Saturday, March 28, 2009

भाजपा से और क्या उम्मीद?


सत्येंद्र रंजन
हरीला भाषण देने के लिहाज से वरुण गांधी भारतीय जनता पार्टी का अकेला चेहरा नहीं हैं। ना ही पहली बार राजनीतिक या चुनावी मंच से एक समुदाय विशेष के खिलाफ वैसी बातें कही गईं, जो वरुण गांधी के मुंह से पूरे देश ने सुना। नरेंद्र मोदी अपने ऐसे ही भाषणों की वजह से भाजपा के चमकते सितारे हैं। और योगी आदित्यनाथ, उनके गुरु महंत अवैद्यनाथ, उमा भारती, ऋतंभरा जैसे नामों की शोहरत वैसी ही भाषा की वजह से रही है। बल्कि अगर रामरथ यात्रा के दिनों को याद किया जाए, तो लालकृष्ण आडवाणी के कई भाषण उस श्रेणी में रखे जा सकते हैं। और २००२ में गोवा में दिया अटल बिहारी वाजपेयी का भाषण भी अभी लोगों को भुला नहीं है। इन सभी भाषणों में सुर की ऊंचाई और शब्दों के चयन का फर्क हो सकता है, लेकिन उनकी विषयवस्तु में एक ही बात झलकती है।

इसलिए वरुण गांधी ने जो कहा, उसमें कोई नई बात नहीं है। ना ही ये ऐसा पहला मामला है। अगर इस प्रकरण में कोई नई बात है तो वो यह कि इस बार भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था की संस्थाओं ने जिम्मेदारी की ज्यादा भावना के साथ प्रतिक्रिया दिखाई। चुनाव आयोग ने भाजपा को सलाह दी कि वो वरुण गांधी को उम्मीदवार न बनाए और इलाहाबाद हाई कोर्ट ने इस मामले में दर्ज एफ़आईआर को रद्द करने की अर्जी पहली ही सुनवाई में ठुकरा दी। दिल्ली हाई कोर्ट से अग्रिम जमानत की अवधि बढ़ने की उम्मीद न देखते हुए वरुण गांधी ने ये याचिका ही वापस ले ली।

इसके बाद वरुण गांधी और भाजपा ने नफरत फैलाने के आरोप का राजनीतिक लाभ उठाने की रणनीति पर चलना शुरू कर दिया है। वरुण गांधी के साथ पूरा संघ परिवार खड़ा है। इनमें उन संगठनों का जिक्र फिलहाल छोड़ देते हैं, जिनका कोई लोकतांत्रिक या संवैधानिक उत्तरदायित्व नहीं हैं। लेकिन एक वैध और पंजीकृत राजनीतिक दल के रूप में भाजपा इन जवाबदेहियों बच नहीं सकती। और भाजपा का दोहरापन फिर से सबके सामने है। उसका कहना है कि वरुण गांधी ने अगर वैसा कहा तो पार्टी उससे सहमत नहीं है, लेकिन उसे तमाम परिस्थितिजन्य सबूतों पर भरोसा नहीं है। चुनाव आयोग और पहली नजर में हाई कोर्ट को जो सच लगा है, उसके पीछे वह पूर्वाग्रह देखती है। इसलिए वह न सिर्फ वरुण गांधी को उम्मीदवार बनाए रखेगी, बल्कि वरुण गांधी, भले ही अघोषित रूप में, लेकिन अब पार्टी के स्टार प्रचारकों का हिस्सा बन जाएंगे।

संवैधानिक संस्थाओं के अनादर की इससे बड़ी मिसाल और क्या हो सकती है? लेकिन यह भी कोई पहली बार नहीं है। इन संस्थाओं के प्रति अपमान का भाव भाजपा की पुरानी पहचान है। बल्कि भारतीय संविधान में, जिसकी मूल भावना लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष है, भाजपा की आस्था पर सवाल हैं। भाजपा जब केंद्र की सत्ता में आई तो उसके पास अपना बहुमत नहीं था, इसके बावजूद उसने भारतीय संविधान के अमल की समीक्षा के लिए एक समिति बना दी। उस समिति के पीछे छिपा एजेंडा दरअसल किसी से छिपा नहीं था। यहां यह भी याद कर लेने के लायक है, जब बाबरी मस्जिद ध्वंस से देश में सांप्रदायिकता की लहर आई हुई थी, तब विश्व हिंदू परिषद के नेता स्वामी वामदेव ने भाजपा नेताओं की पूरी संगति में भारत के वैकल्पिक संविधान का मसविदा जारी किया था। उसके मुताबिक भारत को हिंदू राष्ट्र घोषित किया जाना था और हिंदू राष्ट्र की राज्य-व्यवस्था कैसे चलेगी, इसका जिक्र था।

यह परियोजना तभी पूरी हो सकती है, जब भाजपा अपने बहुमत के साथ सत्ता में आए। और यह तभी मुमकिन होगा, जब हिंदुत्व के नाम पर देश के बहुसंख्यक समुदाय की उग्र गोलबंदी हो। इसलिए कि भाजपा के पास कभी ऐसे सामाजिक-आर्थिक कार्यक्रम नहीं रहे, जिसके आधार पर विभिन्न वर्गों और समुदायों का वह ऐसा गठबंधन बना सके, जिससे सत्ता में पहुंचना मुमकिन हो। भाजपा ने अब तक जो राजनीतिक गठबंधन बनाए हैं, उसके पीछे कोई कार्यक्रम या विचार नहीं रहा। यह सिर्फ वोट के फौरी समीकरणों पर आधारित रहा है। ऐसे समीकरण भाजपा भविष्य में भी बना सकती है, लेकिन इससे वह अपना असली मकसद हासिल नहीं कर सकेगी।

इसलिए उग्र हिंदुत्व, अल्पसंख्यक विद्वेष और दक्षिणपंथी आर्थिक नीतियों की वकालत पार्टी की स्वाभाविक रणनीति है। यह काम वरुण गांधी जैसे वक्ताओं के साथ ही किया जा सकता है। यानी ऐसे भाषणों के जरिए जिनसे इंसान की निकृष्टतम भावनाओं को भड़काया जाए और लोगों को मार-काट करने के लिए उकसाया जाए। विनाश की यह वही रणनीति है, जिसका दुनिया को नाजीवाद और फासीवाद के दौर में अनुभव हो चुका है। दरअसल ये प्रवृत्तियां मानव सभ्यता के विकास का प्रतिवाद (एंटी-थिसिस) हैं और इसीलिए इसके खतरे को हर व्यक्ति को समझना चाहिए।

भाजपा को एक समय देश के एक वरिष्ठ नेता ने असभ्य पार्टी कहा था। अगर उपरोक्त संदर्भ को ध्यान में रखा जाए, तो इस कथन से सहज ही सहमत हुआ जा सकता है। सभ्यता एक ऐसा क्रम है जो मनुष्य को उसकी आदिम प्रवृत्तियों से ऊंचा उठाती है। वह मतभेदों और आपसी विरोध को निपटाने के लिए खून-खराबे और भौतिक लड़ाई के बजाय वैचारिक संघर्ष और विचार-विमर्श को तरीका बनाने के लिए प्रेरित करती है। लोकतांत्रिक राजनीति के विकास के साथ ऐसे संघर्षों और विरोध की अभिव्यक्ति या समाधान का सबसे बड़ा जरिया वोट बन गया है। यही लोकतंत्र और आधुनिक सभ्यता का सबसे बड़ा योगदान है।

सवाल है कि जिन ताकतों या दलों की इस प्रक्रिया में आस्था न हो, उन्हें क्या कहा जा सकता है? जो पार्टी जहरीली जुबान के बावजूद वरुण गांधी का बचाव करती हो, या अपने दंगाई इतिहास के बावजूद मायाबेन कोडनानी जिस पार्टी की बड़ी नेता बनी रहें, उसे किस परिभाषा के तहत सभ्य या लोकतांत्रिक कहा जा सकता है? भाजपा नेताओं से इन सवालों के जवाब की उम्मीद नहीं की जा सकती। दरअसल, उनसे विचार विमर्श की किसी प्रक्रिया में हिस्सा लेने की उम्मीद नहीं की जा सकती। उनसे सिर्फ जुमलेबाज़ी, गंभीर से गंभीर सवालों का मखौल उड़ाने और गलाफाड़़ शोर की ही अपेक्षा की जा सकती है।

लेकिन राहत की बात यह है कि भारतीय लोकतंत्र लगातार परिपक्व हो रहा है। जिन बातों पर पहले संस्थागत रूप से प्रतिक्रिया नहीं होती थी, या हलकी प्रतिक्रिया होती थी, वहां भी अब एक रुख लिया जा रहा है। इसीलिए वरुण गांधी जमानत न लेने या गिरफ्तारी देने के तमाम ड्रामे के बावजूद शहादत का दर्जा नहीं पा सकते। न ही उनकी पार्टी और उसके एजेंडे के लिए संभावनाएं उज्ज्वल नजर आती हैं। उन सबका खतरा अब भी है, मगर अब उस खतरे के बारे में कहीं ज्यादा जागरूकता है। यह भारतीय लोकतंत्र एवं हमारी आज की सभ्यता के लिए उम्मीद की एक बड़ी किरण है।

3 comments:

अफ़लातून said...

सत्येन्द्रजी,
भाजपा की साम्प्रदायिक राजनीति के सन्दर्भ में आप से पूरी तरह सहमत होने के बावजूद हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जिस चुनाव में भाजपा लोक सभा में दो सीट ही जीत पायी थी वह चुनाव कांग्रेस ने बहुसंख्यक समाज में सिख विरोधी साम्प्रदायिक भावना फैला कर जीता था । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी उस चुनाव में कांग्रेस को हिन्दू हित की पार्टी माना था । पिलीभीत सीट में सिखों की मौजूदगी को देखते हुए वरुण की माताजी ने वह सीट चुनी थी । कांग्रेस की साम्प्रदायिकता को कत्तई बरी न करें । सत्ता में रहते हुए यदि कोई दल साम्प्रदायिक हरकत करता है तब वह बहुत ज्यादा खतरनाक हो जाता है ।

दिनेशराय द्विवेदी said...

अफलातून जी से सहमत हूँ कि कांग्रेस भी एक सांप्रदायिक दल है।

चंदन कुमार चौधरी said...

sir i read this artical.i want to know what is atal say that in Goya in 2002