Tuesday, January 27, 2009

स्लमडॉग्स और संकीर्ण सोच


सत्येंद्र रंजन
स्लमडॉग मिलिनेयर (या करोड़पति) तकनीक और सिनेमाई भाषा की अपनी खूबियों की वजह से दुनिया भर में तारीफ बटोर रही है। संभवतः ऑस्कर का सर्वोच्च सम्मान भी इसकी झोली में आ जाए। चूंकि फिल्म भारत की पृष्ठभूमि पर है, जिस उपन्यास पर यह आधारित है उसे एक भारतीय ने लिखा है, फिल्म के कलाकार भारतीय हैं और निर्माण से जुड़ी टीम में भी भारतीयों का बड़ा हिस्सा है, इसलिए मोटे तौर पर इस फिल्म को भारत की कामयाबी के रूप में देखा जा रहा है। खासकर इस फिल्म से संगीतकार एआर रहमान की दुनिया में जैसी पहचान बनी है, उस पर भारत में फख्र है, जो स्वाभाविक एवं उचित ही है।

लेकिन हकीकत यह है कि यह फिल्म दुनिया के सामने भारत की जैसी तस्वीर पेश करती है, उस पर फख्र करने लायक कुछ भी नहीं है। देश के उच्च एवं मध्य वर्ग, और उनको ध्यान में रख कर चलने वाला कॉरपोरेट मीडिया अक्सर इस हकीकत नजरअंदाज करते हैं। यहां यह गौरतलब है कि भारत में सिनेमा, खासकर गंभीर सिनेमा के दर्शक ज्यादातर उच्च और उच्च-मध्यम वर्गों से ही आते हैं। मल्टीप्लेक्स कल्चर आने के बाद तो यह बात और भी तय-सी हो गई है। अर्जुन सेनगुप्ता कमेटी के अध्ययन की रोशनी में देखें तो ये तबके देश की आबादी के १० से १५ फ़ीसदी से ज्यादा नहीं हैं। यही देश के अप-मार्केट तबके हैं, और अगर राजनीतिक संदर्भ में कहें तो ‘इंडिया शाइनिंग’ (अथवा भारत उदय) की बनाई गई धारणा का समर्थन आधार हैं।

स्लमडॉग मिलिनेयर इस धारणा के सामने कोई सवाल खड़े नहीं करती। लेकिन वह एक हकीकत जरूर दिखाती है, जिससे यह धारणा स्वतः खंडित होती है। यह दुनिया के सामने ऐसी तस्वीर पेश करती है, जो बताती है कि भारत में सबकी जिंदगी चमक नहीं रही है और सबके उदय का रास्ता एक्सप्रेस वे से होकर नहीं गुजर रहा है। इस तस्वीर का चित्रण इतना शक्तिशाली है कि वह दर्शक के मन में अशांति जरूर पैदा करता है। हालांकि फिल्म की कहानी का क्लाइमैक्स मुख्य किरदार की ‘तकदीर’ से तय होता है। करोड़़पति बनने के गेम शो में जोखिम उठाकर बोला गया उसका दांव कामयाब रहता है और वो दो करोड़ रुपए जीत लेता है। इसके साथ ही उसका बचपन का प्यार भी उसे मिल जाता है और ‘जय हो...’ की धुन पर उनके नाच के साथ ड्रामा का सुखांत हो जाता है।

मगर दुर्भाग्य से सबकी तकदीर जमाल मलिक (मुख्य किरदार) जैसी नहीं होती। अगर फिल्म इस बात को याद दिलाते हुए खत्म होती तो वह यथार्थ से ज्यादा करीबी रिश्ता बनाए रख सकती थी। बहरहाल, यह बहस का मुद्दा नहीं है। विचार-विमर्श का मुद्दा वह पृष्ठभूमि है, जहां जमाल मलिक जैसी करोड़ों ज़िंदगियों के लिए आज भी कोई बेहतर संभावना नहीं है। करीब साठ साल पहले राज कपूर ने अपनी फिल्म आवारा में इन संभावनाविहीन जिंदगियों की तस्वीर दिखाई थी औऱ स्लमडॉग मिलिनेयर इस बात की तस्दीक करती है कि इतनी लंबी अवधि में भी वहां के हालात में कोई बदलाव नहीं हुआ है। आवारा ने अपराध के समाजशास्त्र का चित्रण किया था। उसके मुख्य पात्र ने बताया था कि कोई शख्स अपराध के कीड़े अपने भीतर लेकर पैदा नहीं होता, बल्कि जिन ‘गंदे नालों’ के पास उन्हें रहने को मजबूर कर दिया जाता है, वहां से उनके भीतर ये कीड़े प्रवेश करते हैं।

आतंकवाद के इस दौर में अपराध पर ऐसी चर्चा सिरे से गायब नज़र आती है। जब तक वो ‘गंदे नाले’ हैं, समाज सुरक्षित नहीं हो सकता, इस साधारण सी बात पर मीडिया से लेकर सियासत तक में आज चुप्पी है। आतंकवाद, अंडरवर्ल्ड और आम अपराध के रिश्तों पर तो खूब जोर दिया जाता है, लेकिन इनकी जड़ों को समझने में उतनी ही उदासीनता दिखाई जाती है। नतीजा इस चर्चा का लगातार संकीर्ण दायरे में सिमटते जाना है। इसका व्यावहारिक परिणाम है- सुरक्षा बलों पर संपूर्ण निर्भरता और युद्ध जैसी मानसिकता का प्रसार।

अगर इस सोच की तह में जाने की कोशिश करें तो ऐसा आभास होगा जैसे समाज में कुछ ‘अच्छे‘ लोग हैं जो आराम से अपनी जिंदगी गुजारना चाहते हैं, लेकिन उन पर ‘बुरे लोग‘ आक्रमण कर रहे हैं। ये ‘बुरे लोग‘ अपराधी, आतंकवादी, नक्सलवादी या और कुछ भी हो सकते हैं। इन पर काबू पाने का अकेला तरीका यही है कि इन्हें कुचल दिया जाए। इसलिए कानून को लगातार कड़ा किए जाने और सुरक्षा तैयारियों में लगातार ज्यादा ताकत झोंकने की जरूरत है। इस सोच के आर्थिक एवं सामाजिक आधारों की स्पष्ट पहचान की जा सकती है। जाहिर है, राजनीतिक स्तर पर बनने वाली ऐसी नीतियों के निहितार्थों को भी समझा जा सकता है। इसलिए इसमें कोई अचरज नहीं कि ऐसी नीतियों पर लगातार अमल के बावजूद समाज सुरक्षित नहीं बन पा रहा है।

स्लमडॉग मिलिनेयर बतौर फिल्म कोई संदेश नहीं देती है। आखिर में अगर वह कुछ कहती भी है तो वह भाग्यवाद है। लेकिन उसकी पृष्ठभूमि एक संवेदना पैदा करती है। यह संवेदना अपने देश का सच है। लेकिन चाहे सरकार हो, शासक समूह या उनसे संचालित मीडिया- वो अक्सर न सिर्फ इस सच से आंख चुराने की कोशिश करते हैं, बल्कि इस पर परदा डालने का प्रयास भी किया जाता है। अगर कभी संवेदना जगती भी हो तो करो़ड़ों लोगों की बदहाली को तकदीर का खेल मानकर आगे बढ़ जाया जाता है। इस जगह पर इस फिल्म और ऐसी आम सोच में एक मेल देखा जा सकता है। क्या इस फिल्म पर देश के प्रभुत्वशाली समूहों में गर्व की एक वजह यह भी है?

कुछ जानकारों ने कहा है कि आज का भारत एक आत्मविश्वास से भरा देश है। इसे अपनी कमियों और सामाजिक विद्रुपताओं को स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं है। यह १९६०-७० के दशक का भारत नहीं है, जब यथार्थ दिखाने वाली रचनाओं पर हाय-तौबा मचाई जाती थी और उसे देश की छवि बिगाड़ने का प्रयास समझा जाता था। बल्कि यह उभरता भारत है जिसकी छवि तेजी से विकसित होती अर्थव्यवस्था और इन्फॉरमेशन टेक्नोलॉजी की ताकत की है और इसलिए वह दुनिया के सामने अपनी विद्रुपताओं के साथ भी खड़ा हो सकता है।

इस बात में दम है। दरअसल, अगर भारतीय पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म दुनिया के स्तर पर धूम मचा रही है तो इसके पीछे एक कारण भारत की नई छवि भी है। लेकिन भारत के करोडों लोगों के लिए मुद्दा विद्रुपताओं को महज स्वीकार करना नहीं, बल्कि उनसे मुक्ति पाना है। उनके लिए सबसे अहम सवाल है कि क्या यह मौजूदा व्यवस्था में मुमकिन है? यह व्यवस्था अपनी सोच को व्यापक सामाजिक आयाम दे तो वह इसका जवाब हां में दे सकती है। अगर यह संभव हो तो समाज को ज्यादा से ज्यादा सुरक्षित बनाना भी संभव हो सकता है। वरना, यह विद्रूपता देश के चमकते हिस्से पर अक्सर ग्रहण लगाती रहेगी। इसलिए कि देश के करोड़ों ‘स्लमडॉग्स’ की ‘तकदीर’ जमाल मलिक जैसी नहीं है!

1 comment:

Arvind Mishra said...

बहुत प्रभावपूर्ण विवेचन !