सत्येंद्र रंजन
नई कांग्रेस शब्द नया नहीं है। १९६९ में कांग्रेस के विभाजन के बाद इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस को इसी नाम से जाना गया था। तब ‘नई’ शब्द के साथ कांग्रेस ने नई उम्मीदंा जगाई थीं। बैंकों के राष्ट्रीयकरण, प्रीवी पर्स के खात्मे और गरीबी हटाओ के नारे के साथ इंदिरा गांधी ने देश के सामने वामपंथ की तरफ झुकाव वाला राजनीतिक एजेंडा पेश किया। देश ‘इंदिरा गांधी आई हैं, नई रोशनी लाई हैं’- के नारे से गूंज उठा। इंदिरा गांधी को लोगों का इतना जोरदार समर्थन मिला कि उनके नेतृत्व वाली कांग्रेस ही ‘असली’ हो गई, जबकि दिग्गज नेताओं से भरी संगठन कांग्रेस के सामने अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया।
इंदिरा गांधी यह संदेश देने में कामयाब रहीं कि आजादी के बाद जवाहर लाल नेहरू जिस लोकतांत्रिक समाजवाद के रास्ते पर देश को लेकर चले, उनके न रहने के बाद दक्षिणपंथी रुझान वाले नेताओं ने पार्टी को उस राह से भटका दिया है। जानकारों में इस बात पर मतभेद है कि क्या इंदिरा गांधी की सचमुच वामपंथी एजेंडे में कोई निष्ठा थी? बाद के घटनाक्रम ने यही जाहिर किया यह निष्ठा से ज्यादा एक सियासी कार्ड था, जो कामयाब रहा। लेकिन यह सियासी कार्ड एक ठोस तैयारी के साथ खेला गया। यह तो ऐतिहासिक तथ्य है कि बैंकों का राष्ट्रीयकरण हुआ और इंदिरा गांधी ने ही प्रीवी पर्स को खत्म किया। इसलिए अगर इंदिरा गांधी की वामपंथी छवि पर देश के एक बड़े हिस्से ने भरोसा किया, तो यह महज एक छलावा नहीं था।
आखिर इंदिरा गांधी के साथ इसकी एक विरासत थी। यह भी एक ऐतिहासिक तथ्य है कि कांग्रेस में दक्षिणपंथी और यथास्थितिवादी ताकतों के जमावड़े के बावजूद जवाहर लाल नेहरू राष्ट्र निर्माण के समाजवादी रास्ते पर पार्टी और पूरे देश को ले चलने में कामयाब रहे थे। नेहरू ने प्रगतिशील और आधुनिक भारत की नींव डाली और इसके लिए उस समय की परिस्थितियों में जो उपलब्ध एवं मान्य साधन थे, उनके जरिए यह कार्य शुरू किया। लोकतंत्र के साथ एक न्यायपूर्ण आर्थिक एवं सामाजिक व्यवस्था के विचार को देश में लोकप्रिय बनाने में उन्होंने अति विशिष्ट भूमिका निभाई। धर्मनिरपेक्षता इस सारी परियोजना का एक बुनियादी सिद्धांत था।
इंदिरा गांधी ने कांग्रेस के कथित सिंडिकेट के साथ संघर्ष में इसी विरासत को अपना हथियार बनाया था। चूंकि बीते दशकों में यह विचारधारा सिर्फ नेहरू की नहीं, बल्कि कांग्रेस की विरासत बन चुकी थी, और इसके लिए व्यापक जन स्वीकृति पहले से मौजूद थी, इसलिए इंदिरा गांधी का मजबूत नेता बनकर उभरना कोई संयोग नहीं था। लेकिन क्या अपनी मजबूती का इस्तेमाल उन्होंने इस विरासत को आगे बढ़ाने में किया, यह एक विवादास्पद सवाल है। इतिहास संभवतः उन्हें एक वामपंथी विरासत की नेता के बजाय सत्ता के समीकरणों की माहिर खिलाड़ी के रूप में ज्यादा रखेगा।
१९७५ में इमरजेंसी सत्ता समीकरण की तात्कालिक राजनीतिक मजबूरियों की वजह से ही लागू की गई थी। लेकिन इसे वैधता दिलाने के लिए इंदिरा गांधी २० सूत्री कार्यक्रम के नाम पर एक बार फिर वामपंथी एजेंडे को सामने ले आईं। कहने का मतलब यह कि १९७० के दशक तक कांग्रेस की राजनीति में आम जन की चिंताएं सार्वजनिक रूप से लगातार मुद्दा बनी रहीं, भले व्यवहार में इनके प्रति पार्टी की निष्ठा पर संदेह रहा हो।
लेकिन इसके बाद के दो दशकों में कार्यक्रम और नीतियों के स्तर पर पार्टी अपनी वैचारिक विरासत से भटकने लगी। १९८० के दशक में पहले इंदिरा गांधी और फिर राजीव गांधी की सरकारों ने हालांकि इसे खुल कर नहीं कहा, लेकिन उनके कदमों से समाजवाद शब्द के प्रति उनकी बेरुखी या उनकी एलर्जी जाहिर होने लगी। धर्मनिरपेक्षता जैसे बुनियादी सिद्धांत के प्रति उनकी वचनबद्धता भी अक्सर डोलती नजर आई। १९९० के दशक की शुरुआत में पीवी नरसिंह राव और मनमोहन सिंह की जोड़ी ने इस रुझान को उसकी मंजिल तक पहुंचा दिया। तब तक सोवियत खेमा बिखर चुका था और नव-उदारवाद के पैरोकार ‘इतिहास के खत्म हो जाने’ यानी पूंजीवाद की निर्णायक जीत की घोषणा कर चुके थे। कांग्रेस के नए नेतृत्व ने नेहरूवाद को दफना कर मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था को एक विचारधारा के रूप में स्वीकार कर लिया है, यह तब के पार्टी के बयानों और कार्यक्रमों दोनों में साफ झलकता रहा।
इसका परिणाम क्या हुआ? कांग्रेस ने उस वैचारिक आधार को छोड़ दिया, जिसकी वजह से जनता का बहुमत उसके साथ दशकों तक बना रहा था। तो जनता के भी एक बड़े हिस्से ने उसे छोड़ दिया। कांग्रेस जिस दक्षिणपंथ की राह पर चली, देश के राजनीतिक फलक पर उसके उससे बेहतर पैरोकार पहले से मौजूद थे। स्वतंत्र पार्टी ने १९६० दशक में यही विकल्प पेश करते हुए अपनी एक मजबूत उपस्थिति संसद में बनाई थी। भारतीय जनसंघ ने हिंदुत्व के सांप्रदायिक विचार के साथ दक्षिणपंथी आर्थिक नीतियों के आधार पर ही अपनी राजनीतिक विकसित की थी। जनता पार्टी जैसे भ्रामक प्रयोग से गुजरने और कुछ समय तक गांधीवादी समाजवाद से दिखावटी प्रेम करने के बाद वह अपने नए संस्करण में जल्द ही अपने पुराने विचारों पर लौट आई थी।
कांग्रेस नेतृत्व ने १९७० और ८० के दशकों में दबी-पिछड़ी जातियों की उभर रही राजनीतिक आकांक्षाओं का कोई ख्याल नहीं किया। या यह कहा जाए कि उसने अपने को उत्तरोत्तर जनतांत्रिक बनाने की प्रक्रिया रोक दी। १९९० के दशक में सामाजिक और आर्थिक न्याय उसके एजेंडे से गायब हो गए। तो इसमें क्या आश्चर्य है कि जब देश २१वीं सदी में प्रवेश की तैयारी कर रहा था, उन वर्षों में बहुत से राजनीतिक विश्लेषक कांग्रेस की श्रद्धांजलि लिखने की तैयारी कर रहे थे। कांग्रेस क्या मानती है और क्या कर सकती है, उसकी पहचान क्या है, यह किसी के सामने साफ नहीं था। पार्टी एक यथास्थितिवादी जमात लगती थी, जिसे स्वतंत्र पार्टी और भारतीय जनसंघ की विरासत को आगे बढ़ा रही भारतीय जनता पार्टी तेजी से राजनीतिक परिदृश्य से बेखल करती जा रही थी। भाजपा नेता तब यह खुलेआम कहते थे कि नेहरूवादी नीतियों की वजह से देश की उद्यम भावना लंबे समय तक अंकुश में रही, इसकी वजह से यह देश अपनी अंतर्निहित संभावनाओं को हासिल नहीं कर सका, और इसकी जिम्मेदारी तय की जानी चाहिए। तब कांग्रेस का कोई नेता या सिद्धांतकार इस विचार को सार्वजनिक रूप से चुनौती देता नजर नहीं आता था। ऐसा लगता था कि कांग्रेस किसी अपराध भावना से ग्रस्त है, और उसके नेता यह मानते हैं कि अब जो हो रहा है, वही सही है।
२००४ का आम चुनाव इसी पृष्ठभूमि में हुआ था। कांग्रेस अपने ‘हाथ को आम आदमी के साथ’ रखने के वादे के साथ चुनाव मैदान में जरूर उतरी, लेकिन उसकी इस बात पर शायद ही किसी को भरोसा था। तब उसे चुनावी सफलता सिर्फ इसलिए मिली कि वह भारतीय जनता पार्टी विरोधी गठबंधन का नेतृत्व कर रही थी। भाजपा की सांप्रदायिक, बेलगाम नव-उदारवादी एवं गरीब विरोधी नीतियों से त्रस्त लोगों ने उसे हराने के लिए कांग्रेस नेतृत्व वाले गठबंधन को एक माध्यम बनाया।
निसंदेह कांग्रेस के लिए यह एक ऐतिहासिक अवसर था। वह यहां से अपने एक नए अवतार की तलाश शुरू कर सकती थी। २००९ का जनादेश का संदेश शायद यही है कि कांग्रेस ऐसा करने में एक हद कामयाब रही। उसे वामपंथी दलों का वैचारिक एवं कार्यक्रम संबंधी सहारा मिला। इन दलों के दबाव ने कांग्रेस को काफी समय तक भटकाव से रोके रखा। जन आंदोलनों के नेताओं को उसने नीतियों के निर्माण में शामिल किया। इससे जो नीतियां और कार्यक्रम सामने आए, उससे राष्ट्रीय राजनीतिक विमर्श को बदलने में मदद मिली। लंबे समय बाद एक बार फिर देश के सामने प्रगति और विकास के मुद्दे आए।
राष्ट्रीय रोजगार गारंटी कानून, आदिवासी एवं अन्य वनवासी भूमि अधिकार कानून, सूचना का अधिकार कानून, अन्य पिछड़ी जातियों को उच्च शिक्षा संस्थानों में आरक्षण, किसानों के लिए कर्ज माफी, और सच्चर कमेटी की रिपोर्ट पर अमल इस नई दिशा की कुछ मिसालें हैं। देश के धर्मनिरपेक्ष ढांचे की रक्षा के प्रति वचनबद्धता और पाकिस्तान के साथ शांति प्रक्रिया इसी दिशा का विस्तार थीं। स्वाभाविक रूप से इस दौर में यह चर्चा शुरू हुई कि क्या कांग्रेस खुद को नेहरूवादी अतीत से जोड़ रही है और क्या सोनिया गांधी एक नई कांग्रेस की सूत्रधार बनेंगी?
हाल के जनादेश ने यह संभावना और उज्ज्वल कर दी है। यूपीए की दूसरी पारी में मनमोहन सिंह सरकार के मंत्रियों ने १०० दिन का एजेंडा घोषित करने में जो अति उत्साह दिखाया है, वह भले आगे जाकर एक बड़ी निराशा की वजह बने, लेकिन इससे एक सकारात्मक पक्ष जरूर सामने आया है कि कांग्रेस की जुबान पर ‘आम आदमी’ अभी भी बना रहने वाला है। यह रुझान देश की राजनीति में एक नई संभावना खोलता है। इससे इतना तो जाहिर होता ही है कि १९९० के दशक के नकारात्मक दौर पर फिलहाल विराम लग गया है, जब प्रगतिशील ताकतों को सांप्रदायिक फासीवाद के खिलाफ गोलबंदी में अपनी पूरी ताकत झोंकनी पड़ रही थी।
इस नए दौर में सरकार की परख उसके जन भलाई के कामकाज, आम आदमी की चिंता के उसके दावे और देश को व्यापक रूप से सकारात्मक दिशा देने की उसकी निष्ठा एवं क्षमता की कसौटियों पर की जा सकती है। इन्हीं बिंदुओं पर सरकार की आलोचना और उसके प्रदर्शन की समीक्षा का अवसर भी देश के सामने है। स्पष्टतः यह स्थिति सामाजिक जनतांत्रिक (सोशल डेमोक्रेटिक) राजनीति के उदय का अवसर प्रदान कर रही है। ऐसे में एक अति महत्त्वपूर्ण एवं प्रासंगिक सवाल यह है कि मुख्यधारा राजनीति में इस वक्त सामाजिक जनतंत्र की पैरोकार ताकतें कौन-सी हैं? क्या वाम मोर्चा इस भूमिका को ले सकने में सक्षम है और क्या उसमें इसकी इच्छाशक्ति है? या क्या जनता दल जैसे प्रयोग की फिर से जमीन बन सकती है?
फिलहाल जो होता दिख रहा है, वह यह कि अपने तमाम अभिजात्यवादी रुझानों और पार्टी में दक्षिणपंथी ताकतों की भरमार के बावजूद कांग्रेस अभी सोशल डेमोक्रेटिक स्पेस को भरने की कोशिश कर रही है। मौजूदा कांग्रेस नेतृत्व यह समझ गया है कि चुनावी सफलता का यही फॉर्मूला है। खाद्य सुरक्षा कानून, शिक्षा को बुनियादी अधिकार बनाने की पहल और महिला आरक्षण बिल १०० दिन के भीतर पास कराने की घोषणाएं यही संकेत देती हैं। इस लिहाज से कहा जा सकता है कि यह १९८० और ९० के दशक से अलग एक नई कांग्रेस है। किसी विचारधारा की परंपरा से न आने के बावजूद सोनिया गांधी ने अपनी सहज बुद्धि से पार्टी को एक नई राजनीतिक जमीन दे दी है।
बहरहाल, वर्ग चरित्र और मूलभूत स्वभाव पर गौर करें तो यह मानना मुश्किल लगता है कि कांग्रेस सचमुच एक सामाजिक जनतांत्रिक पार्टी बन सकेगी। जिस पार्टी के २०६ में से १४१ सांसद करोड़पति हों, जिसमें मनमोहन सिंह-मोंटेक सिंह अहलूवालिया जैसे नव-उदारवाद के प्रतीक चेहरों के हाथ में आर्थिक नीतियों की कमान हो, जिसमें पार्टी के टिकट वंशवाद के आधार पर ही देने की परंपरा मजबूत होती जा रही हो, वह आर्थिक और सामाजिक मामलों में जनतंत्र के विस्तार का औजार बन सकती है, ऐसा भरोसा तमाम राजनीतिक सिद्धांतों और तर्कों के खिलाफ जाकर ही किया जा सकता है।
इसके बावजूद मौजूदा कांग्रेस नेतृत्व को इस बात का श्रेय जरूर है कि उसने एक पहचान खो चुकी पार्टी को एक नई प्रासंगिकता दे दी है। इस क्रम में वह देश के राजनीतिक विमर्श की दिशा बदलने में भी सफल रही है, और इसका परिणाम यह है कि आजादी के बाद हासिल उपलब्धियों के खत्म हो जाने की आशंकाओं से फिलहाल देश निकल गया है। चूंकि कांग्रेस नेतृत्व वाली सरकार नव-उदारवाद के दायरे में रहते हुए भी कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को व्यवहार में वापस ले आई है, इसलिए प्रगतिशील ताकतों के लिए सामाजिक और आर्थिक दायरे में लोकतंत्र को ज्यादा व्यापक एवं गहरा बनाने की राजनीति करने का रास्ता आसान हो गया है। यह सोनिया गांधी के नेतृत्व का एक बड़ा योगदान है। इस नेतृत्व ने सचमुच कांग्रेस का एक नया कलेवर पेश किया है, जिसे आज की पीढ़ी उम्मीदों के साथ देख रही है, और जिसकी राजनीतिक प्रासंगिकता आज संभवतः पिछले चार दशकों में सबसे ज्यादा साफ है। उम्मीद की जा सकती है कि कांग्रेस अगले पांच साल में अपने लिए और बड़ी जमीन की तलाश करेगी और प्रगतिशील राजनीति की संभावनाओं को और ज्यादा मजबूत कर सकेगी।
Wednesday, August 19, 2009
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