Saturday, February 21, 2009

स्वतंत्रता की कीमत पर सुरक्षा?


सत्येंद्र रंजन
तंक के खिलाफ अमेरिका की जंग मानवाधिकारों की कीमत पर लड़ी जा रही है, नागरिक अधिकार संगठन यह आरोप लंबे समय से लगाते रहे हैं। लेकिन अब इस बात की पुष्टि एक आधिकारिक रिपोर्ट से भी हो गई है। यह रिपोर्ट अंतरराष्ट्रीय न्यायालय द्वारा बनाई गई जजों की समिति ने तैयार की है। समिति ने तीन साल तक ४० से ज्यादा देशों में विशेषज्ञों, सरकारी अधिकारियों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और मानवाधिकार हनन के पीड़ित लोगों से बातचीत के बाद यह रिपोर्ट तैयार की है।
रिपोर्ट में कहा गया है- ‘दुनिया के अग्रिम लोकतांत्रिक देशों में से एक अमेरिका ने आतंकवाद से लड़ने के लिए ऐसे तरीके अपनाए हैं, जो अंतरराष्ट्रीय मानवीय कानून और मानवाधिकार कानूनों के स्थापित सिद्धांतों से मेल नहीं खाते।’ १९९ पेज की इस रिपोर्ट में आठ न्यायविदों की समिति ने कहा है- ‘इसमें संदेह नहीं कि दुनिया के विभिन्न हिस्सों में आतंकवाद का खतरा वास्तविक और भारी है और यह सरकारों का कर्त्तव्य है कि इस खतरे का मुकाबला करने के लिए वो प्रभावी कदम उठाएं। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि अंतरराष्ट्रीय कानून के सुस्थापित सिद्धांतों की अनदेखी कर दी जाए।’
रिपोर्ट में खुलासा किया गया है कि आतंकवाद से लड़ने के लिए यातना, लोगों को गायब कर देने, गुप्त स्थान पर हिरासत में रखने में, निष्पक्ष सुनवाई न होने और सुरक्षा बलों द्वारा मा्नवाधिकारों के हनन को बर्दाश्त करने की घटनाएं बढ़ती गई हैं। रिपोर्ट ने इस खतरे के प्रति आगाह किया है कि जिन कदमों को आतंकवाद से लड़ने के क्रम में अपवाद और ‘अस्थायी’ बताया गया था, लोकतांत्रिक देशों में भी वो स्थायी होते जा रहे हैं।
आतंकवाद से लड़ने के नाम पर अगर लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं खुद गैर कानूनी कदम उठाने लगें और बुनियादी मानवाधिकारों का उल्लंघन करने लगें, तो समझा जा सकता है कि मानव सभ्यता के विकासक्रम को कितना बड़ा झटका लग रहा है। लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि इस सवाल पर जागरूकता की बेहद कमी है। आतंकवाद का एक ऐसा हौव्वा खड़ा कर दिया गया है कि राजनीति से लेकर मीडिया तक के विमर्श में इसके खिलाफ लड़ाई के तरीकों पर कोई सवाल उठाना देशभक्ति के खिलाफ बता दिया जाता है। भारत में मुंबई पर आतंकवादी हमले के बाद जिस तरह आनन-फानन में राष्ट्रीय जांच एजेंसी और गैर कानूनी गतिविधि कानून में संशोधन विधेयक पास करा लिए गए, उससे बुनियादी लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के औचित्य पर ही सवाल खड़ा हुआ। मगर मुख्यधारा राजनीति और मीडिया में किसी ने ये सवाल पूछने की जरूरत नहीं समझी।
मुंबई में आतंकवादी हमले से उमड़ी प्रतिक्रिया के आवेग के बीच भारत के प्रधान न्यायाधीश की चेतावनी की भी अनसुनी कर दी गई। न्यायमूर्ति केजी बालकृष्णन ने उस माहौल में भी इससे आगाह करना जरूरी समझा कि नागरिक अधिकारों को आतंकवाद विरोधी कानूनों की बलि न चढ़ाया जाए। अब अंतरराष्ट्रीय न्यायालय द्वारा बनाई गई जजों की समिति की रिपोर्ट से दुनिया भर में जारी इस परिघटना की तरफ ध्यान खींचा गया है।
इस रिपोर्ट में दो बातें खास तौर पर गौरतलब हैं। पहली यह कि इस रिपोर्ट में ‘आतंक के खिलाफ युद्ध’ में अपनाई जा रही मौजूदा कसौटियों को ठुकरा देने की अपील की गई है और दूसरी यह कि इसमें बात पर जोर दिया गया है कि एक बेहतर आपराधिक न्याय प्रक्रिया से ही आतंकवाद के खिलाफ प्रभावी कदम उठाए जा सकते है।
दरअसल, अब जरूरत इस रिपोर्ट के निष्कर्षों से भी आगे ले जाने की है। सवाल यह है कि क्या ‘आतंकवाद के खिलाफ युद्ध’ का विचार सही है? यह शब्द ऐसी धारणा बनाता है कि जैसे आतंकवाद कोई एक इकाई हो, जिसका कोई एक मकसद हो और जो उस मकसद के लिए संगठित रूप से युद्ध लड़ रहा हो। जबकि वास्तव में बात ऐसी नहीं है। दुनिया में अलग-अलग तरह की चरमपंथी, उग्रवादी और आतंकवादी धाराएं हैं, जिनके पैदा होने की वजहें, मकसद और प्रेरणास्रोत अलग-अलग हैं। उन सबसे एक जैसे तरीकों से नहीं लड़ा जा सकता।
ध्यान देने की बात यह है कि हर तरह का गैर-सरकारी आतंकवाद इंसाफ न मिलने की भावना से ताकत प्राप्त करता है। यह इस भावना के गहराते जाने से पैदा होने वाली हताशा से उसे कार्यकर्ता मिलते हैं और इसी वजह से कुछ समुदायों का समर्थन हासिल होता है। बेशक, जैसाकि जजों की समिति ने कहा है, यह सरकारों का कर्त्तव्य है कि हिंसा और हमलों से अपने नागरिकों को बचाने का वो उपाय करें। लेकिन ये उपाय आतंकवाद की समस्या का हल नहीं हो सकते। टिकाऊ हल अन्याय की भावना को दूर करने से ही निकल सकता है, जबकि आतंकवाद विरोधी लड़ाई के लिए गैर कानूनी तरीके अपनाने से यह भावना और गहरी होती है।
लेकिन दुनिया भर में सरकारें कोई सबक लेती नजर नहीं आतीं। अमेरिका में बराक ओबामा के राष्ट्रपति से बनने से शुरुआत में जन्मी उम्मीद के कमजोर पड़ने में ज्यादा वक्त नहीं लगा है। ओबामा प्रशासन ने गुआंतानामो बे की गैर कानूनी जेल को बंद करने का फैसला तो किया, लेकिन उसके बाद वह गोपनीयता, यातना और आतंक से जंग की रुपरेखा पर बुश प्रशासन की नीतियों को अपनाते दिख रहा है। कंजरवेटिव अखबार द वॉल स्ट्रीट जर्नल इस पर खुश होते हुए लिखा है- ‘ऐसा लगता है कि बुश प्रशासन की आतंक विरोधी रूपरेखा एक नई वैधता प्राप्त कर रही है।’ और इस पर अमेरिकन सिविल लिबर्टीज यूनियन के कार्यकारी निदेशक एंथनी डी रोमेरो का कहना है- ‘हाल की निराशाजनक घटनाओं से यह चिंता गहरी हो गई है कि ओबामा अंततः बुश प्रशासन की कुछ सबसे समस्याग्रस्त नीतियों को ही आगे बढ़़ाएंगे।’
जब दुनिया की विकसित चेतना के प्रतिनिधि जजों ने इंसान के बुनियाद हकों से जुड़ी एक बेहद गंभीर समस्या पर न सिर्फ रोशनी डाली है, बल्कि दुनिया को इसके खतरों से आगाह भी किया है, उस समय भी लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं का उस पर ध्यान न देना मानव सभ्यता के सामने एक गंभीर चुनौती है। यह लोगों के यह कहने का समय है कि उनकी सुरक्षा के नाम पर उनकी स्वतंत्रताएं न छीनी जाएं। सरकारें खुद आतंकवादियों की तरह कानून और व्यवस्था की धज्जियां न उड़ाएं। यह हो सके इसके इसके लिए जरूरी यह है कि अंतरराष्ट्रीय न्याय अदालत की पहल से सामने आई सच्चाई आम जन तक पहुंचाई जाए।

Friday, February 20, 2009

भारत का पाकिस्तान विमर्श

सत्येंद्र रंजन
मुंबई पर २६ नवंबर को अचानक आतंकवादी हमले से सकते में रह जाने के बाद इस मामले में पाकिस्तान की जांच से भारत के लोग एक बार फिर अचंभित रह गए। पाकिस्तान सरकार सचमुच गंभीरता से जांच करेगी और हमले की साजिश की कुछ नई परतें उससे खुलेंगी, इसकी उम्मीद इस देश में बड़े से बड़े आशावादी को भी नहीं थी। पाकिस्तान ने इस मामले में जब भारत के डोज़ियर का जवाब दिया तो उस पर क्या प्रतिक्रिया जताई जाए, यह तय करना देर तक मुश्किल बना रहा।

फिर मीडिया और सिक्युरिटी एक्सपर्ट्स को समझ में आया कि अंतरराष्ट्रीय दबाव में पाकिस्तान के पास इसके अलावा कोई और चारा नहीं था। भारत सरकार ने पाकिस्तान की शुरुआती जांच को एक ‘सकारात्मक घटनाक्रम’ बताया, लेकिन इसके साथ ही विदेश मंत्री प्रणब मुखर्जी ने संसद में यह भी दोहरा दिया कि जब तक पाकिस्तान इस जांच को तार्किक नतीजे तक नहीं पहुंचाता और पाकिस्तान में आतंकवाद का ढांचा नष्ट नहीं होता, भारत चुप नहीं बैठेगा।

भारत में पाकिस्तान को लेकर होने वाले विमर्श को समझने के लिहाज से ये प्रतिक्रियाएं बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। मीडिया के ज्यादातर हिस्से में अब खबर की प्रस्तुति नाटक का रूप ले चुकी है। सनसनी इसका एक अहम पहलू है। इसके कथानक में नायक और खलनायक का होना अनिवार्य होता है। खलनायक जितना दैत्याकार हो, खबर उतनी सनसनीखेज़ हो सकती है। ऐतिहासिक कारणों से पाकिस्तान एक ऐसे खलनायक के स्वाभाविक किरदार के रूप में उपलब्ध होता है।

इसलिए मीडिया के विमर्श में पाकिस्तान का खौफ़नाक चेहरा उभारना और फिर उस पर बरसना खबर के नाम पर जारी ड्रामा या अब मेलोड्रामा का सहज हिस्सा बन गया है। सरकार भी इस नाटक के दर्शक और पाठक वर्ग की उपेक्षा नहीं कर सकती। तो उसे भी उनकी तुष्टि के लिए कुछ शब्द ज़रूर बोलने पड़ते हैं। और इस वक्त जब देश आम चुनाव के लिए तैयार हो रहा है, राजनीतिक दलों के लिए पाकिस्तान एक बड़ा मुद्दा है। सत्ताधारी कांग्रेस आसानी से इस मुद्दे पर देशभक्ति का ज्वार उभार कर वोट पाने के लालच से नहीं बच सकती।

लेकिन इस विमर्श का नुकसान यह है कि देश की जनता एक बेहद पेचीदा हालत के बारे में जानने और उसके विभिन्न पहलुओं को समझने से वंचित हो गई है। पाकिस्तान की स्थितियां जटिल हैं। कहा जा सकता है कि पाकिस्तान अपने वजूद के संकट से जूझ रहा है। उसका इतिहास और उसकी बुनियाद से जुड़े सवाल बेहद विकराल रूप में उसके सामने खड़े हैं। वह जिस इस्लाम के नाम पर बना, उसकी चरमपंथी धारा उसकी राज्य-व्यवस्था को चुनौती दे रही है। जिस अमेरिकी साम्राज्यवाद के सहारे उसकी राज्य-व्यवस्था चलती रही, उससे अब देश के आम जन मानस का गहरा अंतर्विरोध खड़ा हो गया है। देश की असली सत्ता किसके हाथ में है, यह समझ पाना मुश्किल है।

यह परिस्थिति विस्फोटक रूप भी ले सकती है। अमेरिका और पश्चिमी देश इसके खतरे से कहीं बेहतर वाकिफ नजर आते हैं। लेकिन हालात को संभावने के सूत्र उनके हाथ में भी नहीं हैं। एक बड़ी आबादी वाला देश, जिसके पास परमाणु हथियार हों, लेकिन जिसकी सत्ता का ढांचा बिखरता हुआ दिखे और जहां धार्मिक कट्टरपंथी आतंकवाद तेजी से पांव फैला रहा हो, इसके परिणामों के बारे में सोचना भी डरावना है। मगर हर जिम्मेदार अंतरराष्ट्रीय ताकत को आज इसके बारे में सोचना पड़ रहा है।
अगर ऐसी सोच का कहीं अभाव दिखता है तो वह भारत ही है। हमारे विमर्श में पूरा पाकिस्तान एक इकाई है। और सारा पाकिस्तान भारत का दुश्मन है। लेकिन इस विमर्श में यह कोई नहीं बताता कि आखिर इस दुश्मन से कैसे निपटा जा सकता है? मीडिया और सियासतदां की जुबानी जंग को क्या असली जंग में बदला जा सकता है? क्या भारत सचमुच पाकिस्तान के परमाणु हथियारों की अनदेखी कर पाकिस्तान से युद्ध का जोखिम मोल ले सकता है? या भारत के पास इस जटिल स्थिति से निकलने का कोई और भी विकल्प है?

अगर हम पिछले दो दशकों के विकासक्रम को समझने और मीडिया के मार्केट नैरेटिव (दर्शक या पाठक बढ़ाने की बाजार रणनीति) से निकल कर आगे देखने की क्षमता रखते हों, तो दूसरे विकल्प जरूर नजर आ सकते हैं। पाकिस्तान की बुनियाद और पहचान भले भारत विरोध के आधार पर खड़ी हुई हो, लेकिन पाकिस्तान की आज पीढ़ी ऐसी एकरूप सोच से नहीं चलती है। वहां चलने वाली बहस देश के भीतर देश के बुनियादी मुद्दों पर तेज होते अंतर्विरोधों की झलक देते हैं। जरूरत इस बारीकी को समझने की है। लेकिन भारत में इस समझ का साफ अभाव नजर आता है।

सवाल यह है कि आखिर हम चाहते हैं क्या हैं? हमारा लक्ष्य पाकिस्तान को नष्ट करना या उसकी परेशानियों पर खुश होना है, या हम शांति और प्रगति की ऐसी परिस्थितियां बनाना चाहते हैं, जिसमें पूरा दक्षिण एशिया और प्रकारातंर में पूरी दुनिया मानव विकास एवं स्वतंत्रता के उच्चतर स्तर हासिल कर सके? अगर हमारा लक्ष्य दूसरा है तो हमें पाकिस्तान के हालात को बारीकी से समझना चाहिए। वहां कट्टरपंथ और सिविल सोसायटी के बीच के अंतर्विरोधों को समझना चाहिए। वहां के सत्ता ढांचे के अंतर्विरोधों पर गौर करना चाहिए। और इनके बीच हमें ऐसी नीतियां अपनानी चाहिए, जिससे वहां प्रगति और स्थिरता की ताकतों को बल मिले।

अगर पाकिस्तान ने मुंबई हमले की शुरुआती जांच गंभीरता से की तो इसके पीछे मंसूबे तलाशने के बजाय उसे खुले दिल से हमें स्वीकार करना चाहिए। अगर इससे पाकिस्तन सरकार के साथ आतंकवाद के मुद्दे पर सहयोग का कोई रास्ता निकलता है, तो उस पर चलने से भारत सरकार को नहीं हिचकना चाहिए। कट्टरपंथ और आतंकवाद दो ऐसे खतरे हैं, जिनके खिलाफ एकजुटता की आज बेहद जरूरत है। लेकिन यह एकजुटता दोमुंहेपन के साथ नहीं बन सकती। स्वात घाटी के तालिबान और भारत की राम, बजरंग और शिवसेनाओं के प्रति रुख में फर्क के साथ ये लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती। पाकिस्तान के राष्ट्रपति अगर आज देश पर तालिबान के कब्जे का अंदेशा जताते हैं, तो हमें इस खतरे से भी आगाह रहना चाहिए कि कभी भारत में भी संघ परिवार के कब्जे का खतरा पैदा हो सकता है।

दरअसल, आतंकवाद से संघर्ष में जितनी भूमिका सुरक्षा और खुफिया तंत्र की है, उससे कहीं ज्यादा विचारों और राजनीतिक नीतियों की है। लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि राजनीतिक दलों को इस लड़ाई में जैसा नेतृत्व देना चाहिए, वो नहीं दे रहे हैं। बल्कि उन्होंने आतंकवाद पर सारे विमर्श को संकीर्ण दायरे में समेट दिया है। यही भूमिका मीडिया भी निभा रहा है। पाकिस्तान को दैत्य के रूप में पेश करना और उसमें अंतर्निहित सांप्रदायिक मनोभावों का शोषण कर फायदा उठाना एक आसान रास्ता बना हुआ है। लेकिन यह रास्ता हमें अपने लक्ष्यों की तरफ नहीं ले जाता है। इसीलिए भारत को आज अपने पाकिस्तान विमर्श पर अनिवार्य रूप से पुनर्विचार करना चाहिए।

Saturday, February 7, 2009

कांग्रेस का आत्म-ध्वंस


सत्येंद्र रंजन
कांग्रेस का फैसला है कि वह अगले आम चुनाव में यूपीए गठबंधन के रूप में मैदान नहीं उतरेगी, बल्कि राज्यों के स्तर पर सिर्फ चुनावी समझौते करेगी। पार्टी दूसरा संकेत यह दे रही है कि वह फिर से मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के रूप में पेश करेगी। ये दोनों फैसले सिर्फ इस बात की ही मिसाल हैं कि कांग्रेस के नेता जिस जनादेश के आधार पर पिछले पांच साल से केंद्र में सत्ता का सुख भोग रहे हैं, उसे समझने में वे नाकाम हैं। या यह कहा जा सकता है कि अहंकार उन्हें उस जनादेश का मतलब और देश के राजनीतिक यथार्थ को समझने नहीं दे रहा है। २००४ में कांग्रेस की सत्ता में वापसी का रास्ता भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार के सांप्रदायिक और धुर दक्षिणपंथी एजेंडे के खिलाफ आम लोगों के आक्रोश से तैयार हुआ था। तब कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने एनडीए के खिलाफ एक ऐसा गठबंधन तैयार करने में अहम भूमिका निभाई थी, जो जनता के उस आक्रोश का वाहक बना।

भाजपा फिर उसी सांप्रदायिक और धुर दक्षिणपंथी एजेंडे के साथ चुनाव में उतरने को तैयार है। देश का व्यापक जनमत आज भी उस खतरे को समझता है और इसी वजह से मध्यमार्गी-धर्मनिरपेक्ष विकल्प के लिए स्थितियां काफी हद तक अनुकूल नज़र आती हैं। लेकिन कांग्रेस नेता इस तकाज़े को समझने में बिल्कुल अक्षम नजर आते हैं। उन्हें यह साधारण सी बात समझ में नहीं आती कि आज की परिस्थिति में ऐसा विकल्प कांग्रेसे अकेले नहीं बन सकती। वह महज उन दलों और ताकतों का नेतृत्व कर सकती है. जो आपस में मिलकर ऐसा विकल्प तैयार करते हैं।

शायद कांग्रेस नेताओं ने नवंबर के विधानसभा चुनावों के नतीजे का गलत निष्कर्ष निकाला है। यह ठीक है कि दिल्ली में कांग्रेस को आश्चर्चजनक जीत मिली और भाजपा का आतंकवाद का मुद्दा सिरे से नाकाम रहा, लेकिन यह किसी भी रूप में कांग्रेस के पक्ष में देश में चल रही किसी लहर का संकेत नहीं है। आखिर भाजपा मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में एंटी इन्कंबेंसी के पहलू को बेअसर करने में सफल रही और राजस्थान में भी कांग्रेस तमाम अनुकूल स्थितियों के बावजूद पूर्ण बहुमत हासिल नहीं कर सकी। इसलिए इन चुनाव नतीजों पर आह्लादित होने के बजाय कांग्रेस नेताओं के लिए इन्हें एक चुनौती के रूप में लेना ज्यादा उचित होता। जाहिर है, ऐसे में गठबंधन के महत्त्व के समझने औऱ मौजूदा गठबंधन के दलों के बीच पूरे तालमेल की जमीन तैयार करने की जिम्मेदारी कांग्रेस नेतृत्व को अपने कंधे पर लेनी चाहिए थी। लेकिन वे उलटे रास्ते पर चलते नजर आ रहे हैं।

देश के प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष खेमे में २००४ में उभरी आम सहमति को कांग्रेस अमेरिका से परमाणु करार के मुद्दे पर पहले ही तोड़ चुकी है। उसने इस मुद्दे पर वामपंथी दलों से नाता तोड़ लिया, जो आम सहमति का खास हिस्सा थे। बल्कि इस आम सहमति को विश्वसनीय और उद्देश्यपूर्ण बनाने में सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका वामपंथी दलों की ही थी। अब मनमोहन सिंह को फिर से अपना नेता बता कर कांग्रेस वामपंथी दलों से अपनी दूरी और बढ़ाने पर आमादा नजर आ रही है।

मनमोहन सिंह ने जिस तरह अमेरिका से परमाणु करार को अपनी प्रतिष्ठा का मुद्दा बनाया और उसे अंजाम तक पहुंचाने के लिए जिस रास्ते पर चले, उसके बाद देश के प्रगतिशाली समूहों में उनके लिए कोई सम्मान नहीं बचा है। खासकर सरकार के लिए बहुमत जुटाने के लिेए जिस तरह के तिकड़मों का सहारा लिया गया और राजनीतिक भ्रष्टाचार का जैसा खुला खेल हुआ, उसके बाद उनकी अपनी निजी छवि भी पहले जैसी नहीं बची। आज यह शायद ही कोई मानता हो कि मनमोहन सिंह एक टेक्नोक्रेट प्रधानमंत्री हैं, जो आम नेताओं के कल्चर से ऊपर हैं और जिनकी अपनी छवि बेदाग है। यह मुमकिन है कि इसके बावजूद डॉ. सिंह पूंजीपतियों के प्रिय हों और देश के उच्च मध्यम और मध्य वर्ग का एक बड़ा हिस्सा उन्हें बाकी नेताओं से बेहतर मानता हो, लेकिन हकीकत यही है कि इस देश की राजनीतिक तस्वीर ये तबके तय नहीं करते। वैसे भी ये तबके कांग्रेस से ज्यादा भाजपा का समर्थन आधार हैं।

अपने सहयोगी दलों, और व्यापक रूप से अपने समर्थन आधार का निरादर कर कांग्रेस ने देश में राजनीतिक अस्थिरता की स्थिति पैदा दी है। उसके इस नजरिए से यूपीए के कई घटक दल चुनाव बाद के अपने विकल्पों पर अभी से सोचने लगे हैं। उधर वामपंथी दलों के पास कांग्रेस और भाजपा से अलग तीसरे विकल्प की संभावना तलाशने के अलावा कोई और चारा नहीं बचा है। दुर्भाग्य यह है कि इस तीसरे विकल्प के साथ भी ऐसे दल हैं, जिनकी अपनी निष्ठा संदिग्ध है। मायावती हों या जयललिता या फिर एचडी देवेगौड़ा अथवा चंद्रबाबू नायडू, ये सभी अतीत में भाजपा के सहयोगी रह चुके हैं। भविष्य में ये फिर उसी तरह का सहयोग भाजपा से नहीं करेंगे, इसकी कोई गारंटी नहीं है। जाहिर है, इसके साथ एक फौरी ताकत तो बनाई जा सकती है, लेकिन धर्मनिरपेक्षता और प्रगतिशील नीतियों के आधार पर कोई भरोसेमंद विकल्प तैयार नहीं किया जा सकता।
ऐसे में अपना बहुमत न मिलने के बावजूद चुनाव के बाद भाजपा नेतृत्व वाली सरकार बन जाने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। या फिर संयुक्त मोर्चा जैसे अस्थिर प्रयोगों की गुंजाइश भी निकल सकती है। लेकिन ऐसे प्रयोग का हश्र देश पहले भी देख चुका है, और उसका दोहराव देश के लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष एवं प्रगतिशील समूहों में सिर्फ असहाय होने का भाव ही पैदा करेगी।

यूपीए ने कोई ऐसा शासन नहीं दिया जिसकी सकारात्मक कसौटियों पर तारीफ की जाए। राष्ट्रीय रोजगार गारंटी कानून, सूचना का अधिकार कानून और आदिवासी एवं अन्य वनवासी भू-अधिकार कानून जैसी कुछ पहल का श्रेय इसे है, लेकिन यह कितनी अनिच्छा से हुआ और अमल में कैसी ढिलाई बरती गई, वह भी देश के सामने है। अपनी अभिजात्यवादी आर्थिक और विदेश नीतियों से यूपीए सरकार ने देश के बहुत से तबकों को नाराज किया। और आखिरकार मनमोहन सिंह की सरकार बचाने के लिए तमाम अनैतिक तरीकों का सहारा लेते हुए पिछले जुलाई सत्ताधारी गठबंधन ने बचा-खुचा ऐतबार भी खो दिया।

इसके बाद इसके पास एक ही थाती बची, और वह इसके सहयोगी दल हैं। लेकिन अपनी नासमझी और अहंकार में वह इन्हें भी गंवाने को तैयार है। ठीक उसी तरह जैसे एक जड़विहीन प्रधानमंत्री की जिद को पूरा करने के लिए उसने वामपंथी दलों के सिद्धांतनिष्ठ समर्थन को गंवा दिया। निष्कर्ष यही है कि सोनिया गांधी ने २००४ की अपनी भूमिका से अपनी जो आदरणीय छवि बनाई थी, पिछले कुछ महीनों से खुद ही वो लगातार उसका ध्वंस कर रही हैं। और इससे उन्हीं ताकतों के लिए बेहतर स्थितियां बन रही हैं, जिनके खिलाफ पहल कर उन्होंने अपने और अपनी पार्टी के लिए नई प्रासंगिकता और राजनीतिक वैधता हासिल की थी।