Thursday, August 28, 2008

खेल में आगे निकलना खेल नहीं


सत्येंद्र रंजन
ओलिंपिक में चीन की सफलता से दुनिया अचंभित नजर आती है। सफलता ओलिंपिक के आयोजन में भी रही और खेलों के मुकाबलों में भी। आयोजन इतना शानदार रहा कि कहीं किसी को नुक्स निकालने का कोई मौका नहीं मिला, बल्कि इसी मकसद से बीजिंग पहुंचे बहुत से पश्चिमी मीडियाकर्मी इसकी तारीफ करते हुए वहां से वापस गए। और खेल मुकाबलों का आलम यह रहा कि चीन पदक तालिका के शिखर पर पहुंच गया। वहां इतने भारी अंतर से पहुंचा कि दूसरे नंबर पर रहे अमेरिका से १५ स्वर्ण पदकों का फासला रहा। सोवियत संघ के विखंडन के बाद पहली बार कोई देश ५० से ज्यादा स्वर्ण पदक हासिल कर पाया।

चार साल पहले एथेंस ओलिंपिक में चीन ३२ स्वर्ण पदक जीत कर अमेरिका से तीन स्वर्ण पदक पीछे रह गया था। उसके बाद यह उसकी जबरदस्त तैयारियों की ही मिसाल है कि बीजिंग ओलिंपिक शुरू होने से दो दिन पहले ही अमेरिका की ओलिंपिक समिति के अधिकारियों ने यह सार्वजनिक बयान दे दिया कि इस बार चीन उन्हें पीछे छोड़ देगा। बढ़ोतरी अमेरिका ने भी की। उसकी झोली में एक स्वर्ण पदक ज्यादा आया। लेकिन चीन ने १९ स्वर्ण पदकों का इजाफा किया। जिमानास्टिक जैसे कई खेलों, जिनमें पहले चीन का बड़ा दांव नहीं रहता था, उनमें भी इस बार चीन ने कामयाबी के झंडे गाड़े। और अब यह खुद महान तैराक मार्क स्पिट्ज का कहना है कि अगले दस साल में तैराकी में भी चीन का दबदबा कायम हो जाएगा।

चीन की इस सफलता को खासकर भारत में बड़ी हैरत और ललचाई निगाहों से देखा जा रहा है। भारत के सामने फिलहाल चुनौती २०१० के कॉमनवेल्थ खेलों के आयोजन की है, जिसकी तैयारियों पर कई संदेह हैं। इसे देखते हुए भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के उपाध्यक्ष और कांग्रेस नेता राजीव शुक्ला ने एक दिलचस्प सुझाव दिया। उन्होंने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को लिखे एक पत्र में कहा कि ओलिंपिक के बाद कई अस्थायी ढांचे तोड़ दिए जाते हैं। शुक्ला बीजिंग में तैयार उन खेल सुविधाओं से इतने प्रभावित थे कि उन्होंने प्रधानमंत्री से ऐसी पहल करने की अपील की जिससे बीजिंग के उन ढांचों को दिल्ली ले आया जाए। जहां खेलों में प्रदर्शन की बात है तो उसमें भारत और चीन के बीच फासला तो जगजाहिर है।

सवाल है कि आखिर क्यों चीन आज उस मंजिल पर है, जो भारत की पहुंच से बाहर नजर आती है? भारत जैसी ही बड़ी आबादी, प्राचीन संस्कृति और पिछड़ी अर्थव्यवस्था के साथ बीसवीं सदी के मध्य में ‘नियति से अपने मिलन’ की यात्रा शुरू करने वाला चीन आखिर कैसे आज दुनिया की सबसे बड़ी खेल महाशक्ति बन गया? अगर भारत सचमुच दुनिया में एक बड़ी ताकत बनना चाहता है, तो इस सवालों के जवाब उसके लिए बेहद महत्त्वपूर्ण और प्रासंगिक हैं। इस जवाब की तलाश करते हुए हमें सबसे पहले सामने मौजूद तथ्यों पर गौर करना चाहिए और फिर उन बारीकियों तक पहुंचने की कोशिश चाहिए, जिससे यह संभव हो सका है।

पहले बात खेल तक ही सीमित रखते हैं। भारत के एक राष्ट्रीय अखबार के इनसाइट ग्रुप के शोध के मुताबिक चीन के पास आज साढ़े आठ लाख खेल के मैदान, छह लाख २० हजार स्टेडियम, ४४ हजार स्पोर्ट्स स्कूल, साढ़े ४६ हजार से ज्यादा प्रोफेशनल एथलीट और २५ हजार कोच हैं। वहां हर साल ४० हजार से ज्यादा खेल प्रतियोगिताओं का आयोजन होता है। स्पोर्ट्स स्कूलों में तकरीबन पौने चार लाख छात्र ट्रेनिंग लेते हैं। इनके बीच प्रोफेशनल एथलीट, फिर उनके बीच से नेशनल एथलीट्स और उसके बाद उनके बीच से अंतरराष्ट्रीय एथलीट्स का चयन होता है। बीजिंग ओलिंपिक से पहले चीन के पास ३,२२२ अंतरराष्ट्रीय एथलीट थे, जिनके बीच से ओलिंपिक के लिए टीम का चयन किया गया। बीजिंग ओलिंपिक के लिए टीमें तैयार करने पर ४ अरब ८० करोड़ डॉलर खर्च किए गए। इन तथ्यों की रोशनी में अगर चीन की कामयाबी को देखा जाए तो क्या तब भी वह आश्चर्य की बात रह जाती है?

ये तो दरअसल, पेशेवर खेल की तैयारियों से जुड़े तथ्य हैं। आम जन के लिए चीन सरकार की जो खेल नीति है, वह इसके अलग है। देश भर में खेल सुविधाएं मुहैया कराने पर चीन सरकार ने करोड़ों डॉलर खर्च किए हैं। १९९५ में तंदुरुस्ती को बढ़ावा देने का एक कानून बनाया गया, जिसके तहत लोगों को कसरत और खेलों में भाग लेने की व्यापक सुविधाएं मुहैया कराई गईं। तब से नियमित सर्वेक्षण कर यह देखा जाता है कि कितने लोग शारीरिक तौर पर फिट हैं और लगातार व्यायाम में हिस्सा लेते हैं। २००५ के सर्वे का नतीजा रहा कि चीन की आबादी का ३० फीसदी हिस्सा खेल-कूद की गतिविधियों में हिस्सा लेता है। देश की राष्ट्रीय तंदुरुस्ती नीति का लक्ष्य इस संख्या को ४० फीसदी तक पहुंचाने का है।

जाहिर है, चीन ने खेल को अपनी सार्वजनिक संस्कृति का अहम हिस्सा बना लिया है, जैसा पहले सोवियत संघ और समाजवादी खेमे के दूसरे देशों में हुआ था। गौरतलब है कि सोवियत संघ लंबे समय तक लगातार ओलिंपिक में अमेरिका को पछाड़ता रहा। यहां तक कि छोटे से देश जर्मन जनवादी गणराज्य (पूर्वी जर्मनी) ने खेलों में इतनी तरक्की की कि दूसरे यूरोपीय देशों पर वह लंबे समय तक भारी पड़ता रहा। आज चीन ने उसी परंपरा को नई ऊंचाई तक पहुंचा दिया है।
चीन की यह नई संस्कृति माओ त्से तुंग के नेतृत्व में हुई सांस्कृतिक क्रांति की कोख से निकली। उस क्रांति के दौरान सामंती अवशेषों पर हमला करते हुए पुरातन संस्कृति के शिकंजे से देश, खासकर उसके नौजवानों को निकाला गया और उनकी दबी-सोयी पड़ी ऊर्जा को मुक्त कर दिया गया। उसका परिणाम अब सामने है।

बहरहाल, अगर आर्थिक और सामाजिक क्षेत्रों में चीन नए सिरे से अपनी व्यवस्था को नहीं ढालता और इसमें नई परिस्थितियों के मुताबिक लगातार बदलाव नहीं करता तो निश्चित रूप से नई संस्कृति की जमीन तैयार नहीं होती। खेलों के संदर्भ में यह सवाल बेहद अहम है कि आखिर समाजवादी व्यवस्थाएं और विकसित अर्थव्यवस्थाएं क्यों खेलों की दुनिया में अपना वर्चस्व बना लेती हैं, जबकि दूसरी व्यवस्थाएं खेलों की दुनिया में पहचान बनाने के लिए कुछ निजी खिलाड़ियों की प्रतिभा और मेहनत पर निर्भर बनी रहती हैं? निसंदेह जमैका जैसा देश उसेन बोल्ट की कामयाबी पर इतरा सकता है, या इथियोपिया और केन्या जैसे गरीब देशों से कुछ ऐसे एथलीट निकल कर आ सकते हैं, जो दुनिया को चकत्कृत कर दें, लेकिन वे देश व्यापक रूप से खेल की बड़ी शक्ति के रूप में कभी नहीं उभर पाते।

इसकी वजह यह है कि खेल में किसी का मन तब लगता है, जब उसकी बुनियादी जरूरतें पूरी हो गई हों। अगर किसी नौजवान के मन में अपने भविष्य को लेकर संशय है, रोजगार उसकी पहली चिंता है तो वह ओलिंपिक में स्वर्ण पदक जीतने का सपना नहीं देख सकता। भारत जैसे देश में हकीकत यही है कि अधिकांश नौजवान खेलों में नौकरी या आर्थिक बेहतरी की उम्मीद करते हुए आते हैं। उनके सामने यही छोटा लक्ष्य रहता है। इसके लिए भी उन्हें अपनी प्रतिभा और अपनी मेहनत पर ही निर्भर रहना पड़ता है। इसीलिए यह कड़वी हकीकत है कि इतने बड़े देश के पास गर्व करने के लिए सिर्फ एक अभिनव बिंद्रा या विजेंद्र कुमार या सुशील कुमार हैं।

यह बात अक्सर बड़े दुख के साथ कही जाती है कि ११० करोड़ आबादी वाले देश में पदक विजेताओं का इतना अभाव है! लेकिन असली बात यह है कि पदक जीतने का आबादी से शायद ही कोई संबंध है। खेलों में विभिन्न देशों के प्रदर्शन पर हुए अध्ययनों के निष्कर्ष के मुताबिक खास बात यह है कि आबादी का कितना हिस्सा वास्तव में खेलों में हिस्सा लेता है। कई अध्ययनकर्ताओं ने इस संदर्भ में अमर्त्य सेन की अर्थव्यवस्था के संदर्भ में कही गई इस बात का हवाला दिया है- ‘हिस्सेदारी की क्षमता कई सामाजिक शर्तों से तय होती है। बाजार तंत्र की विस्तार प्रक्रिया में भाग लेना मुश्किल है, अगर आप निरक्षर हों और आपको स्कूल जाने का मौका न मिला हो, या आप कुपोषण या खराब सेहत की वजह से कमजोर हों या फिर आपके रास्ते में सामाजिक अवरोध, भेदभाव, पूंजी की कमी की रुकावटें हों...।’ यह पूरा उद्धरण खेलों के संदर्भ में भी उतना ही लागू होता है।

ओलिंपिक का आदर्श खुद को ज्यादा तेज, ज्यादा ऊंचा और ज्यादा मजबूत साबित करने की स्वस्थ होड़ है। लेकिन यह काम एक हद तक दुस्साहस की मांग करता है जिसमें शारीरिक जोखिम शामिल रहता है। अगर मन में लगातार संशय हो या परिवार का दबाव हो कि अगर जख्मी हुए तो सारा भविष्य अंधकारमय हो जाएगा, तो उस हालत में कोई नौजवान बहुत आगे नहीं जा सकता। समाजवादी व्यवस्थाएं इसलिए बेहतरीन खिलाड़ी पैदा कर पाती हैं, क्योंकि वहां इलाज की चिंता किसी के मन में नहीं होती और यह आश्वासन होता है कि रोजगार या जीवन यापन समाज मुहैया करा देगा। तो वैसी हालत में दुस्साहस की हद तक जोखिम उठाने की होड़ में नौजवान अपने को झोंक देते हैं। जिन समाजों ने समृद्धि का एक ऊंचा स्तर हासिल कर लिया है और जहां अपने आर्थिक भविष्य को लेकर आश्वस्ति है, वहां पढ़ाई-लिखाई और करियर बनाने की चिंता छोड़ कर नौजवान खेल में अपनी प्रतिभा को झोंक पाते हैं। जहां ये स्थितियां नहीं हैं, वहां खेल महज निजी जुनून बनकर रह जाता है, जिससे कभी-कभार सफलता तो मिल जाती है, लेकिन यह एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया नहीं बन पाती।

अध्ययनकर्ताओं का मानना है कि समृद्धि निसंदेह खेलों में प्रगति का एक अहम आधार है, लेकिन इसके साथ-साथ खेलों में भागीदारी और खेलों के बारे में सूचना की उपलब्धता दो बेहद अहम पहलू हैं। दरअसल, खेलों के बारे में सूचना के प्रसार से भागीदारी बढ़ती है और इससे वे प्रतिभाएं सामने आती हैं, जिनके बीच राष्ट्र्यी और अंतरराष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ी चुने जा सकें। एक अध्ययन का निष्कर्ष है कि जिन समाजों में रेडियो नेटवर्क की ज्यादा पहुंच है, वहां खेलों की लोकप्रियता भी ज्यादा है। विकासशील देशों में अखबार आज भी कमोबेस शहरी माध्यम हैं। जिस दौर में भारत में रेडियो सूचना का मुख्य माध्यम था, उस दौर में यहां भी दूरदराज के इलाकों तक विभिन्न खेलों के बारे में ज्यादा जागरूकता थी।

लेकिन प्राइवेट मीडिया (टीवी, अखबार, और अब रेडियो भी) का दबदबा बढ़ने के साथ सूचना के कमोडिटी बनने की परिघटना सामने आई। इसमें जोर तुरत-फुरत चीज बेचकर ग्राहक बढ़ाने पर रहता है। जाहिर है, जिस चीज के बने-बनाए ग्राहक हैं, सिर्फ उन्हें ही बेचा जाता है। क्रिकेट इसकी एक मिसाल है। इसका परिणाम यह है कि दूसरे खेलों की सूचना फैलाने की कोशिश छोड़ दी गई है। नतीजा यह है कि जिसे हम सूचना का युग कहते हैं, उसमें ओलिंपिक स्पोर्ट्स जैसे खेलों को लेकर देश में अज्ञानता और अरुचि का माहौल है। यह इसी बात का परिणाम है कि टेलीविजन चैनलों पर बनावटी क्रिकेट की खबरों या प्रोग्राम को जितनी टीआरपी मिलती है, उतनी ओलिंपिक या विश्व कप फुटबॉल जैसे आयोजनों पर बनाए गए क्वालिटी प्रोग्राम को नहीं मिलती। जब हम भारत की खेल संस्कृति और खेल की दुनिया में अपनी हैसियत की बात करते हैं तो इन सारे पहलुओं पर जरूर गौर किया जाना चाहिए। खास कर उस मौके पर जब अभिनव बिंद्रा, विजेंद्र कुमार और सुशील कुमार की सफलताओं से देश के जागरूक तबकों में उम्मीद का एक माहौल बना हुआ है। उम्मीद का यह माहौल तभी आगे बेहतर नतीजे दे सकता है, जब हम देश के हर गली कूचे से प्रतिभाओं को सामने लाने, उनके मन से आर्थिक भविष्य की चिंता दूर करने, उन्हें विश्वस्तरीय सुविधाएं मुहैया कराने और पुरातन मनोविज्ञान से मुक्त कर उनमें दुनिया के मंच पर कुछ कर दिखाने का जज्बा भरने के इंतजाम करें। अगर ऐसा नहीं होता है तो अभी का फील गुड माहौल अल्पजीवी ही साबित होगा।

Tuesday, August 12, 2008

चीन क्यों चमक रहा है!


सत्येंद्र रंजन
चीन की चमक से दुनिया चकाचौंध है। बीजिंग ओलंपिक के उद्घाटन समारोह में भव्यता और सुंदरता का जैसा अभूतपूर्व नजारा देखने को मिला, उससे सारी दुनिया हतप्रभ रह गई। पश्चिमी मीडिया ने भी आखिरकार ये मान लिया कि चीन में कुछ खास है। भारत में तो खैर, चीन को लेकर एक विचित्र का तरह अंतर्विरोध हाल के वर्षों में देखने को मिलता रहा है। एक तरफ हमारे नेता और भारतीय प्रभुवर्ग आर्थिक एवं विकास के क्षेत्रों में चीन की सफलता पर मोहित नजर आते हैं, वहीं चीन जनवादी गणराज्य जिस बुनियाद पर खड़ा है, उसको लेकर एक वैर-भाव भी उनमें मौजूद देखा जा सकता है। पिछले महीने मनमोहन सिंह सरकार के विश्वास मत पर बहस के दौरान वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने चीन की सफलता का जी खोलकर बखान किया। और लगे हाथों यह इल्जाम भी मढ़ दिया कि इस देश में कुछ लोग नहीं चाहते कि भारत चीन की बराबरी करे। जाहिर है, उनका निशाना भारत-अमेरिका असैनिक परमाणु सहयोग समझौते का विरोध कर रहे समूहों की तरफ था।

बहरहाल, भारत अगर चीन की बराबरी नहीं कर पा रहा है, तो इसके लिए चिदंबरम या मनमोहन सिंह या उनके जैसी नीतियां अपनाने वाले दल एवं समूह तथा उनके समर्थक तबकों की कितनी जिम्मेदारी है, जाहिर है, इस पर उनसे हम कुछ सुनने की उम्मीद नहीं कर सकते। लेकिन आखिर चीन ने यह चमत्कार कैसे किया, इसका गंभीर विश्लेषण उन सभी लोगों के लिए बेहद अहम है, जो दुनिया के नक्शे पर भारत को भी उसी शान के साथ देखना चाहते हैं, जैसे चीन आज खड़ा है।
भारत और चीन में कई समानताएं हैं। दोनों सबसे बड़ी आबादी वाले देश हैं। एक आधुनिक राष्ट्र के रूप में दोनों का सफ़र लगभग एक ही समय शुरू हुआ। दोनों ने अलग, लेकिन अपने ढंग से खास एक विचारधारा पर अपने राष्ट्र की बुनियाद डाली। १९७० के दशक तक दोनों विकास दर और दूसरे कई आर्थिक मानदंडों पर लगभग बराबर थे। लेकिन उसके बाद तस्वीर बदल गई।

१९८४ के लॉस एंजिल्स ओलंपिक में साम्यवादी चीन ने व्यावहारिक रूप में पहली बार हिस्सा लिया और तब वह सिर्फ एक स्वर्ण पदक जीत सका था। तब तक भारत ओलंपिक में अपने एक निश्चित माने जाने वाले हॉकी के स्वर्ण पदक को जीतने की हैसियत गवां चुका था। उसके बाद चीन का ग्राफ लगातार इतनी तेजी से ऊपर की तरफ चढ़ा कि आज वह स्वर्ण पदकों की सूची में पहले नंबर पर होने का दावेदार है, जबकि भारत में अभिनव बिंद्रा के जीते स्वर्ण पदक से अभी महज शुरुआत भर हुई है। दूसरे क्षेत्रों में चीन की जो सफलताएं हैं, वह मुख्यधारा मीडिया के विमर्श में शामिल है, इसलिए उसे साबित करने के लिए अलग से कोई आंकड़े देने की जरूरत नहीं है।

तो प्रश्न आखिर वही है कि आखिर चीन ऐसा कैसे कर पाया? दरअसल, चीन ऐसा उन्हीं नीतियों के सहारे कर पाया है, जिन्हें लेकर देश के शासक समूहों में गहरा वैर-भाव देखा जाता है। १९४९ की जनवादी क्रांति के बाद चीन ने अपने बुनियादी सामाजिक और आर्थिक ढांचे में आमूल बदलाव की जो पहल की, उसका फल मिलने में कई दशक लगे। लेकिन उस पहल ने समाज और अर्थव्यवस्था की सुसुप्त ऊर्जा को सदियों के बंधनों से मुक्त किया। यहां हम उस पहल के तरीकों, उनकी वजह से हुई उथल-पुथल और उसके फौरी नतीजों पर अपना कोई फैसला नहीं दे रहे हैं। यह ऐतिहासिक विमर्श का विषय है। लेकिन जो तथ्य हैं और उनके जो परिणाम अब सामने हैं, उनकी चर्चा जरूर बेहिचक की जा सकती है।

माओ जे दुंग के नेतृत्व में १९६६ में शुरू हुई सांस्कृतिक क्रांति एक गहरे विवाद का विषय रही है। एक दशक तक चली इस प्रक्रिया को जैसे अंजाम दिया गया, उस पर अलग-अलग राय रही है। लेकिन सांस्कृतिक क्रांति ने चीन को सदियों पुराने सांस्कृतिक अवरोधों से मुक्त कर दिया, यह बात आज तथ्यों की रोशनी में निसंदेह कही जा सकती है। इससे बनी नई संस्कृति ने चीन के लोगों में नई सोच और नया मनोविज्ञान पैदा किया, जिसके सहारे वो मानव संभावनाओं को एक नई ऊंचाई तक ले जा सकने में सफल हो रहे हैं।

माओ जे दुंग ने सतत् क्रांति और क्रांति के भीतर क्रांति की अवधारणाएं पेश की थीं। उनके उत्तराधिकारियों ने इसे व्यावहारिक रूप देने की कोशिश की। तंग श्याओ फिंग ने ‘सोच के उद्धार’ का जब नारा दिया और चीनी क्रांति से पैदा ऊर्जा का विकास और प्रगति के लिए इस्तेमाल की नीतियां अपनाईं, तो बहुत से हलकों में इसे माओवाद का खंडन माना गया। जियांग जेमिन और हू जिन ताओ के जमाने में अपनाई नीतियों को लेकर खुद साम्यवादी खेमे में गहरे मतभेद रहे हैं। लेकिन अगर इस पूरे घटनाक्रम को एक विकासक्रम के चरणों के तौर पर देखा जाए तो हम आज के चीन को बेहतर ढंग से समझ सकते हैं। चीन ने अपनी व्यवस्था में आमूल परिवर्तन के बाद उसकी बुनियाद पर विकास और सफलताओं की नींव रखी और आज उसकी उपलब्धियां न सिर्फ खेल, बल्कि हर क्षेत्र में सोने के तमगे के रूप में उसके सीने पर सजी नजर आती हैं।

बेशक चीन की मौजूदा पर व्यवस्था पर कई सवाल उठाए जा सकते हैं। मसलन, उसकी राजनीतिक व्यवस्था में लोकतंत्र के कई पहलुओं की कमी है। हाल के दशकों में वहां एक बार फिर गैर बराबरी बढ़ी है और भ्रष्टाचार को कभी खत्म नहीं किया जा सका। वहां फिर से उस संस्कृति का असर बढ़ रहा है, जिसे माओ ने पतनशील कहा था और जिसके खिलाफ मुहिम चलाई थी। लेकिन यह भी देखा जा सकता है कि चीनी समाज और वहां का राजनीतिक नेतृत्व नई समस्याओं से निपटने के लिए नए प्रयोग कर रहे हैं। उनका परिणाम अभी भविष्य के गर्भ में है। मगर, वहां का नेतृत्व नई समस्याओं के नए हल निकालने की कोशिशों में गंभीरता से जुटा है, इसके संकेत भी देखे जा सकते हैं।

दूसरी तरफ भारत में मनमोहन सिंह एंड चिदंबरम एंड कंपनी गैर बराबरी पर आधारित व्यवस्था को छूने की कोशिश करने से गुरेज करती नजर आती है। बात चाहे रोजगार गारंटी कानून या आदिवासियों को वन भूमि पर अधिकार देने के कानून की हो, या पिछड़ों को आरक्षण देने की बात हो, किसी मुद्दे पर शासक वर्ग और उनके नुमाइंदे आस्था के साथ मजबूती से खड़े नजर नहीं आते। लोकतांत्रिक दबावों में वो जो कुछ सकारात्मक कदम उठाते हैं, उसे भी कमजोर कर देने का कोई मौका वो हाथ से नहीं जाने देते। जबकि धनवान तबकों को मदद पहुंचाने वाले कदमों पर उनका उत्साह देखते ही बनता है। जब बात चीन की तरक्की होती है, तो ये तथ्य सहज ही नजरअंदाज कर दिए जाते हैं कि वहां भुखमरी मिटाने, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे मानव विकास के पहलुओं पर कितना निवेश किया गया और सामाजिक बराबरी लाने की योजनाओं पर किस तरह अमल किया गया।

इन योजनाओं ने चीन की दबी ऊर्जा को आजादी दी, जिसकी चमक से आज वह जगमगा रहा है। भारत ने अपनी ऐसी ऊर्जाओं को आज भी सदियों के सामाजिक अन्याय, आर्थिक शोषण और सांस्कृतिक पिछड़ेपन से दबा रखा है। इसी फर्क की वजह से चीन आज दुनिया में अपनी शर्तों के साथ खड़ा है, जबकि भारत को असैनिक परमाणु सहयोग का करार करने के लिए अपनी विदेश नीति की स्वतंत्रता का सौदा करना पड़ता है। इसलिए आज सबसे अहम बात चीन से चमत्कृत होने की नहीं, बल्कि वहां हुए अनुभवों से कुछ सबक लेने की है।