सत्येंद्र रंजन
भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) के अधिकारियों को आठ साल पहले यह बात समझ में आई कि सफल क्रिकेटरों के लिए इस देश में बेहद दीवानगी है, इसलिए अगर अपना कारोबार ठीक से चलाना है, तो बेहतर है कि हर हाल में उनका समर्थन किया जाए। तब भारतीय क्रिकेट टीम दक्षिण अफ्रीका के दौरे पर थी और मैच रेफरी माइक डेनिस ने सतही वजहों के आधार पर कई भारतीय क्रिकेटरों पर एक मैच की पाबंदी लगा दी थी। भारतीय क्रिकेट प्रेमियों में इसके खिलाफ जोरदार भावना भड़़की। बीसीसीआई ने कड़ा रुख अपनाया और अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट परिषद (आईसीसी) को झुकना पड़ा। भारत ने अगले टेस्ट में सभी प्रतिबंधित खिलाड़ियों को अपनी टीम में शामिल किया और वो मैच खेला गया, हालांकि बीसीसीआई से हुए अंदरूनी समझौते के तहत उस मैच को आधिकारिक टेस्ट के रूप में मान्यता नहीं दी गई। दूसरी तरफ माइक डेनिस का नाम ऐसा कटा कि आईसीसी के अधिकारियों में उनका आज तक अता-पता नहीं है।
सन् २००३ के विश्व कप से पहले लोगो का विवाद उठा। आईसीसी ने करार किया था कि विश्व कप के आधिकारिक प्रयोजकों की प्रतिद्वंद्वी कंपनियों के लोगो विश्व कप में भाग लेने वाले खिलाड़ी उस आयोजन के दौरान नहीं पहनेंगे। भारतीय क्रिकेट सितारों के आर्थिक हितों पर इससे चोट पहुंच रही थी और उन्होंने इस करार पर दस्तखत करने से इनकार कर दिया। इस मुद्दे को खिलाड़ियों से भेदभाव और आईसीसी के लालच की मिसाल बताया गया। हालांकि ऐसे करार फुटबॉल वगैरह के विश्व कप में आम रहे हैं, लेकिन यहां बीसीसीआई फिर खिलाड़ियों के पक्ष में खड़ी हुई। इसके बावजूद कि आईसीसी ने जब करार किया था, तब बीसीसीआई की उस पर सहमति थी। तो बीसीसीआई का पलटा सिक्का एक बार फिर चला और आईसीसी के लालच पर भारतीय क्रिकेट सितारों के लालच की जीत हुई।
भज्जी-सायमंड्स विवाद में एक बार फिर बीसीसीआई का दबदबा देखने को मिला। क्रिकेट और राष्ट्रवाद के जुनून में नस्लभेद रोकने के नियमों और अनुशासन की बलि चढ़ गई। हरभजन सिंह हीरो बन कर उभरे और जब तक आईपीएल-एक के एक मैच के दौरान उन्होंने श्रीशांत को थप्पड़ नहीं मारा, उनका यह रुतबा बना रहा।
रुझान यह सामने आया कि जहां भी आर्थिक हितों पर चोट या अहंकार से जुड़ा कोई मुद्दा सामने आता है, भारत के सफल और संपन्न क्रिकेटर खुद को खेल और सर्वमान्य नियमों से ऊपर जताने लगते हैं। तब बीसीसीआई को इसमें ही अपना भला दिखता है कि उनकी हर तार्किक और अतार्किक मांग का समर्थन किया जाए। आखिर बीसीसीआई में अक्सर ऐसे लोग नहीं आते, जिनका खेल से लगाव हो, जो एक स्वस्थ विश्व खेल संस्कृति विकसित करने के प्रति निष्ठावान हों, और आधुनिक नजरिया रखते हों। वहां ज्यादातर हस्तियां धन और राजनीतिक ताकत के जरिए पहुंचती हैं। ऐसे में इस संस्था के व्यवहार में नव-धनिक सामंती अक्खड़पन जाहिर होना स्वाभाविक ही है। बीसीसीआई के महारथियों को यही लगता है कि खिलाड़ियों पर अनुशासन लागू करने से देश के क्रिकेट प्रेमी नाराज होंगे और ऐसे में खुद उनके खिलाफ माहौल बन सकता है।
संभवतः इसलिए वर्ल्ड एंटी डोपिंग एजेंसी (वाडा) के नए नियमों से जुड़े विवाद पर भी बीसीसीआई ने खेल के बजाय खिलाड़ियों की जिद का साथ देना ही पसंद किया है। लेकिन इस बार शायद यह बाजी उलटी पड़े। इस सवाल पर क्रिकेट प्रेमियों में क्रिकेट सितारों के समर्थन के लिए वैसा उत्साह नहीं है, जैसा पहले के मौकों पर देखा गया था। उलटे भारत सरकार ने बीसीसीआई के नजरिए से अलग रुख लिया है, मेनस्ट्रीम मीडिया मोटे तौर पर वाडा के नियमों के पक्ष में है, और दूसरे खेलों के सितारों ने क्रिकेटरों और क्रिकेट बोर्ड को कठघरे में खड़ा कर दिया है।
अभिनव बिंद्रा की उपलब्धि किसी सचिन तेंदुलकर से कम नहीं है, ना ही साइना नेहवाल किसी महेंद्र सिंह धोनी से कम प्रतिभाशाली हैं, या सानिया मिर्जा किसी युवराज सिंह से कम ग्लैमरस हैं। लेकिन इन सबको वाडा के नियमों से कोई शिकायत नहीं है। इसलिए कि वे अपने को खेल से ऊपर नहीं मानते। वे दुनिया में तय मानदंडों के मुताबिक खेलते हैं और ओलिंपिक भावना के मुताबिक अपने हुनर और क्षमता का प्रदर्शन करते हैं। बतौर टीम खेल फुटबॉल की लोकप्रियता का दुनिया में कोई मुकाबला नहीं है। क्रिश्चियानो रोनाल्डो, काका और लियोनेल मेसी जैसे फुटबॉलरों की कीमत और ग्लैमर के आगे आखिर कौन क्रिकेटर टिक पाएगा? इसके बावजूद शुरुआती एतराज के बावजूद फीफा ने वाडा से करार कर लिया है और ये सभी फुटबॉलर अब वाडा के नियमों का पालन कर रहे हैं। मगर भारत के ११ क्रिकेटर जैसे दुनिया के हर नियम से ऊपर हैं!
कुछ अखबारों ने यह सवाल उठाया है कि क्या भारतीय क्रिकेटर इसलिए न खेलने के दिनों का अपना पता नहीं बताना चाहते, क्योंकि उनमें से कई पेज थ्री पार्टियों के नियमित भागीदार होते हैं, जहां आरोप है कि कोकीन और चरस जैसी नशीली दवाओं का सेवन आम बात है। अगर ऐसी बातों में दम नहीं हो, तब भी अगर सार्वजनिक चर्चा में ऐसी बात आ रही है, तो क्रिकेटरों को समझना चाहिए कि उनके ताजा आचरण से कैसा माहौल बन रहा है। क्या क्रिकेट और खुद अपनी छवि खराब करने के लिए भारत के क्रिकेट स्टार खुद जिम्मेदार नहीं है?
यह तय है कि अगर बीसीसीआई इस विवाद में अपने क्रिकेटरों की मांग को सरंक्षण देती रही तो आखिरकार आईसीसी को वाडा से हटना पड़ेगा और इसके साथ ही क्रिकेट के ओलिंपिक आंदोलन का हिस्सा बनने के सपने का भी अंत हो जाएगा। इसका परिणाम यह होगा कि अगले साल चीन में होने वाले एशियाई खेल से क्रिकेट बाहर हो जाएगा, जबकि बड़ी मुश्किल से इसे यहां जगह मिल सकी थी। लेकिन इससे शायद बीसीसीआई को कोई फर्क न पड़े, क्योंकि वैसे भी क्रिकेट उसके लिए खेल कम, कारोबार ज्यादा है। यह भी मुमकिन है कि भारत के स्टार क्रिकेटर इससे राहत ही महसूस करें, क्योंकि आखिर एशियाई खेलों या ओलिंपिक में खेलने पर मोटी रकम नहीं मिलती। वहां देश की नुमाइंदगी ही सबसे बड़ा इनाम और गौरव की बात होती है। जबकि ताजा मामले से यही जाहिर होता कि स्टार क्रिकेटरों और बीसीसीआई की सोच में अगर कोई बात सबसे आखिर में आती है, तो वह देश है। उनके व्यवहार ने खेल जगत में भारत की प्रतिष्ठा को गहरी चोट पहुंचाई है। यही वजह है कि देश का जनमत उनकी अनुचित मांग के साथ नहीं है। अगर इस संदेश को वे समझ लें तो इसी में क्रिकेट का और आखिर उनका भी भला है।
Wednesday, August 19, 2009
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