सत्येंद्र रंजन
जसवंत सिंह के भारतीय जनता पार्टी से निष्कासन पर सामने आ रही ज्यादातर प्रतिक्रियाओं में पार्टी सिस्टम की बुनियादी समझ का विचित्र अभाव दिखता है। भारतीय जनता पार्टी के मूल चरित्र की अनदेखी के कारण ये टिप्पणियां और भी हवाई नजर आती हैं। कुछ ऐसी ही प्रतिक्रियाएं पिछले साल पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी के मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी से निकाले जाने के समय भी देखने को मिली थीं। इन दोनों मौकों पर निकाले गए नेताओं को पीड़ित या सताए गए पक्ष के रूप में चित्रित करने का आम रुझान मीडिया में रहा है। जसवंत सिंह के मामले में विचार की
स्वतंत्रता या एक बौद्धिक प्रयास के प्रति असहनशीलता के तर्क भी जोड़ दिए गए हैं।
यहां इस बात के पक्ष में दलील देने का कतई इरादा नहीं है कि भाजपा विचारों की स्वतंत्रता की समर्थक है या वह बौद्धिक प्रयासों के प्रति उदार रुख रखती है। दरअसल, गुजरात में नरेंद्र मोदी सरकार ने जसवंत सिंह की किताब- ‘जिन्नाः इंडिया-पार्टिशन, इंडिपेंन्डेंस’ पर प्रतिबंध लगाकर यह एक बार फिर साफ कर दिया है कि भाजपा किसी भी रूप में और किसी सीमा तक विचार स्वतंत्रता का सम्मान नहीं करती और उसे मतभेद बर्दाश्त नहीं हैं। यह बात भाजपा के मूल स्वभाव में शामिल है। वह जिन सामाजिक वर्गों का प्रतिनिधित्व करती है, उनकी सोच में वर्चस्व और प्रगति विरोधी प्रवृत्तियां शामिल हैं। इसीलिए भाजपा और उसके संघ परिवार को भारत के लोकतांत्रिक प्रयोगों का एंटी-थीसीस (प्रतिवाद) माना जाता है।
लेकिन जसवंत सिंह को पार्टी से निकालने का मुद्दा मतभेदों के प्रति सहिष्णुता से नहीं जुड़ा है। यह सीधे तौर पर एक राजनीतिक दल की सार्वजनिक पहचान और उसकी ‘मूलभूत आस्थाओं’ से जुड़ा है। अपनी किताब में मोहम्मद अली जिन्ना के महिमामंडन और सरदार वल्लभभाई पटेल की आलोचना (उन्हें विभाजन के लिए दोषी ठहराने) के बाद भाजपा में जसवंत सिंह की जगह खत्म हो गई थी। यह मुमकिन नहीं है कि कोई नेता अपनी पार्टी की ‘मूलभूत आस्थाओं’ के खिलाफ किताब लिखे और पार्टी में भी बना रहे। राजनीति शास्त्र की परिभाषा में राजनीतिक दल समान विचारों और समान आस्थाओं के लोगों का एक संगठन होता है। वह अपने इसी स्वरूप के साथ जनता के बीच जाता है और अपने एजेंडे के लिए उनका समर्थन पाने का प्रयास करता है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में हर पार्टी के भीतर मतभेद और बहस की गुंजाइश जरूर रहनी चाहिए, लेकिन इसके लिए सही जगह पार्टी के अंदरूनी मंच हैं। इन मंचों पर जो विचार और राजनीतिक दिशा तय होते हैं, उनका पालन हर नेता के लिए जरूरी होता है और ऐसा ही होना चाहिए।
भाजपा ने जसवंत सिंह से उनके किताब लिखने या जिन्ना के महिमामंडन का अधिकार नहीं छीना है। उन्हें सिर्फ पार्टी से बाहर कर दिया गया है और अब वे अपने ‘बौद्धिक प्रयासों’ के लिए पूरी तरह स्वतंत्र हैं। इतिहास का ‘पुनर्मूल्यांकन’ करने के ‘महति प्रयास’ में जुटा एक ‘बौद्धिक’ नेता एक राजनीतिक दल में बने रहने का आग्रह क्यों पाले हुए है, यह सवाल यहां ज्यादा प्रासंगिक है। खासकर यह सवाल इस संदर्भ में और भी ज्यादा अहम हो जाता है, जब हम इस तथ्य पर गौर करते हैं कि गुजरे वर्षों में लोकतंत्र, बहुलता और आधुनिक मूल्यों को कुचलने की इस पार्टी की हर कोशिश में वह नेता सहभागी रहा है।
सोमनाथ चटर्जी ने जुलाई २००८ में लोकसभा अध्यक्ष पद की गरिमा की दलील देते हुए माकपा की उस वक्त की राजनीतिक लाइन को मानने से इनकार कर दिया था। माकपा ने तब उन्हें पार्टी से बाहर का दरवाजा दिखाया। तब भी अहम सवाल यही था कि जनवादी केंद्रीयता (डेमोक्रेटिक सेंट्रलिज्म) के सिद्धांत से चलने वाली एक पार्टी के पास इसके अलावा और क्या विकल्प था? आखिर कोई पार्टी राजनीतिक अराजकता के बीच तो नहीं चल सकती। एक ऐसी पार्टी आम जन के बीच निश्चित रूप से अपनी पहचान खो देगी और जाहिर है, तब उसकी जनता में कोई साख भी नहीं बचेगी। इसलिए माकपा ने अपने वरिष्ठ नेता के खिलाफ निष्कासन का फैसला लिया। उसने सोमनाथ चटर्जी से लोकसभा अध्यक्ष पद की ‘गरिमा’ बचाए रखने का अधिकार नहीं छीना।
चूंकि मध्य-वर्ग और कॉरपोरेट मीडिया में राजनीति और राजनीतिक दलों के प्रति मोटे तौर पर हिकारत का भाव है, इसलिए वे राजनीति के मूलभूत सिद्धांतों को समझने की कोशिश कभी नहीं करते। उन्हें राजनीतिक दलों के हर काम के पीछे सौदेबाजी, साजिश या वोट बैंक की राजनीति नजर आती है। इसी अलोकतांत्रिक नजरिए में जसवंत सिंह या सोमनाथ चटर्जी ‘शहीद’ नजर आने हैं। इस नजरिए में विभिन्न पार्टियों की संरचना, उनके इतिहास और उनकी प्रासंगिकता का बिल्कुल ही ख्याल नहीं किया जाता।
अब यह एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न जरूर है कि क्या जिन्ना और पटेल का संबंध भाजपा की मूलभूत आस्थाओं से है? कुछ टीकाकारों ने इस सिलसिले में विदेश राज्यमंत्री शशि थरूर का जिक्र किया है, जिन्होंने कुछ समय पहले लिखी अपनी किताब ‘इंडियाः फ्रॉम मिडनाइट टू मिलेलियम एंड बियोंड’ में इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और सोनिया गांधी पर नकारात्मक टिप्पणियां की थीं। कहा गया है कि अगर इसके बावजूद कांग्रेस उन्हें लोकसभा का टिकट दे सकती है और मंत्री बना सकती है, तो भाजपा जसवंत सिंह को क्यों नहीं बर्दाश्त कर सकती थी? इसका जवाब दोनों पार्टियों के इतिहास और चरित्र छिपा है।
भाजपा कोई सुस्पष्ट और विवेकपूर्ण विचारधारा पर आधारित पार्टी नहीं है। यह पुरातन मान्यताओं, ऐतिहासिक एवं सामाजिक पूर्वाग्रहों और बहुसंख्यक वर्चस्व की प्रवृत्ति से संचालित संघ परिवार का हिस्सा है। इस पूरे परिवार का विमर्श अंध-आस्था, द्रोह भाव और जाने-अनजाने में तैयार की गई झूठी धारणों पर टिका है। इसीलिए भाजपा नेताओं को अल्पकालिक लाभ के लिए कुछ भी कह देने में कोई दिक्कत नहीं होती। ऐसा एक दांव २००५ में लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी पाकिस्तान यात्रा के दौरान खेला, जब उन्होंने न सिर्फ जिन्ना की मज़ार पर जाकर श्रद्धांजलि दी, बल्कि भारत के विभाजन और हिंदुओं के खिलाफ ‘सीधी कार्रवाई’ के इस सूत्रधार को ‘धर्मनिरपेक्ष’ होने का सर्टिफिकेट भी दे दिया। निगाहें भारत के उदारवादी लोगों और मुसलमानों पर थीं। आडवाणी ने सोचा था कि इस दांव वे अपनी अटल बिहारी वाजपेयी जैसी कथित उदार छवि बना लेंगे और इस तरह प्रधानमंत्री के रूप में अपनी स्वीकार्यता मजबूत कर लेंगे। लेकिन दांव उलटा पड़ा। संघ परिवार में इसके खिलाफ इतनी घोर प्रतिक्रिया हुई कि उन्हें पार्टी का अध्यक्ष पद छोड़ना पड़ा। बहुत से जानकारों की भी अभी भी यही राय है कि उसके बाद आडवाणी फिर कभी अपना पहले जैसा रुतबा हासिल नहीं कर सके। बहरहाल, उसी संदर्भ में भाजपा ने जिन्ना पर अपनी राय तय की। प्रस्ताव पास कर यह साफ कर दिया कि जिन्ना का महिमामंडन मंजूर नहीं है। जसवंत सिंह उस प्रस्ताव के सहभागी थे।
संघ परिवार और भाजपा की मुश्किल यह है कि स्वतंत्रता आंदोलन में उसके नायक नहीं हैं। वजह साफ है। जब देश की मुख्यधारा अंग्रेजों से आजादी के लिए लड़ रही थी, संघ परिवार हिंदुत्व की अपनी कट्टरपंथी धारणा के प्रचार-प्रसार में लगा था। विनायक सावरकर अपनी वीरता की कहानियों के साथ ऐसा एक नायक हो सकते थे, लेकिन बाद के दिनों में अंग्रजों से सहयोग और महात्मा गांधी की हत्या में अपने कथित हाथ की वजह से उनकी छवि नष्ट हो गई। फिर भी भाजपा ने एनडीए के शासन के दौरान सावरकर की पुर्स्थापना में कोई कसर नहीं छोड़ी। लेकिन सावरकर की संघ परिवार के बाहर कोई प्रतिष्ठा नहीं है। ऐसे में भाजपा ने सरदार पटेल की एक हकीकत से अलग छवि गढ़ने और खुद को उनकी विरासत में दिखाने की कोशिश की है। जवाहर लाल नेहरू से सरदार पटेल के कई मुद्दों पर मतभेदों को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करते हुए यह छवि गढ़ने की कोशिश की गई है कि पटेल कांग्रेस के भीतर संघ परिवार के प्रवक्ता थे। यह कोरा झूठ है, लेकिन संघ परिवार इस कोशिश में लगातार जुटा रहा है।
उसी सरदार पटेल को जब जसवंत सिंह ने भारत के विभाजन के लिए जिन्ना से ज्यादा जिम्मेदार ठहरा दिया तो इस पर भाजपा नेताओं का भड़कना स्वाभाविक है। सरदार पटेल से नाराजगी की जसवंत सिंह की अपनी वजहें हो सकती हैं। आखिर पटेल की वजह से ही वो देसी रियासतें खत्म हो गईं, जिनमें से एक के जसवंत सिंह वारिस हैं। बहरहाल, यहां गौरतलब यह है कि जसवंत सिंह ने जो कुछ अपनी किताब में कहा है, वह उनकी विचारधारा-विहीन और गढ़ी गई मान्यताओं से चलने वाली (पूर्व) पार्टी की ‘मूलभूत आस्थाओं’ पर प्रहार करता है। इसे भाजपा नहीं सह सकती थी। इस बिंदु पर उसका कदम ना तो गलत है और ना अनपेक्षित।
इस मामले में भाजपा की कांग्रेस से तुलना नहीं हो सकती। कांग्रेस भले आज व्यक्तियों के इर्द-गिर्द ही चलती हो, लेकिन उसके पास सवा सौ साल में विकसित हुई एक विचारधारा है, जो सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक कार्यक्रमों पर टिकी है। इसलिए वह अपने अहम व्यक्तित्वों की निंदा करने वालों के साथ भी चल सकती है, लेकिन भाजपा ऐसा नहीं कर सकती।
बहराहल, इस प्रकरण ने जसवंत सिंह जैसे नेताओं की अवसरवादी और अधकचरी बौद्धिकता और भाजपा के विचारधारात्मक खोखलेपन को अगर बेनकाब किया है तो राजनीतिक प्रक्रियाओं और व्यवहार के प्रति कॉरपोरेट मीडिया एवं मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी वर्ग की नासमझी को भी एक बार फिर उजागर कर दिया है। इससे यह साफ हुआ है कि पिछले साल सोमनाथ चटर्जी के मामले में बेवजह प्रलाप के बाद गुजरी अवधि में इन समूहों का विमर्श थोड़ा भी परिपक्व नहीं हुआ है।
Tuesday, September 1, 2009
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