़ाना शुरू कर दिया है। इसमें दिक्कत यह है कि ये दल नीति, आकांक्षा और अपने वर्ग-चरित्र में कहीं से नव-उदारवाद या साम्राज्यवाद के खिलाफ खड़े नजर नहीं आते हैं।
१९८० के दशक में जब मध्य जातियों में आधार रखने वाले और क्षेत्रीय दलों का उभार शुरू हुआ, तब यह उम्मीद जरूर की गई थी कि ये पार्टियां सामाजिक जनतंत्र को आगे बढ़ाने का जरिया बनेंगी। एक हद तक ये भूमिका इन दलों ने तब निभाई। लेकिन जल्द ही ये दिशाहीन हो गए। ये महज अपने नेताओं की व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षा का माध्यम बन कर रह गए। १९९० के दशक में इनमें से ज्यादातर दल राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय जनता पार्टी जैसी सांप्रदायिक फासीवादी पार्टी के सहयोगी बन गए। उस अनुभव से इन दलों ने कोई सबक सीखा है, ऐसा कोई संकेत नहीं है। ऐसे में इन दलों के साथ किसी तीसरे विकल्प के उभरने की उम्मीद बेबुनियाद है। ये दल फौरी राजनीतिक फायदे के लिए चंद नव उदारवादी आर्थिक नीतियों या भारत-अमेरिका असैनिक परमाणु करार जैसे विदेश नीति से जुड़े मुद्दों का विरोध कर सकते हैं, लेकिन उनका यह विरोध सैद्धांतिक या किसी राजनीतिक कार्यक्रम पर आधारित है, यह नहीं कहा जा सकता।
इसके बावजूद माकपा ने अगर इन दलों के साथ मेलजोल बढ़ाने और इनको साथ लेकर दो अहम मुद्दों पर लड़ाई को आगे बढ़ाने की बात की है, जाहिर है, इसे कोई रणनीति मानने के बजाय एक फौरी कार्यनीति ही कहा जा सकता है। यह मुमकिन है कि वामपंथी दलों की जितनी ताकत है, उसके बीच उन्हें इन अहम सवालों पर संघर्ष को आगे बढ़ाने का कोई और तरीका समझ में न आता हो। खासकर उस समय जब जन संघर्षों से जुड़ी ताकतों में आपसी होड़, ईर्ष्या भाव और एक दूसरे को नुकसान पहुंचाने का भाव इतना गहरा है कि उनके बीच एकता की कोई सूरत फिलहाल नजर नहीं आती। आज देश में भले जन संघर्ष मजबूत हो रहे हों, और समान मकसद वाले संगठनों का दायरा फैल रहा हो, लेकिन उनके बीच संवाद और सहयोग की गुंजाइश बेहद कम बनी हुई है। बल्कि इन ताकतों पर एक दूसरे को नुकसान पहुंचाने की प्रवृत्ति इतनी हावी है कि व्यापक वामपंथी, जनतांत्रिक और प्रगतिशील एकता एक सपना ही बना हुआ है। इस संदर्भ में फिर से भाकपा महासचिव चुने जाने के बाद एबी बर्धन का माओवादियों से संवाद बनाने की इच्छा जताना भले प्रशंसा के काबिल हो, लेकिन ऐसा हो सकने की कोई ठोस स्थिति फिलहाल मौजूद नहीं है। खासकर हाल के नंदीग्राम मसले के अनुभव के बाद तो ऐसी उम्मीदें औऱ दूर हो गई हैं।
वैसे भी संसदीय लोकतंत्र में उन ताकतों की अहमियत कभी कम नहीं आंकी जा सकती जो विधायिका में एक मजबूत मौजूदगी बनाने की हैसियत रखते हैं। इसलिए कथित तीसरे मोर्चे के दलों के साथ नजदीकी बढ़ाने के माकपा के फैसले का भले कोई सैद्धांतिक आधार नहीं हो, लेकिन इसे बिल्कुल अनुपयोगी नहीं कहा जा सकता। दरअसल, इसकी उपयोगिता का खुलासा करते हुए माकपा महासचिव प्रकाश करात ने यह कहा कि भाजपा की रणनीति क्षेत्रीय औऱ छोटे दलों को साथ लेकर अगले चुनाव के बाद केंद्र की सत्ता में लौटने की है। करात ने कहा कि माकपा ऐसा नहीं होने देगी औऱ इसलिए उसने भाजपा के संभावित सहयोगी दलों से संवाद और सहयोग की प्रक्रिया पहले से शुरू कर दी है। बहरहाल, अगर बात इरादे और प्रयास की हो, तो माकपा की यह कोशिश जरूर फायदेमंद मानी जा सकती है। लेकिन इसमें भी मुश्किल यही है कि तीसरे मोर्चे के नाम पर जिन दलों को इकट्ठा करने की कोशिश हो रही है, वे सत्ता का लालच सामने होने पर भी एक अलग राजनीतिक समूह के रूप में बने रहेंगे, इस पर संदेह करने की पर्याप्त वजहें हैं। १९९८ से २००४ के मध्य तक अब यूएनपीए नाम से इकट्ठा होने वाले दलों ने भाजपा के साथ जिस तरह का प्रत्यक्ष या परोक्ष सहयोग किया, वह अनुभव इस संदेह का सबसे बड़ा आधार है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ-भारतीय जनता पार्टी के सांप्रदायिक फासीवाद को आधुनिक भारतीय राष्ट्र के लिए सबसे बड़े खतरे के रूप में चिह्नित करना एक सही राजनीतिक समझ है। वामपंथी पार्टियों को इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए कि उन्होंने इस समझ को न सिर्फ सार्वजनिक रूप से व्यक्त किया है, बल्कि इसके मुताबिक भाजपा को रोकने की रणनीति पर अपनी ताकत और प्रभाव के मुताबिक अमल भी किया है। २००४ में कांग्रेस नेतृत्व वाले मोर्चे को समर्थन उनका एक अहम राजनीतिक फैसला था, जिससे देश को एक स्थिर धर्मनिरपेक्ष सरकार मिल सकी। यह सरकार अगर आम जनता के हित को सर्वोपरि मानकर चलती और मध्यमार्ग से वामपंथ तक के सहयोग को मजबूत करने की नीतियों पर अमल करती तो धर्मनिरपेक्ष जनतंत्र आज ज्यादा सुरक्षित एवं मजबूत नजर आता। लेकिन नव-उदारवादी नीतियों के वर्चस्व की वजह से यूपीए ने यह मौका काफी हद तक गंवा दिया, जिसकी कीमत उसे अपनी सरकार की अलोकप्रियता के रूप में चुकानी पड़ रही है। ऐसे में वामपंथी दलों का नई संभावनाओं की तलाश करने की मजबूरी और व्यग्रता दोनों समझती जा सकती है। इसके बावजद हकीकत यही है कि ऐसी संभावनाएं बेहद सीमित हैं औऱ देश में आज भी कांग्रेस को छोड़कर किसी धर्मनिरपेक्ष विकल्प की गुंजाइश नहीं है। बल्कि यह बात पूरे भरोसे के साथ कही जा सकती है कि अगले आम चुनाव के बाद केंद्र में या तो यूपीए जैसा प्रयोग ही दोहराया जाएगा या फिर भारतीय जनता पार्टी की अपने सहयोगी दलों के साथ सत्ता में वापसी होगी। १९९६ की तरह संयुक्त मोर्चा जैसे प्रयोग की उम्मीद आज लगभग न के बराबर है। इसलिए कि संयुक्त मोर्चा के घटक रहे ज्यादातर दल कांग्रेस या भाजपा की धुरी पर आज गोलबंद हो चुके हैं। और यह भी गौरतलब है कि १९९६ का प्रयोग भी कांग्रेस के बाहर से समर्थन से ही मुमकिन हो सका था।
ऐसे में ज्यादा व्यावहारिक नीति शायद यह लगती है कि वाम मोर्चा अपनी ताकत बरकरार रखे और अपने वैचारिक एवं रणनीति प्रभाव क्षेत्र में समाजवादी पार्टी या यूपीए में शामिल डीएमके और कुछ दूसरे दलों को लाने की कोशिश करे। अगर इन दलों की संसद में ठोस उपस्थिति रहती है, तो नव-उदारवादी नीतियों में यकीन करने वाली पार्टियों को लेकर बनी सरकार पर भी लगाम रखी जा सकती है। भारत-अमेरिका परमाणु करार को रोकने में जैसे वामपंथी दल अब तक कामयाब रहे हैं, और जैसा कि पिछले चार साल का अनुभव है, वैसे ही जन हित और देश की संप्रभुता से जुड़ी बहुत सी नीतियों पर वे अपना असर डाल सकते हैं।
भारतीय राष्ट्र अभी विकास क्रम के जिस मुकाम पर है, वहां वामपंथी नीतियों पर चलने वाली सरकार का गठन मुमकिन नहीं है। राज्य-व्यवस्था के वर्ग आधार और राजनीति को संचालित करने वाली शक्तियों के चरित्र को देखते हुए अभी सर्वाधिक वांछित विकल्प एक ऐसी मध्यमार्गी सरकार ही है, जो धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र को कायम रखने और जनतांत्रिक प्रयोगों को आगे बढ़ाने में सहायक बने। इस बीच सभी जनतांत्रिक शक्तियों के बीच संवाद और सहयोग एक ऐतिहासिक जरूरत है। लेकिन ये शक्तियां इस जरूरत से नाकिफ नजर आती हैं। उनका अपना मनोविज्ञान इसमें आड़े आता है औऱ अपनी अलग पहचान बनाए रखने के लिए उग्र नीतियां और कार्यक्रम अपनाकर वे एक ऐतिहासिक फर्ज़ के प्रति लापरवाही बरत रही हैं।
इसी परिस्थिति और संदर्भ में देश की दोनों बड़ी कम्युनिस्ट पार्टियों ने अपना आगे का एजेंडा तय किया है। इस एजेंडे में शायद नई बात कोई नहीं है। बल्कि १९९० के दशक में भारतीय जनता पार्टी के उभार और उसके देश की एक राजनीतिक धुरी बन जाने के बाद वामपंथी दलों की रणनीति और कार्यनीतियों की जो दिशा तय हुई, उसी को इन पार्टियों ने अब ज्यादा साफ किया है औऱ उस पर आगे बढ़ने का इरादा जताया है। चूंकि यूपीए सरकार के गठन से पहले सबसे बड़ी चुनौती सांप्रदायिक सरकार को सत्ता से हटाना था, इसलिए तब नव-उदारवाद और राष्ट्रीय संप्रुभता के मुद्दे वामपंथी एजेंडे में मौजूद होने के बावजूद बहुत प्रमुख नहीं थे। लेकिन यूपीए सरकार की आर्थिक और विदेश नीतियों की दिशा को देखने और उसके परिणामों का अनुभव करने के बाद अब जाहिर है, सांप्रदायिकता के विरोध के साथ-साथ ये मुद्दे भी प्रमुख होकर उभरे हैं।
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