सत्येंद्र रंजन
भारत में जिन्ना प्रेम के हो रहे प्रवाह पर आश्चर्य करें या हंसें- यह समझ पाना मुश्किल है। २००५ में जो लहर लालकृष्ण आडवाणी के जज्बातों के साथ उठकर दब गई थी, वह जसवंत सिंह की नवजाग्रत श्रद्धा के साथ फिर उठ खड़ी हुई है। इस बार राम जेठमलानी से लेकर मेघनाद देसाई और पूर्व आरएसएस प्रमुख केएस सुदर्शन तक इस पर सवार हैं। इन बौद्धिकों की मेधा ने मोहम्मद अली जिन्ना की महानता पर से परदा हटा दिया है, जिसे गांधी-नेहरू-पटेल ने अपनी साजिश से ढक दिया था। तो आखिरकार सच्चाई सामने आ गई है!
इन मनीषियों द्वारा सामने लाई गई सच्चाई यह है कि जिन्ना धर्मनिरपेक्ष और राष्ट्रवादी थे। वे गांधीजी के मुस्लिम कट्टरपंथियों से सहयोग के विरोधी थे। खिलाफत आंदोलन को गांधीजी के समर्थन से वे इतने दुखी हुए कि कई वर्षों के लिए लंदन में बसेरा किया। १९४० के पहले तक उन्होंने अलग पाकिस्तान की मांग में अपनी ताकत नहीं झोंकी। लेकिन जब गांधीजी लगातार उनकी उपेक्षा करते रहे, और नेहरू एवं पटेल उनके वाजिब हक से उन्हें वंचित करते रहे तो जिन्ना आखिर क्या करते! चूंकि वे महान व्यक्ति थे, इसलिए जब एक बार पाकिस्तान हासिल करने का मन बना लिया तो फिर उसे पाकर ही दम लिया। भले इसके लिए हिंदुओं के खिलाफ उन्हें ‘सीधी कार्रवाई’ करनी पड़ी। भले विभाजन की प्रक्रिया में लाखों लोगों की जान गई और इतिहास का आबादी का सबसे बड़ा स्थानांतरण हुआ।
जसवंत सिंह अब यह ‘खोज’ कर लाए हैं कि यह तो नेहरू और पटेल की जिद या सत्ता लिप्सा थी, जिसकी वजह से देश बंटा। वरना, जिन्ना तो आखिरी वक्त तक चाहते थे कि सब लोग मिलजुल कर रहें। उन्हें कैबिनेट मिशन का प्रस्ताव मंजूर था, जिसके तहत आजादी के बाद भारत को ऐसा परिसंघ बनाना था, जिससे जो प्रांत जब चाहता अलग हो सकता था। जवाहर लाल नेहरू और सरदार वल्लभभाई पटेल ने यह मंजूर नहीं किया, इसलिए भारत बंटा। जिन्ना भारत के पूरब और पश्चिम दोनों तरफ ‘अपना हिस्सा’ लेकर अलग हो गए। लेकिन धर्मनिरपेक्षता में उनकी आस्था देखिए- ११ अगस्त १९४७ को पाकिस्तान की संविधान सभा में उन्होंने कहा कि पाकिस्तान में सबको मजहबी आजादी होगी, पाकिस्तान धर्म आधारित राज्य नहीं होगा।
इतिहासकार मुशीरुल हसन ने इस संदर्भ में गालिब के इस शेर का ठीक ही हवाला दिया है- ‘कि मेरे कत्ल के बाद, उसने जफ़ा से किया तौबा।’ एक इतिहासकार टीकाकार ने एक अंग्रेजी अखबार में लिखा है कि वो जसवंत सिंह की किताब को हास्य की श्रेणी में रखेंगे। इसलिए कि ऐसी ‘बौद्धिक खोज और उसके निष्कर्ष’ वहीं रहने के लायक हैं। इसलिए कि यह किताब और उसके साथ चली जिन्ना प्रेम की लहर कोई नया तथ्य सामने नहीं लाई है। यह दशकों से मौजूद पूर्वाग्रहों को लिखित रूप में पेश करने की एक कोशिश से ज्यादा कुछ नहीं है।
इसलिए जसवंत सिंह की किताब से शुरू हुई चर्चा के संदर्भ में ज्यादा महत्त्वपूर्ण यह समझना है कि आखिर ये किसके पूर्वाग्रह हैं और इनके निशाने पर कौन है? बहरहाल, निशाना तो साफ है। निशाना नेहरू हैं। आखिर क्यों? क्योंकि नेहरू ने कांग्रेस और देश को एक नई दिशा दी। वे देश को आधुनिकता और लोकतंत्र के रास्ते पर ले गए। धर्मनिरपेक्षता को उन्होंने नए भारत की बुनियाद बनाया। इससे पुरातन विशेषाधिकारों वाली सामाजिक व्यवस्था में भारी उथल-पुथल हुई। सामाजिक वर्चस्व की व्यवस्था की जड़ें हिल गईं। राजा प्रजा बन गए। समाजवाद एक प्रचलित शब्द बन गया।
तो इसमें क्या आश्चर्य कि राजा जसवंत सिंह नेहरू से नाराज हुए? सेना छोड़ी तो उस पार्टी में गए जिसने अपनी पहचान ही नेहरू और नेहरूवाद के विरोध से बनाई थी। उस पार्टी से बिगाड़ इसलिए हुआ कि उस पार्टी ने नेहरू पर हमला बोलने के लिए पटेल को ढाल बनाया था। लेकिन पटेल के लौह पुरुष वाले व्यक्तित्व की वजह से ही आखिर जसवंत सिंहों की रियासतें गई थीं, तो पटेल उन्हें क्यों रास आते! इसलिए राजा साहब ने जिन्ना की तलाश की, जो राजसी ठाट-बाट से जीते थे और अगर उनके मंसूबे के मुताबिक कैबिनेट मिशन का प्रस्ताव मान लिया गया होता तो देसी रियासतें खत्म नहीं होती। सामंतवाद पूरे भारत में उसी तरह फूलता-फलता रहता, जैसा आज भी पाकिस्तान में है। नेहरू-पटेल की जोड़ी ने वो संभावना यहां खत्म कर दी।
वो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सपनों का ‘अखंड भारत’ होता। यहां का राज धर्म-गुरुओं की मर्जी के मुताबिक चलता। हिंदू बहुल इलाकों में हिंदू धर्म-गुरुओं और मुस्लिम बहुल इलाकों में मुस्लिम धर्म-गुरुओं के मुताबिक। गांधीजी ने कहा था कि भारत का विभाजन उनकी लाश पर होगा। लेकिन जब ऐसे भारत की संभावना नजर आई तो वे नेहरू और पटेल के साथ हो लिए। देश का विभाजन मंजूर कर लिया। केएस सुदर्शन इससे आज तक दुखी हैं। आखिर गांधी के ‘नेहरू प्रेम’ ने सुदर्शन कल्पना वाले भारत की संभावना नष्ट कर दी!
जिन्ना के कई रूप हैं। पश्चिमी जीवनशैली वाले जिन्ना, सांप्रदायिक राजनीति के विरोधी जिन्ना, बांटो और राज करो की ब्रिटिश नीति का औजार बने जिन्ना, कट्टर और हिंसक सांप्रदायिकता के समर्थक जिन्ना और ११ अगस्त १९४७ वाले जिन्ना। आप इनमें से जिन्हें चाहे चुन सकते हैं। आ़डवाणी, जसवंत सिंह, और सुदर्शन ने अपने-अपने जिन्ना चुन लिए हैं। मगर भारत की अपने विवेक से चलने वाली जनता जिन्ना को उनके संपूर्ण रूप में देखना ही पसंद करती है। किसी भी व्यक्ति की पूरी शख्सियत उसकी कुल भूमिका और योगदान के योग से उभरती है। उसके काम के नतीजे से भी उसकी छवि बनती है।
जिन्ना का काम सबके सामने है। आखिर में उन्होंने दो-राष्ट्र के सिद्धांत में यकीन किया। इसके आधार पर मुसलमानों के लिए पाकिस्तान बनवाया। २४ साल के अंदर वह पाकिस्तान टूट गया। बचा हिस्सा आज अपने वजूद के संकट से जूझ रहा है। दूसरी तरफ गांधी-नेहरू-पटेल का भारत है। यह किसी एक मजहब का भारत नहीं है। यह वो भारत है, जिसके बिखर जाने की तमाम भविष्यवाणियां गलत साबित हो चुकी हैं। अगर पूरा नहीं तो कम से कम, जैसाकि इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने कहा है, राष्ट्रीय एकता का ८० फीसदी लक्ष्य यह राष्ट्र पूरा कर चुका है। राजनीतिक लोकतंत्र की स्थापना के बाद अब यह सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र की अपनी यात्रा शुरू कर चुका है। लेकिन जसवंत सिंह, सुदर्शन, जेठमलानी और मेघनाद देसाई जैसों के लिए ये सारी बुरी खबरें हैं। इसलिए उनका जिन्ना प्रेम जायज है!
Tuesday, September 1, 2009
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